बलिदान दिवस:अंग्रेजों ने कराई थी महर्षि दयानन्द सरस्वती की हत्या 

महर्षि दयानन्द सरस्वती (१८२४- १८८३) आधुनिक भारत के चिन्तक तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम ‘मूलशंकर’ था। ‘वेदों की ओर लौटो’ यह उनका ही दिया हुआ प्रमुख नारा था । उन्होंने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म तथा सन्यास को अपने दर्शन के स्तम्भ बनाये। उन्होंने ही सबसे पहले १८७६ में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया। बाद में लोकमान्य तिलक ने इसे आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजों को यह निर्देश भिजवाया कि सब सदस्य अपना धर्म ‘सनातन धर्म’ लिखवाएं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती
जन्म का नाम मूलशंकर
जन्मतिथि 12 फ़रवरी 1824
टंकारा, गुजरात
मृत्यु 30 अक्टूबर 1883,अजमेर
राजस्थान
गुरु/शिक्षक स्वामी विरजानन्द दण्डीश
धर्म सनातन
दर्शन-वेदों की ओर चलो, आधुनिक भारतीय दर्शन
राष्ट्रीयता भारतीय
दयानन्द सरस्वती का जन्म फाल्गुन दशमी, विक्रमी संवत् 1881 तदनुसार 12 फरवरी, 1824 ई. को टंकारा में हुआ था जो वर्तमान में गुजरात के राजकोट जिले में आता है। उस समय यह मोरबी रियासत में था। उनके पिता का नाम श्रीकर्षणजी और माँ का नाम यशोदा बाई था। उनके पिता कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण कुल के समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनका जन्म राशि और मूल नक्षत्र में होने से स्वामी दयानन्द सरस्वती का बाल्यावस्था में नाम मूलशंकर रखा गया। उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। दयानंद सरस्वती की माता वैष्णव थीं जबकि उनके पिता शैव मत के अनुयायी थे। आगे चलकर विद्वान बनने वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।

महाशिवरात्रि को बोध
शिव के पक्के भक्त बालक मूलशंकर को उनके पिता ने महाशिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने को कहा। शिव मंदिर में रात्रि में बालक ने चूहों को शिव लिंग पर उत्पात मचाते देखा तो उसको बोध हुआ कि यह वह शंकर नहीं है जिसकी कथा उसे सुनाई गई थी। इस के बाद मूलशंकर मन्दिर से घर चला गया और उसके मन में सच्चे शिव के प्रति जिज्ञासा उठी।

गृह त्याग
अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता-पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (१९वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े।

ज्ञान की खोज
फाल्गुन कृष्ण संवत् 1846 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु स्वामी विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी—मनुष्यकृत ग्रंथों में ईश्वर और ऋषियों की निंदा है, ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात

स्वामी दयानन्द सरस्वती।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। वे कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिन्दी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था, मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।


ॐ ओ३म को आर्य समाज में ईश्वर का सर्वोत्तम और उपयुक्त नाम माना जाता है
महर्षि दयानन्द ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932(सन् 1875) को गिरगांव मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।वैचारिक आन्दोलन, शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान

वेदों को छोड़ कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है – इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना प्रारम्भ किया और जहां-जहां वे गये प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धाराप्रवाह बोलते थे। साथ ही वे प्रचण्ड तार्किक थे।

उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मग्रन्थों का भली-भांति अध्ययन-मन्थन किया था। अतएव अपनें चेलों के संग मिल कर उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरंभ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे किन्तु तीसरा मोर्चा सनातनधर्मी हिन्दुओं का था। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी, उसका कोई जवाब नहीं था।

समाज सुधार के कार्य
महर्षि दयानन्द का समाज सुधार में व्यापक योगदान रहा। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों व पाखण्डों का खण्डन व विरोध किया।

सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के उद्देश्य से आये थे। इसका कारण था कि कुम्भ के मेले में हिन्दू स्त्री-पुरुष और साधु लाखों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यें समझते हैं कि कुम्भ के मेले पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को दुःखों व जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। हरिद्वार में उन्होंने देखा कि साधु और पण्डे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने के स्थान पर उन्हें पाखण्ड की शिक्षा देकर लूट रह हैं। उन्होंने पाया कि संसार सत्य धर्म पर चलने के स्थान पर अज्ञान के गहरे गड्ढ़े में गिर रहा है। हरिद्वार में इन दृश्यों को देखकर स्वामी दयानन्द को गहरी चोट लगी। उन्होंने पाया कि इन कृत्यों से लोग दुःखों से छूटने के स्थान पर दुःखों के सागर में डूब रहे हैं। अतः उन्होंने साधुओं और पण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने छोटे से निवास-स्थान के आगे एक पताका पर ‘पाखण्ड-खण्डिनी पताका’ लिखकर गाड़ दिया और अपने विचारों को व्याख्यान के रूप में प्रकट करने लगे। उस समय तक लोगों ने किसी संन्यासी के मुख से मूर्ति-पूजा का विरोध, श्राद्धों का निराकरण, अवतारों में विश्वास, पुराणों का काल्पनिक होना आदि बातें नहीं सुनी थी, इसलिए इस दृश्य को विस्मयपूर्वक देखते थे। कुछ लोग इसे कलिकाल का एक लक्षण बतलाते थे। कुछ पंडित नामधारी स्वामी जी को ‘नास्तिक’ की पदवी भी देने लग जाते थे। कुछ पंडितों और साधुओं ने स्वामी जी के विरुद्ध भाषण देना आरंभ कर दिया और वे उन्हें तरह-तरह की गालियाँ देने लगे। पर स्वामी जी अपने काम में संलग्न रहे। कई पंडित और साधु उनके स्थान पर वाद-विवाद करने भी आते थे, पर उनकी युक्तियुक्त बातों से निरुत्तर होकर चले जाते थे। स्वामीजी सबसे यही कहते थे कि हर की पैड़ी पर नहाने से पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो, अच्छे काम करो, इसी से सुख और मोक्ष मिलेगा। सद्ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और सच्चे धर्मात्माओं की संगति ही सच्चा तीर्थ होती है।

उनके ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश ने समाज को आध्यात्म और आस्तिकता से परिचित कराया। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे।

सामाजिक कुरीतियों का विरोध

जन्मना जातिवाद
छुआछूत
बाल विवाह
बहुविवाह
सती प्रथा
मृतक श्राद्ध
पशु बलि
नर बलि
पर्दा प्रथा
देवदासी प्रथा
वेश्यावृत्ति
शवों को दफनाना या नदी में बहाना
मृत बच्चों को दफनाना
समुद्र यात्रा का निषेध का खंडन
समाज सुधार के कार्य

गुण-कर्म-स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन
शुद्धि आन्दोलन
दलितोद्धार
विधवा विवाह
अंतरजातीय विवाह
सर्व शिक्षा अभियान
नारी सशक्तिकरण
नारी को शिक्षा का अधिकार
सबको वेद पढ़ने का अधिकार
गुरुकुल शिक्षा
प्रथम सनातन अनाथालय की स्थापना
प्रथम गौशाला की स्थापना
स्वदेशी आन्दोलन
हिंदी भाषा का समर्थन
हत्या के षड्यन्त्र
1863 में गुरु विरजानंद के पास अध्ययन पूर्ण होने के बाद लगभग बीस वर्षों के कार्यकाल में दयानंद सरस्वती की हत्या व अपमान के लगभग 44 प्रयास हुए। जिसमें से 17 बार विभिन्न माध्यमों से विष देकर प्राणहरण के प्रयास हुए। कहते हैं कि लाभ- हानि जीवन- मरण जश अपयश विधि हाथ लेकिन फिर भी इनकी मृत्यु नहीं हुई।

अंतिम प्रयास
स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अंग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। स्वामी जी की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदा कदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठ कर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इस से नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन को पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी संदेह की परिधि में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी का स्वास्थ्य बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बहकाने का कार्य अंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।

अंतिम शब्द
महर्षि की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 में अजमेर में हुई थी। स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द का शरीर सन् 1883 में दीपावली के दिन पंचतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् – अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ। उनके अन्तिम शब्द थे – “प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।”

जीवनचरित का लेखन
महर्षि के साहित्य के साथ-साथ उनका जीवन चरित भी अत्यन्त प्रेरणास्पद है। महर्षि पर अनेक व्यक्तियों ने जीवन चरित्र लिखा, जिनमें पण्डित लेखराम, सत्यानन्द आदि प्रमुख हैं। किन्तु बंगाली सज्जन बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के बंगाली भाषा में लिखे गए ‘दयानन्द चरित’ की यह विशेषता है कि देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय स्वयं आर्यसमाजी नहीं थे फिर भी अत्यन्त श्रद्धावान होकर उन्होनें 15-16 वर्ष लगातार और सहस्रों रुपया व्यय करके ऋषि जीवन की सामग्री को एकत्र करके उन्होने महर्षि की प्रामाणिक और क्रमबद्ध जीवनी को लिखा। इस जीवनी के लेखन का कार्य दैवयोग से पूर्ण नहीं हो पाया तथा देवेन्द्रनाथ की असामयिक मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् पंडित लेखराम और सत्यानन्द की संग्रहित सामग्री की सहायता से पंडित घासीराम ने इसे पूर्ण किया। यह महर्षि की अत्यन्त प्रामाणिक जीवनी है।

पण्डित लेखराम का अनुसंधान विशेषकर पंजाब, संयुक्त प्रांत और र राजस्थान तक ही सीमित रहा। मुम्बई और बंगाल प्रान्त में न उन्होने अधिक भ्रमण किया और न अधिक अनुसन्धान किया, अत: इन दोनों प्रान्तों की घटनाओं का उनके ग्रन्थ में उतना विशद वर्णन नहीं है जितना पंजाब और संयुक्त प्रांत तथा राजस्थान की घटनाओं का है। देवेन्द्रनाथ के ग्रन्थ में मुम्बई और बंगाल का भी विस्तृत वर्णन है।

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार
डॉक्टर भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द सनातन पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।
श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए’ की घोषणा की।
सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।
फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने को हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।
स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने “स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द ”
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने “आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता” माना।
अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने “आदि शंकराचार्य के बाद “बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक” माना।
सैयद अहमद खां के शब्दों में “स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।”
वीर सावरकर ने कहा महर्षि दयानन्द संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।
लाला लाजपत राय ने कहा – स्वामी दयानन्द ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया।
लेखन व साहित्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें अपने जीवन काल में लिखीं। प्रारम्भिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किन्तु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिन्दी) में भी लिखा, क्योंकि आर्यभाषा की पहुँच संस्कृत से अधिक थी। हिन्दी को उन्होंने ‘आर्यभाषा’ का नाम दिया था। उत्तम लेखन के लिए आर्यभाषा का प्रयोग करने वाले स्वामी दयानन्द अग्रणी व प्रारम्भिक व्यक्ति थे। यदि ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रंथों व विचारों ( यद्यपि ये विचार ऋषि के स्वयं द्वारा निर्मित थे अपितु वेद प्रदत्त थे ) पर चला जाये तो राष्ट्र पुनः विश्वगुरु गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्मम्पन्नशाली, सदाचारी और महान बन जाये।

स्वामी दयानन्द सरस्वती की मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

सत्यार्थप्रकाश
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
ऋग्वेद भाष्य
यजुर्वेद भाष्य
चतुर्वेदविषयसूची
संस्कारविधि
पंचमहायज्ञविधि
आर्याभिविनय
गोकरुणानिधि
आर्योद्देश्यरत्नमाला
भ्रान्तिनिवारण
अष्टाध्यायीभाष्य
वेदांगप्रकाश
संस्कृतवाक्यप्रबोधः
व्यवहारभानु
सत्यार्थ प्रकाश
सत्यार्थ प्रकाश स्वामी दयानंद की सर्वोत्तम कृति है। यह 14 समुल्लासों में रचा गया है। इसके प्रथम दस समुल्लासों में सनातन वैदिक धर्म का प्रतिपादन किया गया है और अंतिम चार समुल्लासों में देशी-विदेशी मत मतान्तरों की समीक्षा की गई है।

आर्योद्देश्यरत्नमाला
1873 में आर्योद्देश्यरत्नमाला नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें स्वामी जी ने एक सौ शब्दों की परिभाषा वर्णित की है। इनमें से कई शब्द आम बोलचाल में आते हैं पर उनके अर्थ रूढ हो गए हैं, उदाहरण के लिए ईश्वर धर्म-कर्म आदि। इनको परिभाषित करके इनकी व्याख्या इस पुस्तक में है। इस लघु पुस्तिका में 8 पृष्ठ हैं।

गोकरुणानिधि
1881 में स्वामी दयानन्द ने गोकरुणानिधि नामक पुस्तक प्रकाशित की जो कि गोरक्षा आन्दोलन को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाने का श्रेय भी लेती है। इस पुस्तक में उन्होंने सभी समुदाय के लोगों को अपने प्रतिनिधि सहित गोकृष्यादि रक्षा समिति की सदस्यता लेने को कहा है जिसका उद्देश्य पशु व कृषि की रक्षा है। आधुनिक पर्यावरणवादियों के समान यहाँ विचार व्यक्ति किए गए हैं। इस पुस्तक में समीक्षा, नियम व उपनियम हैं, तथा प्रमुखतः पशुओं को न मार कर उनका पालन करने में होने वाले लाभ वर्णित किए गए हैं।

व्यवहारभानु
वैदिक यन्त्रालय, बनारस द्वारा 1880 में व्यवहारभानु पुस्तक प्रकाशित की गई थी। इसमें धर्मोक्त और उचित व्यवहार के बारे में वर्णन है।

स्वीकारपत्र
27 फ़रवरी 1883 को उदयपुर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक स्वीकारपत्र प्रकाशित किया था जिसमें उन्होंने अपनी मृत्योपरान्त 23 व्यक्तियों को परोपकारिणी सभा की जिम्मेदारी सौंपी थी जो कि उनके बाद उनका काम आगे बढ़ा सकें। इनमें महादेव गोविन्द रानडे का भी नाम है। इस स्वीकारपत्र पर 23 गणमान्य व्यक्तियों के साक्षी के रूप में हस्ताक्षर हैं। इसके प्रकाशन के कुछ छः माह पश्चात ही उनका देहान्त हो गया था।

संस्कृतवाक्यप्रबोधः
यह संस्कृत सिखाने वाली लघु वार्तालाप पुस्तिका है। विभिन्न विषयों पर लघु वाक्य संस्कृत में दिये गये हैं। उनके अर्थ भी हिन्दी में दिए हैं।

सम्पूर्ण कृतियों की सूची
सन्ध्या (अप्राप्य) (1863)
भागवत खण्डन या पाखण्डखण्डन या वैष्णवमतखण्डन (1866) जिसमें श्रीमद्भागवत् का खण्डन किया गया है।
अद्वैतमत खण्डन जिसमें अद्वैत वेदान्त का खण्डन किया गया है।
पञ्चमहायज्ञ विधि (1874 & 1877)
सत्यार्थ प्रकाश (1875 & 1884)
वेदान्ती ध्वन्त निवारण (1875) जिसमें वेदान्त दर्शन की आलोचना की गयी है।
वेदविरुद्धमतखण्डन या वल्लभाचार्य मत खण्डन (1875) जिसमें शुद्धाद्वैत दर्शन का खण्डन किया गया है।
शिक्षापत्री ध्वन्त निवारण या स्वामिनारायण मत खण्डन (1875) जिसमें शिक्षापत्री की आलोचना की गयी है।
वेद भाष्यम नमूने का प्रथम अंक (1875)
वेद भाष्यम नमूने का द्वितीय अंक (1876)
आर्यभिविनय (अपूर्ण) (1876)
संस्कारविधि (1877 & 1884)
आर्योद्देश्यरत्नमाला (1877)
ऋग्वेदभाष्यभूमिका (1878)
ऋग्वेद भाष्यम् (7/61/1, 2 केवल) (अपूर्ण) (1877 से 1899)
यजुर्वेदभाष्यम् (पूर्ण) (1878 से 1889)
अष्टाध्यायी भाष्य (2 भागों में) (अपूर्ण) (1878 से 1879)
वेदाङ्गप्रकाश (१६ भागों में)
वर्णोच्चारण शिक्षा (1879)
संस्कृतवाक्यप्रबोधिनी (1879)
व्यवहारभानु (1879)
सन्धि विषय
नामिक
कारक
सामासिक
तद्धित
अव्ययार्थ
आख्यातिक
सौवर
पारिभाषिक
धातुपाठ
गणपाठ
उणादिकोश
निघण्टु
गौतम-अहिल्या की कथा (अप्राप्य) (1879)
भ्रान्तिनिवारण (1880)
भ्रमोच्छेदन (1880)
अनुभ्रमोच्छेदन (1880)
गोकरुणानिधि (1880) जिसमें स्वामी जी ने भारत में गोहत्या पर अपने विचार रखे हैं।
चतुर्वेद विषयसूची (1971)
गर्दभ ताप्नी उपनिषद (बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के अनुसार) (अनुपलब्ध)
हुगली शास्त्रार्थ तथा प्रतिमा-पूजन विचार (1873) – इसमें बंगाल के पण्डितों के साथ मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ का विवरण है।
जालन्धर शास्त्रार्थ (1877)
सत्यासत्य विवेक (बरेली शास्त्रार्थ) (1879)
सत्यधर्म विचार (मेला चन्दपुर) (1880) – शाहजहाँपुर जिला के चन्दपुर में स्वामी जी के मुसलमानों एवं ईसाइयों से शास्त्रार्थ का विवरण।
काशी शास्त्रार्थ (1880) – काशी के पण्डितों के साथ स्वामी जी के शास्त्रार्थ का विवरण
अन्य शास्त्रार्थों के लिये ये पढें-
दयानन्द शास्त्रार्थ संग्रह (आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित)
ऋषि दयानन्द के शास्त्रार्थ एवं प्रवचन (रामलाल कपूर ट्रस्ट सोनीपत, हरियाणा से प्रकाशित)
आर्यसमाज के नियम और उपनियम (30 नवम्बर 1874)
उपदेशमञ्जरी (पूना प्रवचन) (4 जुलाई 1875)
स्वामी दयानन्द द्वारा स्वकथित जन्मचरित (पूना प्रवचन के दौरान) (4 अगस्त 1875) – इसमें स्वामी जी द्वारा अपने आरम्भिक जीवनचरित के बारे में अपने अनुयायियों से कही गयी बातें हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जीवनचरित
स्वामी दयानन्द द्वारा स्वकथित जन्मचरित, थियोसोफिस्ट सोसायटी के मासिक पत्रिका (नवम्बर और १ दिसम्बर) के लिये
ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन
२००वीं जयन्ती

भारत सरकार ने दयानन्द सरस्वती की स्मृति में १९६२ में एक डाक टिकट जारी किया।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती के उपलक्ष्य में साल भर चलने वाले समारोह का उद्घाटन किया। उन्होंने स्मरणोत्सव के लिए एक प्रतीकचिह्न  भी जारी किया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती के द्वितीय जन्म शताब्दी 12 दिवसीय समारोह का आयोजन १ फरवरी, २०२५ से ब्रहमसरोवर के योग भवन पर होगा। 12 दिवसीय कार्यक्रम के माध्यम से महर्षि दयानंद के विचारों व चिंतन को पूरी दुनिया तक पहुंचाया जाएगा।[8]

सन्दर्भ
Swami Dayanand Saraswati: The saint who declared ‘Swaraj’
महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती
स्वामी दयानंद सरस्वती जी और उनका समाज के प्रति योगदान
भारतीय पुनर्जागरण के नायक महर्षि दयानन्द सरस्वती
Bhagwat Khandan – Swami Dayanand Saraswati. अभिगमन तिथि: 14 January 2016 – via Internet Archive.
Maharshi Dayanand Jivan Charitra
प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती के समारोह का उद्घाटन किया
महर्षि दयानंद सरस्वती की द्वितीय जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन एक फरवरी से
आर्य समाज
सत्यार्थ प्रकाश
स्वामी श्रद्धानन्द
हिन्दू धर्म
ऋग्भाष्य-पदार्थ-कोष
परोपकारिणी सभा
बाहरी कड़ियाँ
विकिसूक्ति पर स्वामी दयानन्द सरस्वती से सम्बन्धित उद्धरण हैं।

विकिस्रोत पर इनके या इनके बारे में मूल लेख उपलब्ध है:
स्वामी दयानंद सरस्वती
आधिकारिक वेबसाइट
महर्षि दयानन्द सरस्वती साहित्य कोष सर्च-इंजन Archived 2021-06-13 at the वेबैक मशीन
समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द (राजश्री कासलीवाल)
महर्षि दयानन्द लिखित व प्रकाशित ग्रन्थों पर एक दृष्टि (मनमोहन आर्य)
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
यजुर्वेद भाष्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित (लेखक – बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय)

शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी (1856-1926)
परोपकारिणी सभा
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित एक सभा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *