नाव, नौका : भारतीयों का मत

थल के बाद जल को आवागमन योग्य माना गया तो बांसों को बांधकर बेड़े चलाए गए। नाव भी अनूठी खोज है। नावों का विवरण वेदों में मिलता है :

दुर्गाणि विश्‍वा नावेव सिन्‍धुम्

बौधायनधर्मसूत्र में जिक्र इस तरह आया है :

समुद्र संयानम्। नावाद्वीपान्‍तरगमनम्।

यों तो नाव का जिक्र गीता में भी है और पवन के जोर से नाव के शीघ्र हर लिए जाने के उदाहरण के रूप में है किंतु अच्‍छा विवरण वराह‍पुराण में है जहां समुद्रमार्ग से नावों में आने वाले बहुमूल्‍य रत्‍नों का संदर्भ मिलता है। चोलों ने जब समुद्री मार्ग से सैन्‍य अभियान किया तो नौशक्ति काे बढाया गया था। सार्थों ने भी नावों का व्‍यापार के लिए प्रयोग किया…। कई संदर्भ खोजे जा सकते है।

सोमेश्वर ने नौका, नौका चालक, वेला तट, यात्री, तारक आदि का अनेक बार स्मरण किया है। भोजराज विरचित ‘युक्तिकल्‍पतरु’ में इसको निष्‍पद अर्थात् पांव रहित यान कहा गया है और पारिभाषित रूप मेंं कहा कि अश्‍व आदि सारे यान पांवों वाले होते हैं किंतु नौका पानी पर ही संचालित होती है :
अश्‍वादिकन्‍तु यद्यानं स्‍थले सर्व प्रतिष्ठितम्।
जले नौकेव यानं स्‍यादतस्‍तां यत्‍नतो वहेत्।।

ग्रंथकार ने अनेक प्रकार की नावों का जिक्र किया है जो छोटी से लेकर बड़ी तक होती है। उनके नाम भी रखे जाते थे। मध्‍यकाल में एक दौर वह भी आया जबकि वाहन के रूप मे डोला, सुखासन, पालकी, रथ-स्‍यंदन के साथ नाव काे भी एक प्रमुख वाहन के रूप में स्‍वीकारा गया। इसी काल में नावों का कुछ ज्‍यादा ही महत्‍व बढ़ा तो मुहूर्त ग्रंथों में नौका प्रयाण, नौका घटन आदि के मुहूर्त भी तय किए गए। इनमें महाराष्‍ट्र के नांदी गांव के केशव दैवज्ञ और टापर गांव के नारायण दैवज्ञ के मुहूर्त तत्‍वम् और मुहूर्त मार्तण्‍ड मुख्‍य हैं। इस समय यमुना में सबसे अधिक नौका यात्रा होती थी : दिल्ली आदि से प्रयाग और आगे गमन के अनेक संदर्भ मैंने पढ़े हैं।

शिल्‍परत्‍नम् में भी नौका निर्माण की विधि आई है और कहा गया है कि लाकुच नामक पेड़ के काष्‍ठ के फलकों से नाव को बनाया जाए और उसको उपवल्‍कल से व‍ेष्टित करना चाहिए। यह लम्‍बाई वाली हो और बांस, आम आदि के काष्‍ठों का गोलाकारीय रचना में प्रयोग किया जाना चाहिए। इसको बांधने के लिए चमड़े की रस्सियों का प्रयोग किया जाना चाहिए और जलचर की तरह उसकाे तैराया जाना चाहिए :

पिनद्धश्‍चर्मणा बाह्ये प्‍लवकोsयं जलेचर:।

( शिल्परत्नम : श्रीकृष्ण जुगनू, द्वितीय खण्ड, दूसरा भाग)

यह संयोग ही है कि यह वर्णन 16वीं सदी का है जबकि इससे पूर्व तो पुर्तगालियों के आगमन से नावाें के लिए ताे लोहे की चद्दरों का प्रयोग आरंभ हो गया था और ‘युुक्ति कल्‍पतरु’ में यह लिखा भी गया है : लौह ताम्रादि पत्रेण कान्‍तलौहेन वा तथा। दीर्घा चैवोन्‍नता चैति विशेषे द्विविधा भिदा।।

है न रोचक बात, जो ग्रंथ 16वीं सदी में लिखा गया, उसमें लोहे के प्रयोग का वर्णन नहीं है और भोजराज जिनका समय 11वीं सदी माना गया है, उनके लिखे या उनके नाम से लिखे ग्रंथ में लोह व तांबें की चद्दरों से नाव बनाने की विधि है। यही नहीं, यह भी कहा है कि लोहे वाली नावें चुंबकों से आ‍कर्षित की जा सकती है और इससे वे संकट में पड़ जाती है। विवरण कौन सा पुराना है, विचारणीय है मगर रोचक यह भी है कि निष्‍पद नावों ने हमें समुद्रमार्ग का आनंद भी कम नहीं दिया…।

नौका : कुछ रोचक संदर्भ

भोजराज विरचित ‘युक्तिकल्‍पतरु’ में इसको निष्‍पद अर्थात पांव रहित यान कहा गया है और पारिभाषित रूप मेंं कहा कि अश्‍व आदि सारे यान पांवों वाले होते हैं किंतु नौका पानी पर ही संचालित होती है :
अश्‍वादिकन्‍तु यद्यानं स्‍थले सर्व प्रतिष्ठितम्।
जले नौकेव यानं स्‍यादतस्‍तां यत्‍नतो वहेत्।।

ग्रंथकार ने अनेक प्रकार की नावों का जिक्र किया है जो छोटी से लेकर बड़ी तक होती है। उनके नाम भी रखे जाते थे। मध्‍यकाल में एक दौर वह भी आया जबकि वाहन के रूप मे डोला, सुखासन, पालकी, रथ-स्‍यंदन के साथ नाव काे भी एक प्रमुख वाहन के रूप में स्‍वीकारा गया। इसी काल में नावों का कुछ ज्‍यादा ही महत्‍व बढ़ा तो मुहूर्त ग्रंथों में नौका प्रयाण, नौका घटन आदि के मुहूर्त भी तय किए गए। इनमें महाराष्‍ट्र के नांदी गांव के केशव दैवज्ञ और टापर गांव के नारायण दैवज्ञ ने मुहूर्त तत्‍वम् और मुहूर्त मार्तण्‍ड मुख्‍य हैं।

शिल्‍परत्‍नम् में भी नौका निर्माण की विधि आई है और कहा गया है कि लाकुच नामक पेड़ के काष्‍ठ के फलकों से नाव को बनाया जाए और उसको उपवल्‍कल से व‍ेष्टित करना चाहिए। यह लम्‍बाई वाली हो और बांस, आम आदि के काष्‍ठों का गोलाकारीय रचना में प्रयोग किया जाना चाहिए। इसको बांधने के लिए चमड़े की रस्सियों का प्रयोग किया जाना चाहिए और जलचर की तरह उसकाे तैराया जाना चाहिए : पिनद्धश्‍चर्मणा बाह्ये प्‍लवकोsयं जलेचर:।

यह संयोग ही है कि यह वर्णन 16वीं सदी का है जबकि इससे पूर्व तो पुर्तगालियों के आगमन से नावाें के लिए ताे लोहे की चद्दरों का प्रयोग आरंभ हो गया था और ‘युुक्ति कल्‍पतरु’ में यह लिखा भी गया है : लौह ताम्रादि पत्रेण कान्‍तलौहेन वा तथा। दीर्घा चैवोन्‍नता चैति विशेषे द्विविधा भिदा।।

है न रोचक बात, जो ग्रंथ 16वीं सदी में लिखा गया, उसमें लोहे के प्रयोग का वर्णन नहीं है और भोजराज जिनका समय 11वीं सदी माना गया है, उनके लिखे या उनके नाम से लिखे ग्रंथ में लोह व तांबें की चद्दरों से नाव बनाने की विधि है। यही नहीं, यह भी कहा है कि लोहे वाली नावें चुंबकों से आ‍कर्षित की जा सकती है और इससे वे संकट में पड़ जाती है। विवरण कौन सा पुराना है, विचारणीय है मगर रोचक यह भी है कि निष्‍पद नावों ने हमें समुद्रमार्ग का आनंद भी कम नहीं दिया…।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

||भारतीय नौका||

भारत पर मुस्लिम आक्रमण ७वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। मार्कपोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है ‘जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर ३ से ४ हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक ६ तह तक लगायी जाती थी।‘

१५वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि ‘भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।‘

बर्थमा नामक यात्री लिखता है ‘लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।‘ समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे।

डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी ‘इंडियन शिपिंग‘ नामक पुस्तक में भारतीय जहाजो के संबंध में बहुत अच्छी जानकारी दी है।

अब एक हटकर उदाहरण देना चाहता हूँ आपको – अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है?  प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डाक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर  ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्रीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्रीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।

अब मैकाले की संतानों के मन में उपर्युक्त वर्णन पढ़कर विचार आ सकता है, कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई?

इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (१९५०) में लिखते हैं-‘पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६ सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने ‘गोघा‘ नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो १५ सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों से जहाज बनवाने को उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन्‌ १८११ में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि ‘व्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के पास एक ऐसा बड़ा जहाज था, जो ८७ वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।

सन्‌ १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है कि ‘प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।‘ बम्बई के कारखाने में १७३६ से १८६३ तक ३०० जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के ‘शाही बेड़े‘ में शामिल कर लिए गए। इनमें ‘एशिया‘ नामक जहाज २२८९ टन का था और उसमें ८४ तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन्‌ १७८१ से १८२१ तक १,२२,६९३ टन के २७२ जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।

अंग्रेजों की कुटिलता-ब्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने को दबाने बनाने लगे। सन्‌ १८११ में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि ‘भारतीय जहाजों‘ में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि  ब्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।‘ जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि ‘जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।‘

लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि ‘हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स‘ (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।‘ इस पर ब्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।

काला कानून– समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन्‌ १८१४ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को ब्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। ब्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई ब्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों के बनाए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।‘ कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन्‌ १८६३ से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने लिखा है कि ‘पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य सागर की रानी का वध कर डाला।‘ संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।

इसी तरह से कई और भारतीय विधाओं पर अतिक्रमण कर विधर्मियों ने उन्हें नष्ट करने या अपना बताने का कुत्सित प्रयास किया है… सनातनियों का परम कर्त्तव्य है की अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने हेतु तन मन धन से प्रयत्न करना प्रारंभ कर देवें।
(नोट : ये आलेख भी कॉपी पेस्ट है… बस जानकारी हेतु।)
आगे और कुछ इसमें जुड़ेंगे।
#गंगा महतो,खोपोली से

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