जयंती: मुगलों नींव हिला गये छत्रपति शिवाजी महाराज
छत्रपती शिवाजी महाराज (1630-1680 ई.) भारत के एक महान राजा एवं रणनीतिकार थे जिन्होंने 1674 ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुगल साम्राज्य से संघर्ष किया। सन् 1674 में रायगढ़ में उनका राज्यभिषेक हुआ और वह “छत्रपति” बने।छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों कि सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किये तथा छापामार युद्ध (Gorilla War) की नयी शैली (शिवसूत्र) विकसित की। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और फारसी के स्थान पर मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया।
छत्रपति शिवाजी महाराज
छत्रपति
ब्रिटिश संग्रहालय में स्थित छत्रपति शिवाजी का असली चित्र
शासनावधि:१६७४ – १६८०
राज्याभिषेक;६ जून १६७४
पूर्ववर्ती:शाहजी
उत्तरवर्ती:सम्भाजी
जन्म:१९ फरवरी १६३०,शिवनेरी दुर्ग
निधन:३ अप्रैल १६८०
भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत से लोगों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवनचरित से प्रेरणा लेकर भारत की स्वतन्त्रता के लिये अपना तन, मन धन न्यौछावर कर दिया।
शिवाजी और माता जीजाबाई
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शाहजी भोंसले कुनबी मराठा की पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ) की कोख से शिवाजी का जन्म हुआ था। शिवनेरी का दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नर नगर के पास था। बचपन माता जिजाऊ माँ साहेब के मार्गदर्शन में बीता। वह सभी कलाओं में माहिर थे, बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। शिवाजी के बड़े भाई का नाम सम्भाजी था जो अपने पिता शाहजी भोसलें के साथ ही रहते थे। शाहजी राजे की दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं। उनसे हुए पुत्र का नाम एकोजी राजे था। उनकी माता जीजाबाई जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। उनके पिता शक्तिशाली सामंत थे। शिवाजी के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओं को भली प्रकार समझने लगे थे। शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियां तोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया। छत्रपति शिवाजी का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निंबाळकर से लाल महल, पुणे में हुआ था।
8 पत्नियां
समय की मांग के अनुसार तथा मराठा सरदारों को एकछत्र के नीचे लाने को महाराज को 8 विवाह करने पडे़।
सईबाई निम्बालकर – (बच्चे: संभाजी, सखुबाई, राणूबाई, अम्बिकाबाई); सोयराबाई मोहिते – (बच्चे- दीपबै, राजाराम); पुतळाबाई पालकर (1653-1680), गुणवन्ताबाई इंगले; सगुणाबाई शिर्के, काशीबाई जाधव, लक्ष्मीबाई विचारे, सकवारबाई गायकवाड़ – (कमलाबाई) (1656-1680)।
सैनिक वर्चस्व का आरम्भ
उस समय बीजापुर राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था। साम्राज्य के सुल्तान की सेवा के बदले वे मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे। मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुडा 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा है। वे संघर्षपूर्ण जीवन के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं। इस प्रदेश में मराठा और सभी जाति के लोग थे। शिवाजी इन सभी जाति के लोगों को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभी को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हुए। मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरम्भ किया था। मावलों का सहयोग शिवाजी के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ।
तब बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुग़ल आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से सेना हटाकर स्थानीय शासकों या सामन्तों को सौंप दिया था। आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी ने अवसर का लाभ उठा बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया। शिवाजी ने इसके बाद बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई। सबसे पहला दुर्ग था रोहिदेश्वर का दुर्ग।
दुर्गों पर नियंत्रण
रोहिदेश्वर दुर्ग सबसे पहला दुर्ग था जिसे शिवाजी ने सबसे पहले अधिकार किया था। तोरणा दुर्ग पुणे के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था। शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई कि वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाये। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था। दरबारियों की सलाह से आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को वह दुर्ग दे दिया। दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत करवाई। इससे 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ दुर्ग था और शिवाजी ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।शिवाजी की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले नियमित लगान बन्द कर दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग और कौडना दुर्ग पर अधिकार किया। परेशान होकर सबसे काबिल मिर्जा राजा जयसिंह को भेजकर शिवाजी के 23 किलों पर कब्जा किया। उसने पुरंदर के किले को नष्ट कर दिया। शिवाजी को इस संधि कर पुत्र संभाजी को मिर्जा राजा जयसिंह को सौपना पड़ा। बाद में शिवाजी के मावला तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा दुर्ग पर कब्जा किया पर उस युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुए। उसकी याद में कोंडना का नाम सिंहगढ़ रखा गया। शाहजी राजे को पुणे और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी। शिवाजी महाराज ने रात में सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी की सेवा में आ गया। इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार को उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुंचे और कूटनीति का सहारा ले सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार हो गया। 1647 ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई।
अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे। लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी ने कोलाबा की ओर रुख कर वहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के ख़िलाफ़़ युद्ध को उकसाया।
शाहजी की बन्दी और युद्धविराम
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज से आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दिया। शाहजी राजे तब कर्नाटक में थे और विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकुंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता से शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के ख़िलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की।
प्रभुता का विस्तार
बिरला मंदिर, दिल्ली में शिवाजी महाराज की मूर्ति
शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। इसमें जावली राज्य बाधा था। यह सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच स्थित था। यहाँ के राजा चन्द्रराव मोरे ने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान से मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्र शिवाजी से लड़ाई की अन्त में बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी का विरोध किया पर वे विद्रोह कुचलने में सफल रहे। शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिली। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।
मुगलों से पहली मुठभेड़
शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उस पर धावा बोल दिया। उन्होंने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन दुर्ग भी लूटा। परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर से सन्धि कर ली। इसी समय शाहजहां बीमार पड़ा तो औरंगजेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद कर मुगल साम्राज्य का शाह बन गया।
कोंकण पर अधिकार
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। जंजीरा के सिद्दियों से उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण कर दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहां नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे।
बीजापुर से संघर्ष
इधर औरंगजेब के आगरा (उत्तर की ओर) लौटने पर बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने को बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता को भेजा। उसने ये सन्देश भिजवाया कि शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेज अफजल खां को सन्धि वार्ता को राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे। जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कटार से शिवाजी पर वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वस्त्रों में छिपे बघनखों से मार दिया (10 नवम्बर 1659)।
अफजल खां की मृत्यु बाद शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार किया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही रूस्तम खां के आक्रमण को विफल किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ वापस ले लिये, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी से समझौता कर लिया। सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता की। सन् 1662 में इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान से स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। सन्धि के अनुसार उत्तर में कल्याण से दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) भूभाग शिवाजी के नियन्त्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे।
मुगलों से संघर्ष
शिवाजी द्वारा अफजल खान का वध ; २०वीं शतादी के आरम्भिक काल में सालाराम हलदन्कर द्वारा चित्रित)
उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने पर औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था। उसने शिवाजी पर नियन्त्रण रखने को अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्का खाँ 1,50,000 फ़ौज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने ३ साल तक मावल में लूटमार की। एक रात शिवाजी ने अपने 350 मवलो के साथ उस पर हमला किया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बचने में कामयाब रहा पर उसे अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। शाइस्ता खाँ के पुत्र अबुल फतह तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का कत्ल कर दिया गया।यहॉ मराठों ने अन्धेरे मे स्त्री पुरूष के बीच भेद न कर पाने के कारण खान के जनान खाने की बहुत सी औरतों को मार डाला था। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया।
सूरत में लूट
जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 6 साल शाईस्ता खान ने अपनी 1,50,000 फ़ौज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। इस लिए उस् का हर्जाना वसूल करने को शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट की ।सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के हज पर जाने का द्वार था । यह समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार सेना के साथ 1664 में छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारी लूटे। आम आदमी को उन्होनें नहीं लूटा और लौट गए। इस घटना का ज़िक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारी भारत तथा अन्य एशियाई देशों में बस गये थे। नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी।
सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त कर शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह नियुक्ति किए। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना देख शिवाजी ने सन्धि प्रस्ताव भेजा। जून 1665 में सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुग़लों को दिये और उनके पास केवल 12 दुर्ग बचे। इन 23 दुर्गों से आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण क्षेत्र शिवाजी को मिलें पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने थे। इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी । शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के ख़िलाफ़ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे।
आगरा में आमंत्रण और पलायन
शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। विरोध में उन्होंने अपना रोष भरे दरबार दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नजरबन्द कर 5000 सैनिकों के पहरे लगा दिये। कुछ ही दिनों बाद (18 अगस्त 1666 को) राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा था। लेकिन अपने अदम्य साहस ओर युक्ति से शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे[17 अगस्त 1666। सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी महाराज बनारस, गये, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [2 सितम्बर 1666]। इससे मराठों को नवजीवन मिल गया। औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली। जसवंत सिंह के पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों से दूसरी सन्धि की। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुग़लों का अधिपत्य बना रहा। सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।
राज्याभिषेक
रायगढ़ में शिवाजी महाराज की प्रतिमा
सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि में उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राह्मणो को धमकी दी कि जो शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा कि अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है।
शिवाजी के निजी सचिव बालाजी ने काशी में तीन दूत भेजे, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चली तो उन ब्राह्मणों को पकड लिया. युक्तिपूर्वक ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा- हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनका राज्याभिषेक कैसे कर सकते हैं. हम तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशी का कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुपके से निकल भागे।
वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें और शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कि शिवाजी को राजा न मानें. ताकि प्रजा भी न माने !! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी समारोह में आमंत्रित किया गया। राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। समारोह में हिन्दवी स्वराज का उदघोष हुआ था। विजयनगर पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय को अपने दो सेनाधीश शिवाजी के विरुद्ध भेजे पर वे असफल रहे।
दक्षिण में विजय
सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। बम्बई के दक्षिण में कोंकण, तुंगभद्रा नदी के पश्चिम में बेळगांव तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार करने के बाद ३ अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहान्त हो गया।
सम्भाजी
छत्रपती संभाजी राजे या शम्भाजी मराठा सम्राट और छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे