उत्तराखंड में 14 साल में 950 वन पंचायतें समाप्त
उत्तराखंड बनने के बाद 14 सालों में 950 वन पंचायतों का अस्तित्व हुआ खत्म
अल्मोड़ा 30 मार्च2025। उत्तराखंड में वन पंचायतों की स्थिति गंभीर चिंताजनक है। कभी ये पंचायतें ग्रामीणों के लिए न केवल आजीविका का स्रोत थीं बल्कि वन संरक्षण में भी ये अहम भूमिका में थीं। उत्तराखंड में 12,167 वन पंचायतें थीं लेकिन राज्य गठन के बाद इनकी संख्या बढ़ने के बजाय कम हो गई। आलम ये रहा कि बीते 14 सालों में वन पंचायत घटकर 11,217 रह गई हैं।
सोबन सिंह जीना परिसर के वन एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग की शोधार्थी दीपा बिष्ट ने गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान कोसी के सहयोग से शोध किया। शोध में पाया कि प्रशासनिक जटिलताएं, सरकारी नियंत्रण, वित्तीय संकट और वन सीमा विवादों के कारण पंचायतों का अस्तित्व खतरे में है। उन्होंने बताया कि बीते 14 वर्षों 950 वन पंचायतों का अस्तित्व खत्म हुआ है। पहले स्थानीय लोगों को वनों के संरक्षण और उपयोग का स्वतंत्र अधिकार था लेकिन अब प्रत्येक छोटे-बड़े निर्णय के लिए ग्रामीणों को वन विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है जिससे प्रक्रिया जटिल हो चुकी है। इसका असर वन पंचायतों पर पड़ रहा है।
जिलावार वन पंचायतों की स्थित
वन पंचायत 2010 2025
अल्मोड़ा 2324 2089
चमोली 1509 852
चंपावत 654 571
पौड़ी 2450। 2165
पिथौरागढ़ 1620 1566
– स्थानीय समुदायों को मिलकर इन पंचायतों को पुनर्जीवित करने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। ताकि वनों की सुरक्षा के साथ ही उनकी आजीविका का जरिया भी बन सके।
दीपा बिष्ट, शोधार्थी, सोबन सिंह जीना परिसर वन एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग
मुख्य मंत्री वन पंचायत सुदृढीकरण योजना
उत्तराखण्ड के पर्वतीय जनपदों में वन पंचायतों के गठन का कार्य वर्ष 1932 से प्रारम्भ हो गया था राज्य के 11 जनपदों में वन पंचायत अधिनियम लागू है राज्य के 11 पर्वतीय जनपदों में राजस्व ग्रामों की कुल संख्या 13,729 है। इसमें से अभी तक 12,085 वन पंचायतों का गठन हो गया है। जिनका क्षेत्रफल लगभग 5.00 लाख हैक्टेयर है ,द्वितीय चरण में पूर्व निर्मित वन पंचायतों के क्षेत्रफल में वृद्वि किया जाना है।
चारा विकास, चारा वृक्ष विकास, औषधीय पादपों का विकास, मृद्रा एवं जल संरक्षण में वन पंचायतों का अत्यधिक महत्व है। प्रत्येक राजस्व ग्राम का अपना वन की परिकल्पना को साकार करने के लिए सभी 13,729 ग्रामों में वन पंचायतों के गठन की आवश्यकतानुसार प्रत्येक वन पंचायतों की अलग-अलग कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। राज्य के पशुचारा के अभाव के न्यूनीकरण में वन पंचायतें सबसे अधिक सहायक हो सकती है। चारा उत्पादन को अतिरिक्त कृषि भूमि का उपयोग करना संभव नही है। वर्तमान पशुचारा अभाव(लगभग 95 लाख मी0टन हरा चारा) के सम्बन्ध में लगभग 4.00 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता होगी। यह भूमि वन पंचायतों में उपलब्ध है जिसे चरणबद्व रूप से सिल्वी ग्रासलैण्ड में परिवर्तित किया जायेगा।
5.0 हेक्टेयर प्रति वन पंचायत की यूनिट पर विकास एवं अनुरक्षण की लागत रू0 5.133 लाख लागत है।
उत्पादन-
हरा चारा उत्पादन प्रति इकाई-
प्रथम वर्ष
0.00
द्वितीय वर्ष
80 मीट्रिक टन
तृतीय वर्ष
100 मी0 टन
चतुर्थ वर्ष
120 मी0 टन
पंचम वर्ष
100 मी0टन
कुल
400 मी0टन
कुल आय रू0 4.00 लाख प्रति वर्ष
रूट स्लिप/रूट स्टाक उत्पादन प्रति इकाई –
प्रथम वर्ष
0.00
द्वितीय वर्ष
60 मी0टन
तृतीय वर्ष
60 मी0 टन
चतुर्थ वर्ष
80 मी0 टन
पंचम वर्ष
80 मी0टन
कुल
280 मी0टन
कुल आय रू0 5.04 लाख प्रति वर्ष
लाभान्वित प्रति यूनिट
2.4 रूट स्टाक से 180 हैक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में चारा घासों का विस्तार किया जा सकेगा।
2.5 उत्पादित हरा चारा से 110 दूधारू पशुओं को सम्पूर्ण वर्ष हरा चारा प्राप्त होगा।
प्रारम्भ में उपलब्ध बजट रू0 65 लाख से 12 यूनिट की स्थापना की गई।