ज्ञान:कौटिल्यीय अर्थशास्त्र से पुराण और लोकमान्यताओं में आषाढ़-1
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में आषाढ़ से आरम्भ होने वाले वर्ष का निर्देश किया है।
चैत्र वैशाख से आरम्भ होने वाले संवत्सर विशुद्ध भारतीय हैं। जिन्हें इरानी पारसी भी मनाने लगे हैं और यजीदी कुर्द भी।
कुलप भट तथा वराहमिहिर भी भारतवंशी थे।
त्रि-शतं चतुः-पञ्चाशत् चाहोरात्राणां कर्म-संवत्सरः ।। ०२.७.०६ ।।
तं आषाढी-पर्यवसानं ऊनं पूर्णं वा दद्यात् ।। ०२.७.०७ ।।
करण-अधिष्ठितं अधिमासकं कुर्यात् ।। ०२.७.०८ ।।
पृथ्वी के नाना रूप और वर्जनाएं
#आनंद_का_आषाढ़
विक्रमीय संवत्सर में आषाढ़ मास की कई परंपराएं प्राचीन स्मृतियों की संधारक है और उन मान्यताओं का बने रहना विश्वास से कहीं अधिक वैज्ञानिक भी हो सकता है। जेठ के समापन और आषाढ़ के आरंभ के 3-3 दिन पृथ्वी के ऋतुमती होने के माने जाते हैं। यह मत मुनि पराशर का है जिनका कृषि शास्त्र पुष्कर से लेकर उदयगिरि तक पालनीय रहा है।
प्राचीन काल में ये छह दिन इतने खास माने गए थे कि औजार लेकर कोई भी खुदाई करने खेत की ओर नहीं जाता और न ही बीजों की बुवाई करता। पराशर के शास्त्र में कहा है कि एेसी चेष्टा करने वाला पाप से नष्ट हो जाता है :
वृषान्ते मिथुनादौ च त्रिण्यहानि रजस्वला।
बीजं न वापयेत्तत्र जन: पापाद् विनश्यति।।
देवी भागवत, जिसमें मध्यकालीन परंपराएं प्रचुरता लिए हैं, में “अंबुवाची योग” के नाम से भूमि के अस्पर्श होने की धारणा मिलती है। हालांकि, यहां आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण को गिना गया है लेकिन यह साफ तौर पर कह दिया गया है कि इस अवधि में जो पृथ्वी को खोदते हैं, वे ब्रह्महत्या के भागी होते हैं। वे मरकर भी चार युगों तक कीट के कांटे वाले नरक में रहते हैं।
लगता है कि एक तरह से यह विचार एक धर्मशास्त्रीय निर्देश के रूप में है क्योंकि पुराणकार ने दो बार यह मत जोर देकर लिखा है। (९, १०, १४ व ९, ३४, ४८) स्पष्टत: यह परंपरा उत्तरी भारत में रही क्योंकि पुराणकार यह भी संकेत करता है : अंबुवाच्यां भूखननं जलशौचादिकं च ये। कुर्वन्ति भारते वर्षे ब्रह्महत्यां लभन्ति ते।। (४८)
यही नहीं, पराशर ने भी यह मत दोहराया है :
मृगशिरसि निवृत्ते रौद्रपादेऽम्बुवाची।
भवति ऋतुमती क्ष्मा वर्जयेत् त्रीण्यहानी।। (१७६)
आषाढ़ की अन्य वर्जनाओं में भूमि का कीचड़मय होना भी है : आषाढे कर्दमान्विता। बारिश होते ही भूमि कर्दमी हो जाती है और फिर तत्काल, बगैर तैयारी बुवाई लाभकारी नहीं होती। एेसे में तैयारी करके ही बीजों को स्पर्श करने का मत है।
है न आषाढ़ की अनूठी परंपराएं और मान्यताएं ! इनका विकास किसी एक काल की देन नहीं है लेकिन इनसे यह भी तो जाहिर होता है कि कृषि की ये गूढ़ बातें आदमी से पहले औरतों ने जानी होंगी और बहुत परखी होंगी तभी औरों ने मानी होंगी।
जय जय।
बारिश के पूर्वानुमान का मास : आषाढ़
ज्येष्ठ के बाद आषाढ़ मास को बारिश के योग परीक्षण का अवसर माना गया है। ज्योतिर्विदों ने ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद पूर्वाषाढ़ा आदि 27 नक्षत्रों यानी लगभग इतने ही दिनों तक बारिश कैसी और कब होती है, उसके अनुसार वर्षाकाल पर विचार करना अभीष्ट माना है।
यूं तो पूर्वकाल में बारिश के हाल को जानने और बताने की दैवज्ञों में दीवानगी ही थी। वे मेघ गर्भधारण से लेकर उनके 195 दिन तक पकने और बरसने पर चातक की तरह ध्यान लगाए रखते थे और अपनी बात को सच्ची सिद्ध करने को कमर बांधे रखते थे। यदि वराहमिहिर की माने तो बारिश के हाल के अध्ययन के लिए तब तक गर्ग, पराशर, काश्यप और वज्रादि के शास्त्र और उनके निर्देश कंठस्थ होते थे और दैवज्ञ दिन-रात मेघों पर ध्यान लगाए रहते थे जिनके लिए वराहमिहिर ने ‘विहितचित्त द्युनिशो” कहा है।
एेसे मानसून अध्येता वराह के इलाके से लेकर मेवाड़ तक आज भी इक्का-दुक्का मिल जाते हैं और ‘गरभी’ कहे जाते हैं जिनमें कुछ के तुक्का तीर की तरह लग भी जाते हैं। हालांकि वे वराह जैसे शास्त्र नहीं पढ़े होंगे।
आषाढ़ में नक्षत्रों के अनुसार भी कितनी और कहां बारिश होती है, इसके अनुसार आने वाले वर्षणकाल में कहां कितना पानी गिरेगा ? यह कहने की रोचक परंपरा रही है। कश्यप ने एक प्रदेश में ही पर्याप्त वर्षा के आधार पर अच्छी वर्षा की गणना की बात कही तो देवल ने 10 योजन तक बारिश को अनुमान का आधार बनाने का विचार दिया। गर्ग, वसिष्ठ व पराशर ने 12 योजन तक वृष्टि होने पर वर्षाकाल में उत्तम बरसात बताई। इस प्रकार तीन तरह की धारणाएं 6वीं सदी तक थीं और वराह ने इनका न केवल अनुसरण किया बल्कि उन मतों काे यथारूप महत्व भी दिया। बृहत्संहिता ही नहीं, समाससंहिता और पंचसिद्धांतिका में ये विश्वास जनहित में प्रस्तुत किए।
ये विचार प्रवर्षणकाल को लेकर लिखे गए और आषाढ़ मास यह कालावधि है :
आषाढादिषु वृृष्टेषु योजन द्वादशात्मके।
प्रवृष्टे शोभनं वर्षं वर्षाकाले विनिर्दिशेत्।। (गर्गसंहिता प्रवर्षणाध्याय)
हां, यह भी आषाढ़ के प्रवर्षण नक्षत्र की बढ़ाई वाली बात ये है कि वही नक्षत्र प्रसव काल में भी बरसता है। तो है न आषाढ़ आनंददायी ! बहुत कुछ बता और सीखा सकता है लेकिन कब, जबकि हम ध्यान लगाए रहें। हां, इस संबंध में कुछ अपना अनुभव भी हो तो बताइयेगा।
जय-जय।
# जब चींटी भयभीत हो…!!
ऋतु परिवर्तन और प्रकृति के चक्र के निर्धारण के पीछे मानव को कई प्राणियों से प्रेरणाएं भी मिली हैं… बारिश को ही लीजिये, घाम के दौर में जब उमस बढ़ती है, बच्चों ही क्या हमारे बदन में घमौरियां फूट पड़ती है और चींटियां निकल पड़ती है सुरक्षित स्थान की ओर…।
कभी देखा है…??
चींटियां कहां रहती है, यह हमसे ज्यादा अच्छी तरह कोई चींटीखोर (पेंगोलिन) ही जानता है लेकिन आषाढ़ मास में वे जगह बदलने लगती है तो हमें उनकी रेंगती कतारें दीख जाती है….उनके मुंह में सफेद-सफेद चीनी के कण जैसे अंडे होते हैं…।
यह बारिश के आगमन के लक्षण है…. “सद्यो वृष्टि” यानी तत्काल बरसात के संकेत के रूप में यह तथ्य इतना प्रभावी और अचूक है कि अनेक किताबों में लिखा गया है…… मयूर चित्रकम् से लेकर गुरुसंहिता और घाघ व सहदेव की उक्तियों तक यह संकेत मिल जाता है….।
वराहमिहिर इस संकेत के लिए गर्ग और नारद का ऋणि है : विनापघातेन पिपीलिकानामण्डोप संक्रान्ति…। इसका मतलब है कि बेवजह चींटिंयां बिलों से बाहर अंडे लेकर निकल पड़ें और महफूज होने को आतुर लगें तो जल्द बारिश का योग जान लेना चाहिये….।
है न आषाढ़ की एक बड़ी घटना लेकिन हम में से कितने इसे महत्वपूर्ण मानकर आगे कहते है ? ग्रामीण में जरूर किसानों को इससे बड़ा संकेत मिल जाता है, आप जानते हैं न।
जय जय।
-✍🏻 डॉक्टर श्रीकृष्ण ‘जुगनू’