शरिया के बाद विशेष विवाह अधिनियम में शादी बेटियों को संपत्ति अधिकार को

मुसलमान दंपति के 29 साल बाद दोबारा शादी करने को लेकर क्यों हो रहा विवाद

इमरान क़ुरैशी

11 मार्च 2023
सी शुकूर और डॉक्टर शीना अपनी बेटियों के साथ

केरल के रहने वाले सी शुकूर और और उनकी पत्नी डॉक्टर शीना को विशेष विवाह अधिनियम में दोबारा शादी करने को लेकर विरोध का सामना करना पड़ रहा है. मुसलमान संगठनों और विद्वानों ने उनकी इस शादी की कड़ी आलोचना की है.

सी शुकूर पेशे से वकील हैं और डॉक्टर शीना महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी की उपकुलपति रह चुकी हैं. 29 साल पहले 1994 में दोनों की शरिया क़ानून से शादी हुई थी. सी शुकूर इस विरोध के ख़िलाफ़ कहते हैं कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी रजिस्टर करके उन्होंने सिर्फ़ अपनी बेटियों के हितों की सुरक्षा की है.

शुकूर और शीना ने केरल के कासरगोड़ ज़िले में होसदुर्ग में सब रजिस्ट्रार के सामने शादी रजिस्टर की थी. उन्होंने ये शादी आठ मार्च को महिला दिवस के मौके पर की थी.

इस दंपति के लिए ये बेहद खुशी का मौका था. उनके परिवार के सदस्य रजिस्ट्रार के दफ़्तर में इकट्ठा हुए. रजिस्ट्रार के सामने हस्ताक्षर करने के बाद उनके परिवार के सदस्यों और दोस्तों ने ताली बजाई. सी शुकूर के भाई की पत्नी शकीरा मुनीर इस शादी की गवाह बनीं.

शुकूर ने  कहा, ”बिल्कुल, हम बेटियों वाले परिवारों को एक संदेश दे रहे हैं कि हमारे क़ानून में उनके पास ये विकल्प मौजूद है. वो इस विकल्प के ज़रिए इस समाज में अपनी बेटियों को बेटों के बराबर दर्जा दे सकते हैं.’

सी शुकूर का परिवार

शुकूर ने  पहले बताया था, “मुस्लिम लॉ के सिद्धांतों में लिंग के आधार पर ढेरों भेदभाव हैं. ये पितृसत्तामक क़ानून है और पुरुषों को प्रधान मानने की मानसिकता के साथ लिखा गया है. ये क़ुरान और सुन्ना की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ है.”

“अल्लाह के आगे सभी पुरुष और महिला बराबर हैं लेकिन 1906 में डीएच मुल्ला ने ‘मुस्लिम लॉ के सिद्धांत’ तय करते हुए इसकी जो व्याख्या की उससे ज़ाहिर होता है कि पुरुष महिलाओं से ज़्यादा ताक़तवर हैं और पुरुष महिलाओं का नियंत्रण करेंगे. इसी आधार पर उन्होंने विरासत क़ानून तैयार किया.”

बेटियों वाले माता-पिता के लिए विकल्प

शुकूर और उनकी पत्नी की तीन बेटियां हैं. उनके कोई बेटा नहीं है. मौजूदा मुस्लिम लॉ के मुताबिक बेटियों को उनकी ज़ायदाद का दो तिहाई हिस्सा मिलेगा. बाकी का एक तिहाई हिस्सा उनके भाई को हासिल होगा. उनके भाई के एक बेटे और बेटियां हैं. उनके भाई के बच्चों को पिता से सारी संपत्ति हासिल होगी.

शुकूर इसके लिए विकल्प बताते हैं कि भले ही आपकी शादी शरिया के मुताबिक हुई फिर भी मुसलमान दंपति अपनी शादी विशेष विवाह अधिनियम की धारा 15 में अपनी शादी पंजीकृत करा सकते हैं.

इससे मुस्लिम पर्सनल लॉ में जो संपत्ति बेटियों के चाचा या ताऊ को जाती है वो बेटियों के पास ही रहेगी.

लेकिन, उनके इस कदम को लेकर कहा जा रहा है कि ”उन्होंने वो सीमाएं लांघ दी हैं जो उन्हें नहीं लांघनी चाहिए थीं.”

इस्लामिक विद्वान और कोझीकोड में प्रोफाउंड अकादमी के निदेशक मुस्तफ़ा तनवीर बताते हैं, ”विरासत को लेकर इस्लामिक क़ानून स्पष्ट हैं. लेकिन, इसमें जिस समानता की बात हो रही, इस्लाम में समानता के मायने वो नहीं हैं.”

”समानता को लेकर ये बहुत ही आधुनिक समझ है जो महिलावाद, लोकतंत्र और मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा जैसे आधुनिक अभियानों से निकली है.”

ये बयान तब आया जब कुछ मुसलमान संगठन पहले से विरासत क़ानून में बदलाव का विरोध कर रहे हैं.

केरल नदवातुल मुजाहिदीन की युवा ईकाई इत्तेहादुल शुब्बनिल मुजाहिदीन और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमलएल) घोषणा कर चुके कि वो मुसलमानों के विरासत के क़ानून में बदलाव की मांग का विरोध करने को अभियान शुरू करेंगे. ये अभियान 15 मार्च से शुरू होगा.

शरिया और संविधान

शुकूर इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि शरिया के तहत विरासत का क़ानून ‘दैवीय क़ानून’ है.

वह कहते हैं, ”पैगंबर ने उस समय की स्थितियों के अनुसार विचार किया था. तब लड़कियों के लिए संपत्ति की अवधारणा नहीं थी. लेकिन, अब समाज इतना विकसित है कि बेटियों के विकास के अलग-अलग पहलुओं के बारे में सोचने लगा है.”

डॉक्टर शीना कन्नूर विश्वविद्यालय में लॉ डिपार्टमेंट की प्रमुख हैं. वह कहती हैं, ”विरासत एक क़ानून है. ये समान होना चाहिए. साथ ही ये भारत के संविधान के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए. विरासत को अनुच्छेद 13 में देखा जाना चाहिए.” संविधान के अनुच्छेद 13 में मूल अधिकारों को संरक्षित किया गया है.

इसके ख़िलाफ़ तनवीर कहते हैं, ”जब निकाह का प्रावधान है तो आप विशेष विवाह अधिनियम को चुन रहे हैं और इस तरह ये दिखा रहे हैं कि आपको धार्मिक आधार के बजाए एक धर्मनिरपेक्ष अनुबंध चाहिए. इस्लाम में इसे प्रोत्साहन नहीं दिया जाता.”

”भारत में हो ये रहा है कि जब इस्लाम से जुड़ा कोई मसला चर्चा के लिए आता है तो उदारवादी और प्रगतिशील लोग इस तरह बोलते हैं कि दुर्भाग्य से धर्मनिरपेक्षता की बात से हिंदुत्व का आभास होता है. इस तरह की चर्चाएं इस्लामोफोबिया बढ़ाती हैं और उसे अगले स्तर पर ले जाती हैं.”

लेकिन, शुकूर का कहना है कि वो और उनकी पत्नी ”धार्मिक नेताओं और शरिया को चुनौती नहीं दे रहे हैं. हम मौजूदा मुस्लिम पसर्नल लॉ को भी चुनौती नहीं दे रहे हैं. हम सिर्फ़ उस रास्ते को चुन रहे हैं जो कोई भी मुसलमान माता-पिता अपनी बेटी के लिए चुन सकते हैं.”

परिवार में कोई विवाद नहीं

मुसलमान समुदाय में क़ानून और शादी को लेकर इस विवाद का सी शुकूर के परिवार पर कोई असर नहीं पड़ा है.

शुकूर की भाभी शकीरा मुनीर कहती हैं कि दोबारा शादी करने से कोई फर्क नहीं पड़ता. ”अगर हमें शरिया क़ानून में संपत्ति मिल भी जाती तो हम उसे बेटियों को वापस कर देते. मुझे नहीं लगता कि हमारा परिवार इसे स्वीकार करता.”

वह दोबारा शादी करने को लेकर कहती हैं, ”अगर वो समाज में कुछ बदलाव लाने जा रहे हैं, वो भी खासतौर से बेटियों को लेकर, तो ये अच्छी बात है।

सी शुकूर केरल के रहने वाले हैं और एक वकील हैं. उनकी पत्नी डॉक्टर शीना महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी की उपकुलपति रह चुकी हैं. सी शुकूर के मुताबिक भारतीय मुसलमानों में इस समुदाय के लिए तय ‘असमान विरासत क़ानून’ को लेकर नई सोच विकसित हो रही है.

शुकूर ने बताया, “मुस्लिम लॉ के सिद्धांतों में लिंग के आधार पर ढेरों भेदभाव हैं. ये पितृसत्तामक क़ानून है और पुरुषों को प्रधान मानने की मानसिकता के साथ लिखा गया है. ये क़ुरान और सुन्ना की शिक्षाओं के ख़िलाफ़ है.”

उन्होंने कहा, “अल्लाह के आगे सभी पुरुष और महिला सभी बराबर हैं लेकिन 1906 में डीएच मुल्ला ने ‘मुस्लिम लॉ के सिद्धांत’ तय करते हुए इसकी जो व्याख्या की उससे जाहिर होता है कि पुरुष महिलाओं से ज्यादा ताक़तवर हैं और पुरुष महिलाओं का नियंत्रण करेंगे. इसी आधार पर उन्होंने विरासत क़ानून तैयार किया. ”

शुकूर और उनकी पत्नी को ये मुद्दा क्यों परेशान कर रहा है, ये समझना आसान है. उनकी तीन बेटियां हैं. उनके कोई बेटा नहीं है. मौजूदा क़ानून के मुताबिक बेटियों को उनकी जायदाद का दो तिहाई हिस्सा मिलेगा. बाकी का एक तिहाई हिस्सा उनके भाई को हासिल होगा. उनके भाई के एक बेटे और बेटियां हैं. उनके भाई के बच्चों को पिता से सारी संपत्ति हासिल होगी.

सी शुकूर और डॉक्टर शीना अपनी बेटियों के साथ

1994 में हो चुकी है शादी

शुकूर ने बताया, “इससे मुक्ति को हमने स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट के सेक्शन 16 में रजिस्टर्ड विवाह करने का फ़ैसला किया. 1994 में शरिया क़ानून में हमारी शादी हो चुकी है. ”

शुकूर कहते हैं कि एक बार स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट में शादी रजिस्टर होने के बाद ‘इंडियन सक्सेशन (उत्तराधिकार) एक्ट’ अमल में आएगा.

वो कहते हैं, “शरिया क़ानून में हमारी शादी ख़ारिज करने की कोई वजह नहीं है. हमें स्पेशल मैरिजेज़ एक्ट के सेक्शन 21 में संरक्षण मिला हुआ है.”

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कलीश्वरम राज ने बताया, ” दंपति के रजिस्टर शादी करने के फ़ैसले से जाहिर है कि वो विरासत के क़ानून की अवैध स्थिति से बचना चाहते हैं. लेकिन इसके बाद भी उनके सामने क़ानूनी सवाल खड़े हो सकते हैं. क्या नई शादी से पर्सनल लॉ का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा, ये देखना होगा. अगर संबंधित लोगों ने मुकदमा किया तो उन्हें न्यायिक समाधान हासिल करना होगा. ”

सुप्रीम कोर्ट में मामला

राज सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसे ही मामले की पैरवी कर रहे हैं. शुकूर की तरह प्रभावित एक और (चौथे) व्यक्ति की याचिका में इस मुद्दे पर कुछ और कहा गया है.

याचिका में कहा गया है, ” मुसलमानों के उत्तराधिकार को लेकर मौजूदा क़ानून के मुताबिक किसी पुरुष या महिला की मौत के बाद अगर सिर्फ़ बेटियां हों तो उनकी जायदाद का एक हिस्सा उनके भाइयों और बहनों को दिया जाएगा. ये कितना होगा, इसका फ़ैसला उनकी बेटियों की संख्या के मुताबिक तय होगा. अगर उनकी सिर्फ़ एक बेटी हो तो उसे जायदाद का आधा हिस्सा मिलेगा, अगर दो या उससे ज़्यादा बेटियां हों तो उनका हिस्सा दो तिहाई होगा. मौजूदा क़ानून बेटियों को उनके हक़ वंचित करता है. अगर ऐसा न होता तो जायदाद उनकी होती.”

केरल हाई कोर्ट ने याचिका को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया था, “उठाए गए मुद्दे पर विधायिका को गौर करना चाहिए और एक सक्षम क़ानून बनाना चाहिए. ” इसके बाद ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

 

लेकिन अब इस मामले को लेकर सार्वजनिक स्तर पर बहस हो रही है. बीते हफ़्ते ‘सेंटर फ़ॉर इनक्लूसिव इस्लाम एंड ह्यूमनिस्म’ (सीआईआईएच) की एक बैठक में प्रभावित महिलाओं ने हिस्सा लिया था.

फ़ोरम फ़ॉर मुस्लिम वूमेन जेंडर जस्टिस की डॉक्टर खदीजा मुमताज ने कहा, ” सीआईआईएच की मीटिंग और हमारे नए बने फोरम का मुख्य मक़सद मुसलमान समुदाय को ये बताना है कि ये मजहब के ख़िलाफ़ नहीं है. ”

उन्होंने कहा, ” इसे 1400 साल पहले की सामाजिक आर्थिक स्थिति के मुताबिक देखा जाना चाहिए. अब मानवीय रिश्ते बदल गए हैं. उस वक़्त स्थिति ये थी कि अगर पिता की मौत हो जाती है तो लड़कियों की देखभाल के लिए चाचा होते थे लेकिन अब चाचा लड़कियों से सबकुछ हासिल कर ले रहे हैं. मजहब एक मुसलमान को अनाथों का पैसा लेने से रोकता है.”

सीआईआईएच के संस्थापक चौधरी मुस्तफ़ा मौलवी ने बीबीसी से कहा, “शरीया के मुताबिक जो मुस्लिम क़ानून लागू लागू किया जाता है वो पवित्र क़ुरान में बताए गए क़ानून के ख़िलाफ़ है. क़ुरान में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच न्याय और समानता होनी चाहिए, भेदभाव नहीं होना चाहिए.”

मुस्तफ़ा मौलवी कहते हैं, “मौलानाओं ने क़ानून की व्याख्या की है और इस पर पुरुषों की महत्ता बताने का असर देखा जा सकता है. कबीलाई क़ानून की व्याख्या करते हुए पुरुषों ने करीब एक हज़ार किताबें लिखी हैं. मुसलमान आज क़ानून का पालन करना चाहते हैं, कबीलाई क़ानून का नहीं. ”

हालांकि, राज कहते हैं कि इस समस्या का वास्तविक समाधान तभी हासिल हो सकता है जब “भारत के छोटे परिवारों को ध्यान में रखते हुए मुस्लिम लॉ को ढालने की विधिवत कोशिश की जाए. साथ ही, इसे पुरुषों और महिलाओं की समानता से जुड़े संविधान के सिद्धांत के मुताबिक लैंगिंक तौर पर निरपेक्ष बनाया जाना चाहिए.”

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