स्मृति शेष: भारतीय पत्रकारिता के जेम्स बॉन्ड थे हरीश चंदोला

भारतीय पत्रकारिता के जेम्स बॉन्ड पत्रकार हरिशचंद्र चंदोला नहीं रहे!

हम सबके अग्रज और देश के बड़े पत्रकार हरीश चंदोला का आज सुबह 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। उत्तराखंड से आने वाले पत्रकारों में वे शीर्ष पंक्ति में थे। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों के ब्यूरो में रहे। विदेश संवाददाता रहे और सबसे बड़ी बात, नगा शांति वार्ता के वार्ताकार जैसी भूमिकाओं में रहे।

रिटायर होकर वे जोशीमठ से भी दस किलोमीटर ऊपर अपने गांव में रहने लगे। पिछले कुछ सालों तक वे लगातार अखबारों में लिखते रहे। वे एक सच्चे रिपोर्टर थे और अन्तिम समय तक रहे। पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।यह सही मायनो में भारतीय पत्रकारिता के एक नक्षत्र का टूटना है.

स्वभावतः पत्रकारों की नई पीढ़ी उनसे परिचित नहीं थी. लेकिन दुर्भाग्य यह कि पुरानी, यहाँ तक कि स्वयं उनकी पीढ़ी के ज़्यादातर लोग भी उनकी विभूति से परिचित नहीं थे. इसलिए उन्हें अपना प्राप्तव्य भी नहीं मिला।

तिब्बत पर चीन आक्रमण के समय 1948 -50 में वह गढ़वाल के भेड़ पालकों के साथ पैदल पांव तिब्बत गए. वहां से उनकी आँखों देखी रपटों ने भारत में हाहाकार मचा दिया.

पहली बार उन्होंने ही बताया कि चीन तिब्बत की ओर से होता हुआ भारत को बढ़ा चला आ रहा है.

नेहरू ने तब उन्हें डांटा, क्या बकवास लिख रहे हो? कुछ ही समय बाद उनकी बात सत्य सिद्ध हुई. तबसे नेहरू उन्हें अपने हर विदेश दौरे पर साथ रखते थे.

खाड़ी में अमेरिकी हमले के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की भेजी नकद सहायता एवं सन्देश को लेकर वह कैसे फटती बारूदी सुरंगों और उड़ती गिरती मिसाइलें से होकर हाथ में ब्रीफकेस लेकर यासर आराफत तक गए, यह वर्णन आज भी रोंगटे खड़े कर देता है. उसका विवरण देना राष्ट्र हित एवं कूटनय मर्यादा के अनुरूप नहीं है.

उन्होंने 65 साल पहले नगालैंड में रिपोर्टर रहते वहीँ की युवती विद्रोही नेता फिज़ो के परिवार की कन्या से शादी की.

भारतीय सुरक्षा एजेंसियां इस कारण उन पर हमेशा शक करती रहीं. जबकि नार्थ ईस्ट के विद्रोही उन्हें रा एजेंट मानते थे। सरकार को वहां की वास्तविक रिपोर्ट उन्ही से मिलती थी. लेकिन सिर्फ़ भारतीय प्रधानमंत्री को.यह सिलसिला पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक बना रहा.

जब पत्रकारिता में ग्लेमर न था
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सक्रीय पत्रकारिता से अवकाश के बाद हार्पर कोलिंस से छपे उनके संस्मरण पूरी दुनिया में पढ़े गये। गोविन्द सिंह कुंजवाल के समय के उद्यान घोटाले में उन्होंने भी अपने हाथ जलाये थे। उनका भी लाखों का निवेश उसमें डूबा था। फिर भी करोड़ों के इस घोटाले में कोई दंडित नहीं हुआ था जबकि प्रमुख सचिव विभापुरी दास और सचिव संजीव चोपड़ा तक कार्रवाई की परिधि में आ रहे थे।
हाईप्रोफाइल होने पर भी देहरादून में जमें एक पर्यावरणवादी की पोल खोलने पर उनकी आखिरी स्ट्रिंगरशिप गई थी। उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि ये कथित वैज्ञानिक कभी गढ़वाल विश्वविद्यालय का फैकल्टी नहीं रहा है। लेकिन इस एनजीओ संचालक की दिल्ली की मीडिया में इतनी पकड़ थी कि उसका तो कुछ नहीं बिगड़ा, चंदोला जी की जरुर छुट्टी हो गई थी।
हरीश चंदोला का निधन रविवार की सुबह हुआ, वह 94 साल के थे।
विनम्र श्रद्धांजलि।

 

पुस्तकें >

दुनिया में बड़े पैमाने पर: एक संस्मरण
हरीश चंदोला

किताब के बारे में

साठ साल पहले, भारत में पत्रकारिता एक ग्लैमरस पेशा नहीं था। रोमांच की भावना और समाचारों की तलाश में दुनिया की यात्रा करने की इच्छा से प्रेरित कुछ ही पत्रकार थे। हरीश चंदोला एक ऐसे युवा थे, जो गढ़वाल की पहाड़ियों से दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स के साथ एक संपादकीय सहायक के रूप में शुरुआत करने के लिए चले गए। 1950 में। न्यूज़रूम में रहने से संतुष्ट नहीं, उन्होंने अपनी वार्षिक छुट्टी का उपयोग तिब्बत से पैदल यात्रा करने के लिए किया था – ठीक उसी समय जब चीन इस क्षेत्र में अपनी ‘घुसपैठ’ शुरू कर रहा था – और तीन महीने के लिए चीनी सैनिकों द्वारा हिरासत में लिया गया था। , वह 1954 में ‘तिब्बत में एक नई तरह की चीनी सेना’ को नोटिस करने वाले पहले पत्रकार बने। प्रधान मंत्री नेहरू ने रिपोर्ट को चंदोला की कल्पना की उपज के रूप में खारिज कर दिया, लेकिन बाद में पता चला कि पुरुष 1,700 किलोमीटर के राजमार्ग का निर्माण कर रहे थे। ल्हासा चीनी मुख्य भूमि के लिए। उसके बाद पत्रकारिता में छह दशक लंबा करियर था जो उन्हें केन्या और कंबोडिया में संघर्षों, स्वतंत्रता के अल्जीरियाई युद्ध और इंडोनेशिया में एक सैन्य तख्तापलट के बीच में ले गया। घर वापस आकर, उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री के अनुरोध पर भूमिगत नगा नेताओं के साथ संवेदनशील बातचीत में भूमिका निभाई, और इंदिरा गांधी के कुछ प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर एक विश्वसनीय सलाहकार थे। यह पिछली आधी शताब्दी में घटनापूर्ण समय में भारत के एक सम्मोहक और ईमानदार चित्र को चित्रित करता है।

पन्ने: 344

भाषा: अंग्रेजी

संस्मरण:घुमक्कड़ पत्रकारिता के पड़ाव

(हरिश्चन्द्र चन्दोला सम्भवतः भारत के सबसे अधिक घुमक्कड़ पत्रकार रहे हैं। 60 वर्ष की अपनी पत्रकारिता का बहुत ज्यादा समय उन्होंने देश से बाहर ही बिताया और विभिन्न अंग्रेजी समाचार पत्रों के संवाददाता के रूप में इंग्लैण्ड, केनिया, टयूनीशिया, अल्जीरिया, मिश्र, इथियोपिया, वियतनाम, सिंगापुर, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, म्याँमार, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, कुवैत, सीरिया, लेबनान, फिलीस्तीन आदि देशों में काम किया। उन्होंने तिब्बत की एकाधिक यात्रायें कीं। नगालैंड में ससुराल होने के कारण भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में उनकी विशेषज्ञता है और इस विषय पर उनकी एक पुस्तक ‘नागाकथा’ प्रकाशित हो चुकी है। नैनीताल समाचार के पाठकों को नियमित रूप से उनकी टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलती हैं। 85 वर्ष की आयु में भी वे उत्तराखंड के सरोकारों के लिये बेहद सजग हैं। फिलहाल हम उनकी अब तक अप्रकाशित आत्मकथा के उन अंशों को प्रकाशित कर रहे हैं, जिनमें आपात्काल के बाद इन्दिरा शासन के उत्तरार्द्ध की एक झलक मिलती है। यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि समग्र रूप से उनकी आत्मकथा पढ़ते हुए पूरे विश्व का भ्रमण करना कितना रोचक होगा। -सम्पादक)

सिंगापुर रहने के लिये बहुत आरामदायक स्थान था और सारा दक्षिण पूर्वी एशिया वहाँ से पहुँच के भीतर था। मगर मैं वहाँ 12 साल से अधिक काट चुका था और भारत वापस लौटने के बारे में सोचने लगा था। मेरे बच्चे बड़े हो रहे थे। मैं चाहता था कि वे हिन्दी जानें और भारतीय ढंग से रहना सीखें। मैं सिंगापुर में और अधिक नहीं रहना चाहता था। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी थे।

गढ़वाल में हमारे गाँव में रह रहे अपने माता-पिता और नागालैण्ड में अपने ससुरालियों से मिलने के लिये मैं 1979 में दो महीने के लिये भारत गया था। मैं कुछ दिनों के लिये दिल्ली भी रुका और अपने सम्बन्धी हेमवतीनन्दन बहुगुणा, जो उस वक्त चौधरी चरण सिंह की अल्पायु रही केन्द्र सरकार में वित्त मंत्री थे, से मिलने गया। बहुगुणा चाहते थे कि मैं भारत आकर उनके राजनीतिक काम में उनकी मदद करूँ। वे उस वक्त इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में दुबारा शामिल होने की सोच रहे थे। इन्दिरा जी उस वक्त सत्ता से बाहर थीं, मगर चाहती थीं कि बहुगुणा संसद का अगला चुनाव उनकी ओर से लड़ने की तैयारी करें। बहुगुणा जी चरण सिंह सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री थे। श्रीमती गांधी और बहुगुणा की मुलाकात आधी रात को नई दिल्ली के सैंटर पॉइंट होटल में हुआ करती थी, ताकि चरण सिंह और उनके जासूसों को इन मुलाकातों का पता न चले। यह होटल इन्दिरा जी के एक विश्वासपात्र भाटिया जी का हुआ करता था। बहुगुणा जी का संसद में 26 लोगों का गुट था, जो चरण सिंह की सरकार को अस्थिर कर सकता था।

मुझे 1974 की एक घटना याद आती है, जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रोविंशियल आर्म्ड कौंस्टेबुलेरी (पी.ए.सी.) द्वारा वेतन बढ़ोतरी और बेहतर सेवा शर्तों की माँग के लिये आन्दोलन छेड़ दिया गया था। उन्होंने अपनी माँगों के लिये दबाव बनाने हेतु हड़ताल कर दी और लखनऊ की सड़कों पर जलूस निकाल दिया। प्रदेश की नियमित पुलिस को पी.ए.सी. के नेताओं को गिरफ्तार करने के लिये भेजा गया। इस पर झड़प हो गई और नियमित पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी। पी.ए.सी. के जवान भी अपनी बन्दूकें ले आये और लखनऊ की सड़कों पर दोनों सुरक्षा बलों के बीच लड़ाइयाँ होने लगीं। इस पर केन्द्र सरकार ने हस्तक्षेप किया और कमलापति त्रिपाठी के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। पी.ए.सी. आन्दोलन का दमन कर दिया गया। मगर राष्ट्रपति शासन हमेशा नहीं चल सकता था और नागरिक शासन की बहाली जरूरी थी। कुछ ही महीनों बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे और इस अहम मौके पर विधानसभा में बहुमत रखने वाले कांग्रेस विधायक दल के नेतृत्व की जिम्मेदारी किसको दी जाये, यह सवाल कांग्रेस के आला कमान के सामने था। हर राजनीतिक दल की तरह कांग्रेस में भी अनेक गुट थे और ऐसा ही एक गुट दिल्ली आकर पार्टी हाई कमान को यह समझाने की कोशिश में जुट गया कि प्रदेश की बागडोर दुबारा कमलापति त्रिपाठी के हाथों सौंपी जाये, अन्यथा पार्टी विधानसभा का आगामी चुनाव हार जायेगी। इसके बाद एक और गुट दिल्ली आया और केन्द्रीय नेतृत्व को बताने लगा कि यदि त्रिपाठी को दुबारा सत्ता सौंपी गई तो पार्टी निश्चित रूप से अगला चुनाव हार जायेगी।

मुझे एकाएक सिंगापुर से दिल्ली बुलाया गया। श्रीमती गांधी की ओर से पी.एन. हक्सर ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी कि मैं उत्तर प्रदेश का दौरा करूँ, लोगों से बातचीत करूँ और अपना आँकलन दूँ कि कमलापति त्रिपाठी को दुबारा उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी देने पर कांग्रेस को फायदा होगा या नुकसान। मैं लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, मेरठ और कुछ अन्य शहरों में गया। राजनीतिक नेताओं और अन्य लोगों से बातचीत कर उनकी राय जानी और फिर दिल्ली आ कर अपनी रिपोर्ट भिजवा दी। अपनी रिपोर्ट में मैंने तर्क देते हुए यह निष्कर्ष निकाला था कि त्रिपाठी जी को दुबारा मुख्यमंत्री बनाने पर कांग्रेस निश्चित रूप से चुनाव हार जायेगी।

श्रीमती गांधी, जो उस समय प्रधानमंत्री होने के साथ कांग्रेस अध्यक्ष भी थीं, ने मेरी रिपोर्ट पढ़ी और स्वीकार कर ली। मगर मेरे सिंगापुर लौटने से पूर्व मुझसे पूछा गया कि यह तो ठीक है कि त्रिपाठी दुबारा मुख्यमंत्री न हों। लेकिन यह सुझाव तो मैंने दिया ही नहीं कि कौन उनके स्थान पर मुख्यमंत्री हो सकता है। क्या मैं इस बारे में अपनी राय दे सकता हूँ ?

हक्सर चन्द्रजीत यादव के पक्ष में थे। लेकिन यह जानते हुए भी कि बहुगुणा कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं, मैंने बहुगुणा का नाम सुझाया। उनके पक्ष में मैंने तर्क दिये कि वे बहुत अच्छे संगठनकर्ता हैं और चुनाव में कांग्रेस की विजय सुनिश्चित करने की क्षमता रखते हैं। मैंने 1969 के उन दिनों का हवाला दिया, जब कांग्रेस दोफाड़ हो गई थी, एक हिस्सा संगठन कांग्रेस के रूप में मोरारजी देसाई के साथ रहा और दूसरा हिस्सा कांग्रेस (इ) के रूप में इन्दिरा गांधी के साथ। कांग्रेस मुख्यालय पर मोरारजी धड़े का कब्जा रहा था। इन्दिरा कांग्रेस ने अपना दफ्तर अकबर रोड की एक बिल्डिंग में शुरू किया। इस दफ्तर में कोई भी पुराने अभिलेख या दस्तावेज नहीं थे। सभी पार्टी के जंतर मंतर रोड स्थित पुराने मुख्यालय में रह गये थे। इन्दिरा कांग्रेस को यह भी मालूम नहीं था कि राज्यों और जिलों में पार्टी के कौन-कौन पदाधिकारी हैं। उन्हीं दिनों बहुगुणा, जो इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव हार गये थे, इन्दिरा कांग्रेस के महासचिव बना कर अकबर रोड स्थित पार्टी दफ्तर के प्रभारी बना दिये गये। बहुगुणा ने अपने सम्पर्कों का इस्तेमाल कर मोरारजी कांग्रेस के जंतर मंतर स्थित दफ्तर से ये जरूरी दस्तावेज हासिल कर लिये। कुछ पार्टी पदाधिकारियों की इन्दिरा जी को जरूरत थी। बहुगुणा उन्हें इन्दिरा जी के धड़े में लाने में सफल रहे। अपनी टिप्पणी में मैंने बहुगुणा जी के इन्हीं गुणों का उल्लेख किया था। उन दिनों बहुगुणा इन्दिरा जी की सरकार में पेट्रोलियम मंत्री थे।

सिंगापुर लौटने से पूर्व मैंने अपनी रिपोर्ट भिजवा दी। वहाँ पहुँचने के बाद मैंने भारतीय समाचार पत्रों में पढ़ा कि हेमवती नन्दन बहुगुणा उ.प्र. के मुख्यमंत्री बना कर लखनऊ भेज दिये गये हैं।

इससे पहले भी ऐसे ही एक मौके पर मेरी राय माँगी गई थी। केन्द्रीय रेलवे मंत्री ललित नारायण मिश्र बिहार के समस्तीपुर में एक नई रेलवे लाईन का उद्घाटन करने के दौरान ग्रेनेड हमले में मारे गये। मिश्र कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष भी थे और यह अफवाह थी कि उन्होंने पार्टी फंड के लिये आये हुए चन्दे में से बहुत सारा पैसा अपने लिये अलग से छिपा कर रख लिया है। अफवाह यह भी थी कि उन्हें सरकार में रह रहे तत्वों द्वारा ही ठिकाने लगाया गया और इसमें श्रीमती गांधी, जो उनकी इस अमानत में खयानत की आदत से नाखुश थीं, की रजामंदी थी। देश भर में उन दिनों ललित नारायण मिश्र की हत्या को लेकर अफवाहों का बाजार गर्म था।

मैं उन दिनों छुट्टी पर भारत आया हुआ था। एक दिन प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव पी.एन. हक्सर ने मुझे बुला भेजा और कहा कि प्रधानमंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या के मामले में उनकी संलिप्तता के बारे में जानना चाहती हैं। मैं बिहार जाकर सारी बातें पता लगाऊँ। बिहार ललित नारायण मिश्र का घर था। मैं पटना गया और मिश्रा जी के भतीजे चन्द्र मोहन मिश्र, जो दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार पैट्रियट के संवाददाता थे, से मिला। उन्होंने कहा कि लोगों को विश्वास है कि जिस कार्यक्रम में मिश्रा जी मारे गये, उसके अन्त में गुप्तचर विभाग के एक रिटायर्ड अधिकारी ने हैंड ग्रेनेड मिश्रा जी की ओर लुढ़काया, जो फट गया। समारोह में इन्दिरा गांधी के पूर्व निजी सचिव यशपाल कपूर समेत अनेक विशिष्ट लोग मौजूद थे। कपूर और ये अन्य लोग समारोह समाप्त होने से ठीक पहले चले गये और ग्रेनेड फटने वक्त घटनास्थल पर मौजूद नहीं थे। बुरी तरह घायल मिश्रा जी को एक बेहद सुस्त रफ्तार ट्रेन से रास्ते के किसी महत्वहीन अस्पताल में ले जाया गया, जहाँ उनका इलाज संभव नहीं हो पाया। वहाँ भी बहुत ज्यादा अनावश्यक देरी करने के बाद पटना मेडिकल कॉलेज ले जाया गया। मगर तब तक बहुत सारा खून बह चुका था और मेडिकल कॉलेज पहुँचने के कुछ ही देर बाद उन्होंने दम तोड़ लिया। उनके भाई जगन्नाथ मिश्र, जो उतना ज्यादा घायल नहीं थे, अभी वहीं भर्ती थे।

गाँव में ललित नारायण मिश्र की विधवा पत्नी मिलने आने वाले लोगों को बता रही थीं कि जब श्रीमती गांधी मिश्रा जी की अंत्येष्टि में भाग लेने पहुँचीं तो हेलीकॉप्टर से उतर कर वे सीधे मिश्रा जी के परिवार के पास संवेदना प्रकट करने नहीं आयीं। पहले उन्होंने यशपाल कपूर से अकेले में फुसफुसाते हुए काफी देर बातचीत की, उसके बाद ही वे मिश्र परिवार के पास शोक संवेदना प्रकट करने आयीं। अफवाह गर्म थी कि ललित नारायण मिश्र को ठिकाने लगाया गया है। इन्दिरा गांधी के इमर्जेंसी शासन के सबसे मुखर विरोधी रहे जय प्रकाश नारायण ने भी संकेत दिया था कि मिश्र की हत्या में इन्दिरा का हाथ है।

जल्दी ही कांग्रेस को बिहार का नया मुख्यमंत्री तय करना था। इस पद के कई दावेदार थे। सिंगापुर जाने से पहले मैं इन्दिरा गांधी से मिलने गया। बातचीत में उन्होंने बिहार का जिक्र छेड़ा और वहाँ के मुख्यमंत्री के लिये मेरी राय जाननी चाही। मैंने कहा कि इस पद के लिये जगन्नाथ मिश्र, जो अभी पटना मेडिकल कॉलेज में इलाज करवा रहे थे, सबसे बेहतर रहेंगे। उन्होंने कहा, ‘‘आपको मालूम है कि इस वक्त बिहार के नेता बाहर मेरा इन्तजार कर रहे हैं। उन्होंने आपस में मुख्यमंत्री के लिये कर्पूरी ठाकुर के नाम पर सहमति बना ली है और वे मुझसे मिलेंगे तो चाहेंगे कि मैं उनके नाम की घोषणा कर दूँ। कर्पूरी ठाकुर उनके साथ ही हैं।’’ यह बिहार की कांग्रेस पार्टी का निर्णय था।

मैंने कहा कि स्वर्गीय मिश्र की पत्नी उनकी मृत्यु के लिये आपको दोष दे रही हैं। यदि आप उनके देवर को मुख्यमंत्री बनाती हैं तो वे आगे से ऐसे आरोप लगाने से परहेज करेंगी, क्योंकि उन्हें महसूस होगा कि सत्ता तो अभी भी उनके परिवार के पास ही है।

इन्दिरा जी सोचती रहीं, लेकिन उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

सिंगापुर लौट कर मैंने अखबारों में पढ़ा कि जगन्नाथ मिश्र इलाज के लिये हवाई जहाज से दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट लाये गये और फिर उन्हें बिहार का नया मुख्यमंत्री बना दिया गया।

यह खबर किसी तरह कांग्रेस के भीतर जाहिर हो गई होगी। बाद में, जब मैं एक बार दिल्ली में था बिहार के एक प्रमुख सांसद, एक शर्मा जी, एक दिन मुझसे मिलने आये और कहने लगे कि क्या मैं श्रीमती गांधी से उन्हें केन्द्र सरकार में मंत्री बनाने की सिफारिश कर सकता हूँ। मैंने उन्हें टालते हुए कहा कि ऐसी सिफारिश करने के लिये मैं बहुत ही तुच्छ और महत्वहीन व्यक्ति हूँ। मगर उन्होंने जोर दिया कि वे जानते हैं कि जगन्नाथ मिश्र का नाम मैंने आगे बढ़ाया था और इन्दिरा जी ने उसे मान भी लिया था।

ये शर्मा जी बाद में केन्द्र सरकार में मंत्री बन भी गये।

सिंगापुर में मुझे हेमवती नन्दन बहुगुणा का फोन आया। उन्होंने बताया कि उन्होंने जनता पार्टी छोड़ कर दुबारा कांग्रेस में शामिल होने का फैसला कर लिया है। 14 नवम्बर को नेहरू जी के जन्मदिन पर वे अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने प्रातः ‘शांति वन’ गये थे, जहाँ उनकी भेंट इन्दिरा गांधी से हुई। वे अपने दोनों बेटों, बहुओं और पोते-पोतियों के साथ आई थीं। ‘‘मामा जी के पाँव छुओ,’’ उन्होंने अपने लड़कों-बहुओं से कहा। उन सबने विनम्रतापूर्वक इन्दिरा जी का आदेश पूरा किया। फिर उन्होंने बहुगुणा जी से कहा कि वे नाश्ता करने के लिये सपरिवार उनके घर आ रही हैं।

बहुगुणा जी के घर वापस पहुँचने के थोड़ी देर बाद इन्दिरा जी भी वहाँ पहुँचीं। उन्होंने बातचीत में बहुगुणा से कहा कि वे आज ही कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा करें, क्योंकि नेहरू जी का जन्मदिन होने के नाते यह बहुत महत्वपूर्ण दिन है।

‘‘तुम जानते हो कि मैं अपने पास प्रार्थना लेकर आने वाले किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटा पाता। इन्दिरा जी मुझे कांग्रेस में शामिल करना चाहती थीं। मैंने इन्दिरा जी की इच्छा पूरी कर दी। मैंने आज कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दी है।’’ बहुगुणा जी ने फोन पर मुझे बताया।

मगर उसी फोन में बहुगुणा जी ने मुझ से यह भी कहा कि मैं जल्दी से जल्दी भारत वापस लौट आऊँ और उनके राजनीतिक काम में उनकी मदद करूँ।

मैं भारत लौटना चाह ही रहा था…..

(जारी…)

‘दुनिया में बड़े  पैमाने पर’ के लेखक
हरीश चंदोला के बारे में

हरीश चंदोला 60 से अधिक वर्षों से पत्रकार रहे, उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे भारत के कुछ प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों के साथ काम किया । अपने लंबे करियर के दौरान, उन्होंने आधुनिक भारतीय और विश्व इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाओं को कवर किया। वह अपने अंतिम वर्षों में जोशीमठ, उत्तराखंड की पहाड़ियों में एक शांत जीवन व्यतीत कर रहे थे, जहाँ वह स्थानीय समाचार पत्रों के लिए लिखते रहते थे।

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