विश्वासघात: शरणागत पठान अमीर अली ने जेसलमेर कब्जाने को बोला था धावा
जैसलमेर का तीसरा शाका और महारावल लूणकरण भाटी
महारावल लूणकरण का जन्म 1465 में 14 अप्रैल को हुआ था। लूणकरण जी, महारावल जैतसिंह के दूसरे पुत्र थे।
जब 1540 में शेरशाह सूरी से हारकर बादशाह हुमायूं दिल्ली से भागकर जोधपुर पहुंचा और जोधपुर नरेश से शरण मांगी, तब जोधपुर नरेश मालदेव राठौड़ ने कोई सहायता नहीं की और उस समय वह जोधपुर से जैसलमेर आ गया और जैसलमेर नरेश से हुमायूं ने शरण मांगी, परंतु जैसलमेर नरेश महारावल लूणकरण भाटी ने सहायता नहीं की और कहा कि – “तुमने बिना आज्ञा के हमारे देश में प्रवेश किया है और हिंदू धर्म के विरुद्ध तुमने गायों को मारा है, इसलिए मैं तुम्हारी सहायता नहीं करूंगा और जल्द से जल्द मेरे देश से निकल जाओ।” साथ ही लूणकरण भाटी ने पानी के कुंए भी रेत डालकर बंद करवा दिए, ताकि हुमायूं को पीने का पानी ना मिल सकें और उसे क्षेत्र छोड़ना ही पड़े, पानी के कुंए बंद होने से हुमायूं को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा और जैसलमेर रावल की सेना से हुमायूं की मुठभेड़ भी हुई, फिर अंत में जाकर हुमायूं अमरकोट पहुंचा, वहां उसे शरण मिली।
कुछ समय बाद जैसलमेर महारावल लूणकरण के समय ही कंधार (अफगानिस्तान) का शहजादा पठान अमीर अली खां अपने परिवार सहित राज्यच्युत(देश-निकाला) हो अपने परिवार सहित व छोटी सी सैनिक टुकड़ी सहित जैसलमेर पहुंचा और रावल से शरण मांगी।
सहृदय महारावल ने अमीर अली खान और उसके परिवार का खूब आदर-सत्कार कर जैसलमेर से दो किलोमीटर दूर किशनघाट में अमीर अली खान को शिविर लगाने की अनुमति दे दी। पठान अमीर अली खान, महारावल लूणकरण का पगड़ी बदल भाई बन गया। लेकिन पठान अमीर अली खान तो हुमायूं के कहने पर जैसलमेर पर धोखे से अधिकार करने आया था। काफी समय जैसलमेर में निवास करने के कारण अमीर अली खान को जैसलमेर की भीतरी परिस्थितियों का ज्ञान हो गया कि जैसलमेर की सेना केवल युद्ध काल में ही निमंत्रण पर आती है, भाटी सामंत भी आसपास के गांवों में रहते हैं जो युद्ध काल में ही रावल का संदेश मिलने पर सैन्य शक्ति के साथ हाजिर होते हैं। कोई वैतनिक या स्थाई सेना जैसलमेर के पास नहीं है।
शरण लेने के बावजूद विश्वासघाती पठान अमीर अली खान की नियत में खोट आ गई, अब वह जैसलमेर पर अपना अधिकार करना चाहता था। अमीर अली मौके की तलाश में रहने लगा। एक दिन उसने जाल रचा। यह बात सन् 1550 की है, उस समय वीर युवराज मालदेव भाटी दलबल सहित जैसलमेर से बाहर शिकार को निकले हुए थे, पठान अमीर अली ने रावल को संदेश भिजवाया कि उसकी बेगमें, रानिवास में महारानी साहिबा व अन्य परिवारजनों के दर्शन करना चाहती है। महारावल लूणकरण भाटी, पठान अमीर अली के पगड़ी बदल भाई थे, और भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता माना जाता है, इस कारण महारावल ने खुशी-खुशी मिलने की आज्ञा दे दी।
इधर पठान अमीर अली खान षड़यंत्र रच डोलियों में सशस्त्र सैनिक बिठाकर किले के प्रवेश द्वार तक आ गया। भोले-भाले भाटी राजपूत सरदारों ने अतिथि व नारी सम्मान का ध्यान रखते हुए बिना कोई जांच किए ही उन्हें किले में प्रवेश दे दिया। यवनों के किले में प्रवेश करते ही अन्त:पुर के प्रथम द्वार पर ही कंधारी यवनों का भेद खुल गया। घमासान युद्ध शुरू हो गया, किले में चारों ओर भयंकर मारकाट मच गई। कंधारी यवनों के षडयंत्र का भेद खुलते ही रणभेरी बज उठी। राजमहलों के द्वार बंद करवा दिए गए। महारावल लूणकरण षड़यंत्र का पता चलते ही क्रोध से उत्तेजित हो उठे और उन्होंने झपट कर तलवार निकाल ली। तभी उन्हें जानकारी मिली कि शस्त्रों से सुसज्जित शत्रुदल संख्या में अधिक हैं तथा हमारे असावधान सैनिकों पर भारी पड़ रहे हैं। पूरे रनिवास में पठान अमीर अली की धोखे की खबर फैल चुकी थी। महारावल लूणकरण भाटी परिस्थिति की भयावहता और अपनी विवशता भली-भांति समझ चुके थे। महारानी ने उस समय की दुविधा को भांपकर ढांढस बंधाते हुए रावल से कहा कि – ” हे नाथ, सतीत्व व स्वाभिमान की रक्षार्थ प्राण न्यौछावर करने का सुअवसर किसी भाग्यवान क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है। आप अपने ममता के बंधनों को काटकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कीजिए।”
लकड़ियों की कमी होने से उस समय की परिस्थितियों में जौहर करना संभव नहीं था, इसलिए समस्त वीरांगनाओं ने एक साथ अपने मस्तक झुका दिए। उन सभी क्षत्राणियों को धारा-स्नान करवाया गया अर्थात् धर्म व मर्यादा की रक्षार्थ महारावल व अन्य सरदारों ने सभी बालिकाओं, नारियों, रानियों, तथा महारानियों को तलवार से अपने ही हाथों से मौत के घाट उतार दिया। वीर क्षत्राणियों ने हंसते-हंसते अपने शरीर का बलिदान दिया। स्वाभिमानी वीरांगनाओं का रक्त दुर्ग की नालियों में बहने लगा।
धारा स्नान के बाद महारावल लूणकरण और उनके सरदार, विश्वासघाती पठान अमीर अली और उसकी सेना पर भुखे शेरों की भांति टूट पड़े। अद्भूत रणकौशल और तलवार का जौहर दिखाते हुए महारावल लूणकरण ने अनेक पठानों को मौत के घाट उतार दिया और स्वयं भी युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। किले में मौजूद भाटी वीरों ने शत्रुओं का डटकर सामना किया। परन्तु अप्रत्याशित हमलें ने उन्हें संभलने का अवसर ही नहीं दिया। महारावल के अलावा उनके चार भाई मंडलीक जी, प्रताप सिंह जी, राज सिंह जी, और धीर सिंह जी तथा उनके तीन कुंवर हरदास जी, दुरजनशाल जी व सुरजमल जी युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में चार चारण, दो भाट, सात पुरोहित सहित लगभग चार सौ भाटी योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। कंधारियों ने धोखे से किले पर अधिकार कर लिया। जैसलमेर दुर्ग का यह तीसरा शाका था। कुछ इतिहासकारों ने जौहर-अग्निकुंड के अभाव में इसे अर्द्ध शाका कहा है।
महारावल लूणकरण के पुत्र युवराज मालदेव भाटी को कंधारी पठान अमीर अली द्वारा किए गए धोखे की खबर मिलते ही वह क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला से भड़क उठे और उन्होंने तुरंत हरकारे भेजे। वीर योद्धाओं के दल जैसलमेर की ओर चल पड़े। भाटी वीरों ने मां स्वांगिया के जयकारों से आकाश को गूंजा दिया। भाटी वीर कंधारी पठानों से प्रतिशोध लेने के लिए जैसलमेर किले की ओर आगे बढ़े और पठानों पर टूट पड़े। युवराज मालदेव के नेतृत्व में जैसलमेर की सेना ने पठानों को करारी मात दी। उन्होंने अद्भुत वीरता का परिचय दिया। युवराज मालदेव की तलवार के जौहर के आगे पठान सेना में हाहाकार मच गया। लगभग पांच सौ पठान मारे गए। अन्य पठान भाग निकले । जो घिर गए प्राणों की भीख मांगने को विवश हो गए। अमीर अली जिंदा पकड़ा गया। युवराज मालदेव ने उसे चमड़े के कुड़ियें में बन्द कर दक्षिण दिशा में तोप से उड़ा दिया। इस प्रकार तीसरे शाके में जैसलमेर पर जो सकंट आया था, उसका अंत हो गया व युवराज मालदेव जी जैसलमेर के 21वें महारावल बने.