AtoZ:उप्र में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन का क्या रहा असली कारण
Loksabha Chunav 2024 Know About Bjp Bad Performance Reasons In Uttar Pradesh
तो ये रहीं UP में भाजपा की सीटें घटने की असल वजह, ‘बुलडोजर बाबा’ का चुनाव में क्यों नहीं दिखा जादू
लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा को उत्तर प्रदेश में सिर्फ 33 सीटें मिलीं। 2019 में 62 सीटें मिली थी। 2014 में 10 सीटें मिली थीं। इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसा क्या हो गया, जिसने योगी की छवि और शासन शैली पर सवाल खड़े कर दिए है
मुख्य बिंदु
उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है
अवध और पूर्वांचल की सीटों पर हार के कई कारण सामने आए
कई सीटों पर प्रत्याशियों को बदलने का फीडबैक था
लखनऊ 13 जून 2024: लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा का प्रदर्शन इस बार अच्छा नहीं रहा। इसे बेहद खराब प्रदर्शन कहना अधिक उचित होगा। वर्ष 2014 से अब तक चार चुनाव देख चुके यूपी में भाजपा की सीटें पहली बार इतनी घटी हैं। इस दौरान यूपी ने दो लोकसभा और दो विधानसभा के चुनाव देखे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 71 सीटें मिली थीं। 2019 में मोदी-योगी की साझी ताकत के बावजूद भाजपा की सीटें घटीं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 80 में 62 सीटें मिलीं। 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के खाते में महज 33 सीटें आईं, जबकि इंडिया ब्लाक ने 37 सीटों पर सफलता हासिल की। 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के प्रदर्शन ठीक ही रहा। 2017 के असेंबली इलेक्शन में अकेले भाजपा ने 325 सीटें जीत कर योगी आदित्यनाथ को यूपी की कमान सौंपी थी। सपा-कांग्रेस को तब सम्मिलित रूप से 47 सीटें मिली थीं। 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 255 और समाजवादी पार्टी के गठबंधन को 111 सीटें मिलीं। पांच साल में योगी आदित्यनाथ की पहचान बुल्डोजर बाबा की बन गई। सर्वत्र उनकी इस छवि की प्रशंसा भी होने लगी। आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के खिलाफ योगी का बुलडोजर प्रयोग क्राइम कंट्रोल के लिए सक्सेस माडल के रूप में देखा जाने लगा। 2024 के लोकसभा चुनाव में ऐसा क्या हो गया, जिसने योगी की छवि और शासन शैली पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
आमने-सामने की लड़ाई का असर
लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी दलों ने मुकम्मल गठबंधन ‘इंडिया’ बना लिया था। मायावती यद्यपि विपक्षी गठबंधन से बाहर रहीं, लेकिन लड़ाई को तितरफा नहीं बना सकीं। ऐसी स्थिति में एनडीए और ‘इंडिया’ के बीच ही लड़ाई रह गई। अखिलेश यादव के यादव-मुसलमान वाले मजबूत जातीय समीकरण और कांग्रेस-समाजवादी पार्टी की एकता ने भाजपा को नुक़सान पहुंचाया होगा, लेकिन इसका असर उतना नहीं होना चाहिए था, जितना हो गया। 2014 और 2019 के मुकाबले 2024 में समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन ने भाजपा की नींद उड़ा दी है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को सिर्फ 33 सीटें आईं, जबकि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले इंडिया ब्लाक की सीटें 2019 की छह सीटों से सुधर कर सीधे 43 पर पहुंच गईं। इसमें 2019 में एक सीट पर सिमटी कांग्रेस को मिलीं छह सीटें भी शामिल हैं।
जातीय समीकरण ने भी बिगाड़ा खेल
उत्तर प्रदेश में सवर्ण वोटर 17-18 प्रतिशत बताए जाते हैं। सवर्णों में सबसे अधिक ब्राह्मण हैं, जिनकी आबादी 10 प्रतिशत बताई जाती है। राजपूतों की आबादी पांच प्रतिशत और भूमिहार दो प्रतिशत हैं। इनके साथ वैश्य भी भाजपा के कोर वोटर रहे हैं। यानी तकरीबन 20 प्रतिशत वोटर भाजपा अपने खाते में शुमार करती है। दूसरी ओर पिछड़ी जातियों की आबादी 40 प्रतिशत है। ये जातियां जिस ओर जाती हैं, उसका पलड़ा भारी हो जाता है। भाजपा ने अगर 2014 और 2019 के दो लोकसभा चुनावों में उल्लेखनीय परिणाम हासिल किए तो इसके पीछे पिछड़ी जातियों के वोट थे। ओबीसी का बड़ा तबका आज भी भाजपा का समर्थक है, जो गैर यादव जातियों का है।
आरक्षण खत्म करने के बयान ने पकड़ा तूल
समाजवादी पार्टी का तो जनाधार ही यादव और मुसलमान वोटर रहे हैं। इस बार भी ये इंडिया ब्लाक के साथ थे। ओबीसी वोटर लगभग 40 प्रतिशत हैं, जिनमें 10 प्रतिशत यादव, पांच प्रतिशत कुर्मी, पांच प्रतिशत मौर्या, चार प्रतिशत जाट, राजभर चार प्रतिशत, लोधी तीन प्रतिशत, गुर्जर दो प्रतिशत, निषाद, केवट, मल्लाह चार प्रतिशत और ओबीसी की अन्य जातियां पांच प्रतिशत के आसपास हैं। दलित वोटर 21 प्रतिशत बताए जाते हैं, जो मायावती की बसपा के कोर वोट बैंक रहे हैं। मुस्लिम मतदाताओं की आबादी भी यूपी में अच्छी-खासी है। मुस्लिम आबादी 19 प्रतिशत मानी जाती है। विपक्षी नेताओं द्वारा यह प्रचार पिछड़ी और ओबीसी के मतदाताओं के भाजपा से विमुख होने का कारण बना, जिसमें कहा गया कि भाजपा बाबा साहेब आंबेडकर के संविधान को बदलना चाहती है। आरक्षण को खत्म करना चाहती है। इससे बिदके हुए बैकवर्ड और ओबीसी वोटरों ने भाजपा से इस बार किनारा कर लिया। ऐसे वोटर विपक्षी गठबंधन की ओर मुखातिब हुए। इनके मुखातिब होने का बड़ा एक और बड़ा कारण रहा। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा कोविड काल से मुफ्त दिए जा रहे पांच किलो राशन को 10 किलो करने का वादा कर दिया। साथ ही हर परिवार की महिला के खाते में सालाना एक लाख रुपए भेजने का लालीपाप दिखा दिया।
पर, असली वजह तो अब पता चली
पर, भाजपा की दुर्गति की वजह सिर्फ जातीय गोलबंदी ही नहीं रही। असली कारण अब पता चला है। भाजपा के राज्य नेतृत्व ने सीटें घटने की वजहों की पड़ताल की तो चौंकाने वाले तथ्य का पता चला है। केंद्रीय नेतृत्व को भेजी अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार ने कहा है कि उम्मीदवारों के चयन में गड़बड़ी की वजह से भाजपा को कम सीटें आईं। राज्य सरकार ने तकरीबन तीन दर्जन सिटिंग सांसदों के टिकट काटने या बदलने का सुझाव दिया था। राज्य सरकार के पास यह फीडबैक था कि ऐसे उम्मीदवारों के खिलाफ लोगों में भारी गुस्सा है। इनकी जगह दूसरे उम्मीदवार नहीं उतारे गए तो परिणाम पर असर पड़ सकता है। टिकट बंटवारे में जिन नेताओं की भूमिका रही है, उन पर इस रिपोर्ट के बाद सवाल उठने लाजिमी हैं।
अब टिकट वितरण के तरीके बदलेंगे
शायद यही वजह है कि भाजपा ने अब टिकट वितरण के तरीके में बदलाव का फैसला किया है। भाजपा जिन बड़े बदलावों की तैयारी में है, उनमें यह तय किया जाना है कि आंख मूंद कर चुनाव समिति के फीड बैक के आधार पर अब टिकट वितरण नहीं होगा। टिकट बांटने के लिए सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों पर निर्भरता भी खत्म होगी। दूसरे दलों से भाजपा में आए नेताओं को टिकट देने की लिमिट भी तय करने की तैयारी है।
(ओमप्रकाश अश्क)
Uttar Pradesh Lok Sabha Election Result 2024 Understand What Happened To Bjp In Up Here Detail
उप्र में भाजपा के साथ आखिर हुआ क्या, समझें… कैसे बर्बाद हो गया भाजपा का वर्चस्वी राज्य ?
उप्र में लोकसभा चुनाव 2024 परिणाम के बाद से राजनीतिक चर्चा गरमाई हुई है। लोकसभा चुनाव की 80 में से मात्र 36 सीटों पर भाजपा जीती। इंडिया ब्लॉक ने दमदार प्रदर्शन करते हुए 43 सीटें जीती। इसमें से सपा को रेकॉर्ड 37 और कांग्रेस को 6 सीटों पर जीत मिली ।
मुख्य बिंदु
उप्र में भाजपा को हुआ है मोदी मैजिक बैकफायर
उम्मीदवारों ने बस मोदी-योगी चेहरे पर किया भरोसा
लोगों की नाराजगी को दूर करने की नहीं हुई कोशिश
‘क्योंकि चीजें जैसी हैं, वैसी नहीं रहेंगी’, जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेख्त की यह व्यावहारिक पंक्ति लोकसभा चुनाव परिणामों के लिए सही लगती है। यह भाजपा और विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक दोनों पर लागू होती है। भाजपा के लिए ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र जैसे पूर्व और दक्षिण के नए क्षेत्रों (हालांकि एक सहयोगी के कारण) ने उसकी किस्मत बदल दी। वहीं, केरल, तमिलनाडु और पंजाब में बढ़ते वोट शेयर ने उसे भविष्य को आशा दी है। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश ‘चुनौतियों का राज्य’ सिद्ध हुआ।
लोकसभा चुनाव में गलत दांव:
भाजपा का जातिगत गणित क्यों विफल रहा, जबकि अखिलेश का सफल? इसका प्रत्याशियों और कैडर से बहुत कुछ लेना-देना था? उत्तर प्रदेश भाजपा की बड़ी ताकत से उसकी कमजोरी कैसे बन गया? मैं इसके लिए तीन कारण बताता हूं:
पहला कारण: इंडिया गठबंधन ने यह चुनाव संगठित तरीके से लड़ा और संविधान, आरक्षण और अन्य मुद्दों के बारे में काल्पनिक खतरे बुनकर लोगों को संगठित करने की अपनी रणनीति से काम किया। ओबीसी, एमबीसी और दलितों के एक वर्ग में बेचैनी पैदा करने में सफलता पाई। असुरक्षा की इस भावना ने व्यापक हिंदुत्व पहचान खंडित कर दी, जिसने उन्हें एक दशक से अधिक समय तक भाजपा से बांधे रखा था।
दूसरा कारण: छोटे-छोटे असंतोषों का धीरे-धीरे और लगातार संचय हो सकता है। इसमें बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, अग्निवीर आदि जैसे विषय जोड़कर इंडिया ब्लॉक ने एक मेटा कथा बुनी थी। उन्होंने राज्य में भाजपा विरोधी वातावरण बनाने को सोशल मीडिया का भी आक्रामक उपयोग किया।
तीसरा कारण: समाजवादी पार्टी (सपा) ने भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग मॉडल से सीख लेकर अपने सामाजिक गठबंधन में विविधता लाई, जो गैर-यादव, गैर-जाटव राजनीतिक भागीदारी आधारित है। वे अपने पारंपरिक एम-वाई (मुस्लिम-यादव) सोशल इंजीनियरिंग से आगे बढ़े और इस चुनाव में गैर-यादव, गैर-मुस्लिम समुदायों को टिकट देकर उनके बीच अपना आधार बढ़ाया। उदाहरण को, फैजाबाद सीट से एक दलित अवधेश प्रसाद पासी मैदान में उतारे गये, जबकि यह आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र नहीं है। सुल्तानपुर जैसी पड़ोसी सीटों पर भी चयन रणनीतिक था। वहां निषाद प्रत्याशी मैदान में उतारा गया था। अंबेडकरनगर में कुर्मी प्रत्याशी थे। इन सभी को एम-वाई किटी में जोड़ दें, तो सपा को निर्णायक बढ़त मिल गई।
क्यों विफल हुई भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग क्यों विफल रही, जबकि इंडिया की सफल? इसका एक बड़ा कारण यह है कि इन समुदायों के भाजपा उम्मीदवारों को तीसरी बार दोहराया जा रहा था। उनमें से अधिकांश को स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, पार्टी कैडर स्थानीय स्तर पर उपजे सत्ता विरोधी लहर का मुकाबला करने को पर्याप्त उत्साहित नहीं थे। दूसरी ओर, इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी नए चेहरे थे। उन्होंने ओबीसी-एमबीसी और ज्यादातर गैर जाटव दलित समुदायों के मतदाता आकर्षित किये।
अखिलेश यादव-राहुल गांधी जोड़ी ने भी कार्यकर्ता उत्साहित किये। भाजपा के संदर्भ में देखें तो प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं में समन्वय की कमी साफ दिखी। साथ ही, संयुक्त अभियान की योजना बनाने में भाजपा और उसके सहयोगियों में समन्वय की कमी ने भी उत्तर प्रदेश में असफलताओं में योगदान दिया। यह संभव दिखता है।
क्या नहीं चला मोदी का जादू?
जहां तक बहुचर्चित मोदी जादू की बात है, तो इसने देश के अन्य हिस्सों में प्रभावशाली ढंग से काम किया। लेकिन, उत्तर प्रदेश में यह वास्तव में नुकसानदेह साबित हुआ। मोदी-योगी छवि पर अत्यधिक निर्भरता से प्रत्याशी और कार्यकर्ता सुस्त हो गए। यह देखना दिलचस्प है कि चुनाव प्रचार के यही तरीके इंडिया गठबंधन और कांग्रेस ने अन्य पड़ोसी हिंदी पट्टी राज्यों बिहार और मध्य प्रदेश में भी अपनाए। लेकिन, जैसा कि चुनाव परिणामों से पता चलता है, विपक्ष का यह तरीका विफल रहा। भाजपा ने मध्य प्रदेश में बहुत प्रभावशाली जीत हासिल की। बिहार में मजबूत प्रदर्शन किया।
ऐसा क्यों है? मेरे विचार से, बिहार में एनडीए गठबंधन के पास गैर-यादव-ओबीसी राजनीति के बड़े चेहरे हैं, जैसे नीतीश कुमार, सम्राट चौधरी और दुसाध जाति के दलित नेता चिराग पासवान। दुसाध बिहार में सबसे बड़ा दलित समुदाय है। उनके पास जीतन राम मांझी भी है, जो बिहार के एक अन्य बड़े दलित समुदाय मुसहरों का नेतृत्व करते हैं।
बिहार में ये सभी कारक मिलकर इंडिया ब्लॉक के लिए बाधक बनें। मध्य प्रदेश में भाजपा के पास शिवराज सिंह चौहान और मुख्यमंत्री मोहन यादव का विश्वसनीय ओबीसी चेहरा है, जिन्होंने कांग्रेस का मुकाबला किया। कांग्रेस के पास इन राज्यों में विश्वसनीय ओबीसी राजनीतिक चेहरा नहीं था।
विकास से भी असंतोष !!
एक ऐसा तथ्य जिस पर बहुत कम बात होती है, वह यह है कि विकास भी कभी-कभी असंतोष पैदा करता है। खबरें थीं कि ग्रामीणों का एक वर्ग नेशनल हाइवे-एक्सप्रेसवे परियोजनाओं के भूमि अधिग्रहण की क्षतिपूर्ति से खुश नहीं था। इनमें अधिकांश भूमि ओबीसी,ठाकुर,जाट आदि जमींदार वर्ग की थी और इस छोटे असंतोष ने भी उत्तर प्रदेश में भाजपा विरोधी वातावरण बनाने में योगदान दिया होगा। हालांकि, भाजपा को राज्य में अपनी खोई जमीन वापस पाने को कड़ी मेहनत करनी होगी,ताकि वे 2027 में खुद को फिर से सत्ता में वापसी करा सकें।
सपा और कांग्रेस के सामने इस चुनाव में जो पाया है,उसे बनाये रखने और इसके इर्द-गिर्द अपनी चुनावी राजनीति बनाने की चुनौती होगी। भविष्य में क्या होगा? कहना कठिन है, लेकिन इस पर कोई संदेह नहीं है – दिल्ली के ‘सिंहासन’ को उत्तर प्रदेश मायने रखता है।
(बद्री नारायण जी.बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक हैं। व्यक्त विचार लेखक के हैं।)