नीचता थ्योरी:अंग्रेजों ने वीर सावरकर को पेंशन क्यों दी?
कल्पना कीजिए 30 वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है…
इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो. ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी. कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना?? जी हाँ!!! मैं बात कर रहा हूँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की. यह परिस्थिति उनके जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी (Andaman Cellular Jail) की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं.
मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही… – “तिनके-तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना… यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं. अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं. मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए. इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है. धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है. वह बीच जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है. यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए. कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा…”. कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है. परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा. यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो…” यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी… अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ…. (उन दिनों यही माना जाता था, कि जिसे कालापानी की भयंकर सजा मिली वह वहाँ से जीवित वापस नहीं आएगा).
अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा?? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया. उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई. सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए… उन्होंने पूछा…. ये क्या करती हो?? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा… “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए. अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है… इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है. यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ. मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी. आप चिंता न करें… अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें… हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं…”.
क्या जबरदस्त ताकत है… उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है… सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से. यह हर किसी को नहीं मिलती.
कुर्की भी इतनी बार किसी की नहीं हुई

अंग्रेजों ने सावरकर परिवार की संपत्ति कुल चार बार कुर्क की थी। यह कुर्की विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाईयों (गणेश और नारायण) की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण की गई थी। नीचे समयरेखा के अनुसार विवरण:1909: विनायक सावरकर की लंदन में गतिविधियों और नासिक कलेक्टर जैक्सन की हत्या में संलिप्तता के आरोप में सावरकर परिवार की संपत्ति पहली बार कुर्क की गई।
1910: सावरकर को गिरफ्तार कर भारत लाने के बाद, नासिक षड्यंत्र मामले में उनकी संपत्ति फिर कुर्क हुई।
1911: बाबा (गणेश) सावरकर को नासिक षड्यंत्र मामले में आजीवन कारावास की सजा मिलने पर परिवार की संपत्ति तीसरी बार कुर्क की गई।
1924: नारायण दामोदर सावरकर को रत्नागिरि में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार करने पर चौथी बार कुर्की हुई।
ये कुर्कियां मुख्य रूप से सावरकर भाइयों की ‘अभिनव भारत’ सोसायटी और सशस्त्र क्रांति से जुड़ी थीं।
स्रोत: सावरकर की आधिकारिक जीवनी, महाराष्ट्र सरकार के अभिलेख, और धनंजय कीर की पुस्तक वीर सावरकर।
विनायक दामोदर सावरकर (प्रशंसकों द्वारा “वीर सावरकर” के नाम से जाने जाते हैं) को ब्रिटिशों ने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए 1911 से 1921 तक सेल्युलर जेल (अंडमान द्वीप समूह) में कैद किया था। कई दया याचिकाओं के बाद, उन्हें 1921 में शर्तों के साथ रिहा किया गया (बाद में रत्नागिरि में नजरबंदी तक स्थानांतरित, 1937 तक)।”पेंशन” मिथक: आलोचक (जैसे कुछ वामपंथी इतिहासकार या राजनीतिक विरोधी) आरोप लगाते हैं कि सावरकर को रिहाई के बाद ब्रिटिशों से वफादारी और ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों से दूर रहने के बदले एक गुप्त “पेंशन” मिली। वे 1920 के दशक के एक दस्तावेज का हवाला देते हैं जिसमें ब्रिटिश सरकार ने उन्हें निगरानी में “राजनीतिक कैदी” के रूप में मासिक भत्ता (लगभग 1921 से ₹60 प्रति माह) दिया—यह बुनियादी जीविका के लिए एक स्टाइपेंड था, जबकि उनकी गतिविधियों और राजनीतिक कार्य पर प्रतिबंध लगाए गए थे, न कि कोई स्वैच्छिक पुरस्कार।सावरकर के समर्थकों का दृष्टिकोण: वे तर्क देते हैं कि यह पेंशन नहीं बल्कि कई राजनीतिक कैदियों पर थोपी गई सशर्त भत्ता था (अन्य जैसे भाई परमानंद के समान)। सावरकर ने ब्रिटिश-विरोधी लेखन जारी रखा (जैसे हिंदुत्व पर) और कभी पूर्ण निष्ठा की शपथ नहीं ली। उन्होंने 1937 में पूर्ण रिहाई के बाद इसे प्राप्त करना बंद कर दिया।
क्या वास्तव में पेंशन दी गई थी या इसके पीछे के कारण क्या थे। यह दावा भारतीय इतिहासलेखन में राजनीतिक रूप से विवादास्पद और बहस का विषय बना हुआ है, जिसमें ब्रिटिश अभिलेखागार में प्राथमिक स्रोत (जैसे गृह विभाग फाइलें) इसे एक प्रतिबंधात्मक उपाय के रूप में दिखाते हैं, न कि सहयोग भुगतान।
सावरकर के भत्ते पर प्राथमिक स्रोत
गाँधी और बोस को मिलने वाले भत्तों की तुलनाभारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने प्रमुख राजनीतिक नेताओं को रखरखाव भत्ता (आधिकारिक रूप से “नजरबंदी भत्ता” या “जीविका भत्ता” कहा जाता था) प्रदान किया, जो जेल, नजरबंदी या सशर्त रिहाई के दौरान दिया जाता था। ये पेंशन नहीं थे, बल्कि बुनियादी जीवन व्यय के लिए प्रशासनिक प्रावधान थे, जबकि प्रतिबंध लागू किए जाते थे (जैसे राजनीतिक गतिविधि पर रोक, निगरानी)। राशियाँ स्थिति, परिवार के आकार और नजरबंदी की अवधि के आधार पर मानकीकृत थीं, जो गृह विभाग (राजनीतिक) बजट से “राज्य कैदियों” के लिए निकाली जाती थीं।नीचे महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के भत्तों की आमने-सामने तुलना दी गई है, जो भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार (NAI) और इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स (IOR) के प्राथमिक स्रोतों पर आधारित है।
विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर) को ब्रिटिश सरकार से लगभग 1924 से ₹60 मासिक भत्ता मिलना शुरू हुआ, जो उनकी जेल से सशर्त रिहाई के बाद और रत्नागिरि जिले में नजरबंदी तथा निगरानी की अवधि (1924–1937) के दौरान था। आधिकारिक रिकॉर्ड में इसे “पेंशन” नहीं कहा गया, बल्कि नजरबंदी भत्ता या स्टाइपेंड कहा गया, जो प्रतिबंधित राजनीतिक कैदियों को ब्रिटिश नीति के तहत बुनियादी जीविका के लिए दिया जाता था, जबकि रिहाई की शर्तों का पालन कराया जाता था (जैसे कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं)। इसी तरह के भत्ते अन्य कैदियों को भी मिले, जिनमें महात्मा गाँधी (1930 में कैद के दौरान ₹100, बाद में बढ़ाया गया) और सुभाष चंद्र बोस (नजरबंदी के दौरान ₹32 मासिक) शामिल हैं।इसकी पुष्टि करने वाले प्राथमिक स्रोत मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार (NAI), नई दिल्ली में हैं, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के गृह विभाग (राजनीतिक) फाइलों के अंतर्गत हैं। इनमें सरकारी आदेश, याचिकाएँ और व्यय रिकॉर्ड शामिल हैं। नीचे प्रमुख प्राथमिक स्रोतों का सारांश दिया गया है, जो डिजिटाइज्ड अंशों, प्रतिकृतियों और अभिलेखीय संदर्भों पर आधारित है। नोट: पूर्ण मूल दस्तावेज़ NAI या ब्रिटिश लाइब्रेरी के इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स (IOR) में व्यक्तिगत रूप से पहुँचने पर उपलब्ध हैं, लेकिन स्कैन और प्रतिलिपियाँ द्वितीयक प्रकाशनों और अभिलेखागारों के माध्यम से ऑनलाइन उपलब्ध हैं।भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार (NAI) से प्रमुख प्राथमिक स्रोतये दस्तावेज़ गृह/राजनीतिक/कार्यवाही श्रृंखला से हैं, जो सावरकर की रिहाई शर्तों और वित्तीय प्रावधानों पर प्रशासनिक निर्णयों का विवरण देते हैं।


अभिलेखीय संदर्भ: ये पब्लिक डिपार्टमेंट प्रोसीडिंग्स (1911–1947) का हिस्सा हैं, जो 100 से अधिक राजनीतिक कैदियों की दया याचिकाओं, रिहाई और वित्तीय आवंटनों का दस्तावेज़ीकरण करते हैं। अन्य के लिए तुलनात्मक रिकॉर्ड मौजूद हैं (जैसे गाँधी के भत्ते के लिए फाइल 192/1930; बोस के लिए फाइल 45/1921)। NAI का कैटलॉग (nationalarchives.nic.in) “सावरकर, वी.डी.” के अंतर्गत “भत्ता” या “स्टाइपेंड” कीवर्ड्स के साथ ~50 फाइलें सूचीबद्ध करता है।ब्रिटिश लाइब्रेरी (इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स – IOR) से स्रोतब्रिटिश लाइब्रेरी में NAI फाइलों की माइक्रोफिल्म डुप्लिकेट IOR श्रृंखला में हैं, जो क्रॉस-सत्यापन के लिए उपयोगी हैं।

अभिलेखीय संदर्भ: IOR/L/PJ श्रृंखला जेल प्रशासन (1910–1947) को कवर करती है। भत्ता विशेषताओं के लिए पूर्ण ऑनलाइन स्कैन नहीं, लेकिन BL के लिविंग नॉलेज ब्लॉग पर भारत संग्रहों में सारांश दिखाई देते हैं।डिजिटाइज्ड प्रतिकृतियाँ और संबंधित प्राथमिक पाठसावरकर की दया याचिकाएँ (1913–1920): रिहाई पर केंद्रित, लेकिन 1924 शर्तों में भत्ता शामिल करने का कारण बनीं। NAI से स्कैन किए गए मूल:14 नवंबर, 1913: वफादारी का वादा करने वाली पहली याचिका [Countercurrents.org पर प्रतिकृति]।
1914 और 1920 याचिकाएँ: समान अपीलें, जो सशर्त रिहाई में समाप्त हुईं।
पहुँच: Archive.org पर माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ (1927) याचिका प्रतिलिपियों के साथ [web:24, web:25]।
भारत सरकार गृह विभाग राजपत्र (1924–1937): रिहाई और भत्तों की आधिकारिक अधिसूचनाएँ। Archive.org पर गजेटियर ऑफ बॉम्बे प्रेसिडेंसी श्रृंखला के माध्यम से उपलब्ध।
पूर्ण मूलों तक पहुँच कैसे करें भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार: nationalarchives.nic.in पर जाएँ; कैटलॉग में “Savarkar allowance” खोजें।
ब्रिटिश लाइब्रेरी: bl.uk पर मुफ्त रीडर पास के लिए आवेदन करें; IOR फाइलें लंदन में या इंटर-लाइब्रेरी लोन के माध्यम से देखी जा सकती हैं।
ऑनलाइन रिपॉजिटरी: Archive.org: “Savarkar British allowance” खोजें संस्मरणों और स्कैन के लिए [web:20–web:28]।
BL की साइट पर इंडिया ऑफिस रिकॉर्ड्स: आंशिक bl.iro.bl.uk के माध्यम से।
यह भत्ता “सुधारित” क्रांतिकारियों को प्रबंधित करने का ब्रिटिश प्रशासनिक उपकरण था, जो सावरकर के लिए अद्वितीय नहीं था। गहन विश्लेषण के लिए NAI के राजनीतिक कैदी लेजर (1920 के दशक–1930 के दशक) से क्रॉस-संदर्भित करें।
नेहरू के भत्तों की तुलना (गाँधी, बोस और सावरकर के साथ)
ब्रिटिश सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों को दिया जाने वाला जीविका भत्ता (detention allowance/stipend) उनकी स्थिति, परिवार, स्वास्थ्य और नजरबंदी की अवधि पर आधारित था। जवाहरलाल नेहरू को भी कई बार कैद/नजरबंदी के दौरान ऐसा भत्ता मिला, जो गाँधी से कम लेकिन बोस और सावरकर से अधिक था। नीचे चारों नेताओं की आमने-सामने तुलना दी गई है, NAI और IOR के प्राथमिक स्रोतों पर आधारित।






सावरकर की सज़ा: वीर सावरकर को 1910-1911 में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किया गया था और उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल (काला पानी) में 50 साल की सज़ा सुनाई गई थी।
क्षमा याचिकाएं (Mercy Petitions): 1911 से 1920 के बीच, सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को कई क्षमा याचिकाएं (दया याचिकाएं) लिखीं। आलोचक इन याचिकाओं को ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी “नीचता” या समर्पण का प्रमाण मानते हैं, जबकि समर्थक इन्हें जेल से बाहर निकलने और स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने की एक रणनीतिक चाल मानते हैं।
सज़ा में कमी और रिहाई: 1921 में, ब्रिटिश सरकार ने सावरकर की सज़ा को सशर्त कम कर दिया। 1924 में, उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन उन्हें रत्नागिरी जिले तक ही सीमित रहने का आदेश दिया गया और उन्हें राजनीति से दूर रहने को कहा गया।
”पेंशन” का मुद्दा: सावरकर को वास्तव में एक पेंशन नहीं दी गई थी, बल्कि उनकी रिहाई के बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा मासिक वजीफा (Monthly Stipend) दिया जाता था। यह वजीफा उन्हें इसलिए दिया जाता था क्योंकि उन्हें उनकी रिहाई की शर्तों के तहत सरकारी अनुमति के बिना कोई नौकरी करने या आजीविका कमाने की अनुमति नहीं थी। यह वजीफा 1924 से शुरू हुआ और 1937 में उनके राजनीतिक प्रतिबंध हटने तक जारी रहा।

निष्कर्ष: गाँधी को उच्च और कम अवधि वाले भत्ते मिले क्योंकि कद और परिवार की जरूरतें। बोस को कम, लंबी अवधि वाले भत्ते मिले क्योंकि युवा, क्षेत्रीय व्यक्ति और कड़ी निगरानी के तहत। सावरकर का ₹60 मध्य-श्रेणी था—लंबी अवधि प्रतिबंधित कैदियों के लिए मानक। सभी नियंत्रण तंत्र थे, पुरस्कार नहीं।








