बिहार के साइड-इफेक्ट: शिवसेना तेजस्वी के साथ और नीतीश के भी
शिवसेना राज्य सभा सांसद संजय राऊत
चोट लगी बिहार में और दर्द हो रहा महाराष्ट्र में
शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत। (फाइल फोटो)
ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना- यह कहावत इन दिनों महाराष्ट्र में चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। विधानसभा चुनाव परिणाम बिहार में आए। राष्ट्रीय जनता दल की हार बिहार में हुई, लेकिन इस हार का दर्द शिवसेना को हो रहा है। तेजस्वी यादव के मुंह खोलने से पहले ही शिवसेना का मुंह खुल गया। वह कहने लगी कि तेजस्वी यादव हार गए, ऐसा हम मानने को तैयार नहीं हैं। एक तरफ शिवसेना को तेजस्वी की हार पर भरोसा नहीं हो रहा है, तो दूसरी ओर नीतीश कुमार के पुन: मुख्यमंत्री बनने का श्रेय भी वह खुद ही लेना चाहती है।
उसका मानना है कि पिछले वर्ष इन्हीं दिनों महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आने के बाद यदि उसने भारतीय जनता पार्टी को झटका देकर कांग्रेस-राकांपा के साथ सरकार न बना ली होती, तो भाजपा बिहार में नीतीश कुमार को जदयू की सीटें कम आने पर भी मुख्यमंत्री बनाने का वादा नहीं करती। शिवसेना एक बार फिर यह बताने की कोशिश कर रही है कि भाजपा नेतृत्व ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले उसके साथ किया गया वादा नहीं निभाया।
निश्चित रूप से आज जदयू को बिहार में भाजपा से काफी कम सीटें पाने का दुख होगा। वास्तव में यही दुख 2014 के बाद से महाराष्ट्र में शिवसेना को भी सालता आ रहा है। छोटे भाई-बड़े भाई की जो बात आज बिहार में होती दिख रही है, वह 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद ही महाराष्ट्र में शुरू हो गई थी।
शिवसेना ने जीत का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को देने से किया इन्कार
भाजपा के साथ गठबंधन करके लोकसभा चुनाव लड़ने और भारी सफलता हासिल करने के बावजूद चुनाव के तुरंत बाद से ही शिवसेना ने इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता को देने से इन्कार कर दिया था, क्योंकि छह माह बाद ही महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने थे। विधानसभा चुनाव आते-आते शिवसेना-भाजपा का लगभग तीन दशक पुराना गठबंधन टूट गया था। दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़े और शिवसेना भाजपा से करीब आधे पर सिमट गई। यहीं से महाराष्ट्र में बड़ा भाई होने का उसका भ्रम भी टूट गया।
मन में आई कड़वाहट दूर नहीं हो सकी
हालांकि, फिर थोड़ा उससे पीछे चलें, तो देवेंद्र फड़नवीस सरकार बनने के करीब एक माह बाद शिवसेना सरकार में शामिल तो हुई, लेकिन उसके मन में आई कड़वाहट दूर नहीं हो सकी। लेकिन उसे अहसास हो चुका था कि चुनाव मैदान में अकेले उतरना फायदे का सौदा नहीं हो सकता।
शिवसेना ने पलटी मारी
इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले ही उसने भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन करना बेहतर समझा, लेकिन चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने पलटी मारी और भाजपा का साथ छोड़ उसी कांग्रेस-राकांपा का हाथ थाम लिया, जिसके विरुद्ध उसने चुनाव लड़ा था। शिवसेना अपने इस घात को छिपाने के लिए बार-बार कहती आ रही है कि भाजपा नेताओं ने उसके साथ किया गया वादा नहीं निभाया। उसका इशारा लोकसभा चुनाव से पहले मार्च 2019 में उद्धव ठाकरे एवं तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच हुई एक बैठक की ओर रहा है।
क्या कहती है शिवसेना
शिवसेना का कहना है कि इसी बैठक में अमित शाह ने उद्धव से 50-50 फीसद सत्ता के बंटवारे का वादा किया था। लेकिन न तो इस बैठक के बाद शिवसेना की ओर से प्रेस को इस वादे की कोई जानकारी दी गई, न ही भाजपा नेता ऐसे किसी वादे की बात मानने को तैयार हैं। जबकि बिहार के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने खुद चुनावी मंच से घोषणा की थी कि भाजपा की सीटें कम आएं या ज्यादा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार ही होंगे।
भाजपा की अपनी सांगठनिक ताकत और कार्यशैली है
राज्य की सत्ता में उसकी सहयोगी कांग्रेस भी यह कहकर उसे प्रोत्साहन देती रहती है कि भाजपा हर जगह अपने सहयोगी दलों के कंधे पर पांव रखकर अपना कद बढ़ाती रहती है। लेकिन यह तर्क देते हुए शिवसेना और कांग्रेस भूल जाती हैं कि महाराष्ट्र हो या बिहार अथवा पंजाब, लड़ी गई सीटों पर जीत का प्रतिशत भाजपा का अपने सहयोगी दलों से बेहतर रहा है। भाजपा की अपनी सांगठनिक ताकत और कार्यशैली है, जिस कारण वह कम सीटें लड़कर भी बेहतर प्रदर्शन करती है।
शिवसेना आज भी भाजपा को 1985-1995 वाली स्थिति में देखना चाहती है
भाजपा का एक राष्ट्रीय दल होना और केंद्र में उसकी सत्ता होना भी आम जनमानस में उसे बढ़त दिलाता है, जिसका लाभ उसे चुनावों में भी मिलता है। लेकिन शिवसेना आज भी भाजपा को 1985-1995 वाली स्थिति में देखना चाहती है, जब वह उसे खुद से एक तिहाई कम सीटें देकर अधिक सीटें पाने वाले दल को मुख्यमंत्री पद देने का लॉलीपॉप दिखाया करती थी। सहयोगी दल को बराबर की सीटें देकर अधिक सीटें जीतनेवाले दल को मुख्यमंत्री पद देना उसे मंजूर नहीं था।
शिवसेना को भाजपा के गठबंधन धर्म में खोट नजर आने लगा
वर्ष 2014 में जब परिस्थितियां बदलीं, तो पासा पलट गया। तब शिवसेना को भाजपा के गठबंधन धर्म में खोट नजर आने लगा। भाजपा के इसी खोट का अहसास अब वह अपने अजब-गजब बयानों से जदयू को कराना चाहती है, ताकि जदयू भी शिवसेना से प्रेरणा लेकर कुछ वैसा ही कदम उठा ले, जैसा 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना ने उठाया था।