तो बिहार में भाजपा रोकने को कांग्रेस-वामियों ने तेजस्वी को माना नेता
जगन्नाथ सरकार बिहार में सीपीआई (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया) के संस्थापकों में से एक रहे. 1989 में लोकसभा चुनाव से पहले वीपी सिंह के जनता दल ने सीपीआई से गठबंधन किया था.
एक जनसभा में जनता दल के कुछ कार्यकर्ताओं ने जगन्नाथ सरकार के कंधे पर हरे रंग की पट्टी डालने की कोशिश की थी, तो सरकार ने ऐसा नहीं होने दिया था.
उन्होंने हरे रंग की पट्टी को हटाते हुए कहा था कि इस शरीर पर केवल लाल रंग ही चढ़ सकता है. सरकार का जीवन भी ऐसा ही रहा. 1930 के दशक से उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति शुरू की थी और मरते दम तक कम्युनिस्ट रहे.
70 के दशक में बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी रही सीपीआई के नेताओं का तेवर तब ऐसा था. अब यह पार्टी बिहार में पिछले चार-पाँच सालों से जेनएयू में छात्र नेता रहे कन्हैया कुमार के कारण चर्चा में है.
कन्हैया कुमार की मई 2016 की एक तस्वीर काफ़ी वायरल हुई थी, जिसमें वो आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को पैर छूकर प्रणाम कर रहे थे. कई लोगों ने सवाल उठाए कि जिस पार्टी के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन पर सीपीआईएमल और जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर की हत्या के गंभीर आरोप हैं, उसी पार्टी प्रमुख के लिए कन्हैया के मन में इतना सम्मान क्यों है?
हालाँकि कन्हैया का कहना था कि ये बड़ों के प्रति महज अभिवादन था, जिसे विचारधारा से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.
बिहार की वामपंथी पार्टियाँ एक बार फिर से आरजेडी के साथ इस चुनावी मैदान में हैं. आरजेडी ने सीपीआई को छह, सीपीएम को चार और सीपीआईएमएल को 19 सीटें दी है. इसके साथ ही इस खेमे में कांग्रेस भी 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि कन्हैया कुमार जिस राजनीतिक बदलाव की बात करते हैं, वो क्या बिहार में तेजस्वी के नेतृत्व से हासिल कर लेंगे? या फिर बीजेपी और मोदी की राजनीति को कन्हैया तेजस्वी के नेतृत्व में चुनौती दे पाएँगे?
अतीत में वामपंथी पार्टियाँ जनता दल और आरजेडी से गठबंधन कर चुकी हैं. लेकिन उनके अनुभव ठीक नहीं रहे हैं. पार्टी के ही कुछ अहम नेताओं ने माना कि लालू के साथ जाने से वामपंथी सोच और समझ को नुक़सान पहुँचा है.
भारत की चुनावी राजनीति में पार्टियों के साथ आने और साथ छोड़ने के तर्क बदलते रहते हैं. पार्टियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वो अपनी प्रासंगिकता कैसे बनाए रखें. लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहना या चुनाव में जीत से महरूम रहना, भारत में पार्टियों के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन जाता है.
बिहार में वामपंथी पार्टियों की 70 के दशक में मज़बूत ज़मीन रही है. बिहार विधानसभा में सीपीआई 1972 से 77 तक मुख्य विपक्षी पार्टी रही. लेकिन 1977 में कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का फ़ैसला किया, तब से जातीय पहचान और जाति के आधार पर उत्पीड़न की बहस राजनीति के केंद्र में आई और वामपंथी पार्टियों का जनाधार खिसकता गया.
बाद में मंडल कमिशन लागू हुआ और वामपंथी पार्टियों के वर्ग संघर्ष की बहस जातीय पहचान की राजनीति के सामने नहीं टिक पाई.
कर्पूरी ठाकुर
बिहार में वामपंथी पार्टियों का बिखरना
पहले लालू प्रसाद यादव और आगे चलकर नीतीश कुमार के उभार के बाद से वामपंथी पार्टियाँ हाशिए पर आती गईं. लालू यादव जब जनता दल में थे, तभी उन्होंने वामपंथी पार्टियों को कमज़ोर करना शुरू कर दिया था.
1990 के विधानसभा चुनाव में आईपीएफ़ (अब CPIML) को सात विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी. 1993 में लालू प्रसाद यादव ने आईपीएफ़ के तीन विधायकों को तोड़ लिया. ये तीन विधायक थे- भगवान सिंह कुशवाहा, केडी यादव और सूर्यदेव सिंह. तीनों पिछड़ी जाति के विधायक थे.
भगवान सिंह कुशवाहा तो भोजपुर के चर्चित नक्सली नेता जगदीश मास्टर के दामाद हैं. इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जातीय पहचान की राजनीति का असर इस क़दर हुआ कि जिनकी परवरिश हार्ड कोर लेफ़्ट राजनीति में हुई, वो भी लालू प्रसाद की राजनीति से बच नहीं पाए.
बिहार की राजनीति की गहरी परख रखने वाले आरजेडी नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि मंडल की राजनीति में केवल वाम ही नहीं बिखरा बल्कि बीजेपी के भी कुछ विधायक जनता दल में शामिल हो गए थे.
प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि मंडल की राजनीति में जातीय पहचान और जाति के नाम पर उत्पीड़न की बहस के सामने वामपंथी पार्टियों के वर्ग संघर्ष की बात टिक नहीं पाई
भगवान सिंह कुशवाहा आज की तारीख़ में नीतीश कुमार के साथ हैं. उनसे पूछा कि आप तो जगदीश मास्टर के दामाद हैं, जो बिहार में सशस्त्र नक्सली आंदोलन का अग्रणी चेहरा थे और आईपीएफ़ से विधायक बने थे अचानक लालू प्रसाय यादव की राजनीति क्यों पसंद आ गई थी?
इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “मुझे लगा कि वामपंथी पार्टियों में जाति और जाति के नाम पर उत्पीड़न की बात ग़ायब थी. लालू की बातों से लोग ज़्यादा कन्विंस हो रहे थे, जबकि वामपंथी पार्टियों की बातें लोग आसानी से नहीं समझ पा रहे थे. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि लालू और मंडल की राजनीति के कारण बिहार का वामपंथी आंदोलन कमज़ोर पड़ा.”
“जिस राजनीति ने वाम आंदोलन को हाशिए पर किया, उसी राजनीति की शरण में फिर से लेफ़्ट जा रहा है. इस बार ये बीजेपी विरोध के नाम पर जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन्हें ख़ुद को आरजेडी से भी बचाना है.”
जगन्नाथ सरकार ने 1998 में मेनस्ट्रीम पत्रिका में लालू और मंडल की राजनीति को लेकर एक लेख लिखा था. इस लेख का शीर्षक था- ‘डिक्लाइन ऑफ़ द कम्युनिस्ट मास बेस इन बिहार’. जगन्नाथ सरकार ने इस आलेख में कहा है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने सामाजिक न्याय के नाम पर पिछड़ों के जातिवाद को स्वीकार कर लिया.
जगन्नाथ सरकार ने लिखा है, “पार्टी के बुनियादी जनाधार में भयावह गिरावट आई है. हमारा वर्ग आधारित जनाधार जातियों में खंडित हो गया. हमें यह सोचना चाहिए था कि कम्युनिस्ट पार्टी लालू के नेतृत्व वाले जनता दल की सरकार से अलग है. जाति के ज़हर का असर पार्टी के भीतर भी दिखने लगा है. हमें इन मुद्दों का विस्तार से विश्लेषण करना चाहिए.”
सरकार ने लिखा था, “पार्टी में गतिहीनता की शुरुआत दो दशक पहले ही हो गई थी और हमने इसके पीछे की वजह पर कभी चर्चा नहीं की. हाल के वर्षों में राजनीतिक जनाधार इसलिए ख़तरनाक रूप से गिरा है क्योंकि हमने मंडल की राजनीति के दौर में अपने सिद्धांतों को ताक पर रख दिया. हमने जनता दल को समझने में पूरी तरह से ग़लती की है. पहली बात तो यह कि पार्टी ने मंडल की राजनीति को ठीक से समझा नहीं और दूसरी तरफ़ उनके सामाजिक न्याय के प्रारूप को उसी रूप में स्वीकार कर लिया. आरक्षण को लेकर पार्टी की जो सही सोच थी, उसकी परवाह नहीं की गई और उसकी लोकतांत्रिक संरचना की उपेक्षा की गई.”
सरकार का कहना था, “1982 में पार्टी की नेशनल काउंसिल की रिपोर्ट में कहा गया था कि नौकरियों में आरक्षण सामाजिक अत्याचार और भेदभाव को नियंत्रित करने के लिए ज़रूरी है, लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा गया था कि केवल आरक्षण से बिना सामाजिक-आर्थिक संरचना को बदले समतामूलक समाज की स्थापना नहीं की जा सकती. यह हक़ीक़त है कि आरक्षण से ज़्यादा अहम यह है कि हम सामाजिक-आर्थिक संरचना को बदलें. हमने जनता पार्टी के दबाव में अपने सिद्धांतों को ही किनारे कर दिया. मंडलवाद के स्वयंभू विश्वनाथ प्रताप सिंह के सामाजिक न्याय के सिद्धांत को हम समझने में नाकाम रहे.”
मोदी को चुनौती देना कितना मुश्किल?
सीपीएम में 40 सालों तक सक्रिय रहे भगवान प्रसाद सिन्हा कहते हैं, “मोदी को हम चुनौती तेजस्वी यादव के नेतृत्व में नहीं दे सकते. तेजस्वी के पास क्या है? कोई सोच नहीं है, कोई विजन नहीं है. हमें मोदी को चुनौती देना है तो समझ वाला नेता चाहिए. वामपंथी पार्टियों ने आरजेडी के नेतृत्व को स्वीकार कर एक बार फिर से अतीत की ग़लती दोहराई है. हम वर्गीय पहचान को ख़त्म करने की क़ीमत पर जातीय पहचान की राजनीति को स्वीकार कर रहे हैं.”
भगवान प्रसाद सिन्हा कहते हैं, “मुश्किल वक़्त में कन्हैया विपक्ष की एक मुखर आवाज़ बनकर सामने आया था. उसने जाति और हिन्दुत्व की राजनीतिक करने वालों को असहज किया था. अब वो तेजस्वी के नेतृत्व में मोदी या बीजेपी को कितना असहज कर पाएगा? यहाँ तक कि सीपीआई में जिन लोगों को टिकट दिया गया है, वो शायद ही कोई जीत पाए.”
“कन्हैया ने जिन युवाओं को टिकट देने के लिए कहा था, उनमें से किसी को नहीं दिया गया. सीपीआईएमल को भी कन्हैया की आवाज़ पसंद नहीं है. बेगूसराय में जिस आरजेडी ने कन्हैया के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारा, उसके साथ हम गठबंधन कैसे कर सकते हैं. ये सही बात है कि मोदी की राजनीति सबसे बड़ी चुनौती है लेकिन इस चुनौती से पार हम तेजस्वी के नेतृत्व में नहीं कर सकते.”
जगन्नाथ सरकार ने लिखा था कि कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए भूमि सुधार अहम मसला रहा, लेकिन लालू ने इस मुद्दे की गंभीरता को कभी नहीं समझा और सरकार होने के बावजूद कभी लागू नहीं किया.
जगन्नाथ सरकार के दामाद और पटना के जाने-माने सोशल साइंटिस्ट शैबाल गुप्ता का मानना है कि अभी कम्युनिस्ट पार्टियों के पास आरजेडी का नेतृत्व स्वीकार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है.
वो कहते हैं, “अभी तो करो या मरो की स्थिति है. ये सही है कि बीजेपी की सांप्रदायिकता से लालू और तेजस्वी की ‘धर्मनिरपेक्षता’ कोई कारगर हथियार नहीं है लेकिन अभी कोई विकल्प नहीं है. अभी तो पहला काम यही है कि बीजेपी को रोका जाए.”
सीपीआई और सीपीएम ने अपने कोटे के 10 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, लेकिन इसमें कोई भी महिला और मुसलमान नहीं है.
पटना के वरिष्ठ पत्रकार फ़ैज़ान अहमद कहते हैं कि जिस मोदी के ख़तरे का हवाला देकर वामपंथी पार्टियों और आरजेडी में गठबंधन हुआ है, वो ख़तरा तो 2019 में सबसे बड़ा था.
फ़ैज़ान कहते हैं, “ये तो विधानसभा चुनाव है. लोकसभा चुनाव में तो इन्हें ज़्यादा एकजुट होना चाहिए था. आरजेडी तो कन्हैया के लिए एक सीट नहीं छोड़ पाई थी. तब तो शायद तेजस्वी के ही मन में कन्हैया को लेकर डर था. ये अब मोदी का ख़तरा और सेक्युलरिज़म की बात भर करते हैं, लेकिन असली मक़सद इनका सत्ता सुख भोगना है.”
बिहार में बीजेपी के ख़िलाफ़ आरजेडी के नेतृत्व में बना गठबंधन अपने विरोधाभासों से मुक्त नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति में ये विरोधाभास कोई नया नहीं हैं.