भीमा कोरेगांव: विघटन का जातिवादी झूठा एजेंडा
भीमा कोरेगांव की घटना: एक विश्लेषण
डॉक्टर विवेक आर्य
पुणे के समीप भीमा कोरेगांव में एक स्मारक बना हुआ है। कहते है कि आज से 200 वर्ष पहले इसी स्थान पर बाजीराव पेशवा द्वितीय की फौज को अंग्रेजों की फौज ने हराया था। महाराष्ट्र में दलित कहलाने वाली महार जाति के सैनिकों ने अंग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। हम इस लेख में यह विश्लेषण करेंगे कि युद्ध का परिणाम क्या था और कौन इसका राजनीतिक लाभ उठा रहा हैं।
इतिहास में लड़ी गई अनेक लड़ाईयों के समान ही यह युद्ध भी एक सामान्य युद्ध के रूप में दर्ज किया गया था। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने 1927 में कोरेगांव जाकर 200 वर्ष पहले हुए युद्ध को महार दलितों की ब्राह्मण पेशवा पर जीत के समान चर्चित करने का प्रयास किया था। जबकि यह युद्ध था विदेशी अंग्रेजों और भारतीय पेशवा के मध्य। इसे जातिगत युद्ध के रूप में प्रचलित करना किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता। अंग्रेजों की सेना में सभी वर्गों के सिपाही थे। उसमें महार रेजिमेंट के सिपाही भी शामिल थे। पेशवा की फौज में भी उसी प्रकार से सभी वर्गों के सिपाही थे जिसमें अनेक मुस्लिम भी शामिल थे। युद्ध केवल व्यक्तियों के मध्य नहीं लड़ा जाता। युद्ध तो एक विचारधारा का दूसरी विचारधारा से,पक्ष-विपक्ष में होता है। फिर इस युद्ध को अत्याचारी ब्राह्मणों से पीड़ित महारों के संघर्ष गाथा के रूप में चित्रित करना सरासर गलत हैं। क्यूंकि इस आधार पर तो 1857 की क्रांति को भी आप सिख बनाम ब्राह्मण (मंगल पांडेय जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश के सिपाही) के रूप में चित्रित करेंगे। इस आधार पर तो आप दोनों विश्वयुद्धों को भी अंग्रेजों की विजय नहीं अपितु भारतीयों की विजय कहेंगें। क्यूंकि दोनों विश्वयुद्ध में पैदल चलने वाली टुकड़ियों में भारतीय सैनिक बहुत बड़ी संख्या में शामिल थे।
इससे यही सिद्ध होता हैं कि यह एक प्रकार से पेशवाओं को ब्राह्मण होने के नाते अत्याचारी और महार को दलित होने के नाते पीड़ित दिखाने का एक प्रयास मात्र था।
अब हम यह विश्लेषण करेंगे कि वास्तव में कोरेगांव के युद्ध में क्या हुआ था। सत्य यह है कि कोरेगांव के युद्ध में अंग्रेजों को विजय नहीं मिली थी। जेम्स ग्रैंड डफ़ नामक अंग्रेज अधिकारी एवं इतिहासकार लिखते है कि “शाम को अँधेरा होने के बाद जितने भी घायल सैनिक थे उनको लेकर कप्तान स्टैंटन गांव से किसी प्रकार निकले और पूना की ओर चल पड़े। रास्ते में राह बदल कर वो सिरोर की ओर मुड़ गए। अगले दिन सुबह 175 मृत और घायल सैनिकों के साथ वो अपने गंतव्य पहुंचे। अंग्रेजी सेना के एक तिहाई घोड़े या तो मारे जा चुकें थे अथवा लापता थे। ”
(सन्दर्भ-A History of the Mahrattas, Volume 3,By James Grant Duff page 437 )
क्या आप अंग्रेज इतिहासकार की बात भी नहीं मानेगे जो अपनी कौम को सदा विजयी और श्रेष्ठ बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते? चलों हम मान भी ले कि अंग्रेजों को विजय मिली। तो भी इस युद्ध को हम ‘दलित बनाम ब्राह्मण’ किस आधार पर मानेंगे? कोरेगांव युद्ध में एक भी महार सिपाही का नाम किसी सेना के बड़े पद पर लिखा नहीं मिलता। यह यही दर्शाता है कि महार सैनिक केवल पैदल सेना के सदस्य थे। आपको यह जानकर भी अचरज होगा कि कोरेगांव युद्ध को अंग्रेजों ने कभी अपनी विजय तक नहीं माना। महार सैनिकों ने युद्ध में अंग्रेजों की ओर से भाग लिया। इसका ईनाम उन्हें आगे चल कर कैसे मिला। यह आगे जानेगे।
बहुत कम लोग इतिहास के इस तथ्य को जानते है कि महार सैनिक मराठा सेना के अभिन्न अंग थे। छत्रपति शिवाजी की सेना में महार बड़ी संख्या में ऊँचें पदों पर कार्यरत थे। शिवांक महार को उनकी वीरता से प्रभावित होकर शिवाजी के पुत्र राजाराम ने एक गांव तक भेंट किया था। शिवांक महार के पोते जिसका नाम भी शिवांक महार था ने 1797 में परशुराम भाऊ की निज़ाम के साथ हुए युद्ध में प्राणरक्षा की थी। नागनक महार ने मराठों के मुसलमानों के साथ हुए युद्ध में विराटगढ़ का किला जीता था जिसके ईनाम स्वरुप उसे सतारा का पाटिल बनाया गया था। बाजीराव पेशवा प्रथम की फौज में भी अनेक महार सैनिक कार्य करते थे। इससे यही सिद्ध हुआ कि अंग्रेजों की सेना के महार सैनिकों ने पेशवा की सेना के दलित/महार सैनिकों के साथ युद्ध किया था। पेशवा माधवराव ने अपने राज्य में बेगार प्रथा पर 1770 में ही प्रतिबन्ध लगा दिया था। आप सभी जानते है कि बहुत काल तक अंग्रेज हमारे देश के दलितों को बेगार बनाकर उन पर अत्याचार करते रहते थे। एक बार पेशवा के राज्य में किसी विवाद को लेकर ब्राह्मणों ने महारों के विवाह करवाने से मना कर दिया था। इस पर महारों ने पेशवा से ब्राह्मणों की शिकायत की थी। पेशवा ने ब्राह्मणों को महार समाज के विवाह आदि संस्कार करवाने का आदेश दिया था। न मानने वाले ब्राह्मण के लिए दंड और जुर्माने का प्रावधान पेशवा ने रखा था। यह ऐतिहासिक तथ्य आपको किसी पुस्तक में नहीं मिलते।
1857 के विपल्व में भी 100-200 महार सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था। 1894 तक आते आते अंग्रेजों ने महार सैनिकों को अपनी सेना में लेना बंद कर दिया था। अंग्रेजों ने महारों को अछूत घोषित कर सेना में लेने से मना कर दिया। बाबा वलंगकर जो स्वयं महार सैनिक थे ने अंग्रेजों को पत्र लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि महार क्षत्रिय है और शिवाजी के समय से ही क्षत्रिय के रूप में सेना में कार्य करते आये हैं। जबकि अंग्रेज महारों को क्षत्रिय न मानकर अछूत मानते थे। प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने कुछ महारों को सेना में स्थान दिया। मगर युद्ध के पश्चात फिर से बंद कर दिया। बेरोजगार महारों से बेगार कार्य करवाकर बिना सेवा शुल्क दिए अंग्रेजों के अदने से अदने अफसर उन्हें धमकी देकर भगा देते थे। डॉ अम्बेडकर ने महारों को सरकारी सेना में लेने और महार रेजिमेंट बनाने के लिए अंग्रेजों से नियम बनाने का प्रस्ताव भेजा था। बहुत कम लोग जानते है कि डॉ अम्बेडकर को इस कार्य में हिन्दू महासभा के वीर सावरकर और बैरिस्टर जयकर एवं डॉ मुंजे का साथ मिला था। वीर सावरकर ने तो रत्नागिरी में महार सम्मलेन की अध्यक्षता तक की थी। अंग्रेजों का लक्ष्य तो महारों का विकास करना नहीं अपितु उनका शोषण करना था।आगे 1947 के बाद ही डॉ अम्बेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत में महार रेजिमेंट की स्थापना हुई। इससे अंग्रेज महारों के विकास के लिए कितने गंभीर थे। यहपता चलता है।
अभी तक यह सिद्ध हो चुका है कि न तो पेशवा की कोरेगांव में हार हुई थी। न ही अंग्रेज कोई महारों के हितैषी न्यायप्रिय शासक थे। न ही पेशवा कोई अत्याचारी शासक थे। अब इस षड़यंत्र को कौन और क्यों बढ़ावा दे रहा हैं? इस विषय पर चर्चा करेंगे। हमारे देश में एक देशविरोधी गिरोह सक्रिय हैं। जो कभी जाति के नाम पर, कभी आरक्षण के नाम पर, कभी इतिहास के नाम पर, कभी परम्परा के नाम पर देश को तोड़ने की साज़िश रचता रहता हैं। इसके अनेक चेहरे हैं। नेता, चिंतक, लेखक, मीडिया, बुद्धिजीवी, पत्रकार, शिक्षक, शोधकर्ता, मानवअधिकार कार्यकर्ता, NGO, सेक्युलर, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील आदि आदि। इस जमात का केवल एक ही कार्य होता है। इस देश की एकता ,अखंडता और सम्प्रभुता को कैसे बर्बाद किया जाये। इस विषय में षड़यंत्र करना। यह जमात हर देशहित और देश को उन्नत करने वाले विचार का पुरजोर विरोध करती हैं। इस जमात की जड़े बहुत गहरी है। आज़ादी से पहले यह अंगेजों द्वारा पोषित थी। आज यह विदेशी ताकतों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा पोषित हैं। संघ विचारक वैद्य जी द्वारा इसका नामकरण ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड यथार्थ रूप में किया गया है। जो अक्षरत: सत्य है। अब आप देखिये कोरेगांव को लेकर हुए दंगों को मीडिया दलित बनाम हिन्दू के रूप में चित्रित कर रहा हैं। क्या दलित समाज हिन्दुओं से कोई भिन्न समाज है? दलित समाज तो हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं। दलितों को हिन्दू समाज से अलग करने के लिए ऐसा दर्शाया जाता हैं। यह कोई आज से नहीं हो रहा। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा 1924 में कांग्रेस के कोकानाडा सेशन में मुहम्मद अली (अली बंधू) ने मंच पर सार्वजानिक रूप से उस समय वास कर रहे 6 करोड़ दलित हिन्दुओं को आधा-आधा हिन्दुओं और मुसलमानों में विभाजित करने की मांग की थी। महात्मा गाँधी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। जबकि उस काल के सबसे प्रभावशाली समाज सुधारक एवं नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने मंच से ही दलित हिन्दुओं को विभाजित करने की उनकी सोच का मुंहतोड़ उत्तर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने उद्घोषणा की थी कि हिन्दू समाज जातिवाद रूपी समस्या का निराकरण कर रहा हैं और अपने प्रयासों से दलित हिन्दुओं को उनका अधिकार दिलाकर रहेगा। 1947 के पश्चात जातिवाद को मिटाने के स्थान पर उसे और अधिक बढ़ावा दिया गया। यह बढ़ावा इसी जमात ने दिया। जब दो भाइयों का आपस में विवाद होता है तो तीसरा पंच बनकर लाभ उठाता है। यह प्रसिद्द लोकोक्ति है। आज भी यही हो रहा है। पहले जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है फिर दलितों को हिन्दुओं से अलग करना के लिए प्रेरित किया जा रहा है। आप स्वयं बताये आज देश में कहीं कोई दलित गले में मटकी लटकाएं और पीछे झाड़ू बांध कर चलता है। नहीं। क्या कोई दलित मुग़लों की देन मैला ढोहता है? नहीं। आज आपको प्राय: सभी हिन्दू बिना जातिगत भेदभाव के एक साथ बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते, भोजन करते, व्यवसाय करते दिखेंगे। बड़े शहरों में तो जातिवाद लगभग समाप्त ही हो चूका है। एक आध अपवाद अगर है भी, तो उसका निराकरण समाज में जातिवाद उनर्मुलन का सन्देश देकर किया जा सकता हैं। मगर दलित और सवर्ण के रूप में विभाजित कर जातिवाद का कभी निराकरण नहीं हो सकता। यह अटल सत्य है। दलित हिन्दू अगर हिन्दू समाज से अलग होगा तो उसको ये विदेशी ताकतें चने के समान चबा जाएगी। एकता में शक्ति है। यह सर्वकालिक और व्यावहारिक सत्य है। दलित हिन्दुओं को यह समझना होगा कि अपने निहित स्वार्थों के लिए भड़काया जा रहा हैं। जिससे हिन्दू समाज की एकता भंग हो और विदेशी ताकतों को देश को अस्थिर करने का मौका मिल जाये।
आज हर हिन्दू अगर ईमानदारी से जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष करने का दृढ़ संकल्प ले, तो यह देशविरोधी जमात कभी अपने षड़यंत्र में सफल नहीं हो पायेगी। यही समय की मांग है और यही एकमात्र विकल्प भी हैं। अन्यथा भीमा कोरेगांव को लेकर हुई घटनाएं अलग-अलग रूप में ऐसे ही सामने आती रहेगी।
प्रतिपक्ष:भीमा कोरेगांव- पांच साल बाद क्या है केस और इससे जुड़े लोगों के हालात
जैसे नए साल 2023 की ये पहली जनवरी है. वैसे ही पांच साल पहले भी कैलेंडर में एक तारीख़ और साल बदला था. 1 जनवरी 2018. लेकिन उस दिन भीमा कोरेगांव में कुछ ऐसा हुआ, कि तारीख को छोड़कर सबकुछ बदल गया. हमेशा के लिए.
5 साल पहले पुणे के पास भीमा कोरेगांव में जैसी हिंसा भड़की, वैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ. दो शताब्दी पहले 1818 में एक लड़ाई ज़रूर लड़ी गई थी, मगर वो आत्मसम्मान और आज़ादी की लड़ाई थी. उसी लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए हज़ारों दलित जमा हुए थे. लेकिन उस सभा में जो हिंसा भड़की, उसकी आंच पूरे देश में महसूस की गई.
घटना को लेकर पूरे देश में गर्मागर्म बहस चल पड़ी. एल्गार परिषद केस में पुलिस की इन्क्वायरी और जांच 2018 से ही जारी है. जैसे जैसे जांच बढ़ी, इसके तहत कई वामपंथी और इस विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले कई लेखक, पत्रकार, शिक्षक और दूसरे पेशों के लोग पूरे देश से गिरफ्तार किए गए.
पुणे पुलिस ने ये दावा किया कि ‘भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी 2018 को हिंसा भड़की, उसके लिए एल्गार परिषद ज़िम्मेदार है. इसी संगठन ने हिंसा से एक दिन पहले पुणे के शनिवारवाड़ा में एक बैठक बुलाई थी. बैठक के अगले दिन जो हिंसा हुई उससे तार इस बैठक से जुड़ते हैं. इसके पीछे बड़ी नक्सल साज़िश थी.’
हिंसा के मामले में जो आरोपी बनाए गए, उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया. UAPA जैसे सख़्त क़ानून के तहत आरोप तय किए गए. दो साल बाद जनवरी 2020 में पूरे मामले की जांच NIA को सौंप दी गई.
उस घटना के पांच साल बाद आज भी कई आरोपी जेल में बंद हैं. कुछ लोगों को लंबे कानूनी संघर्ष के बाद बेल मिल गई. लेकिन एक आरोपित आज भी नज़रबंद हैं, जबकि दूसरे की मौत हो गई. इस पूरे मामले में 16 लोगों को हिरासत में लिया गया था.
वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, सुधीर धवले, रोना विल्सन, शोमा सेन, महेश राउत, कवि वरवर राव, समाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, अरुण फेरेरा, वेर्नॉन गोनजालविस और पत्रकार गौतम नवलखा जैसे लोग घटना के साल जून से अगस्त के बीच गिरफ्तार किए गए थे.
इसके कुछ दिनों बाद पुलिस ने लेखक प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, फादर स्टैन स्वामी, हैनी बाबू, सागर गोरखे, रमेश गैचोर और ज्योति जगताप को गिरफ्तार किया. लेकिन जिस तरह इनकी गिरफ्तारी सुर्खियों में रही, उतनी ही चर्चा इनकी तरफ से दायर की गई ज़मानत याचिकाओं की भी हुई.
मीडिया रिपोर्ट्स में ज़मानत को लेकर इनकी तरफ से दी गई वजहें लगातार चर्चा में रही, जैसे जेल में रहते हुए इनकी गिरती सेहत, जेल में हो रही असुविधा और सबसे दिलचस्प इनके खिलाफ लगाए के पुलिस के आरोपों पर बेहद बुनियादी सवाल.
इस रिपोर्ट में हम केस के पांच साल में अहम पड़ावों की चर्चा करेंगे. इसकी शुरुआत करते हैं 2022 में दिए गए कोर्ट के अहम फ़ैसलों से.
आनंद तेलतुंबड़े को मिली ज़मानत
लेखक-प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े को ज़मानत उनकी गिरफ़्तारी के 2 साल बाद मिली. बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनकी ज़मानत 18 नवंबर को मंज़ूर की.
जांच एजेंसी NIA ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. इसकी सुनवाई करते हुए चीफ़ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरकरार रखा. 18 नवंबर को ही NIA ने बॉम्बे हाई कोर्ट से प्रोफेसर आनंद की ज़मानत को स्थगित रखने की अपील की थी, जिसे कोर्ट ने मंज़ूर कर लिया था.
प्रोफेसर आनंद को NIA ने 14 अप्रैल 2020 को गिरफ्तार किया था. आरोप था भीमा कोरेगांव हिंसा में एल्गार परिषद की साज़िश में शामिल होने का. गिरफ्तारी के बाद उन्हें तलोजा जेल में बंद किया गया था. लेकिन 2 साल बाद एक लाख रुपये के बॉन्ड पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया.
प्रोफेसर आनंद दलितों के मुद्दों पर बोलने वाले एक मशहूर शख्सियत हैं. बतौर इंजीनियर कुछ साल की नौकरी के बाद प्रोफेसर आनंद ने अहमदाबाद के IIM में भी पढ़ाई की.
पुलिस ने दावा किया था कि प्रोफेसर आनंद ने अप्रैल 2018 में पेरिस के एक कॉन्फ्रेंस में जो इंटरव्यू दिया था, उसकी फंडिंग माओवादी संगठनों ने की थी. प्रोफेसर आनंद ने इन आरोपों को खंडन किया था और गिरफ्तारी के बाद ही बॉम्बे हाई कोर्ट में इसके खिलाफ़ अपील की थी.
सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने कहा कि मौजूदा साक्ष्यों के आधार पर NIA प्रोफेसर आनंद के खिलाफ़ सिर्फ धारा-39 (उग्रवादी संगठनों से संबंध) के तहत आरोप लगा सकती है. इसमें आरोपित को 10 साल तक की जेल हो सकती है. प्रोफेसर आनंद चुंकि 2 साल जेल में बिता चुके हैं, इसलिए उन्हें मामले में ज़मानत दी जा सकती है.
घर में नज़रबंद किए गए गौतम नवलखा
प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े की तरह दिल्ली के रहने वाले लेखक, पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट गौतम नवलखा भी ज़मानत के लिए कई याचिकाएं दे चुके हैं. हालांकि उनकी ज़मानत याचिकाएं खारिज होती रहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2022 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा- गौतम नवलखा को उनके घर में नज़रबंद रखा जाए
सुप्रीम कोर्ट ने घर में नज़रबंद रखने का फैसला 73 साल के गौतम नवलखा की बिगड़ती सेहत के मद्देनज़र किया था. लेकिन NIA ने इस फैसले का विरोध किया. लेकिन आगे की सुनवाइयों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को बरकरार रखा. आज गौतम नवलखा मुंबई के अपने घर में नज़रबंद हैं.
गौतम नवलखा ने 20 अप्रैल 2020 को सरेंडर किया था. इसके बाद एनआईए ने उन्हें गिरफ्तार किया और उन्हें न्यायिक हिरासत में तलोजा जेल भेज दिया गया।
फादर स्टैन स्वामी की मौत
फादर स्टैन स्वामी रांची के एक पादरी थे. NIA ने उन्हें भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद केस में माओवादी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) के तहत गिरफ्तार किया था.
83 साल के स्टैन स्वामी को भी स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याएं थीं. जेल में रहते हुए उन्होंने कई बार बुनियादी सुविधाएं मुहैया नहीं कराए जाने को लेकर शिकायत की.
एक याचिका में उन्होंने कहा था- उन्हें पानी पीने को स्ट्रॉ तक नहीं दिया जाता. उनका स्वास्थ्य देखते हुए कोर्ट ने मई 2021 में मुंबई के होली फैमिली हॉस्पिटल में उन्हें भर्ती करने का आदेश दिया. लेकिन यहां उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ और 5 जुलाई 2021 को होली फैमिली हॉस्पिटल में ही उनका निधन हो गया.
स्टैन स्वामी ने लिखित रूप से उन आदिवासियों का समर्थन किया था, जिन्होंने अपने अधिकारों को लेकर 2018 में सरकार के खिलाफ़ आंदोलन छेड़ा था.
उन्होंने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर उन 3000 आदिवासी पुरुषों-स्त्रियों को रिहा करने की अपील की थी, जिन्हें माओवादी करार देकर जेल में बंद किया गया था.
आदिवासियों की ज़मीन हड़पे जाने के मामले पर वो लगातार लिख रहे थे. अपने लेखों के ज़रिए वो बता रहे थे कि मल्टीनेशनल कंपनियां किस तरह सुनियोजित षड्यंत्र में अलग अलग प्रोजेक्ट्स के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनें हथिया रही हैं.
सुधा भारद्वाज को ज़मानत
सुधा भारद्वाज उन गिने चुने आरोपितों में शामिल हैं जिन्हें इस केस में ज़मानत मिली हैं. सुधा भारद्वाज को ज़मानत बॉम्बे हाई कोर्ट ने दिसंबर 2021 में दी थी.
NIA ने सुधा भारद्वाज की ज़मानत याचिका को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत पर बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला बरकरार रखा. हालांकि कोर्ट ने ये ज़रूर कहा कि ज़मानत की अवधि के दौरान सुधा भारद्वाज मुंबई से बाहर नहीं जाएंगी.
सुधा भारद्वाज एक वकील और ट्रेड यूनियन लीडर हैं. इस रूप में वो बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता पिछले 30 साल से काम कर रही हैं. वो देश के दूर दराज़ के हिस्सों में आदिवासियों, शोषित जनजातियों और घुमंतु समुदायों के मुद्दों से जुड़ी रही हैं. सुधा भारद्वाज अमेरिका में जन्मी हैं. लेकिन भारत लौटने के बाद उन्होंने अमेरिकी पासपोर्ट त्याग दिया. तभी से वो गरीब और कमज़ोर तबकों के लिए काम कर रही हैं.
2018 में भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच के दौरान पुलिस ने सुधा भारद्वाज को भी आरोपित बनाया. पुलिस ने उन पर माओवादी संगठनों से संबंध के साथ भीमा कोरेगांव हिंसा की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगाया. इसके फौरन बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. सुधा को यरवदा जेल और उसके बाद तलोजा जेल में रखा गया।
लोक कवि वरवर राव को नियमित ज़मानत
भीमा कोरेगांव हिंसा केस में पुणे पुलिस ने हैदराबाद के कवि और लेखकर वरवर राव को भी गिरफ्तार किया था. दो साल जेल में रहने के बाद बिगड़ती सेहत की वजह से कोर्ट ने उन्हें नानावटी हॉस्पिटल में शिफ्ट करने का आदेश दिया.
वरवर राव का इलाज जारी रहे, इसके लिए कोर्ट उन्हें हॉस्पिटल में रखने की अवधि बार-बार बढ़ाती रही. इसी दौरान उनके इलाज के लिए नियमित ज़मानत की याचिका लगाई गई. आखिकार सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2022 में उनकी उम्र, लगातार गिरती सेहत देख मेडिकल ग्राउंड पर स्थाई ज़मानत दे दी.
वरवर राव ‘रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोशिएशन’ से जुड़े हैं, जिसका जुड़ाव वाम आंदोलन से रहा है. उन्हें हैदराबाद से गिरफ्तार कर पुणे लाया गया था. इससे पहले भी उन्हें माओवादी संगठनों से संबंध रखने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है. वामपंथी आंदोलन से जुड़े लोगों का मानना है कि वरवर राव की गिरफ्तारी इसलिए की गई, ताकि ऐसे आधार पर देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा सके.
भीमा कोरेगांव में आखिर हुआ क्या था?
भीमा कोरेगांव पुणे के पास स्थित है, जहां 1 जनवरी 2018 को हिंसा भड़की थी. यहां मराठा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए युद्ध की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए एक सामारोह आयोजित किया गया था. भीमा कोरेगांव इस युद्ध से जुड़ा एक विजय स्तंभ है, जहां हज़ारों की तादाद में लोग जमा हुए थे. लेकिन देखते ही देखते समारोह में पत्थरबाज़ी शुरू हो गई. कुछ गाड़ियों में आग लगा दी गई. इस दौरान एक शख्स की जान भी चली गई.
इस घटना से एक दिन पहले, यानी 31 दिसंबर 2017 को एल्गार परिषद ने पुणे के ऐतिहासिक शनिवारवाड़ा में एक कॉन्फ्रेंस आयोजित की थी. इसमें प्रकाश अंबेडकर, जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद, सोनी सोरी और बी.जी खोसले पाटिल के साथ तमाम दूसरे एक्टिविस्ट शामिल हुए थथे।
भीमा कोरेगांव हिंसा से पहले ‘यलगार परिषद’ में क्या हुआ था?
भीमा कोरेगांव में हिंसा के बाद पुणे पुलिस ने दो अलग-अलग मामले दर्ज किए थे. एक एफआईआर में शाम्भाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे जैसे हिंदूवादी नेताओं को नामजद बनाया था. ये मामला 2 जनवरी को पिंपरी पुलिस थाने में दर्ज कराया गया था.
इसके बाद 8 जनवरी को पुणे पुलिस ने तुषार दमगुड़े की शिकायत पर एल्गार परिषद से जुड़े लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया. इस एफआईआर में ये दावा किया गया कि भीमा कोरेगांव में हिंसा एल्गार परिषद के लोगों के भड़काऊ भाषण की वजह से भड़की. इसी के आधार पर पुलिस ने तमाम कवियों, लेखकों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया.
गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने इस मामले में चार्जशीट भी दाखिल की. 17 मई को पुणे पुलिस ने चार्जशीट में UAPA एक्ट में सेक्शन-13, 16, 18, 18-बी, 20, 39 और 40 में नए आरोप जोड़े.
इस मामले में NIA ने भी 24 जनवरी 2020 को एक एफआईआर दर्ज की. इसमें आईपीसी के सेक्शन 153-A, 505 (1)B, 117 और 34 के साथ UAPA के सेक्शन 13,16,18,18B,20 और 39 में आरोप जोड़े गए.
पुणे पुलिस की जांच पूरी होने के बाद केन्द्र सरकार ने मामले को NIA को सौंप दिया. NIA ने इस मामले में 10 हज़ार पेज की चार्जशीट स्पेशल कोर्ट में दाखिल की.
कोरेगांव में डॉक्टर आम्बेडकर का बनवाया विजय स्तंभ
NIA की चार्जशीट में क्या था?
जांच एजेंसी की चार्जशीट के मुताबिक ‘गौतम नवलखा कश्मीरी अलगाववादियों के संपर्क में थे.’ इस मामले में जेएनयू के प्रोफेसर हनी बाबू को भी गिरफ्तार किया गया था. चार्जशीट में NIA ने दावा किया था कि हनी बाबू माओवादी विचारधारा के साथ छात्रों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे.
चार्जशीट में ये भी लिखा गया कि गोर्खे, गैचोर और जगताप सीपीआई (M) के प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं और कबीर कला मंच के सदस्य हैं. इसमें इस बात का भी ज़िक्र किया गया है कि तेलतुम्बड़े भीमा कोरेगांव में शौर्य दिन प्रेरणा अभियान के आयोजकों में से एक थे और 31 दिसंबर को पुणे के शनिवारवाड़ा की कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे.
एनआईए के मुताबिक गिरफ्तार किए गए सभी लोग उस षड्यंत्र का हिस्सा थे, जिससे भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़की.
शरद पवार की गवाही और भीमा कोरेगांव न्यायिक आयोग
पुलिस की जांच के साथ तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच के लिए दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का भी गठन किया था. जस्टिस जे. एन पटेल की अध्यक्षता में आयोग ने पुणे और मुंबई में मामले की जांच की. आयोग की जांच अभी तक जारी है.
आयोग के सामने घटना से जुड़े कई लोग, संगठन और कई अधिकारी अपना बयान दर्ज करा चुके हैं. एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ऐसे ही लोगों में से एक हैं.
शरद पवार ने भीमा कोरेगांव हिंसा के बारे में बात करते हुए इसमें कुछ हिंदूवादी नेताओं के शामिल होने के आरोप लगाए. पवार के ऐसे बयानों का संज्ञान लेते हुए जांच आयोग ने उन्हें गवाही के लिए बुलाया. पवार ने मई 2022 में आयोग के सामने पेश होकर अपनी गवाही दर्ज कराई.
हिंदुत्व कार्यकर्ताओं की कितनी भूमिका?
एक तरफ पुणे पुलिस ने अपनी जांच में वामपंथी रुझान वाले कार्यकर्ताओं को हिंसा को ज़िम्मेदार ठहराया, तो पुणे की ग्रामीण पुलिस ने हिंसा का मास्टरमांड हिंदुत्व कार्यकर्ता बताये. इस मामले में संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के खिलाफ़ एफआईआर हुई और उन्हें पुलिस ने दो-दो बार हिरासत में लिया.
पुणे सेशंस कोर्ट ने मिलिंग एकबोटे को 19 अप्रैल को ज़मानत मिली, जबकि दूसरे आरोपित संभाजी भिड़े को पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया। उनके खिलाफ भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में लोगों को उकसाने और हिंसा भड़काने के आरोप हैं.
1 जनवरी 2018 की हिंसा के मामले में दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं को क्लीन चिट मिली, जबकि वामपंथी रुझान वाले लोगों में कुछ को जमानत मिल गई है।