सर्वव्यापी जातिवाद: पसमांदा मुस्लिम अशराफ से अलग क्यों और कैसे?

क्यों जरूरी है पसमांदा मुसलमानों को अलग पहचान मिलना, आइये जानते हैं…

विदेशी अशराफ मुसलमान और देशज पसमांदा मुसलमान के जातिगत एवं सांस्कृतिक विभेद किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. ऐसे तमाम मौके आए हैं जब अपने को अशराफ कहने वाले मुसलमानों द्वारा पसमांदा मुसलमानों का तमाम तरीकों से शोषण किया गया.

क्यों जरूरी है पसमांदा मुसलमानो को अलग पहचान मिलना?

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाहर से आए हुए शासक वर्गीय मुसलमान, जो स्वयं को विदेशी अशराफ कहते हैं, के द्वारा भारतीय मूल के मुसलमान, जो कालान्तर में किन्हीं कारणों से मुस्लिम बन गयें थे और जिन्हें अब देशज पसमांदा(मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी,दलित और पिछड़े) कहा जाने लगा है, के साथ मुख्यतः नस्लीय और सांस्कृतिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है. भारतीय मुसलमानो के साथ यह भेदभाव शिक्षा से लेकर राजनीति तक हर स्तर पर था. विशेष रूप से अशराफ मुस्लिम शासन काल में यह अपने चरम पर था. जहां उन्हे शासन प्रशासन में पहुंचने नहीं दिया जाता था और अगर कोई भूले भटके पहुंच भी गया तो उसे निकाबत विभाग द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. ज्ञात रहें कि निकाबत विभाग का काम शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करना था. मुगलों के दौर में भी उन्हें बस्ती के बाहर रखने, शिक्षा से दूर रखने का शासनादेश था. सजा और जुर्माने में भी नस्लीय और जातीय विभेद और भेदभाव कानून सम्मत था. पूरे अशराफ मुस्लिम शासन काल में सैय्यद जाति को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था.

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देश में पसमांदा मुसलमानों को हमेशा ही तमाम तरह के शोषण का सामना करना पड़ा है

ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल इसका अपवाद था. यूरोपियनों के आने के बाद भारत में एक नए युग का आरम्भ होता है. सत्ता धीरे-धीरे अशराफ वर्ग के हाथों के निकल कर अंग्रेज़ो के हाथ में आने लगती है. उन्नीसवी शताब्दी के मध्य का काल आते आते अंग्रेज़ पूरी तरह अपनी सत्ता सुदृढ कर लेते हैं. इन बदली हुई परिस्थितियों में मुस्लिम शासक वर्ग यानी अशराफ वर्ग ने अपने सत्ता और वर्चस्व को बचाने को अपनी पूर्ववर्ती नीतियों को बदलते हुए मुस्लिम राष्ट्रवाद की परिकल्पना रखा जिसका प्रमुख साधन पृथक निर्वाचन, द्विराष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम साम्प्रदायिकता था.

मुस्लिम राष्ट्रवाद परवान चढ़ाने को उन्हें भीड़ की आवश्यकता थी जो उन्हें देशज पसमांदा के रूप में मिला जो कालांतर में किन्हीं करणो से अपना मतांतरण करके मुस्लिम बन गए थे और जो अपनी पूर्ववर्ती सभ्यता, संस्कृति भाषा एवम् सामाजिक मान्यताओं से जुड़े हुए थे जिस कारण उनकी एक अलग एवं स्पष्ट पहचान थी. देशज पसमांदा को अपने पाले में करने के लिए उनकी सांस्कृतिक पहचान और विविधताओं को समाप्त कर उनका अशराफीकरण (अरबी ईरानी करण) करने को अशराफ ने इस्लाम, मुस्लिम सभ्यता और मुसलमानों को बचाने के नाम पर, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुधार जैसे मोर्चे पर विकल्प देना शुरू किया.

मदरसा शिक्षा, यूनानी चिकित्सा पद्धति, और विभिन्न इस्लामी संगठन आदि को पूरे देश विशेष रूप से देशज पसमांदा के बीच फैलाने का कार्य प्रारम्भ किया गया. मदरसा में देशज पसमांदा को केवल नमाज़ रोज़ा वज़ू जैसे शुद्ध धार्मिक क्रियाकलापों एवं क़ुरआन का लिपि पाठ तक ही सीमित किया गया, पूर्ण इस्लामी ज्ञान से वंचित रखा गया ताकि वो इस मामले में अशराफ के एकाधिकार को चुनौती ना दे सके और केवल सेवक की भूमिका में ही रहें.

इस शिक्षा को दीनी तालीम(धार्मिक शिक्षा) का नाम दिया गया, और इसे आधुनिक शिक्षा के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और आधुनिक शिक्षा,साहित्य और विज्ञान को इस्लाम विरोधी बता कर इसे शिक्षा ना कह कर केवल हुनर बता कर प्रबल विरोध किया गया (वो अलग बात है कि अशराफ ने अपने नई पीढ़ी को विदेश भेज कर आधुनिक शिक्षा से परिचित कराया). यहां यह बात गैरतलब है कि जब मदरसा में पढ़ कर शासन प्रशासन में जगह मिलती थी उस समय तो मदरसा में घुसने तक नहीं दिया.

यही नीति स्वास्थ्य के क्षेत्र में यूनानी चिकित्सा का महिमा मंडन और मॉडर्न चिकित्सा पद्धति की बुराई करने में थी, उसे गैर इस्लामी तक कहा गया. सामाजिक सुधार के मोर्चे पर भी विभिन्न इस्लामी जमातों जैसे जमाते इस्लामी, तबलीगी जमात आदि द्वारा इसे क्रियान्वित किया गया. इसका प्रभाव भी पड़ा और देशज पसमांदा अपनी मूल सभ्यता संस्कृति से दूर होता चला गया यहीं नहीं उसके अंदर मजहबी कट्टरता जो ऐन उनके स्वभाव के विपरीत था, घर करने लगा.

देशज पसमांदा के नाम क्षेत्र विशेष के देशी नामों से हटकर फारसी(पर्सियन) और फिर अरबी भाषा के नाम होने लगे. परिधान में धोती कुर्ता आदि अन्य क्षेत्रीय भेष भूषा, शेरवानी में बदलने लगे, क्षेत्रीय भाषाओं की जगह उर्दू ने लेना शुरू कर दिया. हालांकि देशज पसमांदा की ओर से इसके प्रतिरोध में बाबा कबीर, हाजी शरीयतुल्लाह और असीम बिहारी के रूप में आवाजे भी उठी और आज भी किसी न किसी रूप में पसमांदा आंदोलन सक्रिय है लेकिन साधन संपन्न और शासक होने के कारण अशराफ इस मामले में बढ़त ले गया.

स्टीव बिको ने कहा था कि उत्पीड़क के हाथ में सबसे शक्तिशाली हथियार उत्पीड़ितों का दिमाग होता है. यह बात भारतीय मुसलमानो(देशज पसमांदा) के संदर्भ में बिल्कुल सही उतरता है जहां विदेशी अशराफ मुसलमान, इस्लाम को बचाने के छद्म मुहीम में भारतीय मुसलमानो को भ्रमित कर उनके सोचने समझने की क्षमता पर हावी है जिस कारण देशज पसमांदा की भूमिका एक ऐसे सेवक मात्र ही है जो सेवा तो बड़ी लगन से करता है लेकिन अपने हितों के लिए अपने मालिक से सवाल तक नहीं कर सकता है.

इसीलिए भारत के आज़ाद होने के बाद भी मुसलमान और अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली लगभग सभी संस्थाओं में देशज पसमांदा की भागेदारी ना के बराबर हैं. इसी कारण समाज के अन्दर से समय समय पर अलग पहचान की आवाजे उठाती रही है. विदेशी अशराफ के सापेक्ष भारतीय मुसलमानो के मोमिन से पसमांदा तक के नामकरण के पीछे यही सोच रही हैं. ऐसा माना जाता है कि जब तक एक स्पष्ट पहचान न होगी हक अधिकार की मांग सुचारू रूप से आगे नहीं बढ़ सकती है.

मौजूदा समय में देश भर में फैले देशी मुसलमानो के विभिन्न संगठन, इस जातीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न के विरुद्ध सक्रिय होकर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना की मांग कर रहें हैं ताकि उनका जातीय/नस्लीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न खत्म हो और वो देश की मुख्य धारा में शामिल हों. पसमांदा समाज को यह बात समझना होगा कि वो तब तक ढंग से नहीं उठ खड़ा हो सकता है जब तक उसको उसके मजहबी पहचान से इतर उसकी सामाजिक पहचान स्पष्ट ना हो, जैसे इस देश के अन्य वंचित समाजों की है.

क्यों कि किसी भी समाज का जीवन स्तर उसके सामाजिक विकास से संभव होता है ना कि धार्मिक पहचान से. यदि केवल मजहबी पहचान से ही किसी का जीवन स्तर सुधर सकता तो आज देशज पसमांदा के हालात दूसरे धर्मो के अपने समकक्ष से बदतर ना होती और अशराफ मुसलमानो की तरह वो भी मुख्यधारा की शोभा बढ़ता.

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लेखक
डॉक्टर फैयाज अहमद फैजी @faizianu
लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक

 

मुस्लिम दलितों को पिछड़ा नाम देकर दिया ओबीसी में आरक्षण

संविधान की धारा 341 में राष्ट्रपति अध्यादेश, 1950 से ग़ैर-हिन्दू दलितों को अनुसूचित जाति लिस्ट से बाहर कर दिया गया था. 1956 में सिख दलितों और 1990 में नवबौद्ध दलितों को लिस्ट में वापिस शामिल कर लिया गया. लिहाज़ा अब सिर्फ मुस्लिम और ईसाई समाज के दलित अनुसूचित जाति लिस्ट से बाहर हैं और ज़्यादातर को सेंट्रल और स्टेट ओबीसी लिस्ट में शामिल किया गया .

यानि कि ओबीसी लिस्ट में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई पिछड़ों के साथ मुसलमान और ईसाई समाज के दलितों को भी शामिल किया गया है. 1994 में डॉक्टर एजाज़ अली ने बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा में आन्दोलन चलाया और 1997 में ‘जिहाद’ टाइटल से छपे पर्चे में  बताया कि 42 मुस्लिम कमज़ोर जातियों को अगर ओबीसी/एससी/एसटी की समकक्ष हिन्दू जातियों से मिलाएं तो सिर्फ 4-5 जातियां ही पिछड़ी होंगी और बाक़ी सब दलित हैं. उनकी लिस्ट में कुछ जातियां जैसे की भिश्ती, जुलाहा, कुम्हार, सिकिलगर, तेली वगैरह कुछ राज्यों में ओबीसी थीं और कुछ राज्यों में एससी.

बाद में अली अनवर और उनके साथियों ने पसमांदा मुस्लिम महाज़ के ज़रिये एक नयी पहचान ‘पसमांदा’ बनायीं. पसमांदा का इस्तेमाल ओबीसी लिस्ट में शामिल ‘पिछड़े’ और ‘दलित’ मुसलमानों के लिए हुआ क्योंकि दलित मुसलमानों को एससी लिस्ट में धार्मिक पाबंदी होने के कारण ओबीसी लिस्ट में ही रखा जा सकता था. अली अनवर द्वारा लिखित ‘मसावात की जंग’ (2001) में साफ़ है कि पिछड़े मुसलमानों की तुलना में दलित मुसलमानों की हालत दयनीय है और उनको एससी लिस्ट में शामिल करना चाहिए. उनहोंने दलित मुसलमानों पर अलग से एक सर्वे किया और बाद में उसे ‘दलित मुस्लमान’ (2004) शीषर्क से किताब के रूप में छपवाया.

डॉक्टर एजाज़ अली और अली अनवर में इस मामले में कोई मतभेद नहीं है. दोनों दलित मुसलमानों को एससी लिस्ट में शामिल करने के पक्षधर हैं. दोनों मानते हैं की पिछड़े मुसलमानों की स्तिथि दलित मुसलमानों से बेहतर है. तज़ाद सिर्फ इस बात पर है की दलित मुसलमानों की श्रेणी में कौन कौन शामिल होगा? डॉ एजाज़ अली ज़्यादातर कमज़ोर मुस्लिम जातियों को दलित केटेगरी में शामिल करते हैं. अली अनवर और पी. एस. कृष्णन कम मुस्लिम जातियों को दलित केटेगरी में रखते हैं. अपनी किताब ‘दलित मुस्लमान’ में अली अनवर पटना की दलित मुस्लिम जातियों में गधेडी, हलालखोर, भटियारा, गोर्कन, बखो, नट, पमारिया, लाल बेगी को ही शामिल करते हैं. डॉ एजाज़ अली के हिसाब से अंसारी, राइन, मंसूरी, वगैरह भी एससी लिस्ट में शामिल होना चाहिए.

पसमांदा शब्द का इस्तेमाल ओबीसी लिस्ट में शामिल ‘दलित’ और ‘पिछड़े’ मुसलमानों के लिए 1998 से हो रहा है. पिछले कुछ सालों से इस में ‘आदिवासी’ मुसलमानों को भी शामिल कर लिया गया है. यानि पसमांदा केटेगरी में दलित,वनवासी और पिछड़े मुस्लमान तीनों आते हैं उस ही तरह जैसे बहुजन केटेगरी में तथाकथित हिन्दुओं के अन्दर दलित, पिछड़े, आदिवासी आते हैं. यानि अब पसमांदा शब्द बहुजन का समानांतर शब्द है, ओबीसी का नहीं.

विकास के क्रम में देखें तो सब से ज्यादा खराब हालत वनवासी मुसलमानों की है. उस के बाद दलित मुस्लमान और फिर पिछड़े मुस्लमान. इन तीनों श्रेणियों में बहुत सी जातियां/कबीले आते हैं और किसी की भी नुमायन्दगी उनकी आबादी के हिसाब से संतोषजनक नहीं है. सबकी अपनी अलग-अलग परेशानियाँ और मुद्दे हैं.कुछ मुद्दों के हल सामान्य पालिसी से निकलेंगे और कुछ के लिए विशेष नीतियाँ बनानी पड़ेंगीं. पसमांदा आन्दोलन को लगातार संघर्ष करना पड़ेगा और अशरफिया एजेंडा से बचना होगा.

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