112वां बलिदान दिवस:18 वर्ष में फांसी चूम खुदीराम बोस ने रची थी अमर कहानी
युवा क्रान्तिकारी खुदीराम बोस (१९०५ में)
खुदीराम बोस (बांग्ला: ক্ষুদিরাম বসু ; जन्म: ३-१२-१८८९ -बलिदान:११ अगस्त १९०८)भारतीय स्वाधीनता के लिये मात्र १९ साल से भी कम उम्र में भारतवर्ष की आजादी के लिये फाँसी पर चढ़ गये। कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि वे अपने देश के लिये फाँसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि खुदीराम से पूर्व १७ जनवरी १८७२ को ६८ कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय १३ वर्ष का एक बालक भी शहीद हुआ था। उपलब्ध तथ्यानुसार वह बालक,जिसका नम्बर ५०वाँ था,जैसे ही तोप के सामने लाया गया,उसने लुधियाना के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढी कसकर पकड ली और तब तक नहीं छोडी जब तक उसके दोनों हाथ तलवार से काट नहीं दिये गये। बाद में उसे उसी तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया था। (देखें सरफरोशी की तमन्ना भाग ४ पृष्ठ १३)[2]
जन्म व प्रारम्भिक जीवन
खुदीराम का जन्म ३ दिसंबर १८८९ को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में कायस्थ परिवार में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। माता लक्ष्मीप्रिया देवी थी। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा बाद ही पढ़ाई छोड़ स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़े। छात्र जीवन से ही लगन मन में लिये इस नौजवान ने हिन्दुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य ध्वस्त करने के संकल्प में अलौकिक धैर्य का परिचय देते हुए पहला बम फेंका और मात्र १८ वें वर्ष में हाथ में भगवद गीता लेकर हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर चढकर इतिहास रच दिया।
क्रान्ति के क्षेत्र में
स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पैफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।
राजद्रोह के आरोप से मुक्ति
फरवरी १९०६ में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी हुई थी। प्रदर्शनी देखने आसपास के प्रान्तों से सैंकडों लोग आये। बंगाल के क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ के लिखे ‘सोनार बांगला’ नामक ज्वलंत पत्रक की प्रतियाँ खुदीराम ने प्रदर्शनी में बाँटी। एक पुलिसजन उन्हें पकडने भागा। खुदीराम सिपाही के मुँह पर घूँसा मार शेष पत्रक बगल में दबाकर भाग गये। इस प्रकरण में राजद्रोह के आरोप में सरकार ने उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये।
इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार २८ फरवरी १९०६ को खुदीराम बोस गिरफ्तार किये गये लेकिन वह कैद से भाग निकले। दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गये। १६ मई १९०६ को उन्हें रिहा कर दिया गया।
६ दिसंबर १९०७ को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर बच गया। सन १९०८ में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
न्यायाधीश किंग्जफोर्ड को मारने की योजना
मिदनापुर में क्रांतिकारी गुप्त संस्था ‘युगांतर’ के माध्यम से खुदीराम पहले ही क्रांतिकारी कर्दम में पहले ही में जुट चुके थे। १९०५ में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सडकों पर उतरे भारतीयों को तब के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। अन्य मामलों में भी उसने क्रान्तिकारियों को बहुत कष्ट दिया। परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश पद पर भेजा गया। ‘युगान्तर’ समिति की बैठक में किंग्जफोर्ड को मारना तय हुआ। इसको खुदीराम तथा प्रफुल्ल कुमार चाकी का चयन किया गया। खुदीराम को बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्ल कुमार को भी एक पिस्तौल दी गयी। मुजफ्फर पुर आने पर इन दोनों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड के बँगले की निगरानी की। उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख लिया। खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आए।
अंग्रेज अत्याचारियों पर पहला बम
३० अप्रैल १९०८ को ये दोनों नियोजित काम को बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोडागाडी से उसके आने की राह देखने लगे। बँगले की निगरानी हेतु वहाँ मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनाँ उन्हें योग्य उत्तर देकर वहीं रुके रहे। रात में साढे आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की बग्घी के समान दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे। रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने आते ही खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा योरोप तक सुनी गयी । वहाँ इस खबर ने तहलका मचा दिया। यूँ तो खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाडी समझ बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोडी देर से क्लब से बाहर आने से बच गया। दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने से दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पडे। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों – रात नंगे पैर भागे और २४ मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।
गिरफ्तारी
अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल कुमार चाकी ने खुद को गोली मार बलिदान दे दिया । खुदीराम पकड़े गये। ११ अगस्त १९०८ को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। तब उनकी उम्र मात्र १८ साल आठ महीने थी।
फाँसी का आलिंगन
११ अगस्त १९०८ को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी-खुशी फाँसी चढ गये। किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट दिया था,उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत भी हो गयी।
फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल-कालेज बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे।
लोकप्रियता
मुज़फ्फरपुर जेल में मजिस्ट्रेट ने उन्हें फाँसी पर लटकाने का आदेश सुनाया,उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस शेर बच्चे की तरह निर्भीक फाँसी के तख़्ते की ओर बढ़ा । खुदीराम बलिदान के समय 18 वर्ष के थे। बलिदान के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक ख़ास किस्म की किनारी पर खुदीराम लिखी धोती बुनने लगे।
उनके बलिदान से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनका साहसिक योगदान अमर करने को गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों में मुखरित हुआ। सम्मान में भावपूर्ण गीत रचे गए जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं।