जन्म जयंती: विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में से एक के विजेता थे बाजीराव प्रथम

18 अगस्त/जन्म-दिवस

अपराजेय नायक : पेशवा बाजीराव

छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा।
बाजीराव के दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने शिवाजी महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था। पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू महाराज के महामात्य (पेशवा) की वीरता के बल पर ही शाहू जी ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था।
बाजीराव को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी। छठे वर्ष में उपनयन संस्कार समय उन्हें अनेक उपहार मिले। उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार चुनी। छत्रपति शाहू जी ने एक बार प्रसन्न हो उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की माँग की। घुड़साल में उन्होंने सबसे तेज और अड़ियल घोड़े पर सवारी गाँठ कर अपने भावी जीवन के संकेत भी दे दिये।
14 वर्ष अवस्था में बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में जाने लगे। 5,000 फुट की खतरनाक ऊँचाई पर पाण्डवगढ़ किला पीछे से चढ़कर कब्जाया। कुछ समय बाद पुर्तगालियों के विरुद्ध नौसैनिक अभियान में भी उनके कौशल का सबको परिचय मिला। शाहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ उपाधि दी। दो अप्रैल,1720 को पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद शाहू जी ने 17 अपै्रल, 1720 को 20 वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बनाया। बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम पर हमलाकर उसे धूल चटाई।
इसके बाद मालवा के दाऊदखान,उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर,गुजरात के मुश्ताक अली,चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खाँ को पराजित कर बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहराया। इससे स्वराज्य की सीमा हैदराबाद से राजपूताने तक हो गयी। बाजीराव ने राणो जी शिन्दे,मल्हारराव होल्कर,उदा जी पँवार,चन्द्रो जी आंग्रे जैसे नवयुवकों को आगे बढ़ा कुशल सेनानायक बनाया।
पालखिण्ड के भीषण युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है। इसमें निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में फैल गयी। तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को दिल्ली लूटने के बाद बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया।
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जन्म: *18.08.1700* बलिदान: *28.04.1740* *पेशवा बाजीराव प्रथम* 🙏🙏🌹🌹🌹🌹
राष्ट्रभक्त साथियों, आज हम “बाजीराव बल्लाल भट्ट” और “थोरले बाजीराव” के नाम से प्रसिद्ध पेशवा बाजीराव प्रथम के जीवन-वृत्त से परिचित होने का प्रयास करेंगे, जो छत्रपति शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध तकनीक के सबसे बड़े प्रतिपादक थे तथा जिन्होंने अपने कुशल नेतृत्व, व्यूह रचना एवं कारगर रणकौशल के बलबूते पर मराठा साम्राज्य का देश में सबसे अधिक तेजी से विस्तार किया था।
📝 “हर-हर महादेव” के युद्धघोष से देश में अटक से कटक तक केसरिया ध्वज लहरा “हिन्दू स्वराज” लाने का जो सपना वीर छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था, उसे काफी हद तक मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा या प्रधानमंत्री वीर बाजीराव प्रथम ने पूरा किया था। वीर महायोद्धा बाजीराव पेशवा प्रथम के नाम से अंग्रेज शासक थर-थर कांपते थे, मुगल शासक बाजीराव से इतना डरते थे कि उनसे मिलने तक से भी घबराते थे। हिंदुस्तान के इतिहास में पेशवा बाजीराव प्रथम ही अकेले ऐसे महावीर महायोद्धा थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में 41 युद्ध लड़े और एक भी युद्ध नहीं हारा, साथ ही वीर महाराणा प्रताप और वीर छत्रपति शिवाजी के बाद बाजीराव पेशवा प्रथम का ही नाम आता है जिन्होंने मुगलों से बहुत लंबे समय तक लगातार लोहा लिया था। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्होंने निजाम, मोहम्मद बंगश से लेकर मुगलों,अंग्रेजों और पुर्तगालियों तक को युद्ध के मैदान में कई-कई बार करारी शिकस्त दी थी, बाजीराव पेशवा के समय में महाराष्ट्र, गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड सहित 70 से 80 प्रतिशत भारत पर उनका शासन था। ऐसा रिकॉर्ड वीर छत्रपति शिवाजी तक के नाम पर भी नहीं है। वह जब तक जीवित रहे हमेशा अजेय रहे,उनको कभी भी कोई हरा नहीं पाया। पेशवा बाजीराव बल्लाल का जन्म 18 अगस्त सन् 1700 को चित्ताबन कुल के ब्राह्मण परिवार में पिता बालाजी विश्वनाथ और माता राधाबाई के घर में हुआ था। उनके पिताजी मराठा छत्रपति शाहूजी महाराज के प्रथम पेशवा (प्रधानमंत्री) थे। बाजीराव का एक छोटा भाई भी था चिमाजी अप्पा। बाजीराव अल्पायु से ही अपने पिताजी के साथ हमेशा सैन्य अभियानों में जाया करते थे।

📝 बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार, भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का बहुत शौक था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ अभियानों पर घूमते थे। वह उनके साथ घूमते हुए राज दरबारी चालों, युद्ध नीति व रीति-रिवाजों को आत्मसात करते रहते थे। यह क्रम 19-20 वर्ष की आयु तक चलता रहा। अचानक एक दिन बाजीराव के पिता का निधन हो गया, तो वह मात्र बीस वर्ष की उम्र में छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा बना गये। इतिहास के अनुसार बाजीराव घुड़सवारी करते हुए लड़ने में सबसे माहिर थे और यह माना जाता है कि उनसे अच्छा घुड़सवार सैनिक भारत में आज तक कभी नहीं देखा गया। उनके पास 4 घोड़े थे, जिनका नाम नीला, गंगा, सारंगा और औलख था। अपने प्रिय घोडों की देखभाल बाजीराव स्वयं करते थे। पेशवा बाजीराव की लंबाई 6 फुट, हाथ लंबे, शरीर बलिष्ठ था। पूरी सेना को वो हमेशा बेहद सख्त अनुशासन में रखते थे। अपनी बेहतरीन भाषण शैली से वो सेना में एक नया जोश भर देते थे।

📝 अल्पवयस्क होते हुए भी बाजीराव ने अपनी असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को लगातार बहुत तेजी से बढ़ाते रहे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था। वह जन्मजात नेतृत्वशक्ति, अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने अपने बेहद प्रतिभासंपन्न अनुज भाई चिमाजी अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया था। अपनी वीरता, अपने नेतृत्व क्षमता, गुरिल्ला युद्ध तकनीक व बेहतरीन युद्ध-कौशल योजना के द्वारा यह महान वीर योद्धा बाजीराव जंग के मैदान में 41 लड़ाई लड़ा और हर लड़ाई को जीतकर हमेशा अजेय विजेता रहा। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत ही कुशल घुड़सवार थे। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर बाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वालें दुश्मन को जान बचने के लाले पड़ जाते थे। बाजीराव के समय में भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। यह आक्रांता भारत के देवस्थान मंदिरों को तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व उनका भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में बाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। उनकी वीरता को देखकर लोग उन्हें शिवाजी का साक्षात अवतार मानने लगे थे।

*बाजीराव की शौर्यगाथा:-*

– *सन् 1724 में* शकरखेडला में बाजीराव पेशवा ने मुबारिज़खाँ को परास्त किया था।
– *सन् 1724 से 1726 तक* मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
– *सन् 1728 में* पालखेड़ में महाराष्ट्र के शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित करके उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली की।
*- सन् 1728* में मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की। तदनंतर मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया सन् 1729 में।
– *सन् 1731 में* दभोई में त्रिंबकराव को नतमस्तक कर बाजीराव ने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी बहुत ही बुरी तरह पराजित किया।
बाजीराव प्रथम को एक महान घुड़सवार सेनापति के रूप में जाना जाता है और इतिहास के उन महान योद्धाओं में बाजीराव का नाम आता है जिन्होंने कभी भी अपने जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारा, यह उनकी महानता व युद्ध कौशल को दर्शाता है। बाजीराव के रूप में भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा वीर महायोद्धा घुड़सवार सेनापति हुआ था।

*✍️ अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड मांटोगोमेरी के अनुसार:-* “बाजीराव पेशवा भारत के इतिहास का सबसे महानतम सेनापति था और पालखेड़ युद्ध में जिस तरीके से उन्होंने निजाम की विशाल सेनाओं को पराजित किया उस वक्त सिर्फ बाजीराव प्रथम ही कर सकते थे उसके अलावा भारत या भारतीय उपमहाद्वीप में यह सब करने की क्षमता किसी और से नहीं थी।”

📝बाजीराव प्रथम और उनके भाई चिमाजी अप्पा ने बेसिन के लोगों को पुर्तगालियों के अत्याचार से भी बचाया जो जबरन धर्म परिवर्तन करवा रहे थे और जबरन यूरोपीय सभ्यता को भारत में लाने की कोशिश कर रहे थे। सन् 1739 में अंतिम दिनों में अपने भाई चिमाजी अप्पा को भेजकर उन्हें पुर्तगालियों को हरा दिया और वसई की संधि करवा दी थी। जिस समय बाजीराव प्रथम को सन् 1720 में छत्रपति शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का पेशवा नियुक्त किया था, जिसके बाद कई सारे बड़े मंत्री बाजीराव से नाराज हो गए जिसके कारण उन्होंने युवा सरदारों को अपने साथ में लाना शुरू कर दिया जिसमें मल्हारराव होलकर, राणोजीराव शिंदे आदि मुख्य रूप से शामिल थे, इन सभी ने बाजीराव के साथ मिलकर संपूर्ण भारत पर अपना प्रभाव जमाने को रात-दिन एक कर दिया था। बाजीराव प्रथम कि सबसे बड़ी जीत सन् 1728 में पालखेड की लड़ाई में हुई जिसमें उन्होंने निजाम की सेनाओं को पूर्णतया दलदली नदी के किनारे लाकर खड़ा कर दिया था, अब निजाम के पास आत्मसमर्पण के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था, 6 मार्च 1728 को उन्होंने मुंशी शेवगाँव की संधि की थी। उन्होंने छत्रपति शाहूजी महाराज को मराठा साम्राज्य का वास्तविक छत्रपति घोषित कर दिया और संभाजी द्वितीय को कोल्हापुर का छत्रपति। उसके बाद बाजीराव ने कई और लड़ाई लड़ी। सन् 1737 में जब बाजीराव दिल्ली फतह के बाद वापस पुणे की ओर लौटे, जहां पर मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने साआदत अली खान और हैदराबाद के निजाम को लिखा कि आप बाजीराव को पुणे से पहले ही रोक ले, जिसके चलते निजाम व बाकी सभी की सेना का सामना बाजीराव से भोपाल के निकट हुआ। जिसमें 24 दिसंबर 1737 के दिन मराठा सेना ने सभी को जबरदस्त तरीके से हराया। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने 50 लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।

📝 मालवा का संपूर्ण क्षेत्र अब मराठो को प्राप्त हो गया, इससे मराठों का प्रभाव संपूर्ण भारत में स्थापित हो गया। बाजीराव ने सन् 1730 मे शनिवार वाड़ा का पुणे में निर्माण करवाया और पुणे को राजधानी बनाया। बाजीराव ने ही पहली बार देश में “हिंदु पदशाही” का सिद्धांत दिया और सभी हिंदुओं को एक कर विदेशी शक्तियों के खिलाफ लड़ने का बीड़ा उठाया, हालांकि उन्होंने कभी भी किसी अन्य धर्म के मानने वाले लोगों पर कोई अत्याचार नहीं किया। उन्होंने सन् 1739 में अपने भाई की चिमाजी की सेनाओं के द्वारा पुर्तगालियों को बेसिन में पराजित करके वसई की संधि कर ली, जिसके तहत पुर्तगालियों के अभद्र पूर्ण व्यवहार से भारतीय जनता को बाजीराव प्रथम ने बचा लिया। बाजीराव प्रथम बहुत ही महान और काबिल हिंदू महायोद्धा थे, संपूर्ण भारत में बाजीराव प्रथम की ताकत का जबरदस्त खौफ फैला हुआ था, यहां तक कि जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय भी उनकी काफी तारीफ करते थे। सन् 1731 में उन्होंने मोहम्मद खान बंगस की सेना को पराजित कर महाराजा छत्रसाल को उसे बचा लिया और वापस उनका बुंदेलखंड राज्य उनको सम्मान के साथ लौटा दिया, इसे प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी मुस्लिम पत्नी से हुई पुत्री  मस्तानी का विवाह बाजीराव से कर दिया और जब छत्रसाल की मौत हुई तो बाजीराव को बुंदेलखंड राज्य का एक तिहाई हिस्सा मराठा साम्राज्य में मिलाने को दे दिया गया था।

📝 देश में जब भी होलकर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतों की बात होगी तो पता चलेगा कि वे सब पेशवा बाजीराव प्रथम की ही देन थीं। ग्वालियर, इंदौर, पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं। बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर ही जिंदा थी।बाजीराव का 28 अप्रैल 1740 में केवल 40 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठा शासकों के लिए ही नहीं, बल्कि देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी बहुत ही दर्दनाक भविष्य लेकर आया। उनकी मृत्यु के चलते ही अगले 200 वर्ष तक भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा और उनके बाद देश में कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांधकर आजाद करवा पाता। जब भी भारत के इतिहास के महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्संदेह महान पेशवा श्रीमंत बाजीराव प्रथम का नाम हमेशा गर्व से लिया जायेगा और वह हमेशा हम सभी भारतवासियों के आदर्श व प्रेरणास्रोत सदा बने रहेंगें।🌹🌹🌹🌹🙏🙏🌹🌹🌹🌹

* यशपाल बंसल 8800784848*

बाजीराव के वंशजों को कोई नहीं पहचानता!

देवीदास देशपांडे पुणे से,
पुणे के कोथरूड इलाक़े में एक सामान्य से घर में रहते हैं महेंद्र पेशवा.भारत की राजनीति में अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व 125 सालों तक प्रभुत्व जमाने वाले और दिल्ली की गद्दी को नियंत्रित करनेवाले पेशवाओं के वंशज अब सामान्य ज़िंदगी जी रहे हैं.
पेशवा के वंशज पुणे में रहते हैं,यह जानकारी इतिहास में रुचि रखने वाले गिन-चुने लोगों को ही है.आमतौर पर कोई इन्हें नहीं पहचानता.
महेंद्र पेशवा कहते हैं,”ट्रैफ़िक हवलदार भी अगर पेशवा का लाइसेंस देखता है और उस पर पेशवा नाम देखता है तब भी उसे कोई अचरज नहीं होता.क्योंकि पेशवा का वंशज हमारे सामने है यह अहसास ही उसे नहीं होता.”
पेशवा घराने के दो परिवार पुणे में है.एक है डॉक्टर विनायक राव पेशवा, पत्नी जयमंगलाराजे, बहू आरती और उनकी बेटियां.यह पेशवा घराने की 10वीं पीढ़ी है.74 वर्षीय विनायकराव भूगर्भ विशेषज्ञ हैं और इसी विषय के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय में 33 वर्ष नौकरी की.
दूसरा परिवार विनायकराव के बड़े भाई कृष्णराव का है जो हाल ही में गुजर गए.महेंद्र उन्हीं के बेटे हैं.कृष्णराव की पत्नी उषा राजे,बेटा महेंद्र,बहू सुचेता और उनकी बेटी यहां रहते हैं.महेंद्र का अपना फैब्रिकेशन का व्यवसाय है।
बाजीराव पेशवा की पेंटिंग.
ये सारे सदस्य पेशवा ख़ानदान के अमृतराव पेशवा के वंशज हैं.पुणे में जो पेशवा रहते हैं,उनके पास ख़ानदानी जायदाद या संपत्ति नहीं है.
अंग्रेज़ों ने पेशवाओं की कई संपत्तियां अपने क़ब्ज़े में ले लीं थीं.अमृतराव सन् 1800 के आसपास वाराणसी चले गए थे. कई पीढ़ियों तक ये लोग वहीं रहे.लेकिन तीन पीढ़ी पहले पेशवा पुणे में आ गए.
आज उनके पास अपना कहने के लिए केवल दो बाते हैं.
एक तो पेशवा उपनाम और दूसरा मंदिर.ये मंदिर भी पुणे में नहीं हैं.वाराणसी के गणेश घाट पर स्थित गणपति का मंदिर तथा वहीं के राजाघाट पर अन्नछत्र पेशवाओं को विरासत के रूप में मिले थे.
इनमें से अन्नछत्र अब नहीं है.गणपति घाट के मंदिर का सारा इंतजाम आज भी पेशवा ख़ानदान के पास है.दोनों पेशवा परिवारों ने इसके लिए ट्रस्ट स्थापना किया है.
उसके माध्यम से मंदिर का प्रबंध किया जाता है. मंदिर का प्रबंधन ट्रस्ट करता है,इससे उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता.
विरासत के तौर कहने को पेशवाओं के लिए यह एकमात्र वस्तु है.इस मंदिर में पेशवाओं की तरफ़ से हर वर्ष पारंपरिक रूप से गणेशोत्सव मनाया जाता है.
महेंद्र पेशवा
यह उत्सव उत्तर भारतीय परंपरानुसार होता है.पेशवा के स्थापित पर्वती,मृत्युंजयेश्वर मंदिर जैसे कुछ मंदिर आज भी पुणे में खड़े हैं,जिनका प्रबंधन देवदेवेश्वर संस्थान करता है.
विनायकराव पेशवा इस संस्थान के विश्वस्त मंडल में हैं, लेकिन उसकी अध्यक्षता पुणे के विभागीय आयुक्त करते हैं. इस तरह इन मंदिरों में उनकी उपस्थिति नाममात्र है.ध्यान देने की बात है कि पेशवा बाजीराव के पुत्र पेशवा नानासाहब की मृत्यु पार्वती मंदिर की इमारत में हुई थी.
पेशवा के तौर पर लोग इनसे कैसा बर्ताव करते हैं, इस पर डॉक्टर विनायकराव,महेंद्र और पुष्कर के पास काफी किस्से हैं.
वो बताते हैं,”खासतौर पर नई पीढ़ी को पेशवा क्या है, यही पता नहीं है.जिन्हें पेशवा बाजीराव और उनकी वीरता की जानकारी होती है उनके अनुभव काफी अलग होते हैं.ये लोग पेशवा परिवार के लिए सम्मान जताते हैं.दिल से अपनापन जताते हैं.पेशवा के वंशज के रूप में आज की पीढ़ी की ओर आदर से देखा जाता है.”
महेंद्र पेशवा का अपना व्यवसाय है.वे कहते हैं,”जब भी किसी नए व्यक्ति से पहचान होती है,तो लोग पूछते है,आप तो पेशवा हैं,आपको उद्यम-व्यवसाय की क्या ज़रूरत है?”
महाराष्ट्र के बाहर मध्य प्रदेश में पेशवा के लिए बहुत आदर और अपनापन होने का उनका अनुभव है.महेंद्र के पिता केंद्र सरकार की नौकरी में थे.इसलिए उनकी पढ़ाई बिहार, झारखंड,उत्तर प्रदेश में हुई थी.
महेंद्र कहते हैं, “पुणे में पेशवाओं की जितनी जानकारी लोगों को है, उससे अधिक जानकारी या आदर उत्तर प्रदेश में है. पेशवाओं के लिए सम्मान की भावना वहां दिखती है.”
“पानीपत युद्ध की स्मृति समारोह जैसे कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाता है.वहां जो आदर मिलता है उसे भुलाया नहीं जा सकता.”
हालांकि अन्य राजघरानों की तरह पेशवाओं को अपनी जायदाद संभालने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती.अपने पूर्वजों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं,”शनिवारवाडा हो या फिर पेशवाओं के पराक्रम का गवाह कोई और स्थान,वहां जाते ही सीना गर्व से तन जाता है.”इसी गर्व के कारण उन्होंने पेशवा बाजीराव जयंति,पुण्यतिथि कार्यक्रमों का आयोजन किया है.
दस वर्षों पूर्व ‘मराठी राज्य स्मृति प्रतिष्ठान’ नामक संस्था की स्थापना की गई.यह संस्था पुणे में कई कार्यक्रमों का आयोजन करती है.उनके प्रयासों के चलते पेशवा बाजीराव पर डाक विभाग ने एक टिकट जारी किया था.
अंग्रेज़ों ने जब सत्ता हथियाई थी, उस समय पेशवा दूसरे बाजीराव की सारी संपत्ति और हथियार ज़ब्त कर उन्हें उत्तर प्रदेश के बिठूर में भेज दिया था.वहां उन्हें सालाना 80 हजार पाउंड की पेंशन दी जाती थी.
उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने इसे बंद कर दिया जिसके कारण बाजीराव के बेटे नानासाहब ने 1857 में विद्रोह कर दिया.
भंसाली की फ़िल्म बाजीराव मस्तानी पेशवा बाजीराव की राजा छत्रसाल की मुसलमान पत्नी से उत्पन्न बेटी मस्तानी की प्रेमकथा पर आधारित है.
इसके बाद अंग्रेज़ों ने उनकी संपत्ति को आंकते हुए उसपर ब्याज़ के रूप में पेंशन देना शुरू किया.आज पेशवाओं के दोनों परिवारों को हर माह लगभग 15 हज़ार रुपए पेंशन के तौर पर मिलते हैं.
पेशवाओं के सारे हथियार और संपत्ति पहले 1818 में दूसरे बाजीराव के समय और बाद में नानासाहब के विद्रोह के बाद ज़ब्त कर लिए गए थे.जो हथियार बचे थे वे अब पार्वती स्थित संग्रहालय में रखे गए हैं.
भंसाली की फ़िल्म’बाजीराव मस्तानी’के विरोध में शनिवारवाडा पर प्रदर्शन में महेंद्र तथा पारिवारिक शामिल थे.
वो कहते हैं,”भंसाली की फ़िल्म में इतिहास तोड़ा मरोड़ा गया है. 18वीं सदी के बाजीराव को नाचते हुए दिखाया गया है जो उनके जैसे योद्धा को शोभा नहीं देता। इतिहास में इसका कोई आधार नहीं.”

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