जी हां,इंदिरा गांधी ने ही पाली थी प्रतिबद्ध न्यायपालिका

सता के हाथों की कठपुतली न्यायपालिका स्वतंत्र भारत के न्यायिक इतिहास में केवल एक बार ही बनी थी। केवल एक ही बार। जब इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी के दौरान committed judiciary (सरकार के पति प्रतिबद्ध न्यायापालिका) का नारा दिया था। और सूप्रीम कोर्ट की 5 जजों की फीठ में से 4 जजों ने इंदिरा गांधी की सरकार की इमर्जेंसी को जायज ठहराया था। जब सूप्रीम कोर्ट ने ADM JABALPUR बनाम SHIV KANT (( 1976) 2 SCC 521)) वाले केस में सरकार की गुलामी करते हुए ये निर्णय दिया था कि इमरजेन्सी मे नागरिकों के मौलिक अधिकार भी समाप्त किये जा सकते हैं किसी भी व्यक्ति को, जब चाहे, जहां चाहे, जिसतरह चाहे, जितने समय के लिए चाहे अरैस्ट करके जेल भेज सकती है यहां तक कि किसी की हत्या भी हो जाय तो भी उसके मौलिक अधिकार की सुरक्षा नहीं मिलेगी। ये इस देश के सूप्रीम कोर्ट का सबसे खराब निर्णय माना जाता है। केवल जस्टिस HR Khanna ने इस बहुमत के निर्णय के खिलाफ अपना निर्णय दिया था।
1976 से अब तक कितनी सरकारें आ गयीं किसी ने भी committed judiciary की बात नहीं की। हां कुछ दलों को और कुछ लोगों को दूध में भी कीड़े ढूंढने की आदत है तो वो उनके लिए ठीक होगा। उनको याकूब मेनन, अफजल गुरू, अजमल कसाब को बचाना होता है लेकिन नहीं बचा पाते। उनको टुकड़े टुकड़े गैंग के साथ खडा होना सही लगता हो लगा करे। उनको ट्रिफल तलाक का फैसला का सूप्रीम कोर्ट का निर्णय भी गलत लगता है, 370 हटाने का केन्द्र का निर्णय भी गलत लगता है और राम जन्मभूमि पर सूप्रीम कोर्ट का 5 जजों का सर्वसम्मत फैसला भी गलत लगता है तो लगा करे भाई। उन्हें केवल एक पक्ष याने अपराधियों की ही वकालत करनी होती है। victims से उनका कोई मतलब नहीं रहता। 1990 से 2004 तक 4 लाख कश्मीरी पंडितों लोग पीट पीट कर घाटी से
बाहर भगाया जाना गलत नहीं लगता। और 4 हजार कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या करने वालों के पक्ष में ही खड़े दिखाई देते हैं। उन victims से भी इनका कोई मतलब नहीं रहता।
राम जन्मभूमि में ASI की खोजबीन और उसकी Factual report से भी कोई मतलब नहीं रहता। ASI के निदेशक Dr. KK Mohmmad के निष्कर्षों, जो आज भी you tube पर देखा जा सकता है, उनसे भी कोई मतलब नहीं रहता । इनको तो एक ही पक्ष की बात करते रहना ही अच्छा लगता है तो लगा करे।
बस एक घमंड है कि जो मैं कह रहा हूं वही सही है बाकी सब कुछ गलत है। तो पाले रहे ये घमंड भी। फर्क क्या पडता है, किसे पडता है? कभी जब निष्पक्ष इतिहास लिखा जायेगा तब इनका सही मूल्यांकन होगा। इतिहास सबसे बडी अदालत है।
BJP और मोदी से इतनी एलर्जी क्यों है भई? मैं तो ये मानने लगा हूं कि मोदी जैसा PM न कभी पहले हुआ और न कभी आगे होगा। काश सभी राज्यों मे भी मुख्यमंत्री मोदी जैसे ही कर्मठ, समर्पित और ईमानदार होते तो चित्र ही दूसरा होता।
@एक चर्चा में श्री कालिका प्रसाद काला

 

याद रखिए इमर्जेंसी में सुप्रीम कोर्ट झुक गया था, नेता लड़ रहे थे

जब आपातकाल घोषित किया गया तो नेताओं ने लड़ाई लड़ी और जेल गए. तब सर्वोच्च अदालत झुकी थी. इसलिए यह मान लेना कि आपातकाल जैसी स्थिति से अदालत अकेले राष्ट्र की रक्षा कर सकती है, गलत है.
भारत की सर्वोच्च अदालत ने बहुमत से उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग की स्थापना हेतु किए गए 99 वें संविधान संशोधन को खारिज कर दिया. पांच माननीय न्यायाधीशों की राय पढ़ने के बाद, मेरे दिमाग में कुछ मुद्दे उत्पन्न होते हैं.

बहुमत की राय के पीछे के मुख्य तर्क से यह प्रतीत होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का एक अनिवार्य अंग है. निश्चित रूप से यह एक सही प्रस्ताव है. ऐसा कह कर बहुमत एक त्रुटिपूर्ण तर्क में अतिक्रमण कर रही है. इनका तर्क है कि आयोग में कानून मंत्री की उपस्थिति और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति, जिनमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के अलावा, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल होंगे, न्यायिक नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप को संस्थापित करेगा. इस आधार पर नियुक्त न्यायाधीश राजनेताओं के प्रति आभार महसूस कर सकते हैं. एक राजनीतिक व्यक्ति स्पष्ट रूप से अपने राजनीतिक हित के द्वारा निर्देशित किया जाएगा. न्यायाधीशों ने ‘प्रतिकूल’ परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है अगर राजनेता नियुक्ति प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं. इसलिए न्यायपालिका की राजनीतिक व्यक्तियों से सुरक्षा आवश्यक थी. यही प्रमुख कारण है जिसके चलते सर्वसम्मति से संसद और राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित संविधान संशोधन को खारिज किया गया है.

इस निर्णय का मुख्य पहलू राजनेताओं को कोसना है. एक समझदार न्यायाधीश तर्क देते हैं कि श्री लाल कृष्ण आडवाणी का विचार है कि किसी आपातकाल जैसी स्थिति का खतरा अभी भी है. भारत में सिविल सोसायटी मजबूत नहीं है और इसीलिए, आपको एक स्वतंत्र न्यायपालिका की जरूरत है. दूसरे तर्क देते हैं कि यह संभव है कि वर्तमान सरकार उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में वैकल्पिक लैंगिकता वाले वक्तियों की नियुक्ति के पक्ष में नहीं है. राजनेताओं को कोसना टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों का पर्याय बन चुका है .

यह फैसला भारत के वृहत् संवैधानिक संरचना की अनदेखा करती है. निर्विवाद रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है. इसे संरक्षित किया जाना चाहिए. लेकिन यह निर्णय इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देता कि संविधान की कई अन्य विशेषताएं हैं जो बुनियादी संरचना में शामिल हैं. संविधान का सबसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा संसदीय लोकतंत्र है. भारतीय संविधान की अगली महत्वपूर्ण बुनियादी संरचना एक चुनी हुई सरकार है जो देश की संप्रभुता की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है. प्रधानमंत्री संसदीय लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण और जवाबदेह संस्था है. विपक्ष के नेता बुनियादी संरचना का एक अनिवार्य पहलू हैं जो संसद में वैकल्पिक आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं. कानून मंत्री संविधान की एक प्रमुख बुनियादी संरचना, मंत्रिपरिषद, का प्रतिनिधित्व करते हैं जो संसद के प्रति जवाबदेह हैं. ये सभी संस्थाएं, संसदीय संप्रभुता, एक निर्वाचित सरकार, प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, कानून मंत्री संविधान के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा हैं. वे लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं.

जाहिर है कि बहुमत की राय का वास्ता एकमात्र बुनियादी संरचना से था – न्यायपालिका की स्वतंत्रता – जबकि एक तर्क के औचित्य पर निर्णय पारित करके कि भारत के लोकतंत्र को उसके चुने हुए प्रतिनिधियों से बचाना है, अन्य सभी बुनियादी संरचनाओं को “राजनेता” के रूप में जिक्र कर निरर्थक कर दिया गया. न्यायाधीशों के निर्णय ने एक बुनियादी संरचना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता की श्रेष्ठता को बरकरार रखा है लेकिन संविधान के पांच अन्य बुनियादी ढांचे, संसदीय लोकतंत्र, चुनी हुई सरकार, मंत्रिपरिषद, एक निर्वाचित प्रधानमंत्री और चुने हुए विपक्ष के नेता को कमजोर कर दिया है. बेंच के बहुमत ने यह बुनियादी गलती की है. एक संवैधानिक अदालत को संविधान की व्याख्या करते वक्त संविधान के सिद्धांतों पर फैसला देना होता है. ऐसा कोई संवैधानिक सिद्धांत नहीं है कि लोकतंत्र और उसके संस्थानों को चुने हुए जनप्रतिनिधियों से बचाया जाए. भारतीय लोकतंत्र गैर निर्वाचित लोगों का निरंकुश तंत्र नहीं बन सकता है और अगर चुने हुए लोगों को दरकिनार किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा. क्या चुनाव आयोग और कैग जैसी योग्य संस्थाएं विश्वसनीय नहीं हैं हालांकि वे निर्वाचित सरकारों द्वारा नियुक्त किए जाते हैं.

ऐसे किसी व्यक्ति के रूप में जिसने संसद की तुलना में अदालत में अधिक साल बिताए हों, मैं भारतीय लोकतंत्र के बारे में बात करने को विवश हूं. दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र में कोई सिद्धांत नहीं है कि लोकतंत्र की संस्थाओं को निर्वाचित संस्थाओं से बचाया जाए.

दिया गया स्पष्टीकरण एक मजबूत नींव पर दिया जाना चाहिए था. अगर एक नेता यह महसूस करता है कि आपातकालीन स्थिति का खतरा है, तो ऐसी कोई मान्यता नहीं है कि केवल सर्वोच्च न्यायालय ही इसे बचा सकता है. सत्तर के दशक के मध्य में जब आपातकाल घोषित किया गया था, वह मेरे जैसे लोग थे – राजनीतिज्ञ, जिन्होंने लड़ाई लड़ी और जेल गए. यह सर्वोच्च अदालत थी, जिसे झुकना पड़ा और इसलिए अदालत के लिए यह मान लेना कि वह अकेले राष्ट्र की रक्षा आपातकाल से कर सकती है, अतीत में झुठला दिया गया है. वैकल्पिक लैंगिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के लिए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसे अपराध मुक्त कर दिया था. मैं वर्तमान सरकार का एक हिस्सा हूं, लेकिन मैंने सार्वजनिक रूप से दिल्ली उच्च न्यायालय की राय का समर्थन किया था. यह सर्वोच्च न्यायालय ही थी, जिसने इसे फिर से अपराध घोषित किया था. वैकल्पिक लैंगिकता के अनुयायी वर्ग को न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त किए जाने की धारणा को केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा संरक्षित किया जा सकता है, फिर से इतिहास द्वारा गलत साबित हुआ है. सर्वोच्च न्यायालय की राय अंतिम है. यह अमोघ नहीं है.

यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के प्रावधान की व्याख्या करती है. अनुच्छेद 124 सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है और अनुच्छेद 217 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है. दोनों अनुच्छेद भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति किए जाने के अधिकार प्रदान करते हैं. संविधान का अधिदेश था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश मात्र एक परामर्शदाता हैं. राष्ट्रपति नियुक्ति प्राधिकारी हैं. व्याख्या का बुनियादी सिद्धांत यह है कि एक कानून की एक विस्तारित अर्थ देने के लिए व्याख्या की जा सकती है, लेकिन प्रत्येक विपरीत मतलब के लिए उन्हें फिर से नहीं लिखा जा सकता है. दूसरे न्यायाधीश के मामले में, न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश को नियुक्ति प्राधिकारी और राष्ट्रपति को एक ‘परामर्शदाता’ घोषित कर दिया है. तीसरे न्यायाधीश के मामले में, न्यायालय ने न्यायाधीशों के कॉलेजियम के रूप में मुख्य न्यायाधीश की व्याख्या की है. राष्ट्रपति की प्रधानता को मुख्य न्यायाधीश या कॉलेजियम की प्रधानता के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया. चौथे न्यायाधीश के मामले में (वर्तमान में) अनुच्छेद 124 और 217 की व्याख्या में नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश की ‘विशिष्टता’ को अंतर्निहित कर दिया गया है और राष्ट्रपति की भूमिका को लगभग पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है. कानून की व्याख्या का कोई सिद्धांत दुनिया में न्यायिक संस्थाओं को संविधान सभा के उलट संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने का अधिकार क्षेत्र नहीं देता है. इस फैसले में यह दूसरी बुनियादी गलती है. न्यायालय केवल व्याख्या कर सकती है – यह एक कानून को दुबारा लिखने का तीसरा प्रकोष्ठ नहीं हो सकता.

99 वें संविधान संशोधन को खारिज कर के न्यायालय ने फिर से कानून बनाने का फैसला किया. अदालत ने 99 वें संविधान संशोधन को खारिज कर दिया. अदालत को ऐसा करने का अधिकार है. इस संशोधन को खारिज करते हुए, निरस्त अनुच्छेद 124 और 217 के प्रावधानों को फिर से कानून बना दिया गया जो केवल विधायिका कर सकती है. इस फैसले में यह तीसरी बुनियादी गलती है.

चौथा सिद्धांत जिस आधार पर यह फैसला गलत साबित होता है, कॉलेजियम प्रणाली, जोकि न्यायिक कानून का एक उत्पाद है, की चर्चा करते हुए कहा गया कि यह दोषपूर्ण है. इसके सुधार के लिए एक सुनवाई तय की गई. न्यायालय ने फिर तीसरे प्रकोष्ठ होने के भूमिका की धारणा बना ली. यदि न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया के साथ कोई समस्या है, तो क्या उन विधायी परिवर्तनों को विधायिका के बाहर विकसित किया जाना है?

ऐसे व्यक्ति के रूप में, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और भारतीय संसद की संप्रभुता के बारे में समान रूप से चिंतित है, मेरा मानना है कि दोनों जरूरी हैं और दोनों का सह-अस्तित्व होना चाहिए. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की एक महत्वपूर्ण बुनियादी संरचना है. इसे मजबूत बनाने के लिए, किसी को संसदीय संप्रभुता को कमजोर करने की जरूरत नहीं है जो न केवल एक आवश्यक बुनियादी संरचना है, वरन हमारे लोकतंत्र की आत्मा है.

 

@अरुण  जेटली

 

NIKHIL WAGLE | 20 JANUARY, 2018

A Committed Judiciary and Democracy
Questions need to be asked—and answered to avert the danger to democracy

MUMBAI: During the days of the Emergency, then Prime Minister Indira Gandhi had called for a “committed judiciary”. She didn’t have to explain to whom exactly the judiciary had to be committed. Her appointments made it quite clear.

In January 1977, Justice MH Beg superseded Justice HR Khanna as the Chief Justice of India. Khanna had paid the price for being the only dissenter in the well known A.D.M. Jabalpur v Shivkant Shukla case, where the majority bench ruled that the fundamental rights could be suspended during the Emergency. To mark his protest, HR Khanna submitted his resignation to Indira Gandhi. Earlier in 1973, 3 Justices of Supreme Court had resigned when she made appointments ignoring seniority.

Every government that flirts with authoritarianism is insecure about the judiciary. The phenomenon cuts across the globe. And it resurfaced again in India when four respected Supreme Court judges held an unprecedented press conference last week against the sitting Chief Justice of India, which begs the question: Is the Modi government trying to emulate Indira Gandhi? Is it all about forming a committed judiciary 2.0?

This is the question we must persistently ask, in spite of the various attempts to deflect attention from the issues raised by the “rebel” judges. If Chief Justice of India Dipak Misra is assigning important cases to selective benches of preference, as alleged by the judges, who is the CJI trying to please?

Misra’s proximity to Prime Minister Narendra Modi and the ruling party is an open secret. There are a few cases pending in the Supreme Court that are of great interest to the BJP. The Ayodhya dispute, for example, is one of them. Is the Modi government trying to lay a foundation for judgements that have far reaching socio-political consequences?

The judges who went public are men of integrity. Justice Gogoi is next in line to be the CJI. Which is why alarming would be an understatement to describe the situation. It is an attack on the autonomy of the judiciary, which, in turn, dilutes the essence of democracy.

Instead of addressing these grave concerns, the establishment tried to downplay the rift in Supreme Court. However, the matter seems to be intensifying. Senior Supreme Court Lawyer Prashant Bhushan has taken the charges made by the judges to another level. In a virtual charge sheet, he has demanded an inquiry by five senior judges into the functioning of Misra. Bhushan has cited examples of how he has misused his authority to influence the outcome of important cases.

As per Prashant Bhushan, Misra is directly involved in the case of Prasad Education Trust. Yet, he went out of his way to ensure he presided over it, blatantly disregarding the conflict of interest. In fact, the CBI has audio tapes proving bribery at the highest level of courts. These audio tapes have been apparently leaked as well, which further cast aspersions on the integrity of the CJI. Bhushan has said that he does accuse Misra of corruption, but his conduct calls for an immediate internal inquiry.

The second case that is being cited to highlight bias pertains to the mysterious death of Judge B.H. Loya. In spite of two petitions pending in the high courts of Bombay and Chandigarh, two separate petitions were suddenly filed in the Supreme Court. Without consulting anyone, a case as sensitive as this one was assigned by Misra to a junior judge like Arun Mishra, who, according to respected lawyer Dushyant Dave, is close to the ruling party.

The Loya case is said to be the tipping point of the press conference held by the four senior Judges. In spite of writing to the CJI two months ago, the judges were ignored. As a last resort, they decided to go to the press. At least, it temporarily woke up the concerned people. Arun Mishra has recused himself from the Judge Loya death case.

Right here, though, is the clue to understand why Modi bhakts and the North Korean channels unleashed a personal attack on the four judges, while asking for their resignations and labelling them anti-nationals. The four judges did not mention any political party in their press conference. Yet, those who have been disregarding the rule of law since the demolition of the Babri mosque, started preaching to the custodians of justice. It was amusing and disturbing at the same time. Neither Modi nor any senior BJP leader condemned the troll attack.

On the other hand, communist leader D. Raja seemed to be brimming with excitement as, for some inexplicable reason, he visited Justice Chalameswar at his residence after the press conference. The opposition parties have the right to demand an explanation from the government, but that should transpire in Parliament. Because only the Parliament has a right to impeach a judge.

Some of the lawyers and judges have argued that it is an internal matter,but one must remember that the matter greatly concerns democracy. After the election commission, RBI, CBFC and several educational institutes, the judiciary has been the latest casualty to have ceded faith in the eyes of the public. And that lost faith needs to be restored.

Amidst the entire storm, any self respecting man would have resigned having lost all moral ground. But slaves of the establishment are seldom self respecting men, so let us abandon wishful thinking for the time, which leaves us with a feasible, but a bitter, solution to restore the credibility of the highest institution of justice with a fair and transparent inquiry.

All eyes, thus, are on CJI Dipal Misra .

( Nikhil Wagle is former editor of daily Mahanagar and news channel IBN Lokmat.)

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