चंद्रसेन टिक्की वाले ने कलकत्ता में पछाड़ दिया था गामा पहलवान को!!

गामा पहलवान को किसने हराया ?

गामा पहलवान को गूगल कीजिये, तो आपको बताया जाएगा कि गामा पहलवान, जीवन में किसी से नहीं हारे, लेकिन ये सत्य नहीं है | गामा पहलवान का असली नाम ग़ुलाम मुहम्मद बख्श था | भारत विभाजन के बाद, ये पाकिस्तान में बस गए थे | बडौदा के संग्रहालय में एक पत्थर रखा है, जिसका वजन 1200 किलो है | 23 दिसम्बर 1902 को इतने भारी पत्थर को उठा कर, गामा पहलवान कुछ कदम चले थे | अकेले आदमी के १२०० किलो का पत्थर उठाने का अजूबा करने वाले, पहलवान का नाम था, गामा पहलवान | आज भी वो पत्थर बडौदा में रखा हुआ है लेकिन उस गामा पहलवान को जिसे दुनिया में कोई नहीं हरा सका, उसे हराया, मथुरा के प्रसिद्ध पहलवान चन्द्र सेन टिक्की वाले ने (मथुरा के प्रसिद्ध मोहन पहलवान के पिता) |

ये सारा किस्सा आपको इन्टरनेट पर नहीं मिलेगा क्योंकि इन्टरनेट पर सब कुछ उपलब्ध नहीं है | मथुरा के प्रसिद्ध बलदेव पहलवान ने उम्र बढ़ने के कारण मथुरा के ही, चन्द्र सेन टिक्की वाले को बोला कि तुम अभी जवान हो, जाकर गामा पहलवान से लड़ो | चंद्रसेन टिक्की वाले ने कहा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, बुखार है | मैं नहीं जा पाऊंगा कलकत्ता लड़ने तो बलदेव पहलवान ने कहा कि तुम्हारे लंगोट पर मैं 5000 रूपये ( उस समय के) लगाता हूँ | ये सुनकर, चंद्रसेन टिक्की वाले जोश में आ गए और बोले अब तो गुरु (गुरु, ब्रज में मित्र और गुरु या जानकार, किसी को भी कह देते हैं ) जाना ही पड़ेगा |

चन्द्र सेन टिक्की वाले, कलकत्ता पहुँच गये और गामा पहलवान से कुश्ती की बात रख दी पर खरीद फरोक्त खेलों में आज ही नहीं, पहले भी होती थी और उनको भी कहा गया कि तुम मत लड़ो (चन्द्र सेन टिक्की वाले, लम्बाई चौड़ाई में, गामा पहलवान से दुगुने नहीं तो डेढ़ गुने तो रहे ही होंगे) पर चन्द्र सेन पहलवान ने मना कर दिया कि वो जुबान दे कर आये हैं, लड़ कर ही जायेंगे |
कुश्ती शुरू हुई, अखाड़ा सजा | कुश्ती शुरू होते ही, गामा पहलवान ने ऐसा दांव खेला कि चन्द्रसेन पहलवान का अंगूठा चीर दिया (अंगूठे और हाथ को पकड़ कर, खींच दिया) और  दंगल में खून-खून हो गया | चंद्रसेन को ये बात समझ नहीं आई कि कुश्ती में, ऐसा काम नहीं किया जाता है और ये कैसी कुश्ती थी ..उन्होंने फिर एक ही दांव खेला (सल्ला मारा) और ऐसा खेला कि गामा पहलवान उसी एक दांव में बेहोश |

लोग बड़े खुश हुए, कि जिस पहलवान को पूरे भारत में कोई नहीं हरा पाया, उसे मथुरा के पहलवान ने हरा दिया | पूरे कलकत्ता में जुलूस निकला | दानदाता और खेल प्रशंसकों ने पेटियां खोल दी और लाखों रूपये का इनाम चन्द्र सेन टिक्की वाले को मिला | कहते हैं, उन्होंने वापिस मथुरा आकर, 16 कोठियां या मकान खरीदे |

तो जिसने 1200 किलो का पत्थर उठा लिया और पूरे भारत और दुनिया में रुस्तमे हिन्द (कैसे ये हार छुप गयी, पता नहीं) और रुस्तमे जहाँ का खिताब जीता उसे चन्द्र सेन टिक्की वाले ने हरा दिया… तो चन्द्र सेन टिक्की वाले कौन हुए ? बली ? नहीं ! वो हुए बलिष्ठ | बलियों में भी बली, बलिष्ठ यानि महाबली आप कह सकते हैं | ऐसे ही वशिष्ठ माने क्या ? जो वशियों में (इन्द्रियों आदि को वश में करने वाले) श्रेष्ठ हैं, वो वशिष्ठ हैं | ऐसे ही धर्मिष्ठ कौन ? धर्म में जो श्रेष्ठ हों वो धर्मिष्ठ | महिष्ठ माने जो महान जनों में भी महान हैं वो महिष्ठ और जो गुरुओं में भी गुरु हो वो हुए गरिष्ठ | अब मजेदार बात ये है कि आप गूगल करेंगे तो आपको चन्द्रसेन टिक्की वाले के बारे में एक लाइन भी नहीं मिलेगी, इसीलिए मुझे लिखना जरूरी लगा।

अब ये सब बातें मुझे कैसे पता चली तो                        इसका सार ये है कि

 ज्यों केले के पात में, पात पात में पात,

         त्यों संतन की बात में, बात बात में बात

भारत के स्वर्णिम मल्ल कुश्ती के इतिहास में शेर ए हिंद महाबली पहलवान चन्द्रसेन उर्फ चंदन चौबे उर्फ (#भौरा_पहलवान) के जिक्र के बिना अधूरा है । बीसवीं सदी में पहलवान चंद्रसेन चौबे का बिना जिक्र किए  भारत की कुश्ती कभी पूरी नहीं हो सकती । जब रुस्तमे-हिन्द गामा पहलवान ने विश्व चैंपियन इंग्लैंड के पोलैंड निवासी जैबिस्को को हरा रुस्तम ए बरतानिया का खिताब पाया और विश्व में भारत का नाम कमाया तो उस समय गामा पहलवान को अपने बल पराक्रम पर घमंड आ गया था और वह उस समय किसी का भी उपहास उड़ा कर उससे लड़ने से मना कर देते थे लेकिन यह सब वह इसलिए करते थे कि वह उस समय दतिया के राजा भवानी सिंह के संरक्षण में वह कुश्ती लड़ते थे! लेकिन समय करवट बदलता है उसी समय उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अखाड़ा भूतेश्वर में चंद्रसेन चौबे भी अपने जिले और देश का नाम रोशन कर रहे थे। चंद्रसेन को भी जवाहरलाल नेहरू और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने भारत के महाबली जैसे सम्मान से सम्मानित किया था ,
और वह दिन भी आ गया जब इन दोनों के बीच में कुश्ती  की बात कुश्ती प्रेमियों के बीच में चलने लगी इधर चंद्रसेन भी नवाब पहलवान और कमरुद्दीन पहलवान को पटक कर राष्ट्रीय पहलवान का दर्जा प्राप्त कर चुके थे! फिर सन 1923 को 22 दिसंबर शुक्रवार को वह दिन भी आ गया जब इन दोनों की आपस में भिड़ंत होने वाली थी!
कोलकाता का ईडन गार्डन स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था स्टेडियम में (कूच बिहार मुर्शीदाबाद) के महाराजा भी मौजूद थे। इसके अलावा जाने-माने वकील भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पिताजी मोतीलाल नेहरू भी थे जो बहुत ही कुश्ती प्रेमी थे ,वह भी उस दिन मौजूद थे। इधर गामा पहलवान अपनी जीत को लेकर आश्वस्त था क्योंकि उसे लगा ये एक शाकाहारी पंडित उसे क्या हरा पाएगा। फिर दोनों के बीच  कुश्ती के दांव पेच लगाने का समय आया दोनों बाहुबली दर्शक भी उत्साहित होकर दोनों लोगों का मनोबल बढ़ाने लगे दोनों मानो जैसे स्वयं भगवान विष्णु शिव जी से युद्ध कर रहे हैं । वैसा ही माहौल बन गया लेकिन एकाएक गामा बहुत चिंता मे पड़ गया। जब उसने सारे दांव लगा दिए और चंद्रसेन पहलवान को हरा नहीं पाया । लोग बताते हैं कि उस कुश्ती में जब उसके दाांव काम नही किए तो वो चिढ़ गया और उनके बीच वाली ऊंगली को मौका देखकर तोड़ने की कोशिश की लेकिन इन सबके बावजूद भी चंद्रसेन पहलवान को हरा नहीं पाया। यहां तक लोग कहते हैं कि उसके पांव तक उखड़ गए थे और उसको चांद तारे दिखने लगे थे । उस कुश्ती में वह किसी तरीके से अपना बचाव कर रहा था। दर्शकों ने कभी गामा पहलवान का इतना बुरा हाल नही देखा था ।उस मुकाबले में दर्शक भी उनकी पहलवानी देखकर चंद्रसेन का उत्साहवर्धन और उनके बाहुबल को देखकर उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे! मोतीलाल नेहरू ने चंद्रसेन पहलवान को आज तक ऐसी कुश्ती लड़ते हुए नहीं देखा था और वो एकदम से अवाक हो गए थे !!
मोतीलाल नेहरू बहुत ही ज्यादा कुश्ती प्रेमी थे ।वे गामा पहलवान को भी 1909 में अपने साथ पेरिस में प्रदर्शनी पहलवान के रूप में ले गए थे ।लाख जद्दोजहद के बाद दोनों पहलवानों की कुश्ती बराबरी पर छूटी थी!

भारतीय कुश्ती के स्वर्णिम अक्षरों में ये कुश्ती आज भी दर्ज है और गामा पहलवान ने इस मल्ल युद्घ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते थे,,” इसमें कोई शक नहीं है कि चंद्रसेन पहलवान दुनिया के किसी भी पहलवान को पटकनी दे सकते हैं “!!
कहा जाता है कि विजय स्वामी तो चंद्रसैन  से इतने प्रभावित हुए थे कि उनके गुरु छीत्तू सिंह को अपना इष्ट मानने लगे थे!
अपने बेजोड़ कुश्ती के दांव-पेंच से भारत के हर प्रमुख जगह अपनी कुश्ती व कला से हर पहलवान पे जीत से इन्होंने जनता व खेल प्रेमियों के दिलों में खास जगह बनाई थी!
सन 1910 में मोती लाल नेहरु जी ने इन्हें( #भारत_महाबली) की उपाधि से सम्मानित किया था।
श्री चंद्रसेन ने जम्मू, दिल्ली, इंदौर ,उज्जैन, इटावा , कानपुर, बनारस ,इलाहाबाद आजमगढ़ ,आगरा ,हाथरस और इंदौर जैसे शहरों में अखाड़े स्थापित किये थे और ना जाने कितने विराट योद्धाओं को भारत भूमि के लिये तैयार करके दिया था!
चंद्रसेन जहां वह खुद कुश्ती लड़ते थे, अपने अखाड़े ( #भूतेश्वर _मथुरा) में बिना किसी भेदभाव हिंदू मुसलमान सभी पहलवानों को शिक्षा दी और उन्हें भारत देश का प्रतिनिधित्व करने को प्रोत्साहित भी किया
चंद्रसेन  उदावत_रियासत के पहलवान कह जाते थे और जब तक जीवित थे तब तक किसी भी व्यक्ति की हिम्मत नहीं थी कि राजा साहब को मल्ल युद्ध में ललकार सके !
इन्हीं के पुत्र पंडित मोहन पहलवान ने भी आगे चलकर इनके नाम को और आगे बढ़ाया!

@# लेखक अभिनन्दन शर्मा, प्रसिद्ध उपन्यास सीरिज “अघोरी बाबा की गीता” के लेखक हैं | इन्होने अपनी इंजीनियरिंग ग्वालियर के आईटीएम कॉलेज से सन 2005 में पूर्ण की | ये गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में निवास करते हैं और दिल्ली में एक जापानी MNC में कार्यरत हैं |

विख्यात_महाबली_पंडित_मोहन_पहलवान

पंडित मोहन पहलवान अपने पिता चंद्रसेन पहलवान के साथ 5 साल की उम्र में ही भूतेश्वर अखाड़ा आने लगे थे लेकिन बचपन से ही उन्हें जिगर की बीमारी थी जो उन्हें 11 साल तक बनी रही!! जब ये सिर्फ 11 साल के थे तो उनके पिताजी चंद्रसेन पहलवान का देहांत हो गया जिससे कुश्ती जगत को बहुत बड़ा झटका लगा। लोग इन्हे अपने पिता की तरह पहलवान बनते देखना चाहते थे लेकिन इन सबके बावजूद भी मोहन पहलवान की मां मोहिनी देवी अपने बेटे के जिगर की बीमारी के बाद पति के देहांत  से भी टूट चुकी थी लेकिन इन सबके बावजूद उन्होंने अपने बेटे को क्षेत्र का सबसे बड़ा पहलवान बनाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। जायदाद के रूप में उनके पास दो मकान और भूतेश्वर पर जमीन थे जो उन्होंने मोहन पहलवान की खुराक व खर्चे के लिए बेच डालें । इनको एक बड़ा पहलवान देखने का प्रबल इच्छा रखने वाले बनारस के स्वामी प्रकाशानंद ,कोलकाता के नत्थू पहलवान जैसे लोगों ने भी इनका काफी सहयोग किया । मोहन पहलवान को 25 वर्षों तक गुरु राधे श्याम बाबा का सहयोग मिला !उन्होंने इन्हें देश – विदेश तक की सैर कराई । बचपन में ही इन्हें हिंद केसरी मंगला राय का पिऐ तुल्य प्यार मिला। इन्होंने भूतेश्वर अखाड़ा में रुक कर कई महीने तक इन्हें दांवपेच और कुश्ती की कला सिखाई थी!
इन सब के बावजूद परिपथ पहलवान बनने के बाद इनकी 16 साल की उम्र में  ब्रज मंडल के सभी पहलवानों को चित कर ब्रज मंडल में सनसनी फैला दी थी!
इसके अलावा मोहन पहलवान ने सुच्चा सिंह पहलवान (पटियाला) को 5 मिनट में ,राम गोपाल पहलवान (उत्तर प्रदेश) को 10 मिनट में, नजीर पहलवान पाकिस्तान को 13 मिनट में, रसीद पहलवान पाकिस्तान को 2 मिनट में, निजाम पहलवान पाकिस्तान को 5 मिनट में पटखनी देकर चारों तरफ पहलवानी में रुतबा कमाया!
इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय ख्याति पर आए हुए पहलवानों से भी इनके कुश्ती हुई जिसमें प्रमुख हैं जापान में स्वर्ण पदक प्राप्त् श्री मनपत अंणडेलकर( महाराष्ट्र), रोही राम (पंजाब) श्रीपति खाचनाले (महाराष्ट्र) रंग मावली जैसे नाम उल्लेखित है जिनसे उनके कुश्ती बराबरी पर छूटी!
लेकिन पंडित मोहन पहलवान और भारत विख्यात पूरनपहलवान की कुश्ती कभी पूरी नहीं हो सकी । यह कुश्ती 3 राउंड चली जिसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पटियाला के महाराज जैसे लोग उपस्थित थे लेकिन आयोजक कभी भी सक्रिय नहीं हुए जिससे यह कुश्ती कभी पूूरी हो नहीं पाई!!
#_मोहन_पहलवान_की_कुछ_प्रमुख_कुश्तियां!

1)हाथरस अलीगढ़ विख्यात पहलवान दुर्जन सिंह के बच्चे सोबरन सिंह को अखाड़े में पछाड़ा 1947

2)भारत विख्यात पूरन पहलवान के पट्ठे सुच्चा सिंह से कुश्ती बराबरी पर छूटी

3)उत्तर प्रदेश के तेज नारायण से कुश्ती बराबरी पर छूटी 1959

4)मथुरा में मोती पहलवान को झूला गोदी दांव से 4 मिनट में पछाड़ा !1953

5)राजस्थान के नामी पहलवान विजेंद्र सिंह को 3 मिनट 40 सेकंड में पछाड़ा 1954

6)बनारस में हिंद केसरी रोहीराम अमृतसर वाले से कुश्ती 30 मिनट तक हुई और बराबरी पर छूटी 1957

7)मथुरा में प्रीतम सिंह पंजाब को पछाड़ा

8) आगरा में पाकिस्तान के नजीर पहलवान को 13 मिनट में पटका

9) मथुरा में चिंदू( आगरा )को उसके पक्ष के लोग उठाकर ले गए थे!!

10) गाजीपुर के दंगल में बनारस के सुप्रसिद्ध पहलवान तेजू को चंद मिनटों में पटक के नाम कमाया

#इन_के_कुछ_प्रमुख_शिष्य

गोपाल पहलवान महोली गांव मथुरा

चरण सिंह पहलवान मथुरा

बालों पहलवान मथुरा

ऊमर दीन पहलवान मथुरा

काला बादल मथुरा

चतुर सिंह मेथाना

मंगतू पहलवान मेहराना

राजन पहलवान दघैता

झारखंडी पहलवान बनारस

बन्नी सिंह पहलवान दघैता

इस तरह अपने चिर परिचित अंदाज में कुश्ती करते हुए अपने पिता पंडित चंद्रसेन पहलवान जोकि गामा पहलवान से कुश्ती लड़े थे और उनकी सांसे तक उखाड़ दिए थे,की तरह ही इन्होंने भी अपने कुश्ती को बिना पराजय के अपना कैरियर समाप्त किया!

मथुरा के पहलवान और अखाड़े

किसी जमाने में दूर-दूर तक प्रसिध्द रहे मथुरा के अखाड़े आज वीरान हैं। एक वक्त था जब 150 से ज्यादा छोटे-बड़े अखाड़ों में मल्ल-शिक्षा का धुंआधार दौर था। आज यही अखाड़े प्रभावशाली लोगों की निजी जागीर बन गये हैं और जितने भी अखाड़े बचे हैं, उन्हें अंगुलियों पर आसानी से गिना जा सकता है। हाथी की चाल से झूमते मथुरा के पहलवान जब अपने घरों से अखाड़ों की ओर कूच करते थे तो राहगीर उन्हें हसरत भरी नजरों से निहारते और उन पर गर्व करते थे। लोग उन कद्दावर शरीर वाले पहलवानों को देख झूम-झूम जाते थे।
इतिहास बताता है कि मल्लविद्या के मामले में मथुरा की कोई सानी नहीं रही। अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के कई शहरों ;अमृतसर, लाहौर, लुधियाना, जालन्धर, पटियाला आदि के पहलवानों से मथुरा के चौबे पहलवान ही टक्कर लेते थे। यूँ तो पौराणिक कथाओं में कंस के मल्लचाणूर मुषिटक का जिक्र मिलता है। चाणूर की कुश्ती कृष्ण से हुई   थी। लेकिन मथुरा के अखाड़ों और पहलवानों की प्रामाणिक जानकारी अकबर के काल से मिलना शुरू हो जाती है।
मथुरा के किशोरी रमण डिग्री कालेज के गेट पर 50 फीट ऊँचे टीले पर बना अकबर कालीन ‘ चौकी अखाड़ा’ आज भी सुरक्षित है। अकबर के शासन में अलदत्त और कुलदत्त नाम के दो भाई   पहलवान चौकी अखाड़े पर कुश्ती लड़ते थे . वे ताल ठोंकने में माहिर माने जाते थे। दिन मूँदने पर जोर आजमाइश समाप्त होती तो दोनों पहलवान अखाड़े पर खड़े होकर ताल ठोंकते थे। आधा किलोमीटर दूर चौबिया पाड़े के घर पर अपने बेटों की बाट जोहती पहलवानों की माँ उस आवाज को सुन लेती थी और अपने पहलवान बेटों के भोजन की व्यवस्था में जुट जाती थी।
खुनखुन और पाई   नामक दो चौबे भाइयों का किस्सा बेहद मज़ेदार है । खुनखुन और पाई   भरतपुर रियासत के पहलवान थे। -अंग्रेजों ने ऐतिहासिक चौकी अखाड़े को नष्ट कर सड़क बनाने का काम शुरू किया। मथुरा के पहलवान इसे सहन न कर सके। खुनखुन और पाई   भरतपुर से रात को भागकर मथुरा आते और अंग्रेजों द्वारा बनाई सड़क को काटकर रात ही रात में 30 कि.मी. दूर भरतपुर भाग जाते थे। सुबह अंग्रेज सड़क को ठीक करवा देते। यह क्रम कई  दिनों तक चला। हारकर अंग्रेजों को चौकी अखाड़े को सुरक्षित रखने का निर्णय लेना ही पड़ा। आज भी सड़क चौकी अखाड़े को छूती हुई दिखलाई   पड़ती है।
बड़ौदा-नरेश गायकवाड़ खाण्डेराव को पहलवानी करने और नामी-गिरामी पहलवानों को अपने यहाँ रखने का शौक था। 1865 में उनके पास एक सहस्त्र पहलवान थे। इनमें पंजाब के पहलवानों के मुकाबले मथुरा के चौबे पहलवानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। हौआ गुरू, उद्धव गुरू, भंगा गुरू, हीरा चौबे, दाऊ चौबे, नत्थू, श्रीगुरू, पीनूजी आदि पहलवान महाराज को कुश्ती के दाँव पेंच सिखलाते थे और पंजाब के पहलवानों से जोर आजमाइश में सारा जीवन निकाल देते थे। महाराजा लंगोट पहनकर अखाड़े में उतरते थे तो मिटटी के ऊपर गुलाल की मोटी परत बिछाई   जाती थी।
इसी युग में चूं-चूं चौबे पहलवानी की दुनिया में एक धमाके के समान उभरे थे। 1886 में कानपुर के पहलवान मिसिर को पछाड़ कर उन्होंने ख्याति अर्जित की। बिहार प्रान्त में सूरजानट और चूं-चूं की कुश्ती भी काफी चर्चा का विषय रही थी। यह कुश्ती 6 घण्टे चली थी और बराबर पर छूटी थी। दंगी चौबे, मठो चौबे, देविया, मोरखी, चौहरी, भौंदू, महादेव आदि पहलवान 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में मथुरा और दूसरे नगरों के अखाड़ों में ताल ठोंका करते थे। देविया चौबे के बारे में कहा जाता है कि उन्हांने दरभंगा राज्य में शेर से कुश्ती लड़ी थी और बुरी तरह घायल हुए थे।
महादेवा पहलवान अंधे थे। वे अखाड़े में सामने खड़े पहलवान से हाथ मिलाते थे और फिर उन्हें कुश्ती जीतने में देर नहीं लगती थी।
सन 1920 के बाद की  वर्षो तक मथुरा के अखाड़ों में बल्देव गुरू का नाम गूंजता था। बल्देव गुरू की मल्लविद्या  से प्रभावित होकर पत्रकार शिरोमणि पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने विशाल भारत में ‘श्रद्धेय बल्देव गुरू’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। सप्पो चौबे, घड़े चौबे और चंद्र सेन सरीखे पहलवानों का नाम आजादी से पूर्व बड़ी श्रध्दा के साथ लिया जाता था।
आजादी के बाद मथुरा में एक मात्र मोहन पहलवान हुए। १९५० की बात है . प्रदेश के मंत्री लक्ष्मी रमन आचार्य ने मथुरा में मोहन की कुश्ती अमृतसर के पूरन पहलवान से करने की योजना बनाई .पूरन मथुरा आया लेकिन मोहन का वलिष्ठ शरीर देख डर गया और बिना कुश्ती लड़े चला गया .बाद में दिल्ली में एक मौके पर नेहरूजी ने दोनों पहलवानों के हाथ मिलवाए . जनरल करियप्पा और महाराजा पटियाला भी थे . लेकिन पूरन मोहन की भुजाएं देख फिर डर गया और कुश्ती नहीं लड़ी.
इसके बाद मथुरा के अखाड़े पहलवानों के लिए तरस गए। इस समय तक मथुरा के हर मोहल्ले का अपना अखाड़ा था। बड़े अखाड़ों की शाखाएँ शहरों में हुआ करती थीं। भगवत अखाड़ा, लक्ष्मन अखाड़ा, गिरधरवाला अखाड़ा, भूतेश्वर अखाड़ा, खेरावाला अखाड़ा आदि अखाड़े अपने जमाने के प्रसिध्द अखाड़े थे। जमीन की कीमतें बढ़ने से अधिकांश अखाड़ों पर आधुनिक हथियार बंद पहलवानों ने कब्जा कर लिया। बहुत से अखाड़े कोर्ट-कचहरी में स्वामित्व के प्रश्न को लेकर विवाद बन गए।
पहले पहलवानों को सुबह से शाम तक जोर आजमाने के अलावा दूसरा कोर्ई काम न था। आजादी की लड़ाई से इनका कोर्ई  लेना-देना न था।
मार्च 1756 में अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा में लूटमार और कत्लेआम का कहर ढाया। उस जमाने में धीरा और फकीरा नाम के दो पहलवान थे। साधारण लोगों की तरह दोनों पहलवान अब्दाली की फौजों को निहारते रहे। इन पहलवानों ने आक्रान्ताओं का कोर्ई विरोध नहीं किया। ऐसे में तत्कालीन पहलवानों की चुप्पी आज भी खलती है। कहते हैं कि पहलवान शरीर से जरूर ताकतवर होता है लेकिन स्वभाव से जरूरत से ज्यादा शान्त होता है। पहलवान को यदि क्रोध आने लगे तो पहलवान फिर पहलवान ही न रहे।
दूध, घी, और बादाम की अखनी मथुरा के पहलवानों का प्रिय भोजन था। अखनी का मतलब था- कढ़ाई   में 5 सेर दूध में एक सेर घी और सेर भर बादाम डाल दिये जाएं और जब माल ओटते-ओटते तीन सेर रह जाए तब उसका इच्छानुसार सेवन किया जाए। सन 1930 में गुलबी चोबे ने प्रोफेसर जीवनलाल चतुर्वेदी (मल्ल विद्या के जानकार जो एक साल पहले गुज़र गए . ) को बताया था कि एक बार वे कल्लू पहलवान के बुलावे पर अमृतसर गए। कल्लू मुसलमान था। कल्लू की माँ ने पूछा कि ‘मथुरा के पहलवान क्या खाते हैं? गुलबी ने बताया-‘अखनी।’ कल्लू की माँ को यकीन न हुआ कि बिना माँस के पहलवानी संभव है।
मथुरा में ” छान छान किसी की न मान —-” जैसी -ध्वनियां आज भी गूँजती हैं यानि चौबों का भांग से पुराना और प्रिय रिश्ता है लेकिन मथुरा के चौबे पहलवान भांग से अपने को दूर रखते थे।
आर्थिक दबावों ने लोगों की कमर तोड़ दी। दो जून की रोटी के लाले पड़ गए। अखनी को चखना तो दूर उसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
सूने पड़े चौकी अखाड़े के बगल से जब भी गुजरता हूँ तो ऊपर लिखे पहलवानों के नाम रह रह कर याद आते हैं.
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चित्र — मोहन पहलवान

 

सूने पड़े मथुरा के अखाड़े

मथुरा के अखाड़े और पहलवान एक जमाने में दूर-दूर तक काफी मशहूर थे। लेकिन धीरे-धीरे कुश्तीबाजी की परंपरा कमजोर होती चली गई। कई पारंपरिक खेल आज खत्म होने की कगार पर हैं। ऐसे दौर में अखाड़ों और पहलवानी की पृष्ठभूमि में झांक रहे हैं पवन गौतम।

पवन गौतम

भगवत अखाड़ा, लक्ष्मण अखाड़ा, गिरधरवाला अखाड़ा, भूतेश्वर अखाड़ा, खेरावाला अखाड़ा आदि अपने जमाने के प्रसिद्ध अखाड़े थे।
किसी जमाने में दूर-दूर तक ख्यात रहे मथुरा के अखाड़े आज वीरान पड़े हैं। एक वक्त था, जब डेढ़ सौ से ज्यादा छोटे-बड़े अखाड़ों में मल्ल-शिक्षा सिखाई जाती थी। आज कई अखाड़े स्थानीय प्रभावशाली लोगों की निजी जागीर बन गए हैं और बाकी बचे -खुचे अखाड़ों को अंगुलियों पर आसानी से गिना जा सकता है। बुजुर्ग बताते हैं कि जब हाथी की चाल से झूमते मथुरा के पहलवान अपने घरों से अखाड़ों की ओर कूच करते थे तो राहगीर उन्हें हसरतभरी नजरों से निहारते और उन पर गर्व करते थे। लोग उन कद्दावर शरीर वाले पहलवानों को देखकर प्रसन्न होते थे। मल्लविद्या के मामले में मथुरा का कोई सानी नहीं रहा। अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के कई शहरों-अमृतसर, लाहौर, लुधियाना, जालंधर, पटियाला आदि में बसे पहलवानों से मथुरा के चौबे पहलवान ही टक्कर लेते थे। यों तो पौराणिक कथाओं में कंस के प्रसिद्ध मल्ल चाणूर और मुष्टिक का जिक्र मिलता है, जिसकी कुश्ती श्रीकृष्ण से हुई थी। लेकिन मथुरा के अखाड़ों और पहलवानों की प्रामाणिक जानकारी अकबर के काल से मिलनी शुरू होती है।

मथुरा के किशोरी रमण डिग्री कॉलेज के गेट पर पचास फुट ऊंचे टीले पर बना अकबरकालीन चौकी अखाड़ा आज भी सुरक्षित है। अकबर के शासन में अलदत्त और कुलदत्त नाम के दो पहलवान भाई चौकी अखाड़े पर कुश्ती लड़ते थे और ताल ठोंकने में माहिर माने जाते थे। दोनों चौबे पहलवानों की ताल ठोंकने की बात एक जनश्रुति के रूप में इस प्रकार सुनने में आती है कि शाम खत्म होने पर जोर-आजमाइश समाप्त होती थी। फिर दोनों पहलवान अखाड़े पर खड़े होकर ताल ठोंकते थे। आधा किलोमीटर दूर चौबिया पाड़े के घर पर अपने बेटों की बाट जोहती पहलवानों की मां उस आवाज को सुन लेती थी और अपने पहलवान बेटों के भोजन की व्यवस्था में जुट जाती थी। दसवींं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में खुनखुन और पाई नामक दो चौबे भाइयों का जिक्र आज भी मथुरा के बुजुर्ग पहलवानों की जुबान पर है। खुनखुन और पाई भरतपुर रियासत के पहलवान थे। उस वक्त का एक रोचक किस्सा आज भी मशहूर है। हुआ कुछ ऐसे कि अंग्रेजों ने ऐतिहासिक चौकी अखाड़े को नष्ट कर सड़क बनाने का काम शुरू किया।

मथुरा के पहलवान इसे सहन न कर सके। खुनखुन और पाई भरतपुर से रात को भागकर मथुरा आते और अंग्रेजी सड़क को काटकर रात ही रात में तीस किलोमीटर दूर भरतपुर भाग जाते। सुबह अंग्रेजी प्रशासन सड़क को ठीक करा देता। यह क्रम कई दिन तक चला। हारकर अंग्रेजों को चौकी अखाड़े को सुरक्षित रखने का निर्णय लेना ही पड़ा। आज भी सड़क चौकी अखाड़े को छूती हुई दिखलाई पड़ती है। बड़ौदा-नरेश गायकवाड़ खांडेराव को पहलवानी करने और नामी-गिरामी पहलवानों को अपने यहां रखने का शौक था। 1865 में उनके पास कई हजार पहलवान थे। इनमें पंजाब के पहलवानों के मुकाबले मथुरा के चौबे पहलवानों की संख्या सबसे ज्यादा थी। हौआ गुरु, उद्धव गुरु, भंगा गुरु, हीरा चौबे, दाऊ चौबे, नत्थू, श्रीगुरु, पीनूजी आदि पहलवान महाराज को कुश्ती के दांवपेंच सिखलाते थे और पंजाब के पहलवानों से जोर आजमाइश में सारा जीवन निकाल देते थे। मथुरा के मल्लविद्या-विशेषज्ञ जीवन लाल चतुर्वेदी का कहना है कि बुजुर्ग पहलवानों से उन्होंने सुना था कि महाराजा लंगोट पहनकर अखाड़े में उतरते थे तो मिट्टी के ऊपर गुलाल की मोटी परत बिछाई जाती थी।

इसी युग में चूं-चूं चौबे पहलवानी की दुनिया में एक धमाके के समान उभरे थे। 1886 में कानपुर के प्रसिद्ध पहलवान मिसिर को पछाड़कर उन्होंने काफी ख्याति अर्जित की। बिहार प्रांत में सुरजा नट और चूं-चूं की कुश्ती भी काफी चर्चा का विषय रही थी। यह कुश्ती छह घंटे चली थी और बराबर पर छूटी थी। दंगी चौबे, मठो चौबे, देविया, मोरखी, चौहरी, भौंदू, महादेव आदि पहलवान उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में मथुरा और दूसरे नगरों के अखाड़ों में ताल ठोंका करते थे। देविया चौबे के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने दरभंगा राज्य में शेर से कुश्ती लड़ी थी और बुरी तरह घायल हुए थे। महादेवा पहलवान नेत्रहीन थे, मगर वह अखाड़े में सामने खड़े पहलवान से हाथ मिलाते थे और फिर उन्हें कुश्ती जीतने में देर नहीं लगती थी।

भगवत अखाड़ा, लक्ष्मण अखाड़ा, गिरधरवाला अखाड़ा, भूतेश्वर अखाड़ा, खेरावाला अखाड़ा आदि अपने जमाने के प्रसिद्ध अखाड़े थे। जमीन की कीमतें बढ़ने से अधिकांश अखाड़ों पर आधुनिक हथियारबंद पहलवानों ने कब्जा कर लिया है। बहुत से अखाड़े कोर्ट-कचहरी में स्वामित्व के प्रश्न को लेकर विवाद बन गए हैं। दूध, घी और बादाम की अखनी मथुरा के पहलवानों का प्रिय भोजन था। अखनी का मतलब था- कढ़ाई में पांच सेर दूध में एक सेर घी और सेरभर बादाम डाल दिए जाएं और जब सारी सामग्री ओटते-ओटते तीन सेर रह जाए तब उसका इच्छानुसार सेवन किया जाए। आर्थिक दबावों ने लोगों की कमर तोड़ दी। दो वक्त की रोटी के लाले पड़ गए। अखनी को चखना तो दूर उसकी कल्पना करना भी मुश्किल हो गया है। धीरे-धीरे कुश्ती की वह परंपरा क्षीण होती चली गई और आज लगभग मृतप्राय है।अभी कुछ हफ्ते पहले साक्षी मलिक द्वारा ओलंपिक खेलों में कांस्य पदक जीतने से कुश्ती पर चर्चा को जोर मिला । सलमान खान की फिल्म ‘सुल्तान’ और आमिर खान की आने वाली फिल्म ‘दंगल’ से भी कुश्ती के प्रति रुझान और इसका प्रचार-प्रसार थोड़ा बढ़ा है। केंद्र और राज्य सरकारों ने इस खेल और उससे भी ज्यादा इस परंपरा को और पोषित करने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाए हैं। लेकिन अभी और ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है ताकि सूने पड़ते जा रहे अखाड़े फिर से आबाद हो सकें।

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