सर्वे एजेंसियों के चुनावी अनुमान क्यों हो जाते हैं ग़लत?
‘सर्वे करने वाली एजेंसियों के कार्यकर्ताओं के पास वो आंख नहीं, जो पत्रकार के लिए जरूरी है’
‘सर्वे करने वाली एजेंसियों के कार्यकर्ताओं के पास वो आंख नहीं, जो पत्रकार के लिए जरूरी है’
पांच प्रदेशों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के परिणामों पर जानकारों और एजेंसियों ने अपने अपने आकलन जारी करना शुरू कर दिया है
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।
पांच प्रदेशों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के परिणामों पर जानकारों और एजेंसियों ने अपने अपने आकलन जारी करना शुरू कर दिया है। इस तरह के आकलन अधिकतर मीडिया संस्थानों या चैनलों तथा समाचार-पत्रों की ओर से कराए जाते हैं।
स्वस्थ्य लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार और अन्य सियासी दलों के कामकाज पर इस तरह के पूर्वानुमानों पर किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। आमतौर पर इस तरह के पूर्वानुमान सच के आसपास होते हैं। लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण गलत भी निकले हैं। एक दो निर्वाचनों में तो वे अपने को उपहास का केंद्र बना बैठे हैं। पाठकों और दर्शकों के नजरिए से देखूं तो ये आकलन उनकी वैचारिक भूख शांत नहीं करते।
दरअसल, वे जानना चाहते हैं कि अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी दोबारा बहुमत के साथ लौट रही है तो उसके आंतरिक कारण क्या हैं ? और यदि उसकी लुटिया डूब रही है तो उसने पांच बरस में क्या गुड़ गोबर किया है। इस आधार पर यह आकलन बहुत ठोस जमीन पर खड़े नजर नही आते। जबसे इस देश में चैनल युग आया है, मुझे अनेक चुनावों में कवरेज के लिए देश भर में घूमने का अवसर मिला है। कई चैनलों के मुखिया के तौर पर काम करते हुए पूर्वानुमान लगाने वाली कुछ संस्थाओं के साथ काम करने का अनुभव भी मिला है।
मेरा मानना है कि इन एजेंसियों के सर्वेक्षण कार्यकर्ताओं के पास वह आंख नहीं होती, जो आमतौर पर एक पत्रकार के लिए आवश्यक होती है। वे बजट को ध्यान में रखकर अपनी सर्वे टीम का चुनाव करती हैं। इस वजह से उनमें या तो जनसंचार के अनुभवहीन छात्र शामिल हो जाते हैं अथवा ऐसे प्रोफेशनल जो किसी कारोबारी उत्पाद के लिए मार्केट सर्वेक्षण का काम करते हैं।
वह साबुन बनाने वाली कंपनी या नेपकिन वाली कंपनी के कार्यकर्ता भी हो सकते हैं। कभी-कभी तो यह हुआ है कि आकलन करने वाली एजेंसियां आवंटित बजट से मुनाफा बढ़ाने के लिए उतने कार्यकर्ताओं को तैनात नहीं करतीं, जितने उन्होंने अपने बजट-प्रस्ताव में दिए होते हैं। यह कार्यकर्ता किसी शहर में घर घर या अपेक्षित मतदाताओं से संपर्क नहीं करते। वे खुद ही सारे प्रपत्र भर देते हैं और दाखिल कर देते हैं। एक चैनल में मैंने और मेरे कुछ साथियों ने यह गड़बड़ पकड़ ली थी।
पंद्रह-सोलह साल पूर्व चुनाव के दिनों में हम विधायक का रिपोर्ट कार्ड दिखाने वाले थे। इसके लिए एक एजेंसी को अनुबंधित किया गया। उसकी प्रश्नावली में कुछ ऐसे सवाल थे जिनके उत्तर मैदान में जाने पर ही मिल सकते थे।
मगर एजेंसी के कार्यकर्ताओं ने नागपुर के किसी स्थान पर बैठकर सारे प्रपत्र भर दिए। उदाहरण के तौर पर एक सवाल था कि विधायक से कितने प्रतिशत लोग परिचित हैं या उसका नाम जानते हैं। प्रपत्र में भर दिया गया कि 95 फीसदी लोगों ने विधायक का नाम ही नहीं सुना। जब यह जानकारी प्रसारित हुई तो हम लोगों को ताज्जुब हुआ क्योंकि वह एक बेहद लोकप्रिय विधायक के बारे में था। जब संबंधित मतदाताओं से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उनके पास कोई आया ही नहीं। उसके बाद चैनल को लाखों रुपये का भुगतान रोकना पड़ा।
कभी-कभी सर्वेक्षण करने वाली एजेंसी का अपना भी राजनीतिक रुझान होता है। मतदाता कुछ भी कहें ,वह निष्कर्ष वही निकालती है, जो वह चाहती है। मेरे एक छात्र ने बारह साल पहले एक एजेंसी इसीलिए छोड़ दी थी कि वह जिस इलाके से मेहनत करके अपनी रिपोर्ट लाया था, वह बदल दी गई। उसे बड़ा दुःख हुआ और उसने अपना इस्तीफा प्रस्तुत कर दिया। इन दिनों हम देखते हैं कि एजेंसी के अलावा मीडिया घरानों का भी अपना रुझान होता है। खासतौर पर मौजूदा दौर तो अत्यंत संवेदनशील है।
पत्रकार राजनीतिक खेमों में बंटे नजर आने लगे हैं। ऐसे में सर्वे करने वाली एजेंसियों को उसका ध्यान रखना पड़ता है। अगर उसने अपनी रिपोर्ट में हकीकत बयान कर दी, जो मीडिया समूह के रुझान के खिलाफ है तो उसका भुगतान लटक सकता है।
आज के आर्थिक दबाव में कोई एजेंसी यह एफोर्ड नहीं कर सकती। इस कम में राज नेताओं के अपने हित भी होते हैं।वे चुनाव जीतने के लिए सारे हथकंडे अपनाते हैं। यह छिपा नहीं है कि विधानसभा चुनाव में नेता जीतने के लिए दस से बीस करोड़ रूपए खर्च करता है।
इस बजट में वह आकलन एजेंसियों या उनके कार्यकर्ताओं को लुभाने का प्रयास करता है। वह जानता है कि भारतीय मतदाता इन सर्वेक्षणों पर भरोसा करता है। वोटर सोचता है कि जब उसका उम्मीदवार जीत ही नहीं रहा या उसके दल की सरकार नहीं बन रही तो वोट क्यों बर्बाद किया जाए। इस तरह ये चुनाव पूर्व आकलन परिणामों की दिशा भी मोड़ने का काम कर जाते हैं।
लोकतंत्र के नजरिए से इस तरह के पूर्वानुमानों का निर्दोष और निष्पक्ष होना बहुत आवश्यक है। ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के बीच बड़ा फासला है। ऐसे में अगर मीडिया इस फासले का दुरुपयोग करता है तो वह किसी भी सूरत में मंजर नहीं किया जाना चाहिए।
(साभार: अमर उजाला)