विवेचना: क्या ‘द कश्मीर फाइल्स’ मुस्लिम विरोधी और इकतरफा है? क्या आपको सब कुछ पहले से पता था?
आज के नवभारत टाईम्स में छपा हुआ ‘नीरज बधवार’ का लेख पढ़ना चाहिए…
“क्या कश्मीर फाइल्स मुस्लिम विरोधी है?”
जबसे ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म रिलीज़ हुई है कुछ सवाल बार-बार पूछे जा रहे हैं। कुछ का कहना है कि फिल्म मुसलमानों के खिलाफ भड़काती है। कुछ की आपत्ति है कि फिल्म में एक भी Positive मुस्लिम किरदार नहीं है। कुछ का कहना है कि फिल्म सभी मुसलमानों को एक ही रंग में दिखाती है। ये सवाल कितने जायज़ हैं और इसके अलावा फिल्म को लेकर क्या-क्या आपत्तियां हैं, मैं उस पर आऊंगा लेकिन सबसे पहले बात ‘कश्मीर फाइल्स’ की, जो अब एक फिल्म नहीं, National Emotion बन चुकी है।
मुझे ये कहने कोई हर्ज़ नहीं लगता कि पिछले कुछ दिनों में कश्मीर फाइल्स को लेकर जो माहौल देखा है, ऐसा भारतीय फिल्म इतिहास में शायद कभी नहीं देखा गया। थिएटर्स में भारत मां की जयकार लगाए जा रहे हैं। फिल्म के बाद पूरा हॉल अपने आप राष्ट्रगान गा रहा है। सोशल मीडिया पर लोग अनजान लोगों को फ्री में फिल्म दिखाने का ऑफर दे रहे हैं। सुबह 6 बजे से लेकर रात 3 बजे तक फिल्म के शो चल रहे हैं।
फिल्म कश्मीर फाइल्स का सीन
और आप जानते हैं ऐसा क्यूं हैं? क्या भारत में इससे पहले ‘कश्मीर फाइल्स’ से अच्छी फिल्म नहीं बनी? क्या लोगों ने इतना शानदार सिनेमा पहले नहीं देखा? नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि ‘कश्मीर फाइल्स’ सिर्फ फिल्म नहीं है। ये एक पूरी पीढ़ी का या यूं कहूं कि एक देश का ‘गिल्ट’ है।
ऐसा लग रहा है कि इंस्टाग्राम और यूट्यूब में डूबी रहने वाली एक पूरी पीढ़ी फिल्म देखकर एक झटके में नींद से जागी है। इन सालों में उसने सरसरी तौर पर ये तो सुना था कि 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों को वहां के कट्टरपंथियों ने उनके घरों से भगा दिया था लेकिन उससे ज़्यादा उन्हें कुछ पता नहीं था। आज जब इस फिल्म ने 32 साल पुरानी उस त्रासदी एक-एक रेशा उधाड़कर रख दी है तो पूरा देश आत्मग्लानि और सदमें में चला गया है।
सदमा, ये जानने का कि उसके अपने ही लोग अपने ही देश में कैसी तकलीफों से गुज़रे और ग्लानि इस बात की कि अपने ही लोगों के साथ इतना ज़ुल्म हुआ और आज तक ये देश इस पर कुछ कर क्यों नहीं पाया और आज हर जगह फिल्म को लेकर आप जो इमोशन देख रहे हैं कि वो एक तरह से अपने ही कश्मीरी भाइयों से अपनी बेरुखी के लिए इस देश की माफी है!
फिल्म की तारीफ में तो बहुत कुछ कहा ही जा चुका है। पहला ये कि चलिए इतने सालों बाद किसी ने इस विषय पर फिल्म बनाने की हिम्मत की। बिना किसी लागलपेट के सबकुछ साफ-साफ दिखाया और ऐसा करके फिल्म ने पूरी दुनिया में कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के मुद्दे को पुरज़ोर तरीके से स्थापित कर दिया।
लेकिन, एक वर्ग ऐसा भी है जिसकी आपत्ति है कि ये फिल्म मुसलमानों के खिलाफ भड़काती है। इस पर मेरा कहना है कि जब आप असल कहानियों/त्रासदियों पर फिल्म बनाते हैं तो आपकी पहली ज़िम्मेदारी पूरी सच्चाई से उस कहानी को बयान करने की होती है। हकीकत भले ही कितनी ही कड़वी क्यों न हो लेकिन ये सोचकर आप उसमें चाशनी नहीं लपेट सकते कि इसे चाटने से किसी की ज़बान का टेस्ट खराब हो जाएगा।
लेखक-निर्देशक के नाते आपकी पहली और आखिरी ज़िम्मेदारी घटना के प्रति ईमानदार बने रहने की है। दुनिया को सच बताने को नंगा सच दिखाना ही होता है। अब उस नंगे सच को देखकर अगर किसी को खुद पर शर्म आ जाए, तो ये आपकी समस्या नहीं है!
‘होलोकॉस्ट’ पर फिल्म बनाते वक्त क्या दुनियाभर के निर्देशक इस तनाव में रहे हैं कि इसे देखकर तो जर्मन शर्मिंदा हो जाएंगे…नहीं, बिल्कुल नहीं। ये फिल्में जर्मन्स को शर्मिंदा करने को नहीं बल्कि पूरी दुनिया को ‘होलोकॉस्ट’ से जुड़ी यहूदी लोगों की त्रासदियां दिखाने को बनाई गई हैं। फिल्म देखने के बाद हर संवेदनशील इंसान यहूदियों के साथ हुई ज़्यादतियों को समझता है न कि फिल्म देखने के बाद आज की जर्मन पीढ़ी को कोसने लगता है। अगर ऐसा होता शिंडलर्स लिस्ट से लेकर The Pianist और Life is Beautiful जैसी फिल्में कभी बन ही नहीं पाती।
मेरी हैरानी ये है कि कश्मीर फाइल्स देखने के बाद कश्मीरी पंडितों के दर्द को समझने के बजाए इन लोगों की चिंता ये है कि इससे इस्लामोफोबिया बढ़ेगा। मतलब 5 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घर से निकाल दिया गया ये आपका कंसर्न नहीं है। उनकी बहन-बेटियों के साथ रेप और मर्डर आपकी शर्म नहीं है। अपने ही देश में अपने ही लोगों को उनके घर से निकाल दिया गया ये आपकी फिक्र नहीं है…आपकी फिक्र है कि इससे तो एक वर्ग के खिलाफ नफरत बढ़ेगी!
मुझे कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि एक कौम के खिलाफ नफरत बढ़ेगी कि इसी झूठी चिंता ने एक वर्ग को मक्कार बना दिया है और इस तरह की मक्कारी वो हमेशा दिखाता रहा है। ऐसी मक्कारियों का लंबा इतिहास रहा है।
~फिल्म “कश्मीर फाइल्स”
1993 में मुम्बई में एक के बाद एक 12 धमाके हुए। ये सभी धमाके हिंदू इलाकों में हुए। इसमें सैकड़ों लोगों की जानें गई। लेकिन उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार ने झूठ बोला कि मुम्बई में 12 नहीं, 13 धमाके हुए हैं और एक धमाका मुस्लिम इलाके में भी हुआ है। सिर्फ इसलिए कि इन धमाकों को स्थानीय मुस्लिमों से न जोड़ा जाए और ये साबित किया जा सके कि धमाकों में हर वर्ग के लोगों को निशाना बनाया गया। इस बात का खुलासा खुद शरद पवार ने अपनी किताब ‘ऑन माई टर्म्स’ में किया है।
इसी तरह 26/11 के मुम्बई धमाकों के बाद वरिष्ठ मुस्लिम पत्रकार ने इन धमाकों को RSS की साज़िश बताते हुए एक किताब तक लिख डाली और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह उस किताब के विमोचन पर भी गए।
लालू यादव के रेल मंत्री रहते ये साबित करने की कोशिश की गई कि गोधरा कांड किसी की साज़िश नहीं, एक हादसा था। डिब्बे में बाहर से आग नहीं लगाई गई बल्कि वो एक Accident था। चिदंबरम के गृह मंत्री सुरक्षा एजेंसियों पर दबाव डालकर इशरत जहां के आतंकी होने की बात छिपाई गई।
और जैसा मैंने ऊपर कहा कि इस तरह की मक्कारी और बेशर्मी का लंबा इतिहास रहा है। मगर हमें ये समझना होगा कि एक सही आदमी पर ग़लत इल्ज़ाम लगाना जितना गलत है उतना ही गलत है एक ग़लत आदमी का उसकी ग़लतियों के लिए बचाव करना और इसी को तुष्टिकरण कहते हैं।
आप ये मत कहिए कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। आप ये देखिए कि आतंक में शामिल शख्स अपने धर्म से प्रेरणा पाकर तो आतंक नहीं फैला रहा। कश्मीर फाइल्स में ही एक डायलॉग है कि ज़ुल्म तो कश्मीरी पंडितों से भी हुए थे मगर उन्होंने तो हथियार नहीं उठा लिए!
दूसरे विश्व युद्ध के बाद किसी ने एक जापानी नागरिक से पूछा कि अमेरिका ने आप पर न्यूक्लियर बम तक गिरा दिए। आपके दो शहर पूरी तरह तबाह कर दिए। क्या आप लोगों को कभी दिल नहीं करता कि आप भी अमेरिका को उसी तरह बर्बाद कर दें? तो उस जापानी का जवाब था कि अमेरिका राष्ट्रपति जब टीवी पर भाषण देता है और हम देखते हैं कि उसके पीछे सोनी का स्पीकर पड़ा है। उसके कमरे में हिताची का एसी लगा है और उसी कमरे में तोशीबा की स्क्रीन लगी है, तो यही जापान की अमेरिका पर जीत है! यही हमारा उनसे असली बदला है।
जो शख्स या कौमें रचनात्मकता से प्रेरित होती हैं उनके बदलों में भी विध्वंस नहीं, रचनात्मकता होती है। और कश्मीर से निकाले जाने के बाद कश्मीरी पंडितों ने भी हिंसा का रास्ता न अपनाकर रचनात्मक तरीके से पूरी दुनिया में खुद को साबित कर इस विचार का सही साबित किया है।
स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म मशहूर फिल्म है म्यूनिख। जो म्यूनिख ओलंपिक में 11 इज़राइली एथलीटों की हत्या के बाद चलाए गए इज़राइली ऑपरेशन (Operation Wrath of God) पर आधारित है। फिल्म में दिखाया गया है कि इज़राइली सुरक्षा एजेंसी की एक खास यूनिट उन तमाम लोगों को चुन-चुनकर मारती है जिन्होंने म्यूनिख हमला किया था। लेकिन बीच ऑपरेशन में उनमें एक एजेंट भारी मानसिक तनाव में चला जाता है। उसे इस तरह से किसी जान लेना अच्छा नहीं लगता और वो एक तरह से Moral Dilemma में चला जाता है। फिल्म सामने आने के बाद कुछ लोगों ने इसी चीज़ के लिए फिल्म की आलोचना की।
स्पीलबर्ग खुद ज्यूइश हैं मगर बावजूद इसके एक फिल्ममेकर के तौर पर उन्हें लगा होगा कि हिंसा के बदले हिंसा इस दुनिया को कहीं नहीं लेकर जाएगी इसलिए उन्होंने चीज़ दिखाई। अगर इसके बदले वो दिखाते कि एक-एक कर सारे आतंकियों को मार दिया गया, तो ये चीज़ ज़्यादा पॉपुलर होती। लेकिन एक फिल्ममेकर और इंसान के तौर पर ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप पर्दे पर क्या प्रदर्शित करना चाहते हैं।
लेकिन कश्मीर फाइल्स और म्यूनिख में मूल फर्क ये है कि म्यूनिख एक Revenge Thriller है। वहां बदला लेने की बात थी और कश्मीर फाइल्स तो बदले की नहीं, एक वर्ग के साथ हुए कत्लेआम की बात करती है। वो कत्लेआम जिस बारे में 32 सालों बाद उसका अपना ही देश नहीं जानता था! जिसके दर्द से उसके ही लोग वाकिफ नहीं थे। जिसकी पीड़ा से पूरी दुनिया अंजान थी। इसलिए फिल्म को प्रोपेगेंडा कहकर उसमें साज़िश मत तलाशिए। उसे कोसिए मत। उससे मुंह मत मोड़िए। और अगर आप ऐसा करेंगे तो गोल-गोल घूम कर वहीं पहुंच जाएंगे जहां 32 साल पहले थे और ये वक्त रुकने का नहीं, आगे बढ़ने का है। वैसे भी बहुत देर हो चुकी है
कश्मीर से पलायन के पहले की कुछ अनकही घटनाएं
25 जून 1990 गिरिजा टिक्कू नाम की कश्मीरी पंडित की हत्या के बारे में आप जानेंगे तो सिहर जाएंगे। सरकारी स्कूल में लैब असिस्टेंट का काम करती थी। मुसलमान आतंकियों के डर से वो कश्मीर छोड़ कर जम्मू में रहने लगी। एक दिन किसी ने उसे बताया कि स्थिति शांत हो गई है, वो बांदीपुरा आकर अपनी तनख्वाह ले जाए। वो अपने किसी मुस्लिम सहकर्मी के घर रुकी थी। मुसलमान आतंकी आए, उसे घसीट कर ले गए। वहां के स्थानीय मुसलमान चुप रहे, क्योंकि किसी काफ़िर की परिस्थितियों से उन्हें क्या लेना-देना। गिरिजा का सामूहिक बलात्कार किया गया, बढ़ई की आरी से उसे दो भागों में चीर दिया गया, वो भी तब जब वो जिंदा थी। ये खबर किसी अखबारों में नहीं दिखाई गई।
नवंबर 1989 को जस्टिस नीलकंठ गंजू को दिनदहाड़े हाईकोर्ट के सामने मार दिया गया। उन्होंने मुसलमान आतंकी मकबूल भट्ट को इंस्पेक्टर अमरचंद की हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई थी। 1984 में जस्टिज नीलकंठ के घर पर बम से भी हमला किया गया था। उनकी हत्या कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या की शुरुआत थी।
7 मई 1990 को प्रफेसर के एल गंजू और उनकी पत्नी को मुसलमान आंतंकियों ने मार डाला। पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया। 22 मार्च 1990 को अनंतनाग जिले के दुकानदार पीएन कौल की चमड़ी जीवित अवस्था में शरीर से उतार दी गई और मरने को छोड़ दिया गया। तीन दिन बाद उनकी लाश मिली।
12 फरवरी 1990 को तेज कृष्ण राजदान को उनके एक पुराने सहकर्मी ने पंजाब से छुट्टियों में उनके श्रीनगर आने पर भेंट की इच्छा जताई। दोनों लाल चौक की एक मिनी बस पर बैठे। रास्ते में मुसलमान मित्र ने जेब से पिस्तौल निकाली और छाती में गोली मारी। इतने पर भी वो नहीं रुका, उसने राजदान जी को घसीट कर बाहर किया और लोगों से बोला कि उन्हें लातों से मारें। फिर उनके पार्थिव शरीर को पूरी गली में घसीटा गया और नजदीकी मस्जिद के सामने रख दिया गया ताकि लोग देखें कि हिन्दुओं का क्या हश्र होगा।
24 फरवरी 1990 को अशोक कुमार काज़ी के घुटनों में गोली मारी गई, बाल उखाड़े गए, थूका गया और फिर पेशाब किया गया उनके ऊपर। किसी भी मुसलमान दुकानदार ने, जो उन्हें अच्छे से जानते थे, उनके लिए एक शब्द तक नहीं कहा। जब पुलिस का सायरन गूंजा तो भागते हुए उन्होंने बर्फीली सड़क पर उनकी पीड़ा का अंत कर दिया। पांच दिन बाद नवीन सप्रू को भी इसी तरह बिना किसी मुख्य अंग में गोली मारे, तड़पते हुए छोड़ा गया, मुसलमानों ने उनके शरीर के जलने तक जश्न मनाया, नाचते और गाते रहे।
30 अप्रैल 1990 को कश्मीरी कवि और स्कॉलर सर्वानंद कौल प्रेमी और उनके पुत्र वीरेंदर कौल की हत्या बहुत भयावह तरीके से की गई। उन्होंने सोचा था कि ‘सेकुलर’ कश्मीरी उन्हें नहीं भगाएंगे, इसलिए परिवार वालों को लाख समझाने पर भी वो ‘कश्मीरी सेकुलर भाइयों’ के नाम पर रुके रहे। एक दिन तीन ‘सेकुलर’ आतंकी आए, परिवार को एक जगह बिठाया और कहा कि सारे गहने-जेवर एक खाली सूटकेस में रख दें।