कृषि बिलों का विरोध उत्तर प्रदेश और बिहार में क्यों नहीं?

कृषि बिल का विरोध सिर्फ़ पंजाब-हरियाणा में ही क्यों, बिहार-यूपी में क्यों नहीं
मानसी दाश

कृषि बिल: क्या पंजाब-हरियाणा के किसानों पर ही है असर, या तस्वीर इससे कहीं अधिक बड़ी है
इस सप्ताह लोक सभा में कृषि क्षेत्र से जुड़े तीन अहम विधेयक पारित हुए, जिसे लेकर पंजाब और हरियाणा में ज़बर्दस्त विरोध देखा जा रहा है. उत्तर प्रदेश में भी कहीं-कहीं किसान इसका विरोध कर रहे हैं.

लेकिन बीते साल किसान मार्च के लिए चर्चा में रहने वाले महाराष्ट्र और तीन साल पहले किसानों के हिंसक आंदोलन के लिए ख़बरों में रहे मध्यप्रदेश और दूसरे राज्यों से कृषि बिल के विरोध की ख़बरें कम ही मिल रही हैं.

क्या वाकई कुछ राज्यों को छोड़ कर अन्य जगहों पर इन तीन विधेयकों का उतना विरोध नहीं हो रहा? और अगर वाकई ऐसा है तो इसके पीछे क्या वजह है?

इन तीनों बिल को लेकर विपक्ष सरकार पर हमलावर है. जहां विपक्ष इन बिलों को किसान विरोधी बता रही है वहीं सरकार का कहना है कि ये किसानों के हित में हैं.

इसके विरोध में पंजाब में ख़ुद भाजपा की सहयोगी पार्टी अकाली दल ने पार्टी का साथ छोड़ने का फ़ैसला किया है. हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने सफाई दी है कि ये बिल किसान विरोधी नहीं है.

विपक्ष के आरोप

विपक्ष का आरोप है कि सरकार कृषि मंडी की व्यवस्था हटाना चाहती है जिससे देश की खाद्य सुरक्षा ख़त्म हो जाएगी. इसके साथ सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से वंचित रखना चाहती है.
हालांकि विपक्ष के इस विरोध के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर आश्वासन दिया कि एमएसपी और सरकारी ख़रीद की मौजूदा व्यवस्था बनी रहेगी.

लेकिन किसान उनके आश्वासन संतुष्ट हुए नहीं लगते. मोदी के उन्हें भरोसा दिलाने के बाद भी वो सड़कों पर हैं और सरकार का विरोध कर रहे हैं.

मोदी ने किसानों को आश्वासन दिया है कि एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी
मोदी ने किसानों को आश्वासन दिया है कि एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी

किसानों के मुद्दे और विरोध

हिंदकिसान के मुख्य संपादक और कृषि मामलों के जानकार हरवीर सिंह कहते हैं कि कुछ जगहों पर विरोध प्रदर्शन तेज़ होने की वजह का नाता वहां की राजनीति और किसान संगठनों से तो है ही साथ ही अनाज ख़रीद की सरकारी व्यवस्था से भी है.

वो बताते हैं, “अगर किसान आंदोलन के इतिहास को देखें तो आपका पता चलेगा कि आंदोलन का केंद्र ज़्यादातर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश रहा है.”

वो कहते हैं, “रही महाराष्ट्र की बात तो वहां आंदोलन अधिकतर पश्चिमी हिस्से में दिखते हैं जहां गन्ने और प्याज़ की खेती होती है. मध्यप्रदेश में आंदोलन नहीं होगा ऐसी बात नहीं है. वहां कभी किसानों के मज़बूत संगठन नहीं रहे हैं. लेकिन वहां भी मंडियों में इसका विरोध हुआ है और मंडी कर्मचारियों ने हड़ताल की है.”

“महाराष्ट्र में किसान बड़ा वोटबैंक है लेकिन यहां गन्ना किसान अधिक हैं और गन्ने की ख़रीद के लिए फेयर एंड रीमुनरेटिव सिस्टम (एफ़आरपी) मौजूद है और उसका मूल्य तय करने के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर अभी भी है. उत्तर प्रदेश में भी काफी ज़मीन हॉर्टिकल्चर के लिए इस्तेमाल होने लगी है जिसका एमएसपी से कोई लेना-देना नहीं है.”

“ऐसे में जहां किसानों पर इन बिल का सीधा असर पड़ रहा है वहां किसान सड़क पर आ गए हैं लेकिन जहां ये सीधे तौर पर किसानों को प्रभावित नहीं कर रहे वहां विरोध उतना अधिक नहीं दिख रहा.”
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि अगर ये सवाल है कि किसान इसका विरोध क्यों कर रहे हैं तो ये समझिए कि उन्हें ये लगता है कि ये उनके हित में नहीं है. लेकिन बाज़ार इसका विरोध नहीं कर रहा क्योंकि इससे उन्हें लाभ है.

वो समझाते हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों की समस्याएं, मुद्दे और उनकी राजनीति अलग है इसलिए उनके विरोध को देखने का तरीक़ा भी बदलना होगा.

वो कहते हैं, “सरकार जो अनाज की ख़रीद करती है उसका सबसे अधिक हिस्सा यानी क़रीब 90 फीसदी तक पंजाब और हरियाणा से होता है. जबकि देश के आधे से अधिक किसानों को ये अंदाज़ा ही नहीं है कि एमएसपी क्या है. ऐसे में उन्हें ये समझने में वक़्त लगेगा कि उनकी बात आख़िर क्यों हो रही है.”

देविंदर शर्मा कहते हैं, “ये समझने की ज़रूरत है कि जिस पर सीधा असर होगा वो सबसे पहले विरोध करेगा. एक अनुमान के अनुसार देश में केवल 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है. लेकिन 94 फीसदी किसानों को तो पहले ही एमएसपी नहीं मिलता और वो बाज़ार पर निर्भर हैं. ऐसे में ये समझा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान विरोध क्यों कर रहे हैं.”

वो कहते हैं कि भारतीय कृषि क्षेत्र लगातार संकट से जूझता रहा है लेकिन कुछ ही किसान हैं जो इस संकट से बचे हुए हैं. वो कहते हैं, “जिन 6 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है वो संकट से बचे हुए हैं क्योंकि उनकी आय निश्चित हो जाती है.”
वहीं हरवीर सिंह कहते हैं कि पंजाब और हरियाणा में राजनीति किसानों से जुड़ी है और इस कारण वहां पार्टियों के लिए किसानों के पक्ष में आना मजबूरी हो गया है.

वो बताते हैं, “ये समझने के लिए आपको देखना होगा कि कहां क्या खेती होती है और कहां से सरकार अधिक अनाज ख़रीदती है. ऐसे में अधिकतर राज्यों में किसानों को ये मुद्दा सीधे तरीक़े से प्रभावित नहीं करता.”

“लेकिन इसका बड़ा असर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों पर भी पड़ेगा. मुझे लग रहा है कि कई राज्यों में आने वाले दिनों में आंदोलन तेज़ हो सकता है.”

एसएसपी और किसान


एनएसएसओ की साल 2012-13 की रिपोर्ट के अनुसार देश के 10 फीसदी से भी कम किसान अपने उत्पाद एमएसपी पर बेचते हैं. वहीं भारतीय खाद्य निगम की कार्य कुशलता और वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए बनाई गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार के अनाज ख़रीदने की व्यवस्था का लाभ न तो अधिक किसानों तक और न ही अधिक राज्यों तक पहुंचा है.

किसानों से सरकार जो अनाज सबसे अधिक खरीदती है उनमें गेहूं और चावल शामिल है और अगर अनाज की ख़रीद के आंकड़ों के देखा जाए तो ये स्पष्ट होता है कि राज्य के कुल उत्पादन और ख़रीद के मामले में पंजाब और हरियाणा की स्थिति दूसरों से काफी बेहतर है.

खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार बीते कुछ सालों में पंजाब और हरियाणा में हुए कुल धान उत्पादन का 80 फीसदी सरकार ने खरीदा, जबकि गेंहू के मामले में इन दो राज्यों से कुल उत्पादन का 70 फीसदी से अधिक सरकार ने खरीदा. लेकिन दूसरे राज्यों की स्थिति ऐसी नहीं है. दूसरे राज्यों में कुल उत्पादन का छोटा हिस्सा सरकार ख़रीदती रही है और किसान वहां पहले से ही बाज़ार पर निर्भर करते रहे हैं.

बिहार और बाज़ार का मामला

बिहार देश का पहला वो राज्य था जिसने कृषि क्षेत्र में सुधार लाने के लिए 2006 में एपीएमसी एक्ट (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी यानी कृषि उपज और पशुधन बाजार समिति) को ख़त्म कर दिया था. यहां इसके बाद निजी सेक्टर के लिए रास्ता साफ कर दिया गया.

लेकिन राज्य को वाकई लाभ पहुंचा ऐसा कहा नहीं जा सकता. स्टेट ऑफ़ इंडियाज़ लाइवलीहुड 2013 के अनुसार इससे वहां कृषि उत्पाद बेचने की व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है और छोटे किसानों की निर्भरता बाज़ार पर बढ़ गई है.

आइडियाज़ फ़ॉर इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2001-02 से लेकर 2016-17 तक बिहार की कृषि विकास दर देश की औसत कृषि विकास दर से कम रही है.

रिपोर्ट के अनुसार, एपीएमसी के हटाए जाने के बाद यहां धान, गेहूं और मक्का की क़ीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई लेकिन किसानों की आय में अनिश्चितता भी उतनी ही अधिक बढ़ी. साथ ही क़ीमतों में भी अनिश्चितता बरकरार रही जिससे किसानों को ये समझ नहीं आया कि कितनी ज़मीन पर कितनी खेती करें तो उन्हें नुकसान नहीं होगा. रिपोर्ट के अनुसार यही अनिश्चितता शायद वहां के कृषि विकास की दर कम होने का कारण बनी.

देविंदर शर्मा कहते हैं कि हाल में जब कोरोना के कारण लॉकडाउन लगाया गया तो मज़दूरों का पलायन शुरू हुआ. पलायन करने वाले अधिकांश मज़दूर बिहार से ही थे और इसका कारण आसानी से समझा जा सकता है.

वो कहते हैं, “अगर हम ये मानें कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी पर नहीं बाज़ार पर निर्भर करते हैं तो ये भी समझिए कि बाज़ार को अगर किसानों को लाभ पहुंचाना ही होता तो बीते 70 सालों में किसानों की स्थिति सुधर चुकी होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ जो इस बात की ओर इशारा है कि बाज़ार किसानों की समस्या का हल नहीं हो सकता.”

वो कहते हैं, “इन तीनों बिल के साथ सरकार पंजाब के किसान जो अभी एमएसपी के कारण बेहतर स्थिति में हैं उन्हें बिहार के किसानों के स्तर तक ले आएगी, जो लगातार बाज़ार की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.”

वो कहते हैं, सरकार ने बिल बनाने से पहले किसानों से राय ली नहीं है और उन्हें बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया है.

एमएसपीऔर खाद्य सुरक्षा से इसका नाता

भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पैदा हुए खाद्य संकट से जूझने के लिए 1942 में खाद्य विभाग बनाया गया था. आज़ादी के बाद 29 अगस्त 1947 को इसे खाद्य मंत्रालय में तब्दील कर दिया गया. 1960 में इस मंत्रालय के तहत दो विभाग बने खाद्य विभाग और कृषि विभाग.

खाद्य विभाग पर सरकार की तरफ से खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अनाज ख़रीदने का काम सौंपा गया. आज़ादी के बाद पहली बार 60 के दशक की शुरुआत में देश को गंभीर अनाज संकट का सामना करना पड़ा.

इस दौरान कृषि क्षेत्र के लिए नीतियां बनाई गईं और अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत की गई.

इसके बाद अनाज खरीदने के लिए सरकार ने 1964 में खाद्य निगम क़ानून के तहत भारतीय खाद्य निगम बनाया और इसके एक साल बाद एग्रीकल्चर प्राइसेस कमीशन बनाया ताकि उचित क़ीमत पर (न्यूनतम समर्थन मूल्य) किसानों ने अनाज ख़रीदा जा सके.

इसी अनाज को बाद में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, पीडीएस) के तहत सरकार ज़रूरतमंदों को देती है और खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज का भंडारण भी करती है.
जहां तक बात सार्वजनिक वितरण प्रणाली की है भारत में ये व्यवस्था राशन सिस्टम की तरह थी जो आज़ादी से पहले भी कुछ शहरी इलाक़ों तक सीमित थी. लेकिन 1951 में इसे देश की सामाजिक नीति का हिस्सा बनाया गया और पहली पंचवर्षीय योजना में इसका विस्तार गांवों तक किया गया. दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान इसका दायरा और बढ़ा दिया गया.

एग्रीकल्चर प्राइसेस कमीशन बनने के बाद पीडीएस की स्थिति और अहम हो गई क्योंकि इससे एक तरफ किसानों को निश्चित आय मिलने का भरोसा मिला, दूसरी तरफ ज़रूरतमंदों को कम क़ीमत में अनाज की सुविधा मिली और तीसरी तरफ़ खाद्य सुरक्षा बेहतर हुई.

क्या इन तीनों बिल का व्यापक असर हो सकता है?

मुंबई स्थित इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेन्ट रीसर्च की कृषि अर्थशास्त्रीसुधा नारायणन कहती हैं कि सरकार ने कहा है कि एमएसपी और अनाज ख़रीदने की जो मौजूदा व्यवस्था है उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी.

वो कहती हैं, “मुझे लगता है कि किसान इस बात से चिंतित नहीं है कि सरकार इन बिल में क्या कह रही है, बल्कि वो बिल में जो नहीं कहा गया है उसे लेकर चिंतित हैं.”

शांता कुमार समिति रिपोर्ट की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, “मुझे जितना समझ आ रहा है, किसानों में ये डर है कि अगर ये बिल अस्तित्व में आ जाते हैं तो एपीएमसी को ख़त्म कर दिया जाएगा और इसके बाद सरकार इस रिपोर्ट की बात करते हुए अनाज ख़रीदने की पूरी प्रक्रिया को ही ख़त्म कर सकती है.”

वो कहती हैं कि इनमें से किसी बिल में ऐसा कुछ स्पष्ट नहीं लिखा है लेकिन ये बिल कृषि क्षेत्र में किए जाने वाले बड़े सुधारों की दिशा में एक कदम हैं जो सरकार के विज़न का एक हिस्सा है.

वो कहती हैं, “शांता कुमार की रिपोर्ट के अनुसार सरकार को इन-काइंड यानी अनाज की ख़रीद की व्यवस्था ख़त्म करनी चाहिए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बजाय कैश ट्रांसफर पर ध्यान देना चाहिए. और इस बिल से जुड़ी व्यापक तस्वीर या कहें लार्जर नैरेटिव यही है. इन बिल को उस प्रक्रिया को शुरू करने की कवायद की तरह देखा जा रहा है और ये चिंता का विषय है.”

हालांकि वो कहती हैं, “मुझे इसकी चिंता उतनी अधिक नहीं है जितनी इस बात की है कि इसके ज़रिए एपीएमसी को ख़त्म कर दिया जाएगा और अनाज का मूल्य तय करने वाली एक पूरी व्यवस्था के न रहने का बड़ा असर किसानों पर हो सकता है. क्योंकि किसानों के लिए क़ीमतों का कोई बेंचमार्क ही नहीं रहेगा और ऐसे में बाज़ारों पर उनकी निर्भरता कहीं अधिक बढ़ जाएगी.”

“शांता कुमार की रिपोर्ट के अनुसार सरकार निजी क्षेत्र की कंपनियों को सरकार की तरफ से अनाज खरीदने के लिए भी कह सकती है इसलिए ऐसा भी नहीं कहा जा सकता वितरण प्रणाली पर कुछ असर पड़ेगा.”

जून 2019 में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा था कि एफ़सीआई को लेकर शांता कुमार के सुझावों को लागू करना सरकार की प्राथमिकताओं में से है.

सरकार इस दिशा में बढ़ सकती है इसका संकेत उस वक्त भी मिला था जब इसी साल जून में मोदी सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कवरेज को 70 फीसदी से घटा कर 20 फीसदी तक लाया जाना चाहिए, और अनाज की ख़रीद कम कर डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की तरफ बढ़ना चाहिए. कुछ यही शांता कुमार कमिटी की रिपोर्ट में भी कहा गया है.

इमेज स्रोत,STR/NURPHOTO VIA GETTY IMAGES
वो तीन कृषि विधेयक जिनका हो रहा है विरोध?
इसी सप्ताह लोकसभा में सरकार के प्रस्तावित तीन विधेयक पास हुए हैं- पहला, कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, दूसरा, कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 और तीसरा, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020.

पहला बिल एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने के लिए है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी.

दूसरा बिल कृषि क़रारों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क के लिए है. ये कृषि उत्‍पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं, कृषि बिज़नेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्‍त करता है.

तीसरे में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज़ आलू को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है.

माना जा रहा है कि इस विधेयक के प्रावधानों से किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा क्योंकि बाज़ार में स्पर्धा बढ़ेगी.

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