वें पांच कारक जिनसे भाजपा ने पछाड़ा 10 साल का सत्ता विरोधी रूझान
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एंटी इनकम्बेंसी को कैसे प्रो इनकम्बेंसी में बदल रही BJP, कांग्रेस से कहां हो गई चूक
हरियाणा चुनाव के चुनाव परिणामों के कई अर्थ हैं। भाजपा हैट्रिक लगा चुकी है तो वहीं वापसी की आस लगाए बैठी कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है। भाजपा सिर्फ हरियाणा ही नहीं कई दूसरे राज्यों में भी अपनी सरकार बचाने में सफल रही, वहीं कांग्रेस ऐसा नहीं कर पा रही है।
मुख्य बिंदु
1-हरियाणा में भाजपा ने लगाई जीत की हैट्रिक
2-एंटी इनकम्बेंसी को भाजपा ने छोड़ा पीछे
3-भाजपा मुकाबले कांग्रेस इस मामले में पीछे
नई दिल्ली आठ अक्टूबर 2024: एंटी इनकम्बेंसी भारतीय चुनावों में एक नियम की तरह कुछ साल पहले तक देखी जाती थी लेकिन केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद इसमें बदलाव दिखा है। सत्ता विरोधी लहर सत्ता के पक्ष में जाती दिख रही है। 2014 के बाद के चुनावों में एक ऐसे शब्द की गूंज अधिक सुनाई पड़ रही है जो पहले क्रिकेट में ही सुनाई पड़ती थी। हैट्रिक… केंद्र में तो कोई सोचता नहीं था बल्कि जिन राज्यों में यह सुनाई पड़ता उसकी भी एक अलग मिसाल दी जाती थी। लेकिन हाल के वर्षों में भाजपा ने कई राज्यों में यह करके दिखाया है। हरियाणा के नतीजे आए तो इसने सभी को चौंका दिया। हरियाणा में ऐसी जीत की उम्मीद कोई नहीं कर रहा था लेकिन भाजपा यहां हैट्रिक लगाकर इतिहास रच चुकी है जिसने एंटी इनकम्बेंसी प्रो इनकम्बेंसी में बदल दी है।
हरियाणा के नतीजों के क्या मायने
हरियाणा के नतीजों पर बात जरूरी है लेकिन उससे पहले इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि दुनिया के कई देशों में नेताओं और पार्टियों को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा है वहीं भारत में भाजपा को लेकर ऐसा नहीं दिख रहा। इसी साल अप्रैल में लोकसभा के चुनाव शुरू हुए तो सवाल उठे कि क्या मोदी हैट्रिक लगाएंगे। नतीजों बाद ऐसा ही हुआ भाजपा की सीटें भले ही कम हुई लेकिन मोदी की हैट्रिक लगी।
भाजपा सत्ता बचाने में अधिक सफल
हरियाणा में आज आए नतीजों के बाद भाजपा ने यह सिद्ध कर दिया है कि 2014 के बाद वह कांग्रेस के मुकाबले राज्यों में अपनी सत्ता बचाने में ज्यादा सफल रही है। हरियाणा में भाजपा जीत का हैट्रिक लगा चुकी है । दस साल सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा फिर सत्ता में लौटी है। पिछले साल के आखिरी में भाजपा मध्य प्रदेश में दोबारा सत्ता में लौटी तो वहीं असम और उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही दिखा। बिहार में भी नीतीश कुमार के साथ वापसी हो चुकी है। इन सबके बीच गुजरात को भी नहीं भूला जा सकता है, जहां पार्टी 1995 से सत्ता में है।
प्रधानमंत्री मोदी भी कर चुके हैं इसका जिक्र
कर्नाटक, हिमाचल जैसे कुछ राज्य उसके हाथ से जरूर फिसले हैं लेकिन बावजूद इसके बीजेपी एंटी इनकम्बेंसी को प्रो इनकम्बेंसी में बदल रही है। वहीं कांग्रेस महज पांच साल की सत्ता के बाद ही अपने राज्यों को खो रही है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ऐसा देखने को मिला। इतना ही नहीं कांग्रेस बीते 14 वर्षों में एक भी राज्य में सरकार बचाने में सफल नहीं रही। इस मामले में BJP का रिकॉर्ड 50 फीसदी से भी अधिक का रहा है। इसी बात का जिक्र पीएम मोदी भी कर चुके हैं। लोकसभा चुनाव 2014 से पहले मोदी ने संसदीय दल की मीटिंग में प्रो-इनकंबेंसी पर विस्तार से बात की थी। उन्होंने आंकड़ों के साथ यह बताया था कि राज्यों में BJP की सरकार रिपीट होने का रिकॉर्ड 58 फीसदी है तो कांग्रेस की सरकार केवल 18 फीसदी ही रिपीट होती है।
2014 के बाद कांग्रेस की सरकार न हो सकी रिपीट
बीजेपी ऐसा कई राज्यों में कर चुकी है। राजनीति हो या खेल जो जीतता है उसी का सिक्का चलता है। ऐसा नहीं कि हार के बाद नेतृत्व पर सवाल नहीं उठते। अभी हाल ही में लोकसभा में सीटों का कम होना और उपचुनाव में हार के बाद सवाल उठने लगे कि मोदी का जादू कम होने लगा है लेकिन आज आए हरियाणा के नतीजों से फिर यह डंके की चोट पर कहा जाएगा कि मोदी के खिलाफ सत्ता विरोधी कोई लहर नहीं है। न केंद्र में और न ही राज्यों में। एक ओर बीजेपी ऐसा कर रही है तो वहीं 2014 के बाद से कहीं किसी चुनाव में कांग्रेस ऐसा करने में कामयाब नहीं हो सकी है।
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बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस पीछे क्यों
पंजाब में वह सत्ता में थी वहां उसे सत्ता गंवानी पड़ी। छत्तीसगढ़ में यह माना जा रहा था कि यहां तो कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौटेगी। लेकिन भूपेश बघेल चुनाव हार जाते हैं। राजस्थान में भी कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकी। हरियाणा में इस बार सभी एग्जिट पोल कांग्रेस की जीत दिखा रहे थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजनीति के जानकारों का मानना है कि कांग्रेस पार्टी चुनावों में बड़े कदम उठाने से हिचकती है। वहीं बीजेपी अपने सीएम चेहरे को भी बदलने में देर नहीं करती। वहीं कांग्रेस राज्य के मजबूत नेता के दबाव में आ जाती है।
जाट-गैरजाट बंटवारा, दलित वोट, सीएम बदलना…हरियाणा में बीजेपी की जीत के 5 बड़े कारण जान लीजिए
हरियाणा में सियासी पंडितों को चौंकाते हुए बीजेपी लगातार तीसरी बार सरकार बनाने की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस को उम्मीद थी कि इस बार सूबे की सत्ता से उसका वनवास 10 साल बाद आखिरकार खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आखिर बीजेपी ने कैसे एंटी-इन्कंबेंसी को मात देने में कामयाबी हासिल की, आइए नजर डालते हैं।
नई दिल्ली : हरियाणा विधानसभा चुनाव में सभी एग्जिट पोल को झूठा साबित कर भाजपा जबरदस्त जीत की ओर बढ़ रही है। 90 विधानसभा सीटों वाले राज्य में भाजपा स्पष्ट बहुमत पा चुकी है। हरियाणा में भाजपा की जीत के पीछे 5 फैक्टर क्या रहे, आइए देखते हैं।
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1. चुनाव से पहले खट्टर की जगह सैनी को सीएम बनाने का दांव
बीजेपी पहली बार 2014 में हरियाणा की सत्ता में आई। 2019 में वह अपने दम पर बहुमत से दूर रही लेकिन जेजेपी की मदद से गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रही। हालांकि, लगातार दो कार्यकाल सत्ता में रहने पर एंटी-इन्कंबेंसी का जोखिम तो रहता ही। इसी जोखिम को खत्म करने के लिए बीजेपी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अपना जांचा-परखा, आजमाया दांव चल दिया। दांव मुख्यमंत्री बदलने का। पंजाबी खत्री मनोहर लाल खट्टर की जगह पर उनके ही भरोसेमंद नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया। चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि बीजेपी का ये दांव कामयाब रहा है।
2. सैनी के सीएम बनने से ओबीसी वोट बीजेपी के पक्ष में झुका!
नायब सिंह सैनी ओबीसी समुदाय से आते हैं। वह हरियाणा में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले ओबीसी समुदाय के पहले शख्स हैं। इससे उनके समुदाय के वोटरों का बीजेपी की ओर झुकाव बढ़ा। हरियाणा में अहीर, गुज्जर और सैनी समुदाय करीब 11 प्रतिशत हैं। ओबीसी 34 प्रतिशत के करीब हैं।
3. गैर-जाट वोटों की लामबंदी
कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास, भूपेंद्र सिंह हुड्डा को उम्मीदवार तय करने में फ्री हैंड के साथ बहुत ज्यादा अहमियत ने चुनाव में जाट बनाम गैर-जाट ध्रुवीकरण को हवा दिया। ऊपर से बीजेपी ने नायब सिंह सैनी के तौर पर ओबीसी समुदाय का पहला मुख्यमंत्री देकर इस ध्रुवीकरण को और मजबूत ही किया। इसका फायदा पार्टी को मिला। हरियाणा जाट दबदबे वाला राज्य है जहां करीब 30 प्रतिशत जाट हैं। दूसरी तरफ पिछड़े वर्ग के वोटर की तादाद तकरीबन 34 प्रतिशत है। इनके अलावा 17 प्रतिशत दलित हैं। कांग्रेस में जाट समुदाय को बहुत ज्यादा अहमियत मिलने से कहीं न कहीं गैर-जाट वोटरों का झुकाव बीजेपी की तरफ बढ़ा। बीजेपी को अंदाजा हो गया था कि उसे लेकर जाट वोटर में नाराजगी है इसलिए उसने इस समुदाय से बहुत ज्यादा उम्मीद तक नहीं पाली। चुनाव से पहले बीजेपी ने दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी से दूरी बना ली जिसका कोर वोटर बेस जाट ही है। इसका भी बीजेपी को फायदा मिला।
4. नए कैंडिडेट्स को टिकट
बीजेपी ने सत्ताविरोधी रुझान और स्थानीय स्तर पर विधायक के लेवल पर वोटरों में नाराजगी को दूर करने के लिए सीएम बदलने के अलावा एक और दांव चला। दांव नए उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का। इससे कुछ सीटों पर पार्टी को बगावत का भी सामना करना पड़ा लेकिन पार्टी ने उसे बहुत तवज्जो नहीं दी। चुनाव में बीजेपी को इसका लाभ भी मिला और एंटी-इन्कंबेंसी की तपिश को खत्म करने में मदद मिली।
5. दलित वोट पर फोकस
कांग्रेस हरियाणा में जीत को लेकर आश्वस्त थी। भाजपा को पता था कि इस बार राह आसान नहीं है। उसने बहुत ही करीने से कांग्रेस की अंतर्कलह का फायदा उठाया। कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा बनाम कुमारी सैलजा की लड़ाई को खूब हवा दी। टिकट वितरण में हुड्डा खेमे की ही चली और ज्यादातर उम्मीदवार वही बने, जिन पर पूर्व मुख्यमंत्री का हाथ था। सैलजा इससे असहज भी हुईं और उन्होंने चुनाव प्रचार से दूरी बना ली। इतना जरूर है कि राहुल गांधी की रैली में वह हुड्डा के साथ मंच पर दिखीं। भाजपा ने ये प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि कांग्रेस के भीतर दिग्गज दलित चेहरे सैलजा का अपमान किया जा रहा है। उनकी उपेक्षा हो रही है। इसके अलावा पार्टी ने मिर्चपुर कांड की याद दिलाकर दलितों को चेतावनी भी दी कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो उनके समुदाय पर अत्याचार का दौर शुरू हो सकता है। नतीजा ये हुआ कि भाजपा को दलित वोटरों को भी साधने में कामयाबी मिलती दिखी है।