भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के बावजूद त्रिवेन्द्र सरकार के असमय पतन के हैं नौ कारण
विश्लेषण:करप्शन का कोई आरोप नहीं, फिर भी सबसे अलोकप्रिय CM बने त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी क्यों गई
देहरादून 09 मार्च। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मंगलवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लगभग 4 साल CM रहे रावत की गद्दी जाने की बड़ी वजह राज्य के 4 जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नया गैरसैंण मंडल बनाने के अलावा कांग्रेस से आते दर्जनभर मंत्री- विधायकों व उनके नेता विजय बहुगुणा का असंतोष बताया जा रहा है।
हालांकि, ये ही वजह नहीं है, जिसके कारण रावत को कुर्सी गंवानी पड़ी है। वह इससे पहले भी कई ऐसे फैसले कर चुके थे, जिनकी वजह से भाजपा नेतृत्व को उन्हें हटाने का फैसला करना पड़ा। रावत पर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं था, लेकिन एक सर्वे में उन्हें सबसे अलोकप्रिय CM बताया गया था। यह बात भी उनके खिलाफ चली गई कि सरकार की छवि मीडिया को लेकर अनफ्रैंडली हो गई थी।
त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी जाने के नौ कारण…
1. भाजपा नेतृत्व ने पिछले कार्यकाल में कांग्रेस हटाने को चुनाव का इंतजार करने की बजाय कांग्रेस के एक असंतुष्ट गुट को छोड़ पार्टी में शामिल करने का विकल्प चुना था जिसके समझौते में सभी 14 मंत्री-विधायकों को टिकट और मंत्री पद देने का वचन दिया। इससे इतनी ही संख्या में पार्टी के प्रतिबद्ध कैडर के टिकट कट गये। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इन सब पर कड़ा अनुशासन रखा जिसके वे अभ्यस्त नहीं थे। विशेषकर सतपाल महाराज और डॉक्टर हरक सिंह रावत बेहद परेशानी में थे और उन्होंने इसे कभी छुपाया भी नहीं। दूसरे इनके नेता विजय बहुगुणा का अभी तक राजनीतिक पुनर्वास नही हो पाया। इनके पांच राज्यों में चुनाव के ऐन समय कोई बखेड़ा खड़ा करने से विशेष कर बंगाल में बेहद विपरीत संदेश जाता। इसीलिए नेतृत्व ने त्रिवेन्द्र सिंह रावत को चार साल पूरे करने को नौ दिन की भी मोहलत नहीं दी।
2. गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के 2 जिलों को शामिल करना
उत्तराखंड सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर मुख्य रूप से गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में बंटा है। दोनों ही मंडलों में हमेशा से हर क्षेत्र में दबदबा कायम करने की होड़ रही है। उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी इन मंडलों में ऐसी होड़ थी कि अगर एक मंडल को कुछ मिलता तो उसी की तरह दूसरे मंडल को भी देना पड़ता था। इसीलिए रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के दो जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल किया तो पूरे कुमाऊं में सियासी तूफान आ गया। इसे कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया। कांग्रेस तक ने अल्मोडा को कुमाऊं की सांस्कृतिक राजधानी बताते हुए कहा कि जरूरी था तो भी अल्मोडा की बजाय पिथौरागढ़ को नई कमिश्नरी में ले लिया जाए। भाजपा के कुमाऊनी नेताओं ने कहा कि कमिश्नरी से बेहतर गैरसैण को जिला बनाना रहता।
3. रावत के फैसलों से चुनाव में नुकसान होने का डर
सरकार के फैसले के खिलाफ पूरे कुमाऊं के भाजपा नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व के सामने मोर्चा खोल दिया। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले त्रिवेंद्र के इस फैसले को उन्होंने आत्मघाती करार दिया। केंद्रीय नेतृत्व ने भी इसे गंभीर माना और त्रिवेंद्र को विधानसभा का सत्र बीच में ही खत्म कर तत्काल केंद्रीय पर्यवेक्षक रमन सिंह और दुष्यंत गौतम के साथ बैठक करने के लिए देहरादून तलब कर लिया। विधायकों के साथ बैठक करने के बाद रमन सिंह और गौतम ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया कि त्रिवेंद्र के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है और उन्हें बदलना जरूरी है।
4. केदारनाथ,बद्रीनाथ,गंगोत्री और यमुनोत्री को सरकार के अधीन करना
उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाने के फैसले से हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज रावत के खिलाफ हो गया था।
उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाने के फैसले से हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज रावत के खिलाफ हो गया था।
असल में त्रिवेंद्र ने जब उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाकर केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री धाम को सरकार के अधीन कर दिया था तो इससे ब्राह्मण समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। यही नहीं भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी। हालांकि हाईकोर्ट में सरकार जीत गई थी, लेकिन स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गए और अभी मामले पर सुनवाई हो रही है। त्रिवेंद्र के इस फैसले से भाजपा नेतृत्व भी खुश नहीं था। हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज भी त्रिवेंद्र के इस फैसले के खिलाफ था। उनका कहना है कि आज भाजपा है तो कोई समस्या नहीं है लेकिन कल किसी और की सरकार आई तो ये तीर्थ पश्चिम बंगाल की तरह अहिंदूओं के प्रबंध में भी जा सकते हैं
5. गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करना
गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर रावत ने इसे पर्वतीय जनभावनाओं के अनुरूप बताया, पर सामान्य रूप से जनता को यह फैसला पसंद नहीं आया।
त्रिवेंद्र सिंह ने आनन फानन में गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया। इस फैसले को उन्होंने पर्वतीय जनभावनाओं के अनुरूप बताया, पर जनता ने इसे नकार दिया। अपने फैसले को ठीक ठहराने के लिए उन्होंने गैरसैंण में काफी काम भी कराया। विधानसभा की बैठक भी बुलाई, लेकिन अफसरों के देहरादून में ही रहने की वजह से इसका लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ। यह फैसला दिखावे से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ।
6. त्रिवेंद्र के व्यवहार से लोगों में नाराजगी
त्रिवेंद्र का खुद का व्यवहार भी लोगों की नाराजगी की बड़ी वजह था। वह कम बोलते थे, लेकिन एक ही वर्ग विशेष के लोगों को महत्व देने की वजह से लोगों के निशाने पर थे। इसकी वजह से मुख्यमंत्री की किसी भी आलोचना को ये लोग व्यक्तिगत रूप से लेकर बदले की भावना से काम करते थे। उन पर भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप तो नहीं थे, लेकिन एक मामले में हाई कोर्ट उन पर लगे आरोपों की जांच CBI से कराने का आदेश दे चुका था। इस पर सुप्रीम कोर्ट स्टे दे चुका था। 10 मार्च को इस पर सुनवाई होनी है।
7-हाल ही में एक चैनल के सर्वे में त्रिवेंद्र देश के सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्री बताए गए थे और यह भी उनके खिलाफ गया। हालांकि इस सर्वे के परिणामों के पीछे चैनल की आर्थिक मांगें पूरी न होना बताया जाता है लेकिन सरकार की छवि कुल मिलाकर मीडिया फ्रैंडली नहीं थी। मीडिया समन्वयक और सलाहकार इस बारे में नाकारा साबित हुए। हालत यह थी कि एक-दो पत्रकारों की करतूतों पर सरकारी कार्रवाई ऐसे की गई जैसे वे असामाजिक तत्व हों।
8- कैडर से निकले होने पर भी पार्टी जनों की उपेक्षा कर कांग्रेस पृष्ठभूमि के लोगों को तंत्र में प्रधानता दिये जाने से पार्टी जनों का सद्भाव और समर्थन मुख्यमंत्री बड़ी तेजी से गंवा रहे थे। सलाहकारों और दायित्वधारियों तक में पार्टी और विचारधारा के लोग खुद को पिछड़ता पा रहे थे।
9- जिला स्तर पर बेलगाम नौकरशाही से विधायकों और पार्टी जनों का सार्वजनिक तिरस्कार कार्यकर्त्ताओं के बीच नाराजी बढ़ा रही थी। हद तो यह कि नौकरशाही मंत्रियों तक की नहीं सुन रही थी।