तो वाकई हरीश रावत तिवारी की कुर्सी पलटने को मन मसोसे रह गये?
दोबारा सत्ता को बेचैन पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत आजकल के कोरोना काल में संस्मरणों में रमें हैं। लिख रहे हैं कि मेरे पास 29 विधायक थे लेकिन मैंने नारायण दत्त तिवारी की कुर्सी अपनी कांग्रेस निष्ठा के कारण नहीं पलटी। उन्होंने कभी ऐसा करने की नहीं सोची जैसा नौ विधायकों के साथ विजय बहुगुणा कर गए।
हरीश जी ने अच्छी याद दिलाई लेकिन सपनों की तरह इतिहास भी सबका अपना होता है। तिवारी जिंदा होते तो शायद हरीश जी की इन पंक्तियों पर हंसते। क्योंकि जानने वाले जानते हैं कि हरीश रावत ने पांच साल तिवारी जैसे दिग्गज को एक रात चैन से सोने नहीं दिया। इतना तंग किया कि तिवारी जाते जाते इतना कीचड़ (इस कीचड़ में हरीश रावत का योगदान बराबर का था)कर गए कि कांग्रेस दुबारा सत्ता में नहीं आ पाई और कांग्रेस की गलतियों का लाभ उठा भाजपा आ खड़ी हुई।
अब हम तो आज भी मानते हैं कि जब कांग्रेस ने हरीश जी की लीडरशिप में पहला चुनाव जीता (वे प्रदेश अध्यक्ष थे) तो मुख्यमंत्री उन्ही को बनना चाहिए था। हालांकि उनका आत्मविश्वास इतना हिला हुआ था कि मतगणना पूरी होने के पहले ही उन्हें पत्रकारों ने पकड़ा तो वे बेसाख्ता कह बैठे कि कांग्रेस की विधानसभा चुनाव में हार की पूरी जिम्मेदारी मैं लेता हूं!!
अब मतगणना पूरी होते – होते भाजपा पिछड़ गई और कांग्रेस बहुमत पा गई । दिल्ली में बैठे पंडित नारायण दत्त तिवारी को सोनिया गांधी को हरीश रावत के प्रिमैच्योर हार मानने का याद दिला समझाने का मौका मिल गया कि हरीश तिवारी अनुभवहीन है और राज्य संभालने के अनुभवी नेता की जरूरत है जो उनके अलावा कोई और हो नहीं सकता। सोनिया गांधी के आसपास तब मोती लाल वोरा जैसे सलाहकार थे जो पहले ही तिवारी के आभामंडल के प्रभाव में थे।
तो इस तरह वे तिवारी मुख्यमंत्री मनोनीत कर देहरादून भेज दिये गये जो कहते थे कि पहाड़ उत्तर प्रदेश का सिर है। सिर काट कर उत्तराखंड का समर्थन कैसे कर दूं और कि उत्तराखंड बनेगा तो मेरी लाश पर बनेगा। घोषणा हुई तो हरीश रावत के रणजीत सिंह रावत जैसे समर्थकों ( यह बात अलग है कि आज दोनों अपनी संतानों के राजनीतिक भविष्य की स्पर्धा में एक-दूसरे की शक्ल नहीं देखना चाहते) ने देहरादून के कांग्रेस भवन के सामने जमकर हंगामा किया जिसमें व्यक्तिगत चरित्रहनन की शर्मनाक नारेबाजी भी शामिल थी।
खैर कांग्रेस में हाईकमान इतना पावरफुल है कि हरीश रावत अपने चेलों को भले उकसाते रहे लेकिन स्थानीय स्तर पर हजार ध्रुव होने से खुद को हाईकमान के फैसले से बंधा बताते रहे। बहरहाल,हरीश रावत के साथ 29 तो नहीं,उन दिनों 14 विधायक बताये जाते थे जिनकी वे अक्सर देहरादून और दिल्ली में बैठकें बुलाते रहते थे। आठ विधायकों को सतपाल महाराज द्वारा टिकट दिला जिता लाने के दावे होते थे।
पंडित तिवारी इसके सिवा कुछ नहीं करते थे कि किसी टीवी चैनल को बुला कर इस बारे में सवाल करा बयान दे देते थे कि मैं हाईकमान से अनुरोध करने जा रहा हूं कि किसी युवा को नेतृत्व दें । हम उसका मार्गदर्शन और सहयोग करेंगे। उन दिनों तिवारी जी के युवा नेतृत्व का संकेत डॉक्टर इंदिरा हृदयेश की ओर होता था। तिवारी के इस एक बयान से दिल्ली हिल जाती थी और तिवारी को , ‘मनाने’ वोरा को भेजा जाता था। पूरे पांच साल यहीं चलता रहा।
हरीश- तिवारी द्वंद में हरीश पार्टी में अपना आधार बढ़ाने को मौहल्ला स्तरीय कार्यकर्ताओ को बुला- बुला कर कांग्रेस अध्यक्ष के नाते प्रदेश सचिव बनाते रहे, तिवारी इसे बैलेंस करने को इसी स्तर के लोगों को राज्य मंत्री बनाते रहे। दोनों ने उत्तराखंड की राजनीति को हमेशा को ये बीमारी दे दी।
हरीश रावत ने एक बात विधानसभा अधिष्ठान में अपना कोई रिश्तेदार फिट न करने को लेकर कहीं हैं। यह उन्होंने इस प्रदेश पर ‘अहसान’ किया है। तो फिर गोविंद सिंह कुंजवाल ने विधानसभा में जो ढाई- तीन सौ लोग फिट किए हैं,वे कौन हैं? क्या वाकई कुंजवाल ने अपने तईं चर्चित रेट पर भर्ती कर अकूत संपत्ति इकट्ठा क ली,जैसी कि जनसामान्य और राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा होती रही है ? बिना तत्कालीन मुख्यमंत्री के यह संभव तो नहीं लगता। कुंजवाल तो वैसे भी हरीश रावत के अनन्य भक्त समर्थक हैं। खासतौर पर उत्तराखंड और उत्तराखंड के बाहर के पत्रकारों के भाई- भतीजे, बीबी,साले- साली विधानसभा में हैं तो उसके पीछे तो हरीश रावत ही माने जाते हैं। तभी तो सत्ता से हटने के बाद भी ‘हरीश रावत ने रात में चार करवटें’ ली समाचारों का विषय बनता है और चाट,खीरा, ककड़ी, तरबूज पार्टियां भी।
( और भी है)