भूल गये ना? आर्य सामाजिक प्रचारक भाई परमानन्द,कालापानी कैद,भविष्यदृष्टा

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी गूंज आज भी महसूस होती है, लेकिन कुछ नाम ऐसे भी हैं जो धीरे-धीरे इतिहास की भीड़ में खो गए. भाई परमानंद (Bhai Parmanand) ऐसा ही एक नाम है — एक ऐसा क्रांतिकारी, जिसने धर्म, विचार और राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो दिया. एक समय आर्य समाज के प्रचारक, फिर गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य, और अंत में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बनने तक उनकी यात्रा एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपने जीवन को पूरी तरह देश को समर्पित कर दिया.

लाहौर से निकला एक अद्भुत विद्यार्थी

भाई परमानंद का जन्म 4 नवंबर 1876 को पंजाब के एक मोहयाल ब्राह्मण परिवार में हुआ था. कहा जाता है कि वे सिख शहीद भाई मती दास के वंशज थे, जो स्वयं औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध अपने बलिदान के लिए प्रसिद्ध हैं. उनके पिता ताराचंद मोहरयाल झेलम जिले के कराइला गांव में रहते थे. परमानंद की प्रारंभिक शिक्षा चखवाल में हुई, और आगे उन्होंने लाहौर के डीएवी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने इतिहास से एम.ए. की पढ़ाई शुरू की, परंतु जल्द ही लौट आए और पंजाब यूनिवर्सिटी से एम.ए. पूरा किया. इस युवा की आंखों में उस समय से ही एक सपना था — भारत की जागृति का सपना.

विदेशों में वैदिक विचारों का प्रचार

1905 में भाई परमानंद का जीवन एक नया मोड़ लेता है. वे दक्षिण अफ्रीका पहुंचे, जहाँ उन्होंने महात्मा गांधी के साथ मिलकर आर्य समाज और वैदिक विचारों का प्रचार किया. उनकी भाषा में जोश था, वाणी में विश्वास और विचारों में देशप्रेम की आग. वहां से लौटने के बाद वे 1910 में गुयाना गए, जो उस समय कैरेबियन क्षेत्र में आर्य समाज का प्रमुख केंद्र बन चुका था. उनकी यात्राओं से प्रभावित होकर अनेक लोग वैदिक संस्कृति से जुड़ने लगे.
1911 में वे अमेरिका पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई — वही लाला हरदयाल, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गदर पार्टी की नींव रखी. यही वह क्षण था, जब भाई परमानंद का जीवन केवल धर्म प्रचार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि क्रांतिकारी दिशा में मुड़ गया.

गदर आंदोलन का जन्म और भाई परमानंद की भूमिका

भाई परमानंद ने दक्षिण अमेरिका और अमेरिका के कई हिस्सों का भ्रमण किया. सैन फ्रांसिस्को में उन्होंने लाला हरदयाल के साथ मिलकर भारतीय प्रवासियों में स्वतंत्रता का संदेश फैलाया. यहीं से गदर पार्टी का गठन हुआ — एक ऐसी संस्था जिसने ब्रिटिश राज को हिला देने की ठानी थी.
परमानंद ने न केवल इस आंदोलन की विचारधारा को आकार दिया बल्कि “तारीख-ए-हिंद” नामक पुस्तक भी लिखी, जिसने लोगों के भीतर स्वतंत्रता की आग जला दी. गदर योजना के तहत जब हजारों भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठ खड़े होने की योजना बनाई गई, तो भाई परमानंद उन पांच हजार गदर सेनानियों में शामिल होकर भारत लौटे. उन्हें पेशावर क्षेत्र में विद्रोह की गतिविधियों की जिम्मेदारी सौंपी गई — एक ऐसा कार्य जो साहस, रणनीति और विश्वास तीनों की परीक्षा थी.

लाहौर षड्यंत्र केस और मौत की सजा

1915 में गदर योजना असफल हुई. अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए और लाहौर षड्यंत्र मामला शुरू हुआ — यह वही मुकदमा था जिसमें सैकड़ों भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर देशद्रोह का आरोप लगा.
भाई परमानंद को भी इसी मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें मृत्युदंड सुनाया गया. यह खबर जब देशभर में फैली, तो अनेक युवाओं के दिलों में क्रांति की ज्वाला जल उठी.
इसी खबर को पढ़कर राम प्रसाद बिस्मिल ने संकल्प लिया — वे भी अब स्वतंत्रता की इस जंग में शामिल होंगे. परमानंद की फांसी को लॉर्ड हार्डिंग ने उम्रकैद में बदल दिया और उन्हें अंडमान की काला पानी जेल भेज दिया गया.

काला पानी की यातना और भूख हड़ताल

काला पानी की जेल में परमानंद को असहनीय यातनाएं दी गईं. लेकिन उनके हृदय में विद्रोह की लौ जलती रही. अन्याय के विरोध में उन्होंने दो महीने तक भूख हड़ताल की — वह भी उस समय जब जेल में हर विरोध का मतलब था मृत्यु का खतरा. अंततः किंग जॉर्ज पंचम ने 1920 में आम माफी की घोषणा की और भाई परमानंद को रिहा किया गया.

एक राष्ट्रवादी विचारक का अंतिम अध्याय

जेल से बाहर आने के बाद भाई परमानंद ने शिक्षा और राष्ट्र निर्माण का कार्य संभाला. वे लाहौर के नेशनल कॉलेज के चांसलर/कुलाधिपति बने — वही कॉलेज जहाँ बाद में भगत सिंह जैसे युवाओं ने भी शिक्षा ली.
1933 में वे हिंदू महासभा से जुड़े और उसके अध्यक्ष बने. वे भारत के उन शुरुआती विचारकों में थे जिन्होंने 1905 में ही हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा पर चर्चा की थी — उस समय जब मुस्लिम लीग का अस्तित्व तक नहीं था.
8 दिसंबर 1947 को, स्वतंत्र भारत के जन्म के कुछ ही महीनों बाद, भाई परमानंद का हृदयाघात से निधन हो गया. लेकिन उनके विचार और उनकी संघर्षगाथा आज भी यह बताती है कि एक व्यक्ति, एक विचार से भी इतिहास बदल सकता है.

भाई परमानंद — एक नाम, एक विचार, एक प्रेरणा

भाई परमानंद का जीवन केवल एक जीवनी नहीं, बल्कि एक संदेश है — कि जो व्यक्ति अपने विश्वास और कर्म में अडिग रहता है,
वही अमर होता है
.शत-शत नमन है
हम जैसे लाखों भक्तों ने आपको याद करेंगे और नम आँखो से
प्रणाम करेंगे😓💖💞

कांग्रेस सब को गुमनाम कर खुद को सामने रखने का कार्य किया।

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