हिंदू और हिंदू प्रतीकों को लात फैशन है क्योंकि बोलता नहीं कोई
Netflix पर आई है ‘लैला’, निशाने पर हैं हिन्दू जिन्हें दिखाया गया है तालिबान की तरह
अजीत भारती |
हिन्दू धर्म और प्रतीकों का अपमान फैशन है क्योंकि कोई कुछ कहता नहीं
यूँ तो लैला नाम सुन कर मजनू की याद आती है लेकिन पॉपुलर कल्चर में इसे अब दूसरे कारणों से याद कराने की एक कुत्सित कोशिश की जा रही है। लैला की कहानी प्रेम की कहानी है, लेकिन नेटफ्लिक्स इसे हिन्दुओं के प्रति घृणा जगाने वाले नाम के रूप में परोस रही है। हर तरह के प्रयासों के बावजूद जब न तो किसी भी प्रकार के ऐतिहासिक साक्ष्य से, या फिर आधुनिक काल में कानूनी तरीक़ों से, हिन्दू धर्म और भारतीय सनातन संस्कृति पर नकारात्मकता के धब्बे नहीं चिपक सके, तो अब यह नया प्रयास है।
याद कीजिए एक दौर जब फ़िल्मों में पंडित या ब्राह्मण हमेशा किसी व्यभिचारी की तरह दिखाया जाता था। साधु वेश वाला व्यक्ति हमेशा ठगी के लिए इस्तेमाल होता था। लाला या बनिया हमेशा सूदखोर और रक्तचूसक ही दिखाया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों की छवि व्यभिचारियों, चोरों और ठगों वाली हो गई जबकि भारत के गाँवों में जा कर लोगों को देखना चाहिए कि पूजा-पाठ कर के अपनी क्षुधा मिटाता ब्राह्मण किसको ठग पा रहा है।
कहने का अर्थ यह है कि फ़िल्मों का असर बहुत व्यापक होता है। एक दौर था जब हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में वामपंथी विचारधारा वाले ‘प्रोग्रेसिव रायटर्स असोसिएशन’ जैसी संस्थाओं से जुड़े लोगों ने फिल्म इंडस्ट्री पर ऐसी पकड़ बना रखी थी कि उनके लिए हर हिन्दू पात्र (जो एक प्रतीक की तरह दिखाया जा सके) नकारात्मक हुआ करता था, और वहीं कोई एंथनी अनाथ को पालता हुआ दिखाया जाएगा, अब्दुल का पिता देश पर बेटे न्योछावर करने की बातें करता दिखेगा।
समस्या इससे नहीं है कि एंथनी ने अनाथ बच्चों को आसरा दिया या अब्दुल का पिता देशभक्त है, लेकिन समस्या तब है कि आपने ब्राह्मण को किसी अबला का आँचल खींचता दिखा दिया और सूदखोर लाला बलात्कारी बन कर सामने आया। फिर लगने लगता है कि ये अनायास नहीं होता। ये एक मशीनरी है जो समाज के मनोविज्ञान पर खेलती है। जो कभी किसी साधु से ठगी का शिकार न हुए हों, वो ऐसी फिल्म देख कर सारे साधुओं को वैसा ही मानने लगेंगे। इस तरह के पात्र इतनी बार गढ़े गए हैं कि जनमानस में साधु-संन्यासी आदि को देख कर लोग उन्हें पहले ही ठग मान लेते हैं। अगर वो अच्छा निकल गया तो सोचते हैं कि ये अपवाद है।
ये एक सतत प्रक्रिया है एक धर्म, उसके प्रतीकों की छवि बर्बाद कर, समाज को तोड़ने की जो पहले अंग्रेज़ों का प्रमुख कार्य था, अब उनका एकसूत्री अजेंडा हो गया है जो सत्ता की मलाई से दूर हो गए हैं। आप जरा सोचिए कि जब भी दूसरे मज़हबों के प्रतीकों पर एक ट्वीट भी लिखा जाता है तो उसे एक पूरी लॉबी कैसे देखती है। आप याद कीजिए कि हिजाब और बुर्के को वैज्ञानिक बताने से लेकर ‘माय च्वाइस’ तक कहने वाले साड़ी और घूँघट को बंधन कैसे बताते रहते हैं!
नेटफ्लिक्स द्वारा ‘लैला’ वेब सीरीज़ का भारत में प्रदर्शन उसी लॉबी के अजेंडे की अगली कड़ी है। ‘हिन्दू टेरर’ का शिगूफ़ा छोड़ा गया था, वो फुस्स हो गया। पाँच साल तक लोग इस इंतजार में रहे कि कोई बड़ा दंगा हो जाए, कुछ बड़े स्तर पर नरसंहार हो जाएँ कि सत्ताधारी दल और उसके नेता की छवि को लेकर जो अवधारणाएँ इन्होंने 2013-14 में बनाई थीं, वो किसी भी तरह से सच हो जाएँ। वैसा हुआ नहीं।
न तो हिन्दू सड़कों पर तलवार लेकर दौड़ा, न ही भाजपा शासित राज्यों में दंगे भड़के। ये बात और है कि कुछ एंकरों ने स्टूडियो से बैठ कर ‘डर का माहौल’ खूब बेचा। समाज में जहाँ दो मजहब ठीक से रह रहे थे, वहीं मीडिया ने ऐसा क़िस्सा बनाया कि हर जगह हिन्दू और समुदाय विशेष एक दूसरे के जान लेने पर उतारू हैं। 2019 का चुनाव भी हो गया, और ये अजेंडा भी फ़्लॉप रहा।
आजकल जनता इतनी जागरूक है कि फ़िल्मों के ज़रिए अगर ऐसा करने की कोशिश होती है तो वो उनके रिलीज़ पर भी रोक लगा देते हैं, या हंगामा करते हैं जिससे कई बार फ़िल्मों को आर्थिक नुकसान पहुँचता है। इसलिए, अब इनकी योजना बदल गई है। अब नेटफ्लिक्स जैसी स्ट्रीमिंग सर्विस के ज़रिए यही घृणा परोसी जा रही है क्योंकि उसे देखने के लिए सिनेमा हॉल में जाने की आवश्यकता नहीं है। उसे आप घर में बैठ कर देख सकते हैं।
वो पीढ़ी जिसने जब से होश संभाला है, या राजनैतिक रूप से जागरुक हुए हैं, उन्होंने भारत का इतिहास भी ढंग से नहीं पढ़ा, उनके लिए ऐसे सीरिज़ ही अंतिम सत्य हो जाते हैं। उनके लिए यह विश्वास करना आसान हो जाता है कि अगर इस्लामी आतंक है तो हिन्दू टेरर क्यों नहीं हो सकता। ये कच्चे दिमाग के बच्चे हैं, जो हर सामने आती बात पर विश्वास कर लेते हैं।
‘लैला’ में कथानक बुना गया है एक ऐसे ‘आर्यावर्त’ का जहाँ हिन्दू अतिवादी (एक्सट्रेमिस्ट) हर जगह हैं, हिन्दुओं का शासन है जो तालिबान जैसा है। यहाँ एक तानाशाही सत्ता है और जनता हर तरह से व्याकुल है। बताया गया है कि हर समय सत्ता की निगाह आप पर है और जो हिन्दू और दूसरे मजहब की शादियों से जन्में हैं वो ‘शुद्ध’ नहीं हैं। कुल मिला कर एक घृणित सोच को कल्पना का जामा पहना कर वास्तविकता की तरह दिखाने का घटिया प्रयास है।
इस वेब सीरीज़ में कोशिश यह दिखाने की है कि भारत हिटलर जैसे तानाशाह के शासन में है और लोकतंत्र ख़त्म हो चुका है। यही बात तो पाँच साल से मीडिया के एक हिस्से ने खूब बताई और परिणाम यह आया कि अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में आधी से ज़्यादा सीटें भाजपा ने जीतीं। सीधा मतलब यह है कि मीडिया और एक खास विचारधारा के प्रोपेगेंडा को चलाने वालों का आम जनता से एक पूरा डिसकनेक्ट हो चुका है। ये लोग कमरे में बैठ कर यह सोचते हैं कि लोग ऐसा सोचते होंगे, तो वो हो जाएगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। इस बात को हाल ही में ‘द प्रिंट’ के शेखर गुप्ता से लेकर कई बड़े मीडियाधीशों ने स्वीकारा कि वो लोग जनता की नब्ज पकड़ने में नाकाम रहे।
इनके पाँच साल ऐसे ही बीते हैं जहाँ ये मनाते रहे कि ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए, लेकिन न तो ऐसा हुआ, न वैसा। इसलिए, अब योजना में बदलाव लाया गया है। हर घर में पहुँचती मीडिया और हर हाथ में विद्यमान सोशल मीडिया जब इनके नैरेटिव को लोगों के दिमाग में नहीं उतार पाए तो अब वेब सीरीज़ का सहारा लिया जा रहा है।
हम इन्हें महज़ कल्पना कह कर छोड़ नहीं सकते। हम इन्हें हैशटैग से बायकॉट नेटफ्लिक्स या अनइन्सटॉल नेटफ्लिक्स कह कर ही अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकते। इस पर चर्चा होनी ज़रूरी है क्योंकि नैरेटिव को बेहतर नैरेटिव ही काट सकता है। अगर ये हिन्दुओं को तानाशाही और तालिबानी बताएँगे तो हमारा नैरेटिव सत्य को उजागर करने पर फोकस्ड होना चाहिए। हमारा नैरेटिव ऐसे लोगो की चर्चाओं में घुस कर इन्हें यह सवाल पूछने पर आधारित होना चाहिए कि किसी हिन्दू तानाशाह का नाम बता दे कोई। इनसे पूछिए कि ऐसा कौन-सा उदाहरण है उनके पास जहाँ से ये ‘शुद्ध’ हिन्दू वाली बात निकल कर आती है?
आप मनोरंजन को इतनी आसानी से मत जाने दीजिए। अगर टेलिग्राफ़ वाले अपनी चिरकुटई में इस सीरीज़ को ऐसे दिखा रहे हैं कि यही हमारे समय का सच है, तो आप को इस टुच्चे पेपर वालों को बताना होगा कि अपने हेडलाइनों से लेकर पूरे पेपर में जो विष्ठा करते हैं, उसकी बदबू इन्हीं का दम घोंट देगी एक दिन।
ये हमारे समय का सच नहीं है। सारे वामपंथी और दक्षिण-विरोधी मीडिया इसे ऐसे ही दिखा रहे हैं जैसे पिछले पाँच साल में ‘आपातकाल’ जैसे शब्द और ‘डर का माहौल’ जैसे वाक्यांश को दिखाया था। इन लोगों ने हर रात चैनलों के स्टूडियो में बैठ कर अल्पसंख्यकों को डराया है कि वो घर से बाहर निकलेंगे तो हिन्दू तलवार लेकर बैठा हुआ है, और उसके कान में हैंड्स-फ़्री पर अमित शाह और मोदी कॉन्फ़्रेंस कॉल कर रहे हैं। इन्हीं लोगों की आँखों में घोड़े का बाल घुस गया था जब पूरा बंगाल इस्लामी आतंक और साम्प्रदायिक दंगों से जूझ रहा था।
इसलिए, चुप तो मत ही बैठिए। कायर और भीरू चुप बैठते हैं। आप से जो बन पड़ता है, कीजिए। सीरीज़ देखने की आवश्यकता नहीं है। उसमें क्या है, बस इतना जानिए, जो मैंने ऊपर बता दिया है। इसके बाद हर समझदार भारतीय की प्रतिक्रिया यही होनी चाहिए कि राजनीति से जब हमें तोड़ा नहीं जा सका, तो फ़िल्मों और धारावाहिकों के ज़रिए हमारे समाज में ज़हर मत घोलो। अगर आप इस सोशल मीडिया के दौर में चूक गए, तो आप इतिहास में उन्हीं हिन्दुओं की भीड़ की तरह याद रखे जाएँगे जिनके सामने से गाय दौड़ा कर मंदिर लूट लिए जाते थे।
अपने अस्तित्व को पहचानिए। अपनी सर्वसमावेशी संस्कृति पर हो रहे इन हमलों को नाकाम बनाना सीखिए। ये बातें आपकी अगली पीढ़ी का आँख बंद करने के लिए तैयार की जा रही हैं। ये सामान्य जीवन में ज़हर घोलने का प्रयास है। ये हिन्दुओं की छवि बर्बाद करने की बात है। कल्पना को आधार बना कर एक वैसे समाज को तानाशाही दिखाने का प्रयास है यह जिस समाज ने हर बार इस्लामी और ईसाई आतंक को झेला है, और इतने सहिष्णु थे कि उन्हें भी यहाँ बसने दिया। इतने सहिष्णु हमेशा रहे कि बहुसंख्यक होने के बावजूद, सत्ता पाने के बावजूद, अल्पसंख्यकों के आतंक को झेला ही है, उन पर उनके पूर्वजों या मजहबी आतंकियों की करतूतों के लिए हमला नहीं बोला है।
हमला इसलिए नहीं बोला है क्योंकि वो हमारी संस्कृति नहीं है। हमारी संस्कृति स्वीकार्यता पर आधारित है। लेकिन हाँ, कायरों की तरह आक्रमण को झेलना भी हमारी संस्कृति नहीं रही है। जब दुश्मन अपने तौर-तरीके बदल रहा हो तो हमें उन्हें पहचानना चाहिए। हमें उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब देना चाहिए। मैं आपको नेटफ्लिक्स अनइन्स्टॉल करने नहीं कहूँगा, मैं आपको यह भी नहीं बताऊँगा कि यही सीरीज़ आपको किस वेबसाइट पर आसानी से पायरेटेड कॉपी में मिल जाएगी। ऐसा करना गलत है। गलत तो खैर हिन्दुओं को आतंकी और तालिबानी कहना भी है। निर्णय आपका है कि यह लड़ाई आप कैसे लड़ेंगें।