टाइम्स मैगजीन के लिए ‘ हिंदू लाइव्स मैटर’ खतरनाक

“हिन्दू लाइव्स मैटर” के नारे से टाइम पत्रिका को है समस्या, हिन्दुओं के मारे जाने से नहीं!
By
Sonali Mishra
July 4, 2022

भारत में इन दिनों हिन्दुओं की चुन चुन कर की जा रही हत्याओं का दौर चालू है। सबसे अधिक चौंकाने वाला जो पहलू निकलकर सामने आ रहा है वह यह कि अधिकांश यह हत्याएं किसी अनजान द्वारा नहीं बल्कि दोस्तों, पड़ोसियों आदि के द्वारा ही कराई जा रही हैं। उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या पर आक्रोश इस लिए भी अधिक उभर कर आया क्योंकि कातिलों ने वीडियो जारी किया था।

इतना ही नहीं उससे पहले उमेश कोल्हे की हत्या के विषय में भी यह स्पष्ट है कि यह पूरी तरह से हिन्दू घृणा में की गयी ह्त्या थी। और तो और कमलेश तिवारी जिनका पहले ही गला रेतकर हत्या की जा चुकी है, उनकी पत्नी को भी हत्या की धमकी दी जा रही है।

कश्मीर में देखा ही था कि कैसे पहले और अब दोबारा से कश्मीरी हिन्दुओं का खून किया जा रहा है। तो ऐसे में प्रश्न उठता ही है कि “भैया, हिन्दुओं की जान की भी कीमत है!” अब टाइम पत्रिका को इस बात पर भी आपत्ति है कि हिन्दू लाइव्स मैटर के विषय में बात भी की जाए! टाइम।coकॉम पर एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसे लिखा है सान्या मंसूर ने!

हिन्दू लाइव्स मैटर का अर्थ मुस्लिमों का विरोध?

इस लेख में यह लिखा है कि हिन्दू टेलर की राजस्थान में दो मुस्लिम आदमियों के द्वारा की गयी हत्या के विरोध में देश में पहले से ही “दबी कुचली और डरी हुई” मुस्लिम जनसँख्या के खिलाफ बदले की डरावनी आवाजें तेज हो गयी हैं।

यह बहुत ही रोचक है कि इस पूरे लेख में इस्लामी हिंसा की बात की ही नहीं गयी है। पूरे लेख में कहीं भी यह नहीं है जो यह बताए कि कैसे रणनीतिक रूप से हिन्दुओं के प्रति सुनियोजित हिंसा की जा रही है, बल्कि बार-बार यही कहा जा रहा है कि हिन्दू बहुसंख्यक हैं और कैसे 80% हिन्दुओं के साथ कोई अल्पसंख्यक हिंसा कर सकता है।

परन्तु लेख लिखने वाली यह भूल गयी हैं कि हिन्दू पूरे विश्व में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है एवं उसके लिए समर्पित कोई भी देश नहीं है। भारत एकमात्र स्थान है जहाँ पर हिन्दू शरण लेने का विचार कर सकता है। इस पूरे लेख में इस बात पर बल दिया गया है कि दरअसल हिन्दू लाइव मैटर्स का अर्थ मात्र इतना है कि कैसे मुस्लिमों के जीनोसाइड के लिए आह्वान किया जाए!

इस लेख में न्यूज़ीलैंड में मैसी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर मोहन दत्ता के हवाले से कहा गया है कि “हिन्दू लाइव्स मैटर केवल इसी सन्देश के साथ आता है कि इसके संदेशों को मुस्लिम जीनोसाइड के एक आह्वान के रूप में देखा जाए।”

संख्या के अनुसार अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक की बात करने वाले यह लोग अपराध के आंकड़ों पर ध्यान नहीं देते है। जबकि अल्पसंख्यक की परिभाषा ही अभी तक निर्धारित नहीं है। इस लेख में लिखा जा रहा है कि यह सही है कि राजस्थान की घटना अत्यंत भयानक एवं दुःख देने वाली है, परन्तु इसे वृहद परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए जिसमें मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्रवादी हिंसा के माध्यम से निशाना बनाया जा रहा है।

इस लेख को पढ़कर यही लगता है कि सारा जोर इसी बात को स्थापित करने पर है कि कैसे एक हिन्दू बाहुल्य देश में हिन्दुओं के जीवन को हानि हो सकती है?

कथित रूप से हिन्दू बाहुल्य देश के कितने जिले मुस्लिम बाहुल्य हो चुके हैं, यह बार-बार रिपोर्ट से पता चलता है। यहाँ तक कि कई प्रदेश ऐसे हैं जहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, परन्तु प्रदेशों के आधार पर अल्पसंख्यकों का निर्धारण कब किया जाएगा? कश्मीर में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ क्या किया गया और क्या किया जा रहा है, यह सभी ने देखा!

पश्चिम बंगाल में क्या किया जा रहा है और क्या किया गया, सभी ने देखा। यहाँ तक कि लक्षद्वीप में भी हिन्दू अल्पसंख्यक है, पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक है। पंजाब में हिन्दू अल्पसंख्यक है, फिर उन प्रदेशों में हिन्दुओं को अल्पसंख्यक मानकर उनके अधिकारों के विषय में कुछ भी नहीं लिखा जाता है।

यहाँ तक कि सरकार का भी इस विषय में दृष्टिकोण बहुत ढुलमुल है।

जो भी ऐसे लेख या रिपोर्ट बनाई जाती हैं, उनमें अल्पसंख्यक का आधार क्या होता है? कई जिलों में एक स्थान पर हिन्दू बहुसंख्यक हो सकता है तो वहीं दूसरे स्थान पर मुस्लिम भी बहुसंख्यक हो सकता है, तो फिर ऐसे में यह कैसे संभव है कि एक पैरामीटर के आधार पर अल्पसंख्यकों का निर्धारण किया जा सके?

टाइम जैसी पत्रिकाएँ कट्टरपंथी मुस्लिमों द्वाआ हिन्दुओं की हो रही हत्याओं की अनदेखी करके एक ऐसे झूठ को फैला रही हैं, जिससे दो समुदायों के मध्य विष के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। सोशल मीडिया पर भी यह छाया हुआ है कि आखिर टाइम ऐसा कैसे कर सकती है?

लेखक संजीव सान्याल ने लिखा कि टाइम मैगजीन को लगता है कि हिन्दू लाइव्स मैटर एक खतरनाक विचार है,

कंवल सिब्बल ने लिखा कि ब्लैक लाइव्स मैटर एक प्रगतिशील विचार था, परन्तु हिन्दुओं का जीवन टाइम के अनुसार मायने ही नहीं रखता है

 

यह पूरी तरह से सत्य है कि पश्चिम का बड़ा मीडिया वर्ग हिन्दुओं के प्रति घृणा से भरा हुआ है एवं हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का इंसान समझता है। यही कारण है कि टाइम जैसी पत्रिकाएँ इस प्रकार का हिन्दुओं के प्रति घृणा से भरा हुआ लेख प्रकाशित कर सकती हैं।

हिन्दुओं को संहार की शिकायत का ही अधिकार नहीं देने को तैयार?

हिन्दुओं के लिए बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि अब उन्हें पश्चिमी इस्लामी और वामी मीडिया यह तक नहीं कहने देने की आजादी देना चाह रहा है कि उन पर अत्याचार भी हो रहा है! उसके अनुसार यदि हिन्दुओं के साथ मुस्लिम कुछ गलत करते हैं या अपराध करते हैं तो वह सही करते हैं क्योंकि “बहुसंख्यक” हिन्दू उन्हें इतना भड़काते ही हैं!

परन्तु यदि कोई पूछे कि भड़काना कैसे और क्या, तो गिने चुने एक दो मामलों के अतिरिक्त कुछ नहीं होता! नुपुर शर्मा का बहाना लेकर अभी जो हिंसा का नंगा नाच भारत में हिन्दुओं के विरुद्ध हो रहा है, वह इसलिए और डराता है क्योंकि हिंसा करने वाला पक्ष न्यायालय जाना ही नहीं चाहता! वह अपने स्तर पर मामला निपटाकर अपने समाज का नायक बनना चाहता है।

इस हिंसा को ग्लोरिफाई अर्थात महिमामंडित करता है पश्चिमी वामपंथी एवं इस्लामी मीडिया।

वह इसे उचित ठहराते हुए हिन्दुओं को एक जाल में फंसाता है जिसमें यदि वह यदि अपने साथ हो रही हिंसा का विरोध करते हुए आन्दोलन करता है तो उसे हिंसक और दोषी ठहराया जाता है, एवं यदि वह चुप रहता है, (जैसा अधिकाँश वह चुप ही रहता है) तो उस पर हमले और तेज हो जाते हैं!

इस जाल की काट किस प्रकार खोजी जाए, कि हिन्दू मर भी रहे हैं और हिन्दुओं से शिकायत करने का भी अधिकार छीना जा रहा है कि “चुप रहो, बहुसंख्यक हो तुम, कैसे अत्याचार कर सकते हो?”

परन्तु क्या वास्तव में हिन्दू बहुसंख्यक है, इसका उत्तर उन्हें भी ज्ञात है और हिन्दुओं को भी! खेल नैरेटिव का है, और नैरेटिव वह यह बना चुके हैं कि “बहुसंख्यक हिन्दू अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर अत्याचार कर रहा है! और मुस्लिम डरा हुआ हा!” और फिर यह डरा हुआ समुदाय रोज ही कोई न कोई ऐसी घटना कर देता है कि उसके इस अपराध को इसी डर की संज्ञा देकर हिन्दुओं को दोषी ठहराते हुए कहा जाता है “बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय ने अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के खिलाफ रणनीतिक और सुनियोजित हिंसा की कि ऐसे कदम उठ गए!”

ऐसा प्रतीत होता है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों में जानबूझ कर प्रकशित किए जाने वाले ऐसे विचार हिन्दुओं की मनोबल को तोड़ने के लिए लिखे जाते हैं, ऐसे में तर्कों से इनकी काट ही अंतिम उपाय है, जो हिन्दू समाज को सीखना होगा, क्योंकि कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे अंतिम पीड़ित नहीं हैं और न ही प्रथम!

यह एक सिलसिला है जिसे समग्र समझना होगा और खोजना होगा उत्तर!

*HinduPost से साभार

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