ऐतिहासिक कम सीटों पर चुनाव लड़ना कांग्रेस की मजबूरी है कि रणनीति?
कांग्रेस का ऐतिहासिक रूप से सबसे कम सीटों पर लड़ना रणनीति है या कुछ और
वह 2009 के लोकसभा चुनाव में आख़िरी बार कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया था. कांग्रेस ने 440 प्रत्याशी खड़े किए थे.इनमें से 209 जीते थे.यह संख्या लोकसभा में बहुमत को ज़रूरी आंकड़े से कम थी.इसलिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार दोबारा बनी.इससे पहले 2004 लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ़ 145 सीटें ही मिलीं थीं, उसने 417 सीटों पर चुनाव लड़ा था.कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा 529 सीटों पर चुनाव 1996 में लड़ा था.
18वीं लोकसभा को हो रहे चुनाव के दो चरणों पर मतदान हो चुका है. इस बार कांग्रेस इंडिया गठबंधन का हिस्सा है.
कांग्रेस 301 सीटों पर प्रत्याशी उतार चुकी है। उसके 300- 320 सीटों पर ही चुनाव लड़ने की संभावना थी.1951 से लेकर अब तक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि कांग्रेस इतनी कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है.
कांग्रेस ने 2014 के चुनाव में 464 उम्मीदवार उतारे थे,वहीं 2019 के चुनाव में उसने 421 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे.साल 2019 में उसे 421 सीटों में से केवल 52 ही जीत पाई थी.
इस समय कैसी है कांग्रेस की हालत
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ राहुल गांधी
ऐसे में कांग्रेस की इस स्थिति पर कई सवाल उठने अपरिहार्य हैं. राजनीतिक क्षेत्रों में इस पर ख़ूब चर्चा भी हो रही है कि सबसे पुराने राष्ट्रीय दल कांग्रेस को ऐसा क्यों करना पड़ा.
पिछले 10 साल में कांग्रेस का संगठन पूरी तरह से चरमरा गया है.यह स्थिति उसी तरफ़ इशारा करती है.
लंबे समय से कांग्रेस पर नज़र रखने वाले लेखक राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई ने कहा कि अब कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है.
उन्होंने कहा, कि”इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को समझ आने लगा था कि वो सिर्फ़ अपने बूते भारतीय जनता पार्टी और ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लोहा लेने की स्थिति में नहीं है.इसलिए उसने क्षेत्रीय दलों पर ज़्यादा भरोसा किया।”
राहुल गांधी ,@INCINDIA/X
किदवई कहते हैं कि भाजपा और एनडीए को सीमित करने को क्षेत्रीय दलों का सहारा लेने के सिवा कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं था.
वो मानते हैं कि ‘इस बार कांग्रेस ने अपनी जीत का लक्ष्य भी कम ही रखा हुआ है.वो आधे की भी आधी सीटें जीत पाए तो वो पार्टी की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.’
लेकिन कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कितना मज़बूत होगा, यह तो समय ही तय करेगा.
रशीद किदवई कहते हैं, कि”कांग्रेस ने गठबंधन तो कर लिया है मगर उसके साथ आने वाले दल अपने अलग-अलग घोषणापत्र लेकर आए हैं.उन दलों ने कांग्रेस के घोषणापत्र को पूरी तरह से नहीं अपनाया.इसलिए कांग्रेस के इंडिया गठबंधन को कितना चुनावी लाभ मिल पाएगा ये तो नतीजे ही बताएंगे.कांग्रेस का घोषणापत्र इण्डिया गठबंधन का साझा घोषणापत्र होना चाहिए था.यहां भी कांग्रेस चूक गई.”
कितनी सीटों पर लड़ाई में हैं क्षेत्रीय दल
सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ राहुल गांधी
जानकार कहते हैं कि लोकसभा की कुल 543 सीटों में से लगभग 200 ऐसी सीटें हैं,जिन पर भारतीय जनता पार्टी का क्षेत्रीय दलों से सीधा चुनावी संघर्ष है. इस अर्थ में भी कांग्रेस के पास इससे बेहतर विकल्प नहीं था.
वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं कि सांगठनिक रूप से कांग्रेस का जो हाल हो चुका, जिस तरह पिछले पांच साल में संगठन के बड़े और छोटे नेता एक एक कर भारतीय जनता पार्टी में चले गए,वैसी परिस्थिति में कांग्रेस के सामने सिर्फ़ यही एक विकल्प बचा था.
एनके सिंह अभी विभिन्न राज्यों का दौरा कर रहे हैं.इस दौरान उन्होंने बागडोगरा एयरपोर्ट से फोन पर कहा कि सांगठनिक रूप से कांग्रेस इस स्थिति में पहुंच गई है,जहां उसे योग्य उम्मीदवारों का भी अभाव है.
उनका कहना था, कि ”कांग्रेस के पास तो अब सभी सीटों पर लड़ाने को उम्मीदवार ही नही हैं. ऐसे में यही एक विकल्प उसके सामने था कि वो क्षेत्रीय दलों का ही समर्थन करे और उनसे समर्थन ले.”
इस क्रम में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र,पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें गठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों को दे दीं.इसमें अकेले उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल,बिहार और तमिलनाडु में 201 सीटें हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ेगी.
उसी तरह वो महाराष्ट्र की 48 सीटों में से 17 पर ही चुनाव लड़ेगी जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना 21 पर और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस 10 पर लड़ रही है.
क्या भाजपा ने पकड़ी है कांग्रेस की राह
भाजपा प्रमुख जेपी नड्डा,@BJP4INDIA/X
राजनीतिक टिप्पणीकार विद्याभूषण रावत कहते हैं कि जो कांग्रेस कर रही है वो राजनीति में नया नहीं है,क्योंकि पहले ऐसा भारतीय जनता पार्टी भी कर चुकी है। विभिन्न दलों में गठबंधन ही भविष्य की राजनीति का स्वरूप होने वाला है.
उनका कहना था, कि ”काफ़ी कुछ बदला है राजनीति में भी.क्षेत्रीयता भी बढ़ रही है और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं भी. इससे मौजूदा राजनीतिक वातावरण में काफ़ी कुछ बदलेगा. भविष्य में राष्ट्रीय दलों का मत प्रतिशत भी कम होता चला जाएगा.कांग्रेस को यही बेहतर विकल्प था कि वो ख़ुद हाथ-पांव मार कर मतों का और विभाजन करवाने की बजाय क्षेत्रीय दल मज़बूत गठबंधन करे.उसने ऐसा ही किया है. इसको कांग्रेस ने 200 से ज़्यादा सीटों का बलिदान भी दिया है.”
जानकार यह भी कहते हैं कि जिस अवस्था से कांग्रेस अभी गुज़र रही है,ऐसे में उसके राजनीतिक भविष्य को यही बेहतर रहेगा कि वो कम से कम सीटों पर लड़े और भाजपा प्रत्याशी को चुनौती देने वाले उम्मीदवारों का समर्थन करे.
रावत कहते हैं कि जिस तरह भारतीय जनता पार्टी मौजूदा समय में राजनीति कर रही है,इससे पहले कांग्रेस यही करती थी. चाहे वो फ़िल्मी सितारों को मैदान में उतारना हो या दूसरे राजनीतिक दलों से अपने संगठन में नेताओं को शामिल करना हो.
उन्होंने अमिताभ बच्चन,सुनील दत्त और राजेश खन्ना का उदाहरण देते हुए कहा कि कांग्रेस ने भी उस समय के दिग्गज विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ सिनेमा के यें बड़े सितारे उतारे थे.
वो कहते हैं, कि”पहले समाज और नौकरशाही का ‘एलीट’ वर्ग कांग्रेस के साथ हुआ करता था.अब भारतीय जनता पार्टी के साथ है.क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर कांग्रेस इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कितनी चुनौती दे पाती है, यह देखने वाली बात होगी.इसी पर कांग्रेस का भविष्य भी निर्भर करेगा.”