A to Z इतिहास:भारत में वामपंथी राष्ट्रद्रोही क्यों हैं?
भारत-चीन युद्ध के कारण कैसे दो फाड़ हुई थी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
तस्वीर में सबसे बाईं ओर हैं भूपेश गुप्त और सबसे दाईं ओर अख़बार हाथ में लिए मशहूर वामपंथी नेता अजय घोष
यूँ तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन 26 दिसंबर, 1925 को कानपुर में हुआ था लेकिन इस पार्टी की नींव 17 अक्तूबर, 1920 को उज़बेकिस्तान के ताशकंद शहर में रखी गई थी जो उस समय सोवियत संघ का हिस्सा था.
इस पार्टी के उदय में बहुत बड़ी भूमिका कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की रही थी. शायद यही वजह थी कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कम्युनिस्टों की भूमिका पर कई सवाल उठे थे.
साल 1942 में महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो सोवियत संघ ने अपील की कि दूसरे विश्व युद्ध में भारतीय कम्युनिस्टों को ब्रिटिश सरकार की मदद करनी चाहिए. इन दो विकल्पों में से कम्युनिस्टों ने दूसरा विकल्प चुना.
नतीजा ये हुआ कि वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से अलग-थलग पड़ गए. 50 और 60 के दशक में जिस घटना ने पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को प्रभावित किया वो था सोवियत चीन संबंधों का अचानक खराब हो जाना.
जब सोवियत संघ ने भारत की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अपील की कि वो नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करें, हालांकि पार्टी के कुछ वरिष्ठ सदस्य कांग्रेस की नीतियों के सख़्त ख़िलाफ़ थे.
जिन लोगों को सोवियत संघ की ये अपील पसंद नहीं आई और जो नेहरू के धुरविरोधी थे,उन्होंने मार्गदर्शन को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ देखना शुरू कर दिया.
मोहित सेन की आत्मकथा ‘अ ट्रैवलर एंड द रोड’
मोहित सेन को चीन भेजा
इससे बहुत पहले साल 1950 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने उभरते हुए नेता मोहित सेन को चीन में रहने भेजा.
बाद में मोहित सेन ने अपनी आत्मकथा ‘अ ट्रैवलर एंड द रोड’ में लिखा, “पीएलए के सम्मेलन में हमने पहली बार चेयरमेन माओ को देखा. वहाँ उन्होंने कोई भाषण तो नहीं दिया लेकिन ऐसा कोई भाषण नहीं था जिसमें उनका ज़िक्र नहीं होता था और जब भी उनका नाम लिया जाता था लोग तालियाँ बजा कर उसका स्वागत करते थे.”
“चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के स्वागत समारोह में हमने उन्हें फिर देखा. हर प्रतिनिधिमंडल को उनसे मिलवाया गया. मेरी बारी आई तो उन्होंने मुस्कराते हुए मुझसे हाथ मिलाया और चीनी भाषा में कहा, ‘इंदू रेनमिन हंग हाओ’ जिसका मतलब था ‘भारतीय लोग बहुत अच्छे’ होते हैं.”
“उसी सम्मेलन में हमें चीनी नेताओं लिऊ शाओ क्वी और चू एन लाई से भी मिलने का मौका मिला. डेंग ज़ियाओ पिंग भी वहाँ रहे होंगे लेकिन तब तक वो इतने महत्वपूर्ण नहीं बने थे कि उन्हें हमसे मिलवाया जाता.”
चीन में भारतीय राजदूत पन्नीकर माओ के साथ
नक्शों से हुई विवाद की शुरुआत
मोहित सेन चीन में तीन सालों तक रहे. भारत चीन युद्ध से करीब चार साल पहले उस समय दोनों देशो के संबंधों में कड़वाहट आनी शुरू हुई जब चीन ने अपने नक्शों में उत्तरपश्चिम और उत्तरपूर्व के बड़े भारतीय भूभाग को अपना बताना शुरू किया.
तब भारत के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से संपर्क कर उनसे अनुरोध किया कि वो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को समझाएं कि इससे दोनों देशों के संबंध खराब हो रहे हैं.
उन्होंने इस बारे में कम्युनिस्टों के हितैषी फ़िरोज़ गांधी और प्रोफ़ेसर केएन राज से भी बात की.
बिद्युत चक्रवर्ती अपनी किताब ‘कम्युनिज़्म इन इंडिया’ में लिखते हैं, “कम्युनिस्टों के नेतृत्व ने नक्शों के बारे में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से बात की, लेकिन इसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ. कुछ दिनों बाद चीन सरकार ने भारत सरकार को सूचित किया कि उनके नक्शों में दिखाई गई ज़मीन हमेशा से चीनियों की रही है और उसे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने उनसे हड़प लिया था.”
“चीन ने 1914 में बनाई गई मैकमोहन लाइन को न तो कभी माना है और न ही मानेगा. चीन के इस फ़ैसले से कम्युनिस्टों समेत भारत में चीन के सभी मित्रों को बहुत धक्का पहुंचा लेकिन चीन अपनी ज़िद पर अड़ा रहा.”
भारतीय संसद
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नेहरू की नीतियों पर हमला
नेहरू ने इस पूरे मामले को तूल न देने का फैसला किया. उनका रुख़ था कि भारत और चीन में कुछ ग़लतफ़हमियाँ हो गईं हैं जिन्हें जल्द ही दूर कर लिया जाएगा.इस पर कम्युनिस्टों को छोड़ कर पूरे विपक्ष ने नेहरू को आड़े हाथों लिया.
साल 1959 में चीनी नेतृत्व की तरफ़ से दूसरा आश्चर्यजनक कदम ये उठाया गया कि उन्होंने नेहरू पर सार्वजनिक रूप से हमला बोला.
चीनी अख़बार ‘पीपुल्स डेली’ में नेहरू की नीतियों पर हमला करते हुए संपादकीय लिखे गए और भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं को बताया गया कि चेयरमेन माओ ने इन संपादकियों को अनुमोदित किया है. इन संपादकियों में लिखा गया कि “नेहरू प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ लोगों और ज़मींदारों का प्रतिनिधित्व करते हैं और साम्राज्यवादी ताकतों से जोड़तोड़ कर रहे हैं.”
ये अब तक के चीनी रुख़ के बिल्कुल विपरीत था.साल 1957 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को लिखे गए पत्र में यहाँ तक कहा गया था कि “हम ये नहीं समझ पा रहे कि आप कांग्रेस सरकार के विपक्ष में क्यों बैठे हुए हैं जबकि वो तमाम प्रगतिवादी नीतियाँ अपनाए हुए है.”
इससे पहले 1956 में हुई आठवीं कांग्रेस में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व शांति और साम्राज्यवाद का विरोध करने को भारत से सामरिक समझौता करने का फ़ैसला किया था.इस कांग्रेस में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ़ से ईएमएस नम्बूदरीपाद और पी सुंदरैया ने भाग लिया था.
भूपेश गुप्त और अजय घोष पहले रूस और फिर चीन गए
ए जी नूरानी अंग्रेजी पत्रिका फ्रंटलाइन के 16 दिसंबर, 2011 के अंक में कम्युनिस्ट मेमोरीज शीर्षक लेख में लिखते हैं, “चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में बदलाव से परेशान हो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने दो बड़े नेताओं भूपेश गुप्त और अजय घोष को मॉस्को भेजा था ताकि वो इस बारे में ख्रुश्चेव, सुसलोव और दूसरे सोवियत नेताओं से बात करें.
रूसियों ने उन्हें सलाह दी कि वो इस बारे में चीनियों से सीधे बात करें. तब भूपेश गुप्त और अजय घोष चीन गए थे लेकिन वो चीनी नेताओं की सोच में बदलाव लाने में नाकामयाब रहे.
चीनियों ने उन्हें तर्क दिया, “हम भारतीय अधिपत्य वाली ज़मीन में गड़े अपने पुरखों की कब्रों की सुरक्षा करने के लिए कृतसंकल्प हैं. हमारे पुरखों की हड्डियाँ भारत या उसके लोगों की दोस्ती से कहीं ज़्यादा कीमती हैं.”
लेकिन जब इन दोनों नेताओं ने चेयरमेन माओ से मुलाकात की तो उन्हें ये आभास हुआ कि बात अभी उतनी नहीं बिगड़ी है.”
भारत-चीन युद्ध
19 भारतीय सैनिकों की मौत
चीन से लौटने के बाद अजय घोष ने ‘न्यू एज’ अख़बार को एक इंटरव्यू दिया जिसमें उन्होंने बताया कि “चेयरमेन माओ ने हमारी बातों को बहुत धैर्य से सुना और इस बात से सहमत हुए कि भारत चीन संबंधों के बारे में चिंता करना स्वाभाविक है.”
“लेकिन इन मतभेदों को आपसी समझबूझ से सुलझा लिया जाना चाहिए. जब तक याँगसीकियाँग और गंगा का पानी बहता रहेगा, भारत चीन दोस्ती जारी रहेगी.”
लेकिन जिस शुक्रवार को ये इंटरव्यू प्रकाशित हुआ उसी दिन ख़बर आई कि कोंगका पास के पास चीनी सैनिकों ने घात लगाकर हमला किया जिसमें भारत के 19 सैनिकों मारे गए.
मोहित सेन लिखते हैं, “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने अपने चीनी समकक्षों से इसका स्पष्टीकरण माँगा लेकिन वहाँ से इसकी कोई सफ़ाई नहीं दी गई. सीपीआई के नेतृत्व ने अपील की कि इस ख़ूनख़राबे पर चीनियों को दुख प्रकट करना चाहिए.
लेकिन भारत में चीनी दूतावास के अधिकारियों ने उन्हें सूचित किया कि आक्रामक और प्रतिक्रियावादी सेना के सैनिकों की मौत पर कोई दुख प्रकट नहीं किया जाएगा.”
पार्टी में चीन को लेकर गहरे मतभेद
इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में भारत चीन संबंधों को लेकर गहरे मतभेद उभरने शुरू हो गए थे. श्रीपद अमृत डांगे और एसजी सरदेसाई ने ज़्यादातर कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा चीन की सार्वजनिक रूप से आलोचना न किए जाने के रुख़ का विरोध किया.
लेकिन सुंदरैया के नेतृत्व में पार्टी के एक प्रभावशाली वर्ग की नज़र में इस मामले में चीन की कोई ग़लती नहीं थी. विद्युत चक्रवर्ती अपनी किताब इंडियन कम्यूनिज़्म में लिखते हैं, “सुंदरैया ने नक्शों और पुराने कागज़ातों के आधार पर ये सिद्ध करने की कोशिश की कि चीन के दावों में सच्चाई है.
उन्होंने ज़ोर दे कर कहा कि चीनी कम्युनिस्ट कभी भी आक्रामक रुख़ नहीं अपनाएंगे जबकि भारत की बुर्जुआ सरकार साम्राज्यवादियों का समर्थन लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. हमारा किसी भी हालत में नेहरू की प्रतिक्रियावादी सरकार के पीछे खड़े होने का सवाल नहीं उठता. सीपीआई ने हमेशा उनका विरोध और उन्हें सत्ता से हटाने का प्रयास किया है.
इस मुहिम में उनको बीटी रणदिवे, एम बासवपुनैया, प्रमोद दासगुप्ता और हरकिशन सिंह सुरजीत का समर्थन मिला. अजय घोष ने सुंदरैया की दलीलों का विरोध किया और राजेश्वर राव, भूपेश गुप्त, एमएन गोविंदन नायर और अच्युत मेनन उनके समर्थन में खड़े हो गए.”
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अमृत डांगे खुलेआम चीनियों के विरोध में उतरे
भारत पर चीन के हमले के तुरंत बाद ईएमएस नंबूदरीपाद ने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया. श्रीपद अमृत डांगे को, जो उस समय दिल्ली में रह रहे थे, इस बारे में कोई सूचना नहीं दी गई.
मोहित सेन अपनी आत्मकथा ‘अ ट्रैवलर एंड द रोड’ में लिखते हैं, “संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों ने ईएमएस से पूछा आप चीनी हमले के बारे में क्या सोचते हैं? उन्होंने जवाब दिया कि चीनी उस क्षेत्र में घुसे हैं जिसे वो अपना समझते हैं. भारतीय भी उस ज़मीन की हिफ़ाज़त करने में लगे है जो उनकी नज़रों में उनकी है.”
“नम्बूदरीपाद जवाब दे ही रहे थे कि वहाँ डांगे ने प्रवेश किया और व्यंग्यात्मक शैली में ईएमएस से पूछा, इस ज़मीन के बारे में आपकी खुद की राय क्या है? इससे पहले की ईएमएस कोई जवाब देते, डांगे ने कहा ‘चीनियों ने न सिर्फ़ भारत पर हमला किया है, बल्कि उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा किया है. कम्युनिस्ट देश की रक्षा करने के नेहरू की अपील और चीनियों को उचित जवाब देने का समर्थन करते हैं. उनके इस वक्तव्य से कम्युनिस्टों के गलियारों में सनसनी फैल गई.”
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निकिता ख्रुश्चेव
सोवियत कम्युनिस्ट चीन के विरोध में उतरे
डांगे यहाँ पर ही नहीं रुके. उन्होंने मॉस्को और दुनिया के दूसरे देशों में जाकर सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी और दुनिया की दूसरी कम्युनिस्ट पार्टियों से बात कर चीन के नेतृत्व की घोर आलोचना की और उनसे भारत के समर्थन में खड़े होने का अनुरोध किया.
चीन ने इसके जवाब में सभी ‘सच्चे कम्युनिस्टों’ से कहा कि वो नेहरू की सरकार का न सिर्फ़ विरोध करें बल्कि उसको हटवाने में भी मदद करें. इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई जिसमें डांगे द्वारा उठाए गए कदम का समर्थन किया गया.
लेकिन कुछ नेताओं ने जिसमें सुंदरैया, प्रमोद दासगुप्ता और रणदिवे शामिल थे, उस प्रस्ताव का विरोध किया. इनमें से एक समूह तटस्थ था जो चाहता था कि पार्टी न तो चीनी कम्युनिस्टों का समर्थन करे और न ही उनकी निंदा करे.
इनको भूपेश गुप्त और नम्बूदरीपाद का समर्थन प्राप्त था. गोपाल बनर्जी ने डांगे की जीवनी में लिखा, “डांगे की स्थिति उस समय और मज़बूत हो गई जब सोवियत समाचार एजेंसी तास में छपे संपादकीय में चीनियों की घोर आलोचना के साथ साथ नेहरू की तारीफ़ की गई. साथ ही भारतीय इलाके से चीन की सेना के हटाने की माँग की गई.”
“ख्रुश्चेव ने चीनी नेताओं माओ और चू एन लाई से संपर्क कर कहा कि अगर चीनी सैनिक भारतीय क्षेत्र से नहीं हटे तो वो चीन को तेल की आपूर्ति रोक देंगे. सोवियत धमकी की वजह से ही चीन ने एकतरफ़ा युद्धविराम की घोषणा कर दी.”
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डेंग ज़ियाओ पिंग
चीन की सलाह पर पार्टी में विभाजन
डाँगे के रुख से असहमति रखने वाले कुछ नेताओं ने बाद में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया. वो अपने इस विचार पर कायम रहे कि चीन ने भारत पर हमला कर कोई ग़लती नहीं की है.
ए जी नूरानी ने लिखा, “चीनी हमले का एक असर ये हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी का एक वर्ग कट्टरपन से हट कर राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर हुआ जबकि दूसरे वर्ग ने न तो कट्टर विचारधारा का त्याग किया बल्कि पार्टी में ‘बुर्जुआ राष्ट्रवाद’ के प्रतिनिधियों का सख़्त विरोध करना जारी रखा.
कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता हरेकृष्ण कोनार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से मिलने चीन गए. वहाँ चीनियों ने उन्हें सलाह दी कि पार्टी में विभाजन हो जाना चाहिए. उन्होंने माओ को उद्धत करते हुए कहा, ‘एक को हमेशा दो हो जाना चाहिए. दो कभी एक नहीं हो सकता.'”
साल 1964 में पार्टी में हुए विभाजन के बाद कई लोगों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बना ली. पश्चिम बंगाल और केरल के अधिकतर नेता उनके साथ गए. आंध्र प्रदेश में करीब आधे लोग सीपीएम में चले गए.
दोनों पक्षों में कुछ नेता जैसे भूपेश गुप्त और नम्बूदरीपाद विभाजन नहीं चाहते थे. वैचारिक रूप से नम्बूदरीपाद विभाजन के खिलाफ़ थे लेकिन डांगे से उनका वैमनस्य उन्हें दूसरी पार्टी में ले गया.
एके गोपालन की विचारधारा राष्ट्रवादी थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने वहीं पार्टी चुनी जो उनके नेता नम्बूदरीपाद ने.
उधर, डेंग ज़ियाओ पिंग के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ द्वारा लिए गए कई फ़ैसलों को पलटा लेकिन भारत के साथ टकराव के बारे में उसका आधिकारिक रुख़ वही रहा जो माओ के ज़माने में था कि ‘भारत को सबक सिखाया जाना था.
@रेहान फ़ज़ल
सनातन विरोधी भूमिका क्यों रही वामपंथियों की
भारत में वामपंथियों की सोच राष्ट्रीय भावनाओं से अलग ही नहीं उसके एकदम विरूद्ध रही है।भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ वामपंथी अंग्रेजों के साथ खड़े थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ‘तोजो का कुत्ता’ वामपंथियों ने ही कहा था।
मुस्लिम लीग की देश विभाजन की मांग का भारी समर्थन वामपंथी कर रहे थे। आजादी के क्षणों में नेहरू को ‘साम्राज्यवादियों’ का दलाल वामपंथियों ने घोषित किया।
भारत पर चीन के आक्रमण के समय वामपंथियों की भावना चीन के साथ थी।
अंग्रेजों के समय से सत्ता में भागीदारी पाने के लिए वे राष्ट्र-विरोधी मानसिकता का विषवमन सदैव से करते रहे। वामपंथियों ने गांधी को ‘खलनायक’ और जिन्ना को ‘नायक’ की उपाधि दे दी थी। खंडित भारत को स्वतंत्रता मिलते ही वामपंथी हैदराबाद के निजाम के लिए पाकिस्तान में मिलाने को लड़ रहे मुस्लिम रजाकारों की मदद से अपने लिए स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बनाने की कोशिश की।
वामपंथियों ने भारत की क्षेत्रीय, भाषाई विविधता उभारने एवं इनके आधार पर देशवासियों को आपस में लड़ाने की रणनीति बनाई। 24 मार्च, 1943 को भारत के अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने टिप्पणी लिखी कि ”भारतीय कम्युनिस्टों का चरित्र ऐसा कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, किसी के सगे नहीं हो सकते,सिवाय अपने स्वार्थों के।”
भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले गांधी और उनकी कांग्रेस को ब्रिटिश दासता के विरूध्द भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जयप्रकाश नारायण,राममनोहर लोहिया,अच्युत पटवर्धन जैसे देशभक्तों पर वामपंथियों ने ‘देशद्रोही’ का ठप्पा लगाया। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच कभी दोस्ताना लडाई चल चुकी हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता था। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतांत्रिक पार्टी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं।
भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धड़ों का मानना है कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।
देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता कामरेड प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है।
अपनी पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के एक अंक में
उन्होंने लिखा था कि देश की कारपोरेट मीडिया,संयुक्त राज्य
अमेरिका,दुनिया के हथियार ऐजेंट और आरएसएस के
गठजोड़ के कारण चीन के साथ भारत का गतिरोध दिख
रहा है,वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं था।
करात के उस आलेख का कुल सारांश है कि चीन तो भारत
का सच्चा दोस्त है लेकिन आरएसएस के लोग देश के जानी दुश्मन है।
साम्यवादियों के सबसे बडे दुश्मन के रूप में आरएसएस चिन्हित है। गाहे बगाहे ये उनके खिलाफ अभियान भी चलाते रहते हैं।
संत लक्ष्मणानंद की हत्या कम्युनिस्टों और ईसाई मिशनरी गठजोड़ का प्रमाण थी। केरल,आंध्र प्रदेश,उडीसा,बिहार और झारखंड,छत्तीसगढ, त्रिपुरा यानी जहाँ भी साम्यवादी हावी हैं
वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं और आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है।
देश की अस्मिता की बात करने वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर साम्यवादी चरमपंथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के
साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है। चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने
दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं,जिन्होंने सन 62 की लडाई में हथियार कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था,जिन्होंने कारगिल की लडाई को भाजपा का षडयंत्र बताया था,जिन्होंने पाकिस्तान निर्माण को जायज ठहराया था,जो भारत को विभिन्न संस्कृति का समूह मानते हैं,जो मानते हैं कि आज भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त करा सकती है,जो बाबा पशुपतिनाथ मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे थे, जो महान संत लक्ष्मणानंद सरस्वती को आतंकवादी ठहराते हैं, जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर किसानों की हत्या करा रहे हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा।
साम्यवादी प्रकाश करात को चीन नजदीक और राष्ट्रवादी दुश्मन लगने लगे हैं। यह करात नहीं चीन का एजेंडा भारतीय मुंह से कहलवाया जा रहा है। आलेख की व्याख्या से साफ लगता है कि करात सरीखे साम्यवादी चीनी सहायता से भारत के लोकतंत्र का गला घोटना चाहते हैं।
भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी माओवादी ने अपने एक बयान में कहा था कि हमें किसी देश का एजेंट नहीं समझा जाये लेकिन उसके पास से मिलने वाले हथियार चीन के बने होते हैं। चीन लगातार अरूणांचल, कश्मीर, सिक्किम पर विवाद खडा कर रहा है,नेपाल में भारत के खिलाफ अभियान चला रहा है, पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भडका रहा है, अफगानिस्तान में तालिबानियों को सह दे रहा है फिर भी करात के नजर में चीन भारत का सच्चा दोस्त है। आज पूरी दुनियां ड्रैगन के आतंक से भयभीत है लेकिन भारतीय साम्यवादियों को ड्रैगन का खौफ नहीं उसकी पूंछ पर लगी कम्युनिज्म की लाल झंडी दिखाई दे रही है।
पेकिंग को साम्यवादी मक्का और चीन को साम्यवादी शक्ति का केन्द्र मानने वाले प्रकाश करात अपने आलेख में लिखते हैं कि पश्चिमी देश आरएसएस के माध्यम से षडयंत्र कर भारत को चीन के साथ लड़ाना चाहता है।
करात के इस आलेख की कूटनीतिक मीमांसा की जाये तो यहज्ञलेख केवल करात का लेख नहीं माना जाना चाहिए। इसके पीछे आने वाले समय में चीन की रणनीति की झलक देखी जानी चाहिए।
अगर चीनी विदेश मंत्रालय के भारत पर दिये गये बयान देखें तो कुछ इसी प्रकार की बातें चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी कहते रहे हैं। चीनी विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत की मीडिया पूंजीपरस्तों के हाथ का खिलौना है। इसी से वह भारत और चीन के संबंधों को बिगाडने का प्रयास करता है। चीन ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा है जिससे भारत को डरना चाहिए। लेकिन कार्यरूप में चीनी सेना ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। भारतीय सीमा में आकर पत्थरों पर चीन लिख,भारतीय वायु सीमा का चीनी वायु सेना ने उल्लंघन किया, दलाई लामा के तवांग प्रवास पर चीन ने आपत्ति जताई और कश्मीरियों और अरुणाचल वासियों को अलग से चीनी वीजा देने जैसी हरकतें । ये तमाम प्रमाण भारत के खिलाफ चीनी कूटनीतिक आक्रमण के हैं, बावजूद साम्यवादी करात के लिए चीन भारत का सच्चा दोस्त है।
करात ने आलेख से केवल अपना विचार नहीं प्रकट नहीं किया अपितु संबंधित संगठनों को धमकाया भी। चीन से आज दुनिया भयभीत है। चीन से जिस किसी देश की सीमा लग रही है उसके साथ चीन का गतिरोध
है। चीनी दुनिया में चौधराहट स्थापित करने और साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार को लगातर प्रयत्नशील है।
कुल मिलाकर भारत के कम्युनिस्ट चाहे जितना चीन की वकालत कर लें लेकिन चीन तो चीन है जिसके बारे में नेपोलियन ने कहा था इस राक्षस को सोने दो अगर जगा तो यह दुनिया के लिए खतरा उत्पन्न करेगा।
पाकिस्तान बनवाने के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करने वाले भारतीय कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढऩे लगती है। अत: प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि ‘हिन्दू धर्म को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।’ अन्यज्ञकम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है।
सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान
किया है कि वह कश्मीर को ‘स्वतंत्र देश’ बनाने के संघर्ष में
भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक
अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से
ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं, ‘लेट गो आफ कश्मीर’-यानी, कश्मीर को जाने दो। इसलिए कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों की भागीदारी न भी हो, यह तथ्य तो सामने आया ही है कि जिन ईसाई मिशनरी गिरोहों ने यह कार्य किया,उनमें पुराने माओवादी भी हैं। पर ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय वामपंथियों ने इस पर कोई चिंता नहीं प्रकट की,जबकि उसके बाद मिशनरियों के विरूद्ध हुई हिंसा पर तीखी प्रतिक्रिया की। यह ठीक गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर बयानबाजी का दुहराव है। तब भी साबरमती एक्सप्रेस में 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाने वाली मूल घटना गुम कर दी गई, और केवल उसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा की ही चर्चा की जाती रही।
ये उसी हिन्दू विरोधी मनोवृत्ति की अभिव्यक्तियां हैंज्ञजो यहां वामपंथ की मूल पहचान हैं।
पिछले दस वर्षों में कई वामपंथी अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठनों के एजेंट बन चुके हैं। सोवियत विघटन के बाद से वे भौतिक-वैचारिक रूप से अनाथ हो गए थे। इस रिक्तता को उन्होंने साधन-सत्ता संपन्न मिशनरियों से भर लिया है। वे वंचितों, वनवासियों का संगठित व अवैध मतांतरण कराने का उग्र बचाव करते हैं।
विदित है कि भारत में सुनामी हो,गुजरात का भूकंप, केदारनाथ में तबाही या आन्ध्र में तबाही,जब भी विपदाएं
आती हैं तो दुनिया भर के मिशनरियों के मुंह से लार टपकने
लगती है,कि अब उन्हें ‘आत्माओं की फसल’ काटने का अवसर मिलेगा। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए
मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख कभी नहीं होता। हिन्दू
संस्थाओं के संदर्भ में यह दोहरापन क्यों? यदि मिशनरी ‘सेवा’ करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करते हैं, तो ठीक। किंतु जब हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन घर-वापसी कार्यक्रम चलाकर उन्हें पुन: हिन्दू धारा में वापस लाते हैं, तो गलत। यह कैसा मानदंड है?
चूंकि कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद पराजित हो चुका है, इसलिए हमारे कम्युनिस्टों ने अपनी बची-खुची शक्ति ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवाद को मदद पहुंचाने में लगा दी है। इसका सबसे भयानक परिणाम केरल में देखने को मिल रहा है। कम से कम इससे उन्हें अपने शत्रु ‘हिन्दुत्व को कमजोर करने का सुख तो मिलता है।
इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर
मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से
मतलब है,न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस
प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है।ज्ञमिशनरी एजेंसियाँ चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामकनहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीयहितों के विरूद्ध मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े
दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वामपंथी दलों में आंतरिक कलह,अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की पराकाष्ठा,पश्चिम बंगाल में राशन के लिए दंगा, देश की लगभग हर मुसीबत में विपरीत बातें करना,चरम पर भ्रष्टाचार, देशविरोधी हरकतें,विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सरेआम हत्या जैसे वाकयों को लेकर वामपंथ बेनकाब हो चुका है।
पूरी दुनिया से धीरे-धीरे समाप्त होने के बाद अब इनका दमनकारी शासन केवल चीन में बचा रह गया है और अब यह भारत में भी अन्तिम साँसें ले रहा है।
@एस के बर्मन