कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं पर कांग्रेस जीती तो मुख्यमंत्री बन पाएंगे हरीश रावत

उत्तराखंड कांग्रेस की य​दि सत्ता में वापसी हुई तो क्या फिर मुख्यमंत्री बन पाएंगे हरीश रावत

राजेश डोबरियाल

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के लिए सत्ताधारी भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस में टिकटों का बंटवारा नामांकन दाखिल करने के आख़िरी दिन शुक्रवार को पूरा हो गया.

भाजपा मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर धामी के चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरी है, लेकिन कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से अपने मुख्यमंत्री प्रत्याशी का एलान नहीं किया है.

हालांकि चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष हरीश रावत कई बार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ख़ुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बता चुके हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह कांग्रेस को सत्ता में वापस ला पाएंगे?

क़रीब 21 साल पहले 2 नवंबर, 2000 को अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य में इस समय पांचवीं विधानसभा के लिए चुनाव प्रक्रिया चल रही है. 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. 2007 में भाजपा की सरकार बनी, तो 2012 में फिर से कांग्रेस सत्ता में आ गई

सत्ताधारी पार्टी के सत्ता में न लौटने के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने 2017 में मोदी लहर में 70 में से 57 सीटें जीत लीं और प्रचंड बहुमत से अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही.

ऐसे में सवाल यह है कि क्या 2022 में भी यह परंपरा क़ायम रहेगी? लेकिन इसका पता तो 10 मार्च को ही चल पाएगा, जब विधानसभा चुनाव के परिणाम आएंगे.

चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता हरीश रावत दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी की सत्ता में वापसी हो जाएगी और वे मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन  मुख्यमंत्री रहते 2017 में दोनों सीटों से चुनाव हारने वाले हरीश रावत क्या ऐसा कर पाने में कामयाब होंगे?

हरीश रावत अभी उत्तराखंड कांग्रेस की चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष हैं. वे साल भर से भी ज़्यादा समय से मांग करते रहे हैं कि कांग्रेस को राज्य में अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम का एलान कर देना चाहिए, पर पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने उनकी इस मांग का समर्थन नहीं किया.

इस दौरान हरीश रावत बार-बार परोक्ष रूप से मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते रहे हैं. वे पिछले साल भर से सोशल मीडिया पर बताते रहे कि जब वे मुख्यमंत्री थे तो उनकी सरकार ने कौन-कौन से काम किए और भाजपा ने कैसे उनकी योजनाएं रोक दीं.

हरीश रावत

सोशल मीडिया के ज़रिए ही वे कहते रहे कि कांग्रेस की सरकार बनने पर वे कई तरह की योजनाओं पर काम करेंगे. एक से ज़्यादा बार उन्होंने यह कहकर अपनी दावेदारी पेश की कि मुख्यमंत्री के अलावा सरकार में उनकी कोई और भूमिका नहीं हो सकती.

कांग्रेस ने उन्हें राज्य की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष तो बनाया, लेकिन मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में उनके नाम का एलान नहीं किया. इसके बावजूद, हरीश रावत ने हार नहीं मानी और लगातार अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं.

23 जनवरी को अपने फ़ेसबुक पोस्ट में उन्होंने लिखा, ”मुझे इस बार यदि मुख्यमंत्री बनना है तो 2015-16 की राजनीतिक स्थिति से बचना चाहूंगा. इस बार यदि मैं मुख्यमंत्री बनता हूं तो मुझे वो सारी योजनाएं और सोच पांच वर्ष में धरातल पर उतारनी पड़ेंगी जिनके लिए आप मुझे अपनी पसंद बता रहे हैं. मेरे जीवन की अब तक की सारी राजनीतिक पूंजी इस चुनाव में दांव पर है.मैं जानता हूं जनता यदि प्रेम जताती है तो निराश होने पर उससे कई गुना ज्यादा क्रोध भी जताती है या क्रोध कभी-कभी निराशाजन्य घृणा में बदल जाता है. मैं केवल मुख्यमंत्री बनने के लिए मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहूंगा.मैं जानता हूं यदि मेरे पक्ष में अच्छा बहुमत नहीं होगा तो मुख्यमंत्री बनना भी कठिन होगा और सरकार को चलने भी नहीं दिया जाएगा. यदि आपको मेरे मुख्यमंत्री बनने में उत्तराखंड और उत्तराखंडियत का हित दिखाई देता है तो मुझे खुला और भरपूर आशीर्वाद दीजिए.”

इस बार कोई चूक नहीं करना चाहते रावत

राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह चुनाव हरीश रावत का आख़िरी चुनाव भी हो सकता है. हरीश रावत भी यह बात समझते हैं. इसलिए इस बार वे कोई चांस नहीं ले रहे. 2002 और 2012 में प्रबल दावेदारी के बावजूद वह मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे.2002 में उनकी दावेदारी को दरकिनार कर कांग्रेस हाईकमान ने नारायण दत्त तिवारी को राजनीतिक वनवास से उठाकर राज्य का मुख्यमंत्री बनाया था, जबकि उनकी कोई दावेदारी भी नहीं थी.उसी तरह 2012 में भी विजय बहुगुणा दिल्ली से अपॉइंटमेंट लेटर लेकर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए.

हरीश रावत ने इस बार सबसे पहले पार्टी के अंदर के अपने विरोधियों को हटाने पर ध्यान दिया ताकि बाद में उन्हें कोई दिक़्क़त न हो.

पार्टी की वरिष्ठ नेता डॉक्टर इंदिरा हृदयेश का पिछले साल जून में निधन हो गया. वह उत्तराखंड कांग्रेस में हरीश रावत के ख़िलाफ़ सबसे मुखर और मजबूत आवाज़ थीं.

वहीं पार्टी में एक अलग धुरी माने जाने वाले और हरीश रावत के मुखर विरोधी पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय अलग-थलग पड़ गए. पार्टी ने पहले तो उन्हें सभी पदों से हटा दिया और फिर कांग्रेस से निकाल ही दिया.आखिर ‘मरता क्या न करता’ अंदाज में वे अब भाजपा टिकट पर टिहरी से चुनाव लड़ रहे हैं।

पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और चौथी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह खुलकर तो हरीश रावत का विरोध नहीं करते, लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि उन्हीं के चलते कांग्रेस ने हरीश रावत को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया.

पार्टी में चल रही इस खींचतान के बीच हरीश रावत ने 22 दिसंबर, 2021 को एक ट्वीट किया. उन्होंने लिखा, “है न अजीब सी बात, चुनाव रूपी समुद्र को तैरना है, सहयोग के लिए संगठन का ढांचा अधिकांश स्थानों पर सहयोग का हाथ आगे बढ़ाने के बजाय या तो मुंह फेर करके खड़ा हो जा रहा है या नकारात्मक भूमिका निभा रहा है. जिस समुद्र में तैरना है, सत्ता ने वहां कई मगरमच्छ छोड़ रखे हैं. जिनके आदेश पर तैरना है, उनके नुमाइंदे मेरे हाथ-पांव बांध रहे हैं. मन में बहुत बार विचार आ रहा है कि ‘#हरीश_रावत’ अब बहुत हो गया, बहुत तैर लिए, अब विश्राम का समय है.”

जैसी कि उम्मीद थी कांग्रेस में इससे हड़कंप मच गया. कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखंड में पार्टी के प्रभारी देवेंद्र यादव समेत तमाम वरिष्ठ नेताओं को दिल्ली बुलाया और चर्चा की. उसके बाद हरीश रावत जब उत्तराखंड लौटे तो ढोल बजाते हुए. उन्होंने साफ़ संकेत दिए कि चुनाव में वही लीड करेंगे. हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षक ऐसा नहीं मानते.

कोई उन्हें नहीं मान रहा मुख्यमंत्री उम्मीदवार

वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर अजय ढौंडियाल कहते हैं कि ”जैसा दिखाया गया, वैसा था नहीं. हरीश रावत जब दिल्ली से ढोल बजाते हुए लौटे तो उनके साथ कौन-सा बड़ा नेता था? बस उनके कुछ समर्थक ही थे.”

ढौंडियाल यह भी ध्यान दिलाते हैं कि सिर्फ़ हरीश रावत ही यह कह रहे हैं कि वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं, कोई और नहीं. न पार्टी आलाकमान ने ऐसा कहा और न ही प्रदेश के किसी और नेता ने.

वे यह भी कहते हैं कि हरीश रावत ने किशोर उपाध्याय, उत्तराखंड महिला कांग्रेस की प्रमुख सरिता आर्य जैसे वरिष्ठ नेताओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि उनके जाने की भूमिका ही तैयार की.

हरीश रावत ने रामनगर में कांग्रेस के दिग्गज नेता और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रणजीत रावत को टिकट नहीं मिलने दिया. पहले तो ख़ुद वहां का टिकट ले लिया, फिर वहां से लालकुआं चले गए, लेकिन रणजीत रावत को भी रामनगर की बजाय सल्ट भिजवा दिया.

डॉक्टर ढौंडियाल कहते हैं कि हरीश रावत इस बार सिर्फ़ अपने और अपने परिवार के बारे में सोच रहे हैं. ‘एकला चलो रे’ या जैसा कि भगत सिंह कोश्यारी कहते थे- ‘एकलु बांदर’ वाली उनकी राजनीति पार्टी के लिए अच्छी नहीं है.

पार्टी आलाकमान से ऊपर नहीं

राजनीतिक पर्यवेक्षक डॉक्टर सुभाष गुप्ता कहते हैं कि यह ठीक है कि हरीश रावत इस समय पार्टी में सबसे मज़बूत नेता के रूप में सामने हैं, टिकट बंटवारे में भी उनकी ठीक-ठाक चली, लेकिन विरोध करने वालों के लिए भी कांग्रेस में जगह है.

वे कहते हैं कि ”देखिए टिकटों में बदलाव हुए और उनके चाहते, न चाहते हुए भी पार्टी में लोगों (हरक सिंह रावत और अनुकृति गुसाईं) का प्रवेश हुआ और उनकी पसंद से टिकट भी मिले. इससे यह कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति नहीं है कि हरीश रावत यह मुग़ालता पाल लें कि वह पार्टी आलाकमान से भी ऊपर निकल गए हैं.”

हालांकि डॉक्टर गुप्ता यह भी कहते हैं कि ”हरीश रावत गंभीर नेता हैं. ऐसा नहीं कि वह पार्टी आलाकमान को आंखें तरेरकर मैदान में हैं. वह ख़ुद भी कहते रहे हैं कि पार्टी के सिपाही के रूप में मैदान में हैं और यह दिख रहा है कि पार्टी के दूसरे प्रत्याशियों के पक्ष में भी प्रचार करके वोट मांग रहे हैं.”

हरीश रावत पार्टी नेताओं के साथ
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2017 वाले न हरीश रावत हैं न कांग्रेस

वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट कहते हैं कि इस समय हरीश रावत प्रदेश के सबसे मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन 2017 के मुक़ाबले उनकी स्थिति बेहतर है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. 2017 में जब वे चुनाव में उतरे थे, तब पार्टी में उनकी पकड़ मजबूत थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है.भट्ट कहते हैं कि 2002 में जब कांग्रेस चुनाव जीती थी, तब कांग्रेस अध्यक्ष के नााते  पहली दावेदारी हरीश रावत की थी, लेकिन उन्हें मौक़ा नहीं मिला.

इसी तरह 2012 में भी उनकी जगह विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना दिया गया, लेकिन नाराज़गी दिखाने के सिवा हरीश रावत कुछ कर नहीं पाए. इसकी वजह यह है कि तब आलाकमान मज़बूत था और अब कांग्रेस नेतृत्व में ही बिखराव की स्थिति है.

भट्ट कहते हैं कि 14 फ़रवरी को मतदान के बाद कांग्रेस में एक बार फिर नए समीकरण बन सकते हैं, क्योंकि तब चुनाव में नुक़सान का डर नहीं रह जाएगा.

उत्तराखंडियत की पहचान


हालांकि योगेश भट्ट यह भी कहते हैं कि हरीश रावत के कार्यकाल में उत्तराखंड के उत्पादों, उत्तराखंड की पहचान को लेकर कई अच्छी योजनाएं शुरू की गई थीं. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि राज्य को ऐसे मुुुख्यमंत्री की ज़रूरत है जिसे उत्तराखंड और उत्तराखंडियत की अच्छी समझ हो.

डॉक्टर अजय ढौंडियाल भी इस बात से सहमत नज़र आते हैं. वह कहते हैं कि ”जब उत्तराखंड के उत्पादों की, संस्कृति की, समझ की, बात होती है, तो हरीश रावत लीड लेते दिखते हैं. वहां भाजपा उनकी नकल करती नज़र आती है. उत्तराखंडियत की बात होती है, तो हरीश रावत का चेहरा नज़र आता है.”

ढौंडियाल कहते हैं, ”लेकिन विडंबना देखिए कि इन्हीं हरीश रावत को अब पहाड़ चढ़ते डर लगता है. चुनाव लड़ने के लिए वे मैदान की कोई सीट ढ़ूंढते हैं. 1991 के लोकसभा चुनाव से पहाड़ ने उन्हें जो नकारा, वह मूड 2019 के लोकसभा चुनाव तक क़ायम रहा.”

हरीश रावत
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इस बार टक्कर का है मुक़ाबला

इस बारे में डॉक्टर सुभाष गुप्ता कहते हैं कि ”इस बार मुक़ाबला बहुत दिलचस्प है. मामला टक्कर का है. कांग्रेस में गुटबाज़ी बहुत है और जब विपक्षी पार्टी में गुटबाज़ी होती है, तो वह सत्ता विरोधी रुझान का पूरा फ़ायदा नहीं उठा पाती.”

जहां तक सवाल हरीश रावत के कांग्रेस को सत्ता में लाने का है, यह स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति अकेले पार्टी को नहीं जितवा सकता. हरीश रावत अगर सबको साथ लेकर चलने में कामयाब हो पाते हैं, तो कांग्रेस की जीत की राह उतनी मुश्किल नहीं होगी जितनी आज के दौर में दिख रही है.

डॉक्टर ढौंडियाल कहते हैं कि ”कांग्रेस अगर जीतती है, तो यह पार्टी के उम्मीदवारों के चलते होगा. ज़मीन पर पकड़ वाले मज़बूत कार्यकर्ता और नेता अपने चुनाव ख़ुद जीतेंगे. प्रदेश में कहीं भी कोई भी नेता हरीश रावत के नाम पर चुनाव नहीं लड़ रहा और न ही हरीश रावत किसी को जितवा रहे हैं.”

यह सही है कि हरीश रावत अपने कई समर्थकों को टिकट दिलवाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन ज़्यादातर पार्टी के पुराने कार्यकर्ता और जीतने वाले उम्मीदवार हैं, सिवाय हरिद्वार ग्रामीण में उनकी बेटी अनुपमा रावत के.

हरीश रावत की खीरा पार्टी में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत

 

योगेश भट्ट कहते हैं कि ”यह कांग्रेस और भाजपा का भी फ़र्क है. भाजपा में चुनाव पार्टी लड़ती है, संगठन लड़ता है. दूसरी ओर, कांग्रेस में चुनाव ख़ुद प्रत्याशी लड़ता है. वही संसाधन भी जुटाएगा और दौड़-भाग भी करेगा. कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो अपने बूते चुनाव लड़ और जीत सकते हैं.’

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