विवेचना:दोगले अमेरिका से टकराने का इतिहास रहा है भारत का

विवेचना:भारत को रोक रहा, लेकिन खुद रूस से 43% ज्यादा तेल खरीदा; अमेरिका ने इसी चालाकी से कई देशों की इकोनॉमी तबाह की

बीते रविवार को रूसी सुरक्षा काउंसिल के डिप्टी सेक्रेटरी मिखाइल पोपोव ने अपने दावे से भारत समेत पूरी दुनिया को हैरान कर दिया। अपने दावे में सेक्रेटरी मिखाइल पोपोव ने कहा, ‘यूक्रेन युद्ध के दौरान ही पिछले सप्ताह अमेरिका ने रूस से 43% ज्यादा, यानी हर रोज 1 लाख बैरल तेल खरीदा है।’

इसके बाद दुनियाभर के लोग अमेरिका के दोहरे चरित्र पर सवाल उठा रहे हैं। लोगों का कहना है कि अमेरिका रोज रूस पर प्रतिबंध लगाकर भारत समेत दूसरे देशों को उससे व्यापार करने से रोक रहा है, लेकिन खुद वहां से ज्यादा तेल खरीद रहा है। न सिर्फ अमेरिका बल्कि यूरोप से भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं।

ऐसे में सबसे पहले जानते हैं कि जंग के बीच कैसे अमेरिका और यूरोपीय देशों के डबल स्टैंडर्ड सामने आए हैं? कोई देश किसी दूसरे देश पर कैसे पाबंदी लगाता है? इससे पहले पाबंदियों के नाम पर अमेरिका ने कैसे कई देशों की इकोनॉमी को तबाह किया था? भारत ने कैसे कई मौकों पर अमेरिकी दबाव के बावजूद देशहित में फैसला लिया है?

जंग के बीच अमेरिका और यूरोपीय देशों का डबल स्टैंडर्ड सामने आया है

रूसी सेना यूक्रेन के शहरों में तबाही मचा रही है। इसके विरोध में अमेरिका पाबंदियों के जरिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर लगाम लगाने के दावे कर रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन समेत दूसरे यूरोपीय देश भारत पर रूस से तेल नहीं खरीदने का दबाव बना रहे हैं। इस बीच इन ताकतवर देशों का डबल स्टैंडर्ड सामने आया है। दरअसल, रूस के एक अधिकारी ने अमेरिका के दोहरे रवैये को लेकर सवाल उठाया है।

रूसी अधिकारी ने कहा कि रूस को दुनिया से अलग करने की कोशिश करने वाले अमेरिका ने ही उससे पिछले सप्ताह 43% ज्यादा तेल खरीदा है। इससे पहले भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी एक कार्यक्रम में यूरोप द्वारा रूस से मार्च में ज्यादा तेल खरीदने की बात कही थी। उन्होंने कहा था, “फरवरी में जंग शुरू होने के बाद मार्च में यूरोप ने रूस से 15% ज्यादा तेल खरीदा है। अगर आप रूस के तेल और गैस के प्रमुख खरीददारों को देखें तो इनमें ज्यादातर यूरोपीय देश ही शामिल हैं।’

इस पर वहां मौजूद ब्रिटेन की विदेश मंत्री एलिजाबेथ ट्रस खुद का बचाव नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा, ‘भारत एक संप्रभु देश है। ऐसे में हम भारत को नहीं कह सकते कि उसे क्या करना है।’

एस. जयशंकर और एलिजाबेथ ट्रस के बीच बातचीत को यहां देखें-

 

आगे बढ़ने से पहले जानते हैं कि सैंक्शन या पाबंदी क्या होती है?

इंटरनेशनल लेवल पर सुरक्षा और शांति स्थापित कराने के लिए यूनाइटेड नेशन (UN) सैंक्शन या पाबंदियों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है। यूनाइटेड नेशन के चैप्टर 7 के आर्टिकल 41 में इस बात का जिक्र किया गया है। 1966 से अब तक UN सिक्योरिटी काउंसिल ने कुल 30 सैंक्शन लगाए हैं, जिनमें 14 अलग-अलग देशों या संस्थाओं पर पाबंदी अब भी हैं। इसी तरह कोई देश भी किसी दूसरे देश पर अपनी सुरक्षा, शांति आदि को लेकर सैंक्शन लगा सकता है।

सैंक्शन या पाबंदी मुख्य तौर पर 5 तरह की होती हैं-

1-डिप्लोमैटिक सैंक्शन
2-इकोनॉमिक और ट्रेड सैंक्शन
3-मिलिट्री सैंक्शन
4-यातायात और ट्रेवल बैन
5-तकनीकी मामलों में लेनदेन पर पाबंदी
6-पाबंदियों के उद्देश्य
किसी व्यक्ति, संस्था या देश पर सैंक्शन उसके बिहेवियर में बदलाव या उसके किसी फैसले को कंट्रोल करने के लिए लगाया जाता है।

पाबंदियों की राजनीति करने में दुनिया में 2 संगठन और एक देश का बोलबाला

दुनिया भर के देशों को पता चल गया है कि हथियार अब किसी समस्या का समाधान नहीं है। इसलिए आज के समय में कोई भी शक्तिशाली देश अपनी महत्वाकांक्षा और कूटनीतिक सफलता के लिए सैन्य बल के बजाय इकोनॉमिक सैंक्शन लगाना पसंद करते हैं। इसी वजह से अमेरिका और यूरोपियन यूनियन जैसी संस्था सैंक्शन लगाने पर ज्यादा जोर देते हैं।

दुनिया में सिर्फ दो संस्था और एक देश ऐसा है, जिसके द्वारा लगाए जाने वाले पाबंदियों का असर किसी देश की इकोनॉमी पर देखने को मिलता है। इनमें पहला यूनाइटेड नेशन है, जिसके सदस्य दुनिया के 193 देश हैं। दूसरा यूरोपीय यूनियन है, जिसके 28 देश सदस्य हैं। वहीं, तीसरे नंबर पर अमेरिका है, जिसकी बातों को NATO समेत कई छोटे देश मानते हैं।

इस वक्त EU, UN और अमेरिका ने मिलकर दुनिया के 32 देशों या संस्थाओं पर पाबंदियां लगाई हुईं हैं। अक्सर अमेरिका पर आरोप लगता है कि किसी क्षेत्र में अपना दबदबा कायम करने के लिए US आर्थिक पाबंदियों का सहारा लेता है। साथ ही वह इसे अपनी विदेश नीति की तरह इस्तेमाल करने लगा है।

ऐसे में आगे जानते हैं कि पाबंदियों के नाम पर कैसे अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों ने कई विकासशील देशों की इकोनॉमी को तबाह कर दिया है।

अमेरिका ने पाबंदियों ने जरिए किन देशों की इकोनॉमी को तबाह करने की कोशिश की है

वेनेजुएला

वेनेजुएला का आधिकारिक नाम बोलिवेरियन रिपब्लिक ऑफ वेनेजुएला है। प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न होने के बावजूद आज इस देश के ज्यादातर लोग खाने को तरस रहे हैं। इसकी वजह अमेरिका द्वारा इस देश पर 2017 से लगाई गई आर्थिक पाबंदियां हैं।

वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मदूरो पर लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का आरोप लगाते हुए, वहां 2017 में हुए प्रदर्शनों के बाद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने वेनेजुएला पर आर्थिक पाबंदी लगा दी। इसे राजनीति प्रेरित बताया जाता है। इससे महंगाई बढ़ी और खाने पीने के सामान का अभाव हो गया।
2019 में वेनेजुएला की सत्ता में बैठे निकोलस मादुरो के खिलाफ विपक्षी नेता जुआन गुएदो के नेतृत्व में एक आंदोलन हुआ।
इस आंदोलन में संसाधन संपन्न होने के बावजूद मुद्रा स्फीति, बिजली कटौती, जरूरी सामान की कमी के कारण लोगों ने विरोध किया। इस विरोध की अगुवाई विपक्षी नेता खुआन गोइदो ने की।
आंदोलन में ही गोईदो ने खुद के देश का राष्ट्रपति घोषित कर दिया, जिसे अमेरिका ने मान्यता दे दी। इस आंदोलन में पुलिस की गोली से 14 लोगों की मौत हो गई। इसके बाद अमेरिका ने प्रतिबंध और कड़े कर दिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में इन आर्थिक पांबदियों के बारे में लिखा गया था कि इससे आम लोगों के मूल मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।

क्यूबा

1960 में क्यूबा ने अमेरिका की कई कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके साथ ही अमेरिका से आने वाले सामान पर भी एक्स्ट्रा टैक्स लगा दिया। इसके बाद अमेरिका ने जवाबी कार्रवाई में क्यूबा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए।

अमेरिका को लगा कि ऐसा करने से क्यूबा कम्युनिस्ट देशों से दूर चला जाएगा। हालांकि, हुआ इसके ठीक उलट और क्यूबा को रूस हर तरह से मदद करने लगा।
क्यूबा रूस का क्लाइंट स्टेट बन गया। मतलब आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य मामलों में रूस पर निर्भर हो गया।
अमेरिका ने 1992 और 1996 में एक कानून पास कर क्यूबा पर और कड़े प्रतिबंध लगा दिए, लेकिन क्यूबा ने इसे भी झेल लिया।
बाराक ओबामा ने क्यूबा पर लगाई गई पाबंदी में ढील दी, लेकिन बाद में फिर डोनाल्ड ट्रंप ने क्यूबा को आतंक पैदा करने वाले देश की लिस्ट में डाल दिया।

ईरान

दुनिया के सबसे ज्यादा तेल भंडार वाले देशों में शामिल ईरान की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो चुकी है। दरअसल, अमेरिका नहीं चाहता है कि ईरान परमाणु शक्ति बने। इससे अब ईरान की स्थिति 1979 की इस्लामी क्रांति के दौर से भी खराब है। तब दुनिया से अलग होकर भी ईरान की वो हालत नहीं थी, जो अब हुई है।

ईरान और अमेरिका की दुश्मनी 40 साल पुरानी है। अमेरिका ने 1979 में ही ईरान पर आर्थिक पाबंदी लगा दी थी। तब से अब तक ईरान की इकोनॉमी बर्बाद हो गई है।
इस वक्त ईरान की इकोनॉमी 40 साल में सबसे खराब दौर में है। 2017 से अब तक हर साल ईरान की इकोनॉमी लगभग 1.2% की दर से ग्रोथ कर रही है।
2015 में अमेरिका और ईरान में एक डील में ईरान इस पर राजी हुआ कि वह परमाणु बम नहीं बनाएगा। हालांकि, बाद में अमेरिका ने दावा किया कि ईरान एक बार फिर से परमाणु बम बना रहा है।
2015 के बाद ईरान की इकोनॉमी में 2016 और 2017 में वृद्धि देखी गई थी। 2016 में 12.5% के दर से ईरान की इकोनॉमी बढ़ी थी, लेकिन 2019 में फिर से पाबंदी लगाए जाने के ईरान की अर्थव्यस्था तबाह हो गई।
इस दौरान जब भारत ने ईरान से तेल खरीदना जारी रखा तो अमेरिकी अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ ने लिखा था, ‘दिल्ली इज टर्निंग आउट टु बी द मुल्लाज, लास्ट बेस्ट फ्रेंड।’ इसका मतलब यह हुआ कि ‘भारत मुल्लाओं यानी ईरानियों का आखिरी दोस्त या उम्मीद रह गया है।‘

इराक

2 अगस्त 1990 को इराक ने कुवैत पर हमला कर दिया। इसके बाद अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राष्ट्र तीनों ने इराक पर पाबंदी लगी दी ताकि इराक खतरनाक हथियारों से कुवैत पर हमला करना बंद कर दे।इसके बाद इराक को कुवैत पर हमला बंद करना पड़ा था। इस पाबंदी से इराक के आम लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इस दौरान इराक में बेरोजगारी और महंगाई दोनों बेहद तेजी से बढ़ी थी। इस घटना के करीब 13 साल बाद UN ने इराक पर लगाई गई पाबंदी को हटाने का फैसला किया था।

अब किस्सा 1998 की जब अमेरिका ने भारत पर लगाई थी पाबंदी

1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया था। इसमें भारत ने गोपनीय तरीके से पोखरण में परमाणु परीक्षण किया। भारत ने इस परमाणु परीक्षण से अमेरिका समेत दुनिया भर के देशों को चौंका दिया था।

13 मई 1998 को पोखरण में परमाणु परीक्षण के बाद अटल बिहारी वाजयपेयी , डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम। (फाइल फोटो)

अमेरिका भारत के इस फैसले के खिलाफ था। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत से अपने राजदूत वापस बुलाने के साथ ही भारत पर कई तरह के इकोनॉमिक प्रतिबंध लगाए। 2001 में अमेरिका की जार्ज बुश की सरकार ने भारत पर लगाए आर्थिक पाबंदियां हटाई थी।

अमेरिका की लगाई पाबंदियों के दौरान भारत को हर तरह से आर्थिक मदद रोक दी गई थी। इससे भारत को 142 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ। अमेरिका ने भारत को सभी तरह से डिफेंस टेक्नोलॉजी देने मना कर दिया था। साथ ही अमेरिका ने वर्ल्ड बैंक से मिलने वाले लोन या मदद को लेकर भी विरोध जताया था।

कई बार अमेरिका की पाबंदियों का भारत ने दिया जवाब

अनाज संकट

1964 में भारत में अनाज का संकट हो गया था। इस समय लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे। अमेरिका से भारत आने वाले अनाज पर वहां की सरकार ने पाबंदी लगा दी। इसके बाद शास्त्री जी ने अमेरिका से मदद मांगी तो बदले में अमेरिका ने कुछ शर्तों के साथ अनाज देने की बात कही। शास्त्री जानते थे कि अमेरिका से अनाज लिया तो देश का स्वाभिमान कम हो जाएगा। ऐसे में उन्होंने सप्ताह में एक दिन उपवास करने की बात कही, लेकिन अमेरिका से अनाज नहीं लिया। अगली फसल आने के बाद देश में फिर से अनाज की कमी दूर हो गई।

बांग्लादेश विभाजन

1971 में इंदिरा गांधी की सरकार ने बांग्लादेश की आजादी के लिए सेना भेजने का फैसला किया। इसके बाद अमेरिका 14 दिसंबर 1971 को सैन्य वापसी की मांग करते हुए UN में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाया। अमेरिका के खिलाफ भारत का साथ देते हुए सोवियत रूस ने प्रस्ताव को वीटो से खत्म कर दिया। अर्जेंटीना, बेल्जियम, बुरुंडी, चीन, इटली, जापान, निकारागुआ, सिएरा लियोन, सोमालिया, सीरिया और अमेरिका ने प्रस्ताव पर भारत के खिलाफ वोट किया था।

उस वक्त अमेरिका ने भारत पर हमले के लिए अपना सातवां बेड़ा भेजा, जिसके जवाब में रूस ने भी भारत के समर्थन में अपनी नौसेना उतार दी थी। इसके साथ ही अमेरिका ने भारत को पाबंदियों की धमकी दी। इस दबाव में भी भारत नहीं झुका और बांग्लादेश आजाद हुआ।

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