ज्ञान:समुद्रों पर भी एकछत्र राज किया है भारत ने, नहीं संजोया इतिहास -1

विनाशपर्व

‘अंग्रेजों ने नष्ट किया भारत का समृध्द नौकायन उद्योग’ / १

लेखक:- प्रशांत पोळ

किसी जमाने मे भारत, विश्व व्यापार मे सिरमौर था. भारत मे बने हुए जहाज और नौकाएं, सारी दुनिया मे व्यापार के लिए जाते थे. हमारे पुरखों ने बनाएं हुए जहाज और नौकाएं, अनेक देशों मे खरीदी जाती थी. ‘सबसे अच्छे और प्रगत किस्म के जहाज बनाने वाला देश’ ऐसी हमारे देश की ख्याति थी…

किंतु अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करने के बाद, धीरे – धीरे हमारा जहाज बनाने का विश्व प्रसिध्द उद्योग नष्ट किया. उसी षडयंत्र की गाथा. . .
प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर अंगस मेडिसन ने अपने ग्रंथ ‘द हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड इकॉनोमिक्स’ में विश्व के व्यापार की परिस्थिति भिन्न – भिन्न कालखण्डों में क्या थी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाणों के साथ वर्णन किया हैं. इनके अनुसार, आज से २,००० हजार वर्ष पहले, अर्थात पहली शताब्दी में विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा ३२% था, जो वर्ष १००० में, अर्थात ग्यारहवी शताब्दी के प्रारंभ में २८% था. उन दिनों, भारत विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश था. जाहीर हैं, भारतीय व्यापारी कपड़े, मसाले, रेशम आदि माल को जहाजों में लाद कर विश्व के कोने – कोने में जाते थे.

भारत मे, समुद्री जहाज से किए हुए प्रवास को ‘नौकानयन’, ‘नौकायन’ या प्राचीन काल से ‘नवगति’ कहा जाता हैं. ‘नवगति’ यह संस्कृत शब्द हैं. इसी शब्द के आधार पर अंग्रेजी समानार्थी शब्द ‘नेविगेशन’ तैयार हुआ, ऐसा माना जाता हैं. भारत में प्राचीन समय में नौकायन शास्त्र अत्यंत उन्नत स्वरूप में था.

इसके अनेक प्रमाण भी मिलते हैं.

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में, भारतियों द्वारा समुद्री यात्रा किए जाने के अनेक उल्लेख मिलते हैं. इसमे वरुण को समुद्र का देवता कहा गया हैं. ऋग्वेद के सूक्त कहते हैं कि जहाजों (पोतों) द्वारा प्रयोग किए जाने वाले महासागरीय मार्गों का वरुण को अच्छा ज्ञान था. ऋग्वेद में इस बात का भी उल्लेख हैं की व्यापार और धन की खोज में व्यापारी, महासागर के रास्ते, दूसरे देशों में जाया करते थे.
वेद॑. यः. वी॒नाम्. प॒दम्. अ॒न्तरि॑क्षेण. पत॑ताम्. वेद॑. ना॒वः. स॒मु॒द्रियः॑॥ 1.25.7
अर्थ – (यः) जो (समुद्रियः) समुद्र अर्थात् अन्तरिक्ष वा जलमय प्रसिद्ध समुद्र में अपने पुरुषार्थ से युक्त विद्वान् मनुष्य (अन्तरिक्षेण) आकाश मार्ग से (पतताम्) जाने आने वाले (वीनाम्) विमान सब लोक वा पक्षियों के और समुद्र में जानेवाली (नावः) नौकाओं के (पदम्) रचन चालन ज्ञान और मार्ग को (वेद) जानता है वह शिल्पविद्या की सिद्धि के करने को समर्थ हो सकता है अन्य नहीं.
रामगोविंद त्रिवेदी ने ‘सायण भाष्य’ के आधार पर इसका अर्थ लगाया हैं – जो वरुण अन्तरिक्ष-चारी चिड़ियों का मार्ग और समुद्र की नौकाओं का मार्ग जानते हैं.
Ralph Thomas Hotchkin Griffith ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया हैं – He knows the path of birds that fly through heaven, and, Sovran of the sea, He knows the ships that are thereon.

विश्व का सबसे प्राचीन ‘टाइडल डॉक’ (Tidel Dock – ज्वार की गोदी), लगभग ५,००० वर्ष पहले गुजरात के ‘मांगरोल’ में बांधा गया था. तब मांगरोल यह समृध्द बंदरगाह था. आज वह जूनागढ़ जिले की छोटी से गोदी (बंदर) हैं.

भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी जब चरम पर थी, अर्थात पहली शताब्दी मे, वर्ष २३ से ७९ के बीच, ‘गेअस प्लिनस सिकंदस’ जिसे ‘प्लिनी द एल्डर’ कहा जाता हैं, ने भारत के बारे में बहुत कुछ लिख रखा हैं. अपनी मृत्यु के दो वर्ष पहले, अर्थात वर्ष ७७ में, उसने भारत के रोमन साम्राज्य से होने वाले व्यापार के बारे में विस्तृत लिख रखा हैं.

‘प्लिनी द एल्डर’ ने भारत, रोमन साम्राज्य को जो वस्तुएं निर्यात करता था, उसकी सूची भी दी हैं. यह मुख्यतः रोमन लेखक, इतिहासकार, चिंतक, विचारक, सेनानी और निसर्गप्रेमी व्यक्ति था. इसकी Naturalis Historia (नेचरल हिस्ट्री) यह पुस्तक प्रसिध्द हैं, जो मूलतः एक विश्वकोश हैं. इसकी एक और पुस्तक चर्चा में रहती हैं, जो जर्मनी के प्रवास पर आधारित हैं – De Origine et situ Germanorum (On the Origin and Situation of Germans). ‘प्लिनी द एल्ड़र’ ने रोमन साम्राज्य की नौसेना में काम किया हैं. इसी के आधार पर उसने भारतीय जहाजों की भव्यता के बारे में लिख रखा हैं.

पहली शताब्दी में ही एक ग्रीक नाविक कप्तान ने अपनी डायरी लिखी हैं, जो ‘पेरिप्लस ऑफ ईरिथ्रायीयन सी’ (Periplus of the Erythraean Sea) इस नाम से प्रसिध्द हैं. वर्ष ४० से ५० के बीच में यह डायरी लिखी गई हैं. इस मे कराची के पास, सिंधु नदी के मुहाने से लेकर तो सुदूर पूर्व मे, कोलकाता के पास, गंगा के मुहाने तक, सभी प्रमुख बंदरगांहों की सूची दी गई हैं. भडोच (भरुच) का, उन दिनों यूरोप के प्रमुख शहरों से व्यापार होता था, उसका भी वर्णन हैं. इस में उज्जैन, पैठन आदि समृध्द शहरों के भी उल्लेख मिलते हैं.

चंद्रगुप्त मौर्य के कालखंड में भारत के जहाज विश्वप्रसिद्ध थे. इन जहाज़ों के द्वारा विश्व भर में भारत का व्यापार चलता था. इस बारे में कई ताम्रपत्र और शिलालेख प्राप्त हुए हैं. बौद्ध प्रभाव वाले कालखंड में, छठी शताब्दी में, बंगाल में सिंहला (या सिंहबाहु ?) नामक राजा के शासनकाल में सात सौ यात्रियों को लेकर चले एक जहाज का, राजवालिया (Rajavalliya) में, श्रीलंका के प्रवास पर जाने का उल्लेख मिलता है. इस जहाज में राजा ने अपने पुत्र, राजकुमार विजय को श्रीलंका में भेजा था. जब विवाह करके ये जहाज वापस आया, तो उसमे, राजकुमार विजय की पत्नी, जो पाण्ड्य राजवंश की कन्या थी, के साथ ८०० यात्री थे. कुषाण काल एवं हर्षवर्धन काल में भी समुद्री व्यापार की समृद्ध परंपरा का उल्लेख मिलता है.

भारतीय नौकानयन के तथा भारतीय जहाजों के विश्वव्यापी और मजबूत पदचिन्ह यदि देखने हों तो बेरेनिके (Berenike) परियोजना का अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है. बेरेनिके, इजिप्त का सर्वाधिक प्राचीन बंदरगाह है. स्वेज नहर के दक्षिण में ८०० किमी दूर स्थित यह बंदरगाह समुद्र के पश्चिमी तट पर है.

बेरेनिके परियोजना, पुरातत्त्व उत्खनन के कई प्रकल्पों में से एक, बहुत बड़ा प्रकल्प है. इस पर १९९४ में कार्य प्रारम्भ हुआ और आज भी खुदाई जारी है. नीदरलैंड फॉर साइंटिफिक रिसर्च, नैशनल जियोग्राफी, नीदरलैंड विदेश मंत्रालय, यूनिवर्सिटी ऑफ डेलावर एवं अमेरिकन फिलोसोफिकल सोसायटी इन सभी ने संयुक्त रूप से इस परियोजना में अपना पैसा लगाया हुआ है.

ईसा पूर्व २७५ में टोलेमी-द्वितीय (Ptolemy-II) नामक इजिप्त के राजा ने लाल समुद्र के किनारे इस बंदरगाह का निर्माण किया था और उसे अपनी माता का नाम दिया – बेरेनिके. स्वाभाविक रूप से बेरेनिके एक उत्तम बंदरगाह तो था ही, परन्तु जलवायु की दृष्टि से भी व्यापारिक माल के लिए अनुकूल था. इस बंदरगाह से ऊंटों के माध्यम से माल की आवाजाही इजिप्त और अन्य पड़ोसी देशों में सहजता से होती है.

भारत की दृष्टि से इस परियोजना का महत्त्व यह है कि यहाँ पर खुदाई में अत्यधिक प्राचीन भारतीय वैश्विक व्यापार के ठोस सबूत प्राप्त हुए हैं. इस पुरातत्त्व उत्खनन में लगभग आठ किलो कालीमिर्च प्राप्त हुई है, जो कि निर्विवाद रूप से दक्षिण भारत में ही उगाई जाती थी. इसके अलावा भारत से निर्यात किए हुए कुछ कपड़े, चटाईयाँ और थैलियाँ भी मिली हैं. कार्बन डेटिंग में यह सारा सामान ईस्वी सन ३० से ईस्वी सन ७० तक के बीच का निकला है. इस उत्खनन में शोधकों को एक रोमन पेटी भी मिली, जिसमें भारत के ‘बटिक प्रिंट’ वाले कपड़े एवं भारतीय शैली में चित्रित कुछ कपड़े भी मिले.

इन सभी उत्खननों से सभी शोध वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ईसापूर्व से दो-तीन हजार वर्ष पहले हिन्दू अपनी समृद्ध एवं सम्पन्न संस्कृति लेकर विश्व भर में प्रवास करते थे, व्यापार करते थे एवं अपने ज्ञान-विज्ञान की विरासत संसार को देते रहते थे. विश्व के अनेक स्थानों पर सबसे पहले पहुँचने वाले यदि कोई थे, तो वे हिन्दू नाविक एवं हिन्दू व्यापारी थे.

(…..क्रमशः)
– ✍🏻प्रशांत पोळ
(सन्दर्भ सूची पोस्ट के दूसरे और अंतिम भाग में दी जाएगी)

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