भारतीयों को इतिहास लेखन नही आता था? वाकई?

.प्राचीन भारत के बारे में कहा जाता है कि इतिहास पर ध्यान नहीं दिया जाता था, ये पोस्ट देखें

क्या प्राचीन आर्य इतिहास जानते थे ?
यहाँ हम पश्चिमी इतिहासवेताओं के इस कथन की परीक्षा करनी है कि “प्राचीन आर्य ऐतिहासिक विद्या से अनभिज्ञ थे” । वास्तव में यदि यह लांछन ठीक हो तो हमें मानना पड़ेगा कि हमारे पुरुष अर्ध सभ्य थे क्योंकि केवल दो ही अवस्थाओं में कोई नेशन या जाति ऐतिहासिक ज्ञान से शून्य हो सकती है :-
* कि उस के नेताओं ने कोई ऐसे कार्य न किए हो जिसे उन की सन्तति अभिमान युक्त स्मरण कर
सके।
* कि उस के नेता अपनी सन्तति को ऐतिहासिक शिक्षा के लाभों से अवगत कर उन में देशभक्ति के
भावों को उत्तेजित करने की आवश्यकता से अनभिज्ञ हों।
पहली अवस्था तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि यह प्रख्यात है कि प्राचीन आर्यावर्त में रेखागणित, बीजगणित, ज्योतिष, पदार्थ व शिल्प विज्ञान महोन्नति को पहुंचे हुए थे, वैधक संबंधी आश्चर्य जनक अन्वेषण हो चुके थे, अध्यात्म-विद्या उन्नति के शिखर पर विराजमान थी, प्रजा-तंत्र शासन प्रणाली का प्रचार किया गया था तथा चक्रवर्ती साम्राज्य भी संस्थापित हो चुका था। अत: यह सिद्ध नहीं हो सकता कि प्राचीन आर्यों के कार्य ऐसे न थे जो उन के संतान के उच्च भावों को उत्तेजित करते और उन की उन्नति में सहायक हो सकते। वास्तव में उन के कार्य तो केवल भारत ही नहीं अपितु सर्व संसार को उन्नति के मार्ग पर चलने का आदेश करते है।
दूसरी अवस्था भी संघटित नहीं हो होती क्योंकि जब हम प्राचीन संस्कृत साहित्य को देखते है तो उसे इतिहास के गुण वर्णन से भरपूर पाते है। यहाँ पर थोड़े से उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है :-
अथर्ववेद, काण्ड १५, अ० १, सूक्त ६, मंत्र १०, ११ तथा १२ में निम्नलिखित शिक्षा है :- “महत्वाभिलाषी पुरुष जब महत्व की ओर चलता है तब इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी उस के अनुगामी बन जाते है” इस बात को जो पुरुष जानता है वह इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी का प्रियधाम बन जाता है। (ये मंत्र इतिहास विद्या के बीज है)
गृह्य सूत्र में लिखा है कि ब्राह्मणों ग्रन्थों को इतिहास, पुराण, गाथा और नाराशंसी भी कहते है अर्थात ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ जो ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम से प्रसिद्ध है उनमें कई प्रकार के इतिहास विद्यमान है।
छंदोग्योपनिषद के सप्तम प्रपाठक में जहां महर्षि सनत्कुमार और ऋषि नारद का संवाद है वहाँ सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने निम्नलिखित प्रकार बतलाया है कि उन्होने क्या-क्या अध्ययन किया है :-
हे भगवन ! मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, वेदार्थ प्रतिपादकग्रंथ, पितृविद्या, राशि, दैव, निधिवाकोवाक्य, एकायनविद्या, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्प देव जनविद्याओं का अध्ययन किया है। (इस उत्तर में इतिहास-पुराण अर्थात पुराकालीन इतिहास का नाम स्पष्ट आया है) ।

इसी प्रकरण में सनत्कुमार ने नारद को उपदेश दिया है :-
विज्ञानेन वा ऋग्वेदं विजानाति यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहास पुराणं पञ्चमं………….”
अर्थात विज्ञान (सायंस) से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण का तत्व ज्ञात होता है। (इस कथन का तात्पर्य तो यह है कि किसी समय इतिहासविद्या भारत में ऐसी उन्नति को प्राप्त थी कि उसके गूढ़ाशय पूर्ण ग्रन्थों को समझने के लिए विद्यार्थी को पहले विज्ञानवित अर्थात सायंस का ज्ञाता बनना पड़ता था।)
चतुषष्ठी (६४) कलाओं की गणना कराता हुआ एक कवि लिखता है :-
इतिहासागमाद्याश्च काव्यालंकार नाटकम्… …………… ……”
अर्थात इतिहास, वेद, काव्य, अलंकार, नाटक ………… आदि 64 कलाएं हैं।
राजकुमार चंद्रापीड़ को कौन-कौन सी विद्याएं पढ़ाई गई थी इसका वर्णन करता हुआ कवि बाण अपने ग्रन्थ कादंबरी में लिखता है :-
“स (चंद्रापीड़:) महाभारत पुरराणेतिहास रामायणेषु परं कौशलमवाप”
अर्थात वह राजकुमार महाभारत, इतिहास, पुराण, तथा रामायण में बड़ा कुशल हो गया।
राजा के वर्णन में कवि बाण ने कादंबरी में लिखा है :-
वह कभी-कभी प्रबन्ध, कहानियां, इतिहास, तथा पुराणों को सुनकर मित्रों के साथ दिन व्यतीत करता था।
महाभारत में लिखा है :-
“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपवृंहयेत्”
अर्थात इतिहास तथा पुराण से वेदार्थ दृढ़ करना चाहिए।
एक कवि लिखता है :- “
अर्थात इतिहास वह विद्या है जिस में प्राचीन बातों के वर्णन के साथ-साथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का उपदेश हो।
इस विषय में विदेशियों की साक्षी :-
* हयूनसेन लिखता है कि जब वह भारत यात्रा को आया था तो राज की ओर से नीलपत्रियों का निर्माण होता था।
* मेगस्थनीज लिखते है कि उन्होने अपनी भारतीय यात्रा में देखा कि सुघटनाओं तथा दुर्घटनाओं के अंकित करने वाले राज कर्मचारी प्रत्येक प्रान्त में काम कर रहे थे।
* महाशय टाड लिखते है कि उन्होने “राजस्थान” के निर्माण करने में पुरानी पुस्तकों तथा सामयिक चारणों से सहायता ली।
* अबुल फज़ल का भारतीय इतिहास साक्षी देता है कि उनके समय तक भी कुछ ऐतिहासिक सामग्री भारत में विद्यमान थी।
इन उदाहरणों से भली-भांति विदित होता है कि प्राचीन आर्य इतिहास को एक प्रकार का विज्ञान और धर्मार्थ काम मोक्ष की प्राप्ति में सहायक मानते थे एवं इसकी सहायता से अपने अनेक काव्यों को शिक्षा प्रद तथा मनोरंजक बनाया करते थे।
सोचने की बात है कि महाराज विक्रमादित्य की 12वीं शताब्दी में जब कि भारत का अध: पतन हो रहा था, कल्हन जैसे इतिहासवेता उत्पन्न हो सकते थे तो उस समय जबकि भारत उन्नति के शिखर पर था विराजमान था इस देश में कितने और कैसे-कैसे ऐतिहासिक विज्ञानी उत्पन्न हुए होंगे ! वही कल्हन लिखते है कि राजतरंगिणी लिखने के पूर्व मैंने 11 ऐतिहासिकों के पुस्तकें पढ़ी थी। परंतु शौक ! महाशौक! मुसलमानों के कारण उन में से एक का भी कहीं पता नहीं चलता । संस्कृत भाषा में ऐतिहासिक काव्यों की विद्यमानता सिद्ध कर रही है कि प्राचीन आर्यावर्त में इतिहास पर कई पुस्तकें लिखी गई थी, यदि नहीं लिखी गई तो कवि कालिदास ने रघुवंश लिखने के लिए ऐतिहासिक सामग्री एकत्र कहाँ से कि थी? कई काव्यों के पढ़ने से पता चलता है कि एक समय इस देश के विद्यालयों में इतिहास भली-भांति पढ़ाया जाता था एवं इतिहास के अनेक ग्रन्थ उपस्थित थे। हर्षचरित में बाणभट्ट लिखता है कि जब महाराज हर्ष का चित्त उदास हुआ करता था तब वह इतिहास सुना करते थे । पुन: वही कवि अपनी पुस्तक कादंबरी में कहते है कि राजा ने अपने पुत्र के लिए गुरुकुल खुलवाया और उस में भिन्न-भिन्न विद्याओं के अध्यापकों के साथ-साथ इतिहास का अध्यापक भी नियुक्त किया। यदि इतिहास थे ही नहीं तो अध्यापक इतिहास कैसे पढ़ते थे ? रामायण और महाभारत को महान ऐतिहासिक काव्य इस समय उपस्थित हैं। हालांकि उनमें मिलावट बहुत हैं तथापि उन के विषयों के ऐतिहासिक होने में कोई संदेह नहीं। यदि प्राचीन आर्य इतिहास के लाभों को नहीं समझते थे तो वाल्मीकि और व्यास ने इतनी बड़ी-बड़ी पुस्तकों के लिखने का कष्ट क्यों उठाया?

पूर्वोक्त प्रमाणों से यही परिणाम निकलता है कि प्राचीन आर्य ऐतिहासिक विज्ञान को जाते थे, उन्होने इतिहास की कई पुस्तकें लिखी जिन में से बहुतेरी मुसलमानी राज्य में नष्ट हो गयी ।

कतिपय पाश्चात्य समालोचक और उनके भारतीय अनुयायी (Indologists)अपने व्यभिचारी मतों से सदैव यह ढिंढोरा पीटते रहते हैं कि वेदव्यास,युधिष्ठिर,अर्जुन आदि ऐतिहासिक पुरूष नहीं है।
समग्र सनातन संस्कृति व वाङ्गमय के उन्नायक व प्रणेता भगवान् वेदव्यास सनातन वैदिक हिन्दु संस्कृति के पुरोधा हैं सारा विश्व जानता है अतः इसके विषय में कुछ कहना पिष्टपेषण ही होगा।
पारसियों के धर्माचार्य ‘जरथ्रुष्ट्र‘ ने अपने धर्मग्रन्थ ‘जिन्द-अवेस्ता‘ में भगवान् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास का परिचय इस तरह से दिया है-
अकनु विरमने व्यासनाम अजहिन्द आयद दानाकि अल्क चुनानेस्त।”
व्यास नाम का एक ब्राह्मण हिन्दुस्थान से यहाँ आया है उसकी बुद्धि की तुलना संसार में कहीं नहीं है।’

यहूदियों और ईसाईयों को भारतीय इतिहास की पुरातनता बहुत बुरी लगती है। उन्हें ईसा और मूसा से ऊपर किसी को देखना पसंद ही नहीं है। इसलिऐ वह प्रत्येक ऐतिहासिक महापुरूष अथवा ऐतिहासिक तथ्य को ईस्वी सन् के पश्चात् ही बलात् रखना और देखना चाहते हैं ईसा पूर्व नहीं।

भारत में कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ यज्ञ नहीं होते थे।
ऐसा कोई घर नही था जहाँ द्रव्य(धन) नहीं होता था।ऐसा कोई व्यक्ति नही था जो धर्मनिष्ठ नही होता था।

ग्रामे-ग्रामे स्थितो देवो देशे-देशे स्थितो मखः।
गेहे-गेहे स्थितं द्रव्यं धर्मश्चैव जने जने।।”

मुस्लिमों के भारत आने से पूर्व भारत में शत-प्रतिशत लोग शिक्षित थे। पश्चात् अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा और कृषि-उद्योग-व्यापार को दीमक की तरह खाकर-लूटकर खोखला कर दिया।
महाराज रणजीत सिंह के राज्यकाल के पश्चात् सम्वत् १९१५ के समीप पंजाब में प्रायः ६० प्रतिशत लोग शिक्षित थे और सम्वत् १९४० के समीप यहां केवल ०१ प्रतिशत लोग शिक्षित रह गऐ।
यह एक अंग्रेज द्वारा लिखित कथन है।
देखिऐ अंग्रेजों ने किस तरह भारत की शिक्षा निगल ली।
वैदिक साहित्य,रामायण,महाभारत और पुराण ये सनातनी वैदिक हिन्दुओं का इतिहास है।
ईसाई-मत के प्रचार-प्रसार को केन्द्र में रखकर ही पाश्चात्य समालोचक हिन्दुओं के साहित्य की समालोचना करते हैं।
पाश्चात्य महामूर्खों की दुरभिसन्धियुक्त शिक्षापद्धति और उनके आधारहीन व्याभिचारी अनुमानों के वशीभूत भारतीयों में अपने ही वाङ्गमय और संस्कृति के प्रति घोर अनास्था उत्पन्न हो गयी।
इस दुरभिसन्धि को योजनाबद्ध रूप से अंग्रेजों नें अपने शासनकाल में आरम्भ किया।
इतिहास के विकृतिकरण के पीछे अंग्रेजों के राजनैतिक उद्देश्य तथा निजी स्वार्थ थे।
भारतीय इतिहास की एक अनवच्छिन्न परम्परा है जिससे घबड़ाकर अंग्रेजों ने सर्वप्रथम ‘इतिहास’ शब्द को ही विकृत करना चाहा।

‘इतिहास’ किसे कहते है?

धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम्।
पूर्ववृत्तं कथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते।।~ विष्णुधर्म•३•१५•०१

प्राग्वृत्तकथनं चैकराजकृत्यमिषादितः।
यस्मिन् स इतिहासः स्यात् पुरावृत्तः स एव हि।।~शुक्रनीति ०४/२९३

पुराणमितिवृत्तमाख्यायिकोदाहरणं।
धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रञ्चेतिहासः।।~कौटिल्यार्थशास्त्रे १•५•१४

अभ्युदय-निःश्रेयसप्रद पूर्ववृत्त ही इतिहास है।

पाश्चात्यों ने ‘इतिहास’ शब्द को कैसे विकृत व दुष्प्रचारित किया देखिऐ~

​जर्मन लेखक ‘अडोल्फ केगी’ (Adolf kegy) ने लिखा है कि पुरातन संस्कृत वाङ्गमय का अर्थ है ‘लीजेण्ड’ (legend)।
उसका यह कितना बड़ा भ्रम था।

वैबस्टर(Webestor) ने लीजेण्ड (legend) का अर्थ किया है- “कोई कहानी जो प्राचीनकाल से चली आ रही हो।”
विशेषतया लोग जिसे ऐतिहासिक कहानी मानते हों।परन्तु उसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित नहीं हो सकती।~’Any story coming down from the past;especially one popularly taken as historical though not verifiable’

पुरातन सनातन वैदिक इतिहास की सत्यता व व्यापकता से भयभीत होकर मतान्ध ईसाई पक्षपाती मैक्डोनल (McDonnell) व कीथ ( Keith) अपनी पुस्तक     ‘Vedic Index‘ मेें ‘इतिहास’ शब्द की विकृत व्याख्या करते हुऐ लिखते हैैं~”Sieg Considere that the word ‘ITIHASS AND PURANA’ referred to the great body of Mythology, legendary history and cosmogonic legend available to the vedic poets and roughly classed as a fifth Veda,though not definitely finally fixed.” ~Vedic Index Vol.1 P.77.

अर्थात् सीग विचारता है कि इतिहास पुराण का संकेत उस विशालकाय,कल्पित इतिहास से अथवा सृष्ट्युत्पत्ति की उन कल्पित कथाओं से है जो वैदिक ऋषियों को उपलब्ध थी और स्थूल रूप से पांचवे वेद की श्रेणी में रखी जाती थीं,यद्यपि निश्चित व अन्तिम रूप में उनकी स्थिति निर्धारित नहीं थी।’

इतिहास ‘शब्द को इस तरह बिगाड़ा गया।

भारतीय इतिहास की प्रामाणिकता भारतीय इतिहास व भारतीय विद्वान करेंगें, म्लेच्छ नहीं।

Cambridge History of India’   नाम से ई॰ जे॰ रैपसन ने एक पुस्तक इंग्लैंड में लिखी पाश्चात्य पद्धति के लेखक इसे वैज्ञानिक (Scientific) इतिहास कहते हैं वस्तुतः यह यथार्थ विज्ञान से कोसों दूर है। यह पुस्तक षडयन्त्रपूर्वक भारत में सर्वत्र पढ़ाई गयी और विशेष प्रचार हेतु छात्रवृत्ति रखी गयी ताकि भारतीयों को मानसिक गुलाम बनाया जा सके। इस तरह अंग्रेजों ने भारत पर सांस्कृतिक विजय प्राप्त की।

भारतीय इतिहास के उन्नायक वेदव्यास के विषय में पाश्चात्यों के भ्रामक व मिथ्या मतों को देखिऐ-

सन् १८३२ ई• में ऑक्सफोर्ड में सर्वप्रथम  Boden Professor H•H• Wilson  नियुक्त हुआ। इसने १८४१ई• में विष्णुपुराण का अंग्रेजी अनुवाद किया। भूमिका में उसने लिखा- “पुराण प्रायः आधुनिक है। ब्राह्मणों के दल ने साधारण लोगों को ठगने को इनका जाल रचकर (Pious Frauds) व्यास नाम से चलाया।”

कुछ समय पश्चात् इसने अपनी पुस्तक “Introduction to the Rigveda Samhita” में लिखा-“Vyasa the arranger, a person of rather questionable chronology and existence.”  ‘अर्थात् ‘व्यास’ शब्द का अर्थ है -‘विन्यासक’। इस नाम कोई भी व्यक्ति कभी था या नहीं यह सन्देहजनक है।’

जर्मनी के वेबर(Weber) का कथन है- “A Mythical personage, vyasa, who is simply redaction personified.”
~Weber, History of Indian Literature (1851)P. 191
‘व्यास एक कल्पित चरित्र था।सम्पादन के अर्थ में व्यास शब्द प्रचलित हुआ है।’

अमेरिका का समालोचक हाॅपकिन्स (Hopkins) महाभारत के संवादों और इतिवृत्तो के वैविध्य से मतिभ्रम के कारण चिढ़ कर अपनी पुस्तक ‘The Great Epic‘ में लिखता है-

“In other words, there was no one author of the great epic, though, with a not uncommon confession of editor with author, an author was recognized called ‘Vyasa’ ………Modern scholarship calls him the unknown or Vyasa for convenience. The great epic is the result of the labours of different writers, belonging to different schools of style and thought.”
~Hopkins,The Great Epic P.५८/५९
‘अर्थात् ‘महाभारत’ की रचना एक व्यक्ति ने नही की है।जैसे-जैसे समय बीतता गया सम्पादक के साथ लेखक के नाम की गड़बड़ी करके व्यास नाम देकर एक काल्पनिक लेखक खड़ा कर दिया गया।आधुनिक विद्वद्वर्ग ने सुविधा को इसको ‘अज्ञात’ या व्यास नाम दिया।महाभारत विभिन्न लेखकों के परिश्रम का फल है। उनकी लेखनशैली और विचारधारा भी भिन्न-भिन्न है।’

मैक्डोनल (Macdonell) का मत है- “When the Mahabharata attributes its origin to Vyasa, it implies a belief in a final redaction, for the name simply means ‘Arranger’. ~Macdonell,History of Sanskrit Literature. P•२८६

‘महाभारत व्यास रचित है। यहाँ सम्पादक की बात के अतिरिक्त और क्या है? क्योंकि व्यास नाम का अर्थ है ‘विन्यासक’ ।’

बुल्हर(Bulher) अपनी मतिभ्रष्टता का परिचय देते हुऐ कहता है कि – “महाभारत कोई इतिहास या पुराण नहीं है।”

होज्यान(Hogyan)  का कथन है-“पाण्डव और उनके पक्षपाती कृष्ण छली-कपटी थे।उन्हीं लोगों की ओर से युद्ध में छल हुआ।कौरवों का नाम वेद और ब्राह्मणों में आता है,अतः वे ही प्राचीन हैं।वे धर्मभीरु और न्यायप्रिय हैं। ”

लुडविग (ludwig)  ने सन् १८८४ से पुराणों और महाभारत पर विचार करना प्रारम्भ किया फिर उसने अपनी राय बनाई-“महाभारत न तो कोई इतिहास है और न ही पाण्डव कोई ऐतिहासिक पुरुष।”

मैक्समूलर( Maxmuller) अंग्रेजी शासन का एक सुदृढ़ स्तम्भ था।ईसाई मिशनरी के द्वारा नियोजित पक्षपाती मतान्ध मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक ‘Chips from the German Workshop’ में तो यहाँ तक कहा कि- “वेदमन्त्र दकियानूसी और निरर्थक है और महाभारत एक व्यक्ति की कृति नहीं। वेद हिन्दु धर्म की चाबी है इसलिऐ उनके दृढ़ तथा दुर्बल स्थानों का ज्ञान ऐसे मिशनरियों के लिए अनिवार्य है जिन्हें ईसाई बनाने की उत्कट इच्छा है।”

मैकाले(Macaulay) ने कहा था कि-‘ पाश्चात्य शिक्षा पाए हुऐ किसी हिन्दु को मूर्तिपूजा में विश्वास नही रह जाऐगा।’

पाश्चात्य समालोचकों और ईसाई मिशनरियों के दुरभिसन्धि व सुनियोजित दुष्प्रचार के यह ज्वलन्त प्रमाण हैं।

शताब्दियों तक राजनैतिक उठा-पटक व भारतीय शिक्षा पद्धति के ह्रास से अंग्रेजों ने दुरभिसन्धिपूर्ण व योजनाबद्ध भारतीय इतिहास का विकृतिकरण किया था। इस कूटनीति के पीछे अंग्रेजों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाऐं तथा मतान्ध स्वार्थपरता थी। ब्रिटिश प्रशासन ने जर्मन और अंग्रेजी तथाकथित स्काॅलरर्स को नियोजित कर इतिहास के विकृतिकरण व निराधार कल्पनाओं का भ्रामक दुष्प्रचार  किया।

यूरोपियों में संस्कृत के प्रति प्रेम उत्पन्न होने का क्या कारण था?

ख्रिस्ताब्द १७५७ में प्लासी के निर्णायक युद्ध बाद बंगाल अंग्रेजों का अधीन हो गया। १७८३ में कलकत्ता के आङ्गल उपनिवेश फोर्ट विलियम  में विलियम जाॅन्स प्रधान न्यायाध्यक्ष बना। उसने १७९० में कालिदास कृत ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्‘ का अंग्रेजी अनुवाद किया। इसके पश्चात् १७९५ में इसने ‘मनुस्मृति’ का भी आङ्गलानुवाद किया। इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।

इसी काल में जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक ‘आर्थर शाॅपेन हावर'(Arthur Schopenhauer) ने (ख्रिस्ताब्द १७७९-१८६१) उपनिषदों का लैटिन अनुवाद पढ़ा (वह अपने नास्तिक निराशावाद दर्शन के लिये प्रसिद्ध हैं) और उससे प्रभावित होकर उसने यह उद्गार प्रकट किऐ- “The production of the highest human wisdom. Almost superhuman conceptions. It’s the most satisfying and elevating reading. which is possible in the world; It has been the solace of my life and will be solace of my death.”  अर्थात् उपनिषदें सर्वोच्च मानव बुद्धि की उपज हैं।इनमें महामानवीय विचार हैं।यह मेरे जीवन में सर्वाधिक सन्तोषप्रद और मृत्यु के पश्चात् भी सन्तोषप्रद और अभ्युदय करने वाला पाठ है।”

शाॅपन हावर के इस कथन को पढ़कर-देखकर अनेकानेक जर्मन विद्वानों में संस्कृत वाङ्गमय के प्रति आकर्षण बढ़ा।

सन् १८०२ से १८४१ तक फ्रांस में इयूजन बर्नफ संस्कृताध्यापक था। उसके दो जर्मन शिष्य थे रुडोल्फ राॅथ और मैक्समूलर
ईस्वी सन् १८३४ में होरेस हेमन विल्सन (Hores Heman Wilson) ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का बाॅडन अध्यक्ष बना।कर्नल बाॅडन ने जिस निमित्त Oxford University को इस अध्यक्ष की आसन्दी (Chair) बनाने को विपुल धन दिया था उसका उल्लेख दूसरे बाॅडन अध्यक्ष माॅनियर विलियम्स (Monnier Williams) ने इन शब्दों में किया है- “I must draw attention to the fact that I’m only the second occupant of the bodden chair and that its founder, Colonel Boden, stated most explicitly in his will(dated aug.15,1811)that the special object of his munificent bequest was to promote the translation of scriptures into Sanskrit; so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India.”
~Sanskrit-English Dictionary by Sir Monier Williams.prface 1899)

‘अर्थात् मुझे इस स्थिति ओर अवश्य ही ध्यान आकर्षित करना चाहिऐ कि मैं बाॅडन आसन्दी का दूसरा पूरक हूँ। इसके संस्थापक कर्नल बाॅडन ने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में अपने स्वीकारपत्र में लिखा है कि उसकी अति विपुल भेंट का उद्देश्य विशेष यह था कि ईसाई ग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद किया जाऐ ताकि भारतीयों को ईसाई बनाने के काम में हम अंग्रेज आगे बढ़ सकें।’

इस तरह भारत मे अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति व ईसाइयत के प्रचार-प्रसार हेतु अंग्रेजों ने दुरभिसन्धि का आश्रय लिया।
भारतीय इतिहास के विकृतिकरण हेतु  मैक्समूलर अंग्रेजों का मुख्य हथियार था ।

फ्रैञ्च विद्वान् जैकोलियट(Jackoliyat) ने ईस्वी सन् १८७० में ‘la Bible Dans India’ (भारत में बाईबिल)  पुस्तक लिखी। एक वर्ष पश्चात् उसका आङ्गलभाषा रूपान्तरण हुआ। उसमें फ्रैञ्च विद्वान् ने भारत भूमि की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए  भारत को मनुष्यमात्र का उद्गमस्थल (Cradle of Humanity) कहा-

“प्राचीन भारत भूमि! मनुष्य जाति के जन्मस्थान तुम्हारी जय हो।पूजनीय और समर्थ धात्री; जिसको नृशंस आक्रमणों की शताब्दियों ने अभी तक विस्मृति की धूल के नीचे नही दबाया, तेरी जय हो। श्रद्धा,प्रेम,काव्य और विज्ञान की जन्मदात्री तेरी जय हो। क्या कभी ऐसा भी समय आएगा जब हम अपने पाश्चात्य देशों में तेरे अतीत काल के जैसी उन्नति देखेंगे।”

मैक्समूलर ने जब जैकोलियट की पुस्तक में उसका यह वक्तव्य देखा तो ईर्ष्या के कारण जल-भुन कर जैकोलियट की आलोचना में उसने लिखा – ‘Jacolliot must have been deceived by Brahmins in India.’

‘जैकोलियट अवश्य ही भारत में ब्राह्मणों के धोखे में आ गया है।’

१५ जनवरी १७८४ को एशियाटिक सोसाइटी (Asiatic Society) की स्थापना विलियम जोन्स ने भारतीय इतिहास के अनुशीलन हेतु कलकत्ता में की थी। भारतीय इतिहास का विकृतिकरण ही इसका उद्देश्य था। विलियम जोन्स ने भारतीय इतिहास विषय में एक वक्तव्य में कहा था कि-” यूनानी इतिहास लेखकों की नगरी ‘पालिब्रोधा’ पाटलिपुत्र का अपभ्रंश है तथा चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण काल ईस्वी सन् पूर्व ३२२ वर्ष है।”
अब देखिऐ मेगास्थनीज का भारत भ्रमण में लिखा है- ‘ डायनुशस पश्चिम से आया है। उसी वंश में हेराक्लीज़ भी हुआ था जो काफी बलशाली था । उसने बहुत सी स्त्रियों से विवाह करके बहुत सारे पुत्र उत्पन्न किए,बहुत से नगर बसाऐ जिसमें सबसे विशाल नगर ‘पालिब्रोधा’ है।
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्लायनी ने लिखा है कि पालिब्रोधा नगर गंगा और इरानावोअस के संगम से २०० मील ऊपर की ओर स्थित था।
‘ईरानावोअस’ यमुना है’ ऐसा आनविल्ले का मत है।
विलियम जोन्स के कथनानुसार गंगा और ईरानकोअस का संगम प्रस्सी जनपद में था
पुराणों के अनुसार शिशुनाग वंश के आठवें राजा उदायी ने जिसका राज्याभिषेक १७१७ वर्ष ईसा पूर्व हुआ। अभिषेक के चौथे वर्ष उसने पाटलिपुत्र बसाया। प्रति पीढ़ी बीस वर्ष मानने पर १३८ पीढ़ी में २७६० वर्ष होते हैं।वर्तमान में पाटलिपुत्र प्रयाग से प्रायः ढ़ाई सौ मील नीचे की ओर हैं।
उपर्युक्त विवरण के अनुसार पालिब्रोधा के बसाऐ जाने का समय ईसा पूर्व ३०८२ वर्ष के लगभग है और संस्थापक का नाम हेराक्लीज़ है तथा पाटलिपुत्र के बसाऐ जाने का समय ईसापूर्व १७१५ है उसको बसाने वाला शिशुनागवंशीय राजा उदायी है।
अतः पालिब्रोधा पाटलिपुत्र कदापि नही हो सकती और न ही सैण्ड्राकोट्स चन्द्रगुप्त ऐसा धर्मसम्राट् करपात्री  ने सिद्ध किया है।
यह विलियम जोन्स का निराधार व काल्पनिक अनुमान है।

जिस समय ईसाई पक्षपात और मतान्धता से मैक्समूलर भारतीय संस्कृति और इतिहास विकृत कर दुष्प्रचार कर रहा था,तब अल्बर्ट वेबर (Albert Weber) भी दिन-रात भुलाकर इस कार्य में संलग्न था।
वेबर के कुलुषित विचारों को जिन दो लोगों ने प्रचारित-प्रसारित किया वो थे लोरिन्सर (lorincer) और हाॅपकिन्स ( Hopkins).

बनारस में क्वीन्स कॉलेज की स्थापना सन् १७९१ में जोनाथन डंकन ने की थी। उसका Principal सन् १८७० में रुडोल्फ हर्नलि (Rudolf Hunrnely) था। उसे बनारस के विद्वानों से बहुत भय था कि उनके रहते वह ईसाइयत का दुष्प्रचार नहीं कर पायेगा और यदि ब्राह्मण भारत में रहेंगे तो अपने ज्ञान-विज्ञान से समग्र भारत को स्वाभिमान और आत्मगौरव से परिपूरित करते रहेंगें।
उसकी मतान्धता इस स्तर पर पहुंच गई कि वह मनुस्मृति आदि के विषय में अनर्गल लेख लिखकर यत्र-तत्र प्रसारित करने लगा।

चीनी यात्री ह्वेनसांग (Hsuan tsang)  भारत आया तो यहाँ की समृद्धि और आत्मगौरव देखकर वह जलभुन गया। उसका वर्णन उसने अपनी पुस्तक में इस प्रकार किया है-

” The Families of India are divided in casts.The Brahmins particularly on account of their purity and ability. Tradition has so hallowed the name of this tribe that there is no question of place, but the people generally speaks of india as the country of the Brahmins.~ Shi yuqi •••• Vol.१ P• ६९”
‘अर्थात् भारत के परिवार वर्णों मे विभाजित हैं।उनमें पवित्रता और उच्चता में ब्राह्मण विशिष्ट हैं।परम्परा मे इस वर्ण का नाम इतना समुज्जवल है कि देशभेद का प्रश्न न करके लोग सारे भारत को ब्राह्मणों का देश कहते हैं।’

अल्बेरूनि(Alberuni) ने भारत को घूम-घूमकर देखा और भारतीयों के स्वाभिमान,आत्मगौरव और सामाजिक जीवन शैली को देखकर वह चकित रह गया।
उसने इसका अपनी पुस्तक में उल्लेख किया -“उन के (हिन्दुओं के) जातीय जीवन की कुछ विशेषताएं; जो उनमें गहनता से निहित हैं प्रत्येक (विदेशी) के लिए स्पष्ट है—-हिन्दुओं का विश्वास है कि उनके देश से बढ़कर कोई देश नहीं है, उनकी जाति के समान कोई जाति नहीं है,उनके राजाओं के समान कोई राजा नहीं है,उनके धर्म के समान कोई धर्म नहीं है और उनके ज्ञान के समान कोई ज्ञान नहीं है। हिन्दुओं की जातिपरायण धर्मिता का शिकार विदेशी जातियाँ होती है। वे उन्हें म्लेच्छ,दस्यु और अपवित्र समझते हैं और उनके साथ परस्पर खान-पान आदि का सम्बन्ध नहीं रखते। उनका विचार है कि ऐसा करने से हम भ्रष्ट हो जाऐंगें।”

अल्बेरूनि के ७०० वर्ष पश्चात् इटली के वेनिस नगर का निवासी निकोलो मनूचि (Niccolas Mannucci) भारत आया।वह मुग़ल धूर्त जहाँगीर की सभा में रहता था उसने भारतीयों की राष्ट्रभक्ति देखी तो उसने ईर्ष्यावश इस तरह भारत के विषय में उल्लेख किया-
” The First error of these Hindus is to believe that they are only people in the world who have any only polites manner and same is the case with cleanliness and orderliness in business.They think all other nations and above all Europeans are barbarous, filthy and void of order.”
~Storia Do Mogor of Niccolas Mannucci,Vol.३ P•३७

‘अर्थात् इन हिन्दुओं की प्रथम भूल इस विश्वास में है कि संसार में वे स्वयं को एकमात्र ऐसा समझते हैं जिनमें शिष्टाचार,स्वच्छता अथवा नियमित व्यापार है।वह दूसरी सभी वैदैशिक जातियों को और सबसे अधिक यूरोपीय वासियों को म्लेच्छ,घृणित,मलिन और नियमहीन समझते हैं।’

इलियड और औदिसी काव्य की बातों को रामायण और महाभारत पर आरोपित करना पाश्चात्यों की बुद्धिपंगुता का प्रमाण है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
इति।

✍🏻पवन शर्मा

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