मत: जोड़ना तो दूर,भारत को समझ भी पाये राहुल ?
ओपिनियन: क्या राहुल ने बहन का गाल चूम कर क्या साबित किया?
मूल आलेख
नीरज बधवार |
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान जगह-जगह महिलाओं के साथ अंतरंग होते एक के बाद एक फोटो के बाद मंच पर राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका गांधी के गाल को खींचते और चूमते दिखे। ये वीडियो तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं तो कुछ लोग इसे एक भाई का अपनी बहन के प्रति स्नेह बता रहे हैं।
भारत जोड़ो यात्रा की राहुल की एक तस्वीर इन दिनों काफी वायरल है। इस तस्वीर में राहुल मंच में साथ बैठी बहन प्रियंका गांधी को खींचते हुए उनका गाल चूम रहे हैं। ये एक भाई का अपनी बहन के प्रति स्नेह है और इसे किसी भी और रूप में परिभाषित करना घटियापन होगा। मगर, यहां एक मगर है। और ये मगर इतना बड़ा है जो बताता है कि इतने सालों की सियासत के बाद भी राहुल गांधी सियासत की बारीकियां क्यों नहीं सीख पाए।
एक तरफ राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए भारत को समझने निकले हैं दूसरी तरफ वो मंच पर बैठी अपनी बहन को बचकाने अंदाज़ में चूमते हैं। क्या राहुल या उनके सलाहकारों में किसी को नहीं पता कि हिंदुस्तान जैसे देश में आज भी ज़्यादातर लोगों के लिए भाई-बहन के प्यार में फिज़िकल टच में एक सतर्कता बरती जाती है? सार्वजनिक तौर पर अपना प्यार जताने का एक गरिमापूर्ण तरीका होता है। जिसमें आप माथा चूम सकते हैं, हाथ दबा सकते हैं, बगल में खड़ी बहन के पीछे हाथ से उसका कंधा दबा सकते हैं। मगर भरे मंच पर गाल चूमना जिसमें आपकी बहन भी असहज हो जाए, माफ कीजिए ज़्यादातर भारतीयों के लिए अपनी बहन से इस तरह प्यार जताना बहुत ही असहज होता है।
मैं फिर दोहराता हूं मुझे व्यक्तिगत तौर पर राहुल के अपनी बहन के प्रति प्रेम के इस प्रकटीकरण से कोई आपत्ति नहीं। मगर राजनीति बहुत ही निर्मम जगह है। एक तरफ जब आपके विरोधी आपको पहले ही राजुकमार बताते हों। आप पर आरोप लगाते हों कि आपको हिंदुस्तान की संस्कृति की कोई जानकारी नहीं। उन्हीं के प्रचार या दुष्प्रचार को झूठा साबित करने आप देश भ्रमण पर निकले हों और फिर ऐसी हरकत करके आप उन्हें ही आपकी मौज लेने का एक और मौका क्यों दे रहे हों?
सारा खेल Relatability का है
बेशक राहुल गांधी महंगे स्कूलों में पढ़े हैं। विदेशों में रहे है। जिस हाई सोसाइटी के दोस्तों के साथ उनका उठना-बैठना है उसमें ये सब सहज होगा, मगर आज भी अधिकतर भारतीयों के लिए बहन के प्रति प्यार की ऐसी अभिव्यक्ति बेहद असहज है। आप फिल्म स्टार हैं तो बेशक ऐसा कीजिए। जनता भी जानती है आप ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़े हैं। वो तो आपको खुद से ऊपर मानती भी है।
मगर एक राजनेता तो हरदम यही बताने की कोशिश करता है कि मैं आप लोगों के बीच का हूं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जब सिर्फ धोती पहनकर चलते थे उसके पीछे भी यही सोच थी। भारत भ्रमण में जब उन्होंने देखा कि देश में इतनी गरीबी है कि लोगों के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं है, तो उन्होंने भी सिर्फ धोती पहनी। ताकि नेता के रूप में वो गरीब जनता से खुद को जोड़ पाएं। उनके पहनावे से जनता को लगे कि ये हमारे बीच के ही हैं। किसी भी राज्य में जाकर एक नेता जब वहां की पगड़ी पहनता है, उस राज्य की भाषा में दो लाइनें बोलता है, तो ऐसा करके वो वहां की जनता से खुद को जोड़ने की ही कोशिश कर रहा होता है।
और राजनीति से लेकर कॉमेडी, सिनेमा, विज्ञापन तक हर जगह आज सारा खेल इस Relatability का ही है। जहां जनता के सामने उस तरह का कंटेट परोसा जाता है जिससे वो जुड़ाव महसूस कर पाए। इसलिए सिनेमा में करण जौहर टाइप की दिखावटी और हाई सोसाइटी के लिए बनने वाली फिल्मों की जगह आज पंकज त्रिपाठी जैसे किरदारों से सजी फिल्में ज़्यादा काम करती हैं। इसीलिए पंचायत और गुल्लक जैसी सीरीज इतनी हिट हो जाती हैं। एक साउथ बॉम्बे का कॉमेडियन भी अपने कंटेट से खुद को मिडिल क्लास बताने की कोशिश करता है ताकि कानपुर और जोधपुर में रहने वाला दर्शक भी उससे जुड़ पाए। इसी वजह से पिछले 5 सालों में हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी स्टेंडअप कॉमेडी लगभग ख़त्म हो गई और अंग्रेज़ी वाले भी हिंदी में हिंदी वालों की बात करने लगें। क्योंकि जब तक वो Relatable नहीं होंगे तब तक खुद को बेच नहीं पाएँगे।
खुद को जनता से बेहतर न बताएं
इसी तरह इतनी ठंड में जब उनसे टीशर्ट पहनने पर सवाल पूछा गया तो उनका कहना था कि मैं ठंड से नहीं डरता, आप ठंड से डरते हो। अब ये भी एक बेहद बचकाना जवाब है। हो सकता है कि आपकी पीआर टीम ने कहा हो कि इतनी ठंड में आप टीशर्ट पहनकर दिखाएंगे तो एक मज़बूत नेता दिखेंगे। आयरन मैन टाइप लगेंगे।
ठीक है इतनी ठंड में आप टी शर्ट पहन सकते हैं, तो पहनिए। मगर दूसरों को ये मत कहिए कि तुम गर्म कपड़े इसलिए पहन रहे हो क्योंकि तुम्हें ठंड से डर लगता है। क्योंकि इस ठंड में उत्तर भारत के 99 फीसदी लोग गर्म कपड़े ही पहनकर रखते हैं। खुद राहुल जी की रैली में साथ चल रहे सभी लोगों ने गर्म कपड़े पहन रखे हैं। मगर खुद को मज़बूत बताने की जल्दबाज़ी में आप देश की जनता को डरपोक मत बताइए। वो जनता जिनसे आपको जुड़ना है, न कि खुद को उससे बेहतर साबित करना है।
Marketing का ये फंडा याद रखें
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत जोड़ो यात्रा में पैदल चलकर राहुल गांधी एक बेहतरीन काम कर रहे हैं। कम से वो जनता के बीच तो दिख रहे हैं। सक्रिय नज़र आ रहे हैं। चर्चा में बने हुए हैं। उन पर जो इल्ज़ाम लगता था कि सिर्फ चुनावों से पहले दिखते हैं, उस आरोप को झुठलाते नज़र आ रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि वो यात्रा करें। बीजेपी पर निशाना साधें। मनचाहे मुद्दे भी उठाएं। मगर उनकी पीआर टीम (अगर वो ऐसा करवा रही है) को बार-बार ऐसे Gimmick से बचना चाहिए। वो यात्रा कर रहे हैं। मोदी के सामने चुनौती पेश कर रहे हैं जनता के लिए इतना ही काफी है। अब इसमें ज़बरदस्ती उनकी आयरन मैन (जो सर्दी में स्वेटर नहीं पहनता), सिंगल मोदी के सामने फैमिली मैन राहुल (जो मंच पर मां-बहन के गाल उमेठता है), विद्वान राहुल (poverty is state of mind )वाली छवियां बनाने की कोशिश मत कीजिए। ये सारी कोशिशें Forced लगती हैं।
Marketing में कहा जाता है कि किसी को चीज़ बेचने का एक फंडा ये भी होता है कि आप उसे Hard Sell करने को कोशिश मत कीजिए आपने उत्पाद पेश कर दिया। उसकी खूबियां बता दीं। उत्पाद जनता के सामने अब उसे तय करने दीजिए कि उसे ये खरीदना है या नहीं। ज़रूरत से ज़्यादा किए गए प्रयास उस कैम्पेन को Over the top बना देते हैं।
इन सवालों के जवाब ढूंढिए
बजाए इसके आप उससे बड़ी चीज़ पर काम कीजिए। मुझे लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए राहुल को मैदान में उतारकर कांग्रेस ने आधी जंग जीत ली है, बशर्ते वो यही सक्रियता 2024 तक बनाए रखें। मगर कांग्रेस और राहुल सिर्फ राजनीतिक निष्क्रियता की वजह से ही नहीं हारे। दूसरी चुनौती उससे कहीं बड़ी है। और वो है राष्ट्रवाद और धर्म से से जुड़े बाकी मुद्दों पर पार्टी की राय।
राहुल गांधी और कांग्रेस को साफ करना होगा कि 2024 के मद्देनजर क्या उसे हिंदुत्व की राजनीति करनी है?, सॉफ्ट हिंदुत्व की सियासत करनी है? या जैसा बीजेपी समर्थक कहते हैं, मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी पुरानी राजनीति पर लौटना है? क्या कांग्रेस कश्मीर में धारा 370 हटाने को ठीक मानती हैं? कॉमन सिविल कोड को लेकर उसकी क्या राय है? उसे बताना होगा कि क्या इन सब मुद्दों पर वो अपनी पुरानी राय पर ही कायम है या उसमें कुछ बदलाव आया है? उन्हें देश की जनता को ये भी भरोसा देना होगा कि 2014 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बाहर हुई कांग्रेस अगली बार क्या नया करेगी? राजनीति में जिस परिवारवाद को मुद्दा बनाकर नरेंद्र मोदी 2014 में सत्ता में आए थे, राहुल के चेहरे के साथ कांग्रेस परिवारवाद के उस मुद्दे से कैसे निपटेगी?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब राहुल और कांग्रेस को राहुल गांधी की ‘छवि निर्माण अभियान’ के दूसरे चरण में देने होंगे। फिलहाल भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए राहुल ‘राजनीतिक निष्क्रियता’ के आरोपों को काफी हद तक धोने में कामयाब रहे हैं बशर्ते ‘कुछ अतिरिक्त’ करने के प्रयास में वो अपने ही किए-कराए पर पानी न फेर दें। अपने नेता के मूल्यांकन में जनता उससे कहीं उदार होती है जितना नेता सोचते हैं इसलिए आप जो हैं, वहीं बने रहें इतना ही काफी है उसमें ज़बरदस्ती Escape Velocity को मत लाइए।