जयंती: समरूप झलकारी ने बलिदान दे झांसी की रानी को दिया बचने का अवसर

झलकारी बाई (२२ नवंबर १८३० – ४ अप्रैल १८५७) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।

झलकारी बाई
जन्म:22 नवंबर 1830
झांसी, भारत
बलिदान:4 अप्रैल 1857
झांसी, भारत
व्यवसाय:रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति।
प्रसिद्धि कारण:भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी
धार्मिक मान्यता:हिन्दू

झलकारी बाई कोली प्रतिमा, आगरा

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी, और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस तेंदुआ को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं (दोनोें के रूप में आलौकिक समानता थी)। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।

स्वाधीनता संग्राम में भूमिका

झलकारी बाई कोली, झांसी संग्रहालय
लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया। अप्रैल १८५८ के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों के किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।

झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर में उससे मिलने पहुंची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा,मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई। एक बुंदेलखंड किंवदंती है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूग रोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि “यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा”।

ऐतिहासिक एवं साहित्यिक उल्लेख

मैथिलीशरण गुप्त द्वारा झलकारी बाई कोली पर लिखी गई कविता
मुख्यधारा के इतिहासकारों ने, झलकारी बाई के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया है, लेकिन आधुनिक लेखकों ने उन्हें गुमनामी से उभारा है। जनकवि बिहारी लाल हरित ने ‘वीरांगना झलकारी’ काव्य की रचना की । हरित ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है :

लझ्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड़ग संवार चली ।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली ॥
अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल (२१-१०-१९९३ से १६-०५-१९९९ तक) माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है, मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तकाकार दिया है और भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है –

जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही सन्नारी थी।

जब दो किशोरियों ने भून डाला अंग्रेज मजिस्ट्रेट

शान्ति घोष (२२ नवम्बर १९१६ — १९८९) भारत के स्वतंत्रता संग्राम की क्रान्तिकारी वीरांगना थीं। अपनी सहपाठिनी सुनीति चौधरी के साथ मिलकर उन्होने १४ दिसम्बर १९३१ को त्रिपुरा के कलेक्टर सी जी वी स्टिवेन को उसके बंगले पर गोली मारी थी। शान्ति और सुनीति को संसार की सबसे कम उम्र की क्रान्तिकारी माना जाता है। अंग्रेज सरकार ने उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी थी।
जन्म:22 November 1916
Calcutta, India
देहावसान:1989
शिक्षा प्राप्त की:Bengali Women’s College
प्रसिद्धि कारण:Assassinating a British magistrate at age 15

शान्ति घोष जन्म कोलकाता में हुआ था। वह प्रोफेसर देवेन्द्र नाथ घोष की पुत्री थीं। वे कोमिल्ला के स्थानीय विद्यालय फैजुनिशां बालिका विद्यालय की आठवीं कक्षा की छात्रा थीं। उनकी आवाज बहुत मधुर थी और वे गायन भी करतीं थीं।

14 साल की इस क्रांतिकारी ने काटी 7 साल जेल; आज़ाद भारत में बनी मशहूर डॉक्टर!डॉ. सुनीति चौधरी को लोग प्यार से ‘लेडी माँ’ कहते थे

भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी महिला सुनीति चौधरी का जन्म टिप्पेरा के कोमिला सब-डिविजन में एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 22 मई,1917 को हुआ था। क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो कर महज 14 वर्ष की उम्र में ही इन्होंने एक ब्रिटिश मैजिस्ट्रेट की गोली मार कर हत्या कर दी थी। इन पर मुकदमा चला और इन्होंने अपने जीवन के 7 साल जेल में बिताए। और फिर आगे चल कर, स्वतंत्र भारत में ये एक प्रसिद्ध डॉक्टर बनीं।

साल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। इस दौरान लगातार धरना-प्रदर्शन हो रहे थे। आंदोलनकारियों के जुलूस रोज़ ही निकला करते थे। इसके साथ, पुलिस की क्रूरता भी चरम पर पहुँचती जा रही थी। अंग्रेज़ अफ़सरों के अत्याचारों को देख कर सुनीति के मन में उनसे बदला लेने की भावना प्रबल होती जा रही थी।

इसी दौरान, फैजुन्निसा बालिका उच्च विद्यालय में उनकी सीनियर प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा ने उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किताबों को पढ़ने की न सिर्फ सलाह दी, बल्कि उन किताबों को सुनीति तक पहुँचाया भी। “Life is a sacrifice for the Motherland” (जीवन अपनी मातृभूमि के लिए त्याग का नाम है) – स्वामी विवेकानंद के इन शब्दों ने देश के लिए कुछ करने के इनके विचारों को और भी मजबूती दी।

शांति घोष और सुनीति चौधरी

आगे चल कर सुनीति आंदोलनात्मक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने लगीं। वे डिस्ट्रिक्ट वॉलन्टियर कॉर्पस की मेजर बनीं। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने विद्यार्थी संगठन को संबोधित करने के लिए शहर का दौरा किया, तब सुनीति लड़कियों की परेड का नेतृत्व कर रही थीं।

प्रफुल्ल नलिनी ने सुभाष चंद्र बोस से क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर उनके विचारों के बारे में पूछा। बोस ने तुरंत जवाब दिया, “मैं आपको आगे की श्रेणी में देखना चाहूँगा।“

इसी बीच, ‘युगांतर’ पार्टी से जुड़ी महिला विंग में युवतियों को क्रांतिकारी कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। इन कार्यों में प्रमुख था क्रांतिकारियों को सूचना, कागजात, हथियार और पैसे पहुँचाना। यह ज़िम्मेदारी सबसे बहादुर और चालाक युवतियों को दी जाती थी।

उल्लेखनीय है कि लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की मांग प्रफुल्ल नलिनी, शांतिसुधा घोष और सुनीति चौधरी ने उठाई थी। जब कुछ वरिष्ठ नेताओं ने इन लड़कियों की क्षमता पर संदेह जताया, तो सुनीति ने इसका विरोध करते हुए कहा, “हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?”
आखिरकार, उस समय के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक बिरेन भट्टाचारजी ने गुप्त रूप से लड़कियों का साक्षात्कार लिया और इन तीनों लड़कियों के साहस का लोहा माना। इन लड़कियों की ट्रेनिंग त्रिपुरा छात्र संघ के अध्यक्ष अखिल चन्द्र नंदी की देख-रेख में शुरू हुई। ये स्कूल छोड़ शहर से दूर मयनमती पहाड़ी पर गोलियां चलाने का अभ्यास करने लगीं।

उनकी असल चुनौती लक्ष्य को भेदना नहीं, बल्कि रिवॉल्वर के बैक किक को संभालना था। सुनीति की उंगली ट्रिगर तक पहुँच नहीं पाती थी, पर ये हार मानने को तैयार नहीं थीं। ये बेल्जियन रिवॉल्वर से शॉट मारने के लिए अपनी मध्यमा उंगली का इस्तेमाल करने लगीं।

इनका निशाना ज़िला मैजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवन था, जो सत्याग्रह को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था। उसने सारे प्रमुख नेताओं को जेल में बंद कर दिया था। उसका जवाब देने के लिए कुछ करना ज़रूरी था और संती व सुनीति यही करने वाली थीं।

14 दिसंबर, 1931 को सुबह 10 बजे ज़िला मैजिस्ट्रेट के बंगले के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी। दो किशोरियाँ उसमें से हँसते हुए उतरीं। दोनों ने शायद ठंड से बचने के लिए रेशमी कपड़े को साड़ी के ऊपर से ओढ़ रखा था। उनके गलियारे तक पहुँचने के पहले ही गाड़ीवाला पूरी रफ्तार से वहाँ से निकल गया।

उन लड़कियों ने अंदर एक इंटरव्यू स्लिप भेजा, जिसके बाद एसडीओ नेपाल सेन के साथ मैजिस्ट्रेट बाहर निकले। अपने पास आए स्लिप पर स्टीवन ने एक नज़र डाली। इला सेन और मीरा देवी नाम की इन लड़कियों (जैसा कि उस पत्र पर हस्ताक्षर में लिखा था) ने मैजिस्ट्रेट को स्विमिंग क्लब में आमंत्रित किया था। ‘योर मैजेस्टी’ जैसे चापलूसी से भरे शब्दों का ज़्यादा उपयोग और कुछ गलत अंग्रेजी के इस्तेमाल ने उनकी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं होने दिया। इला ने अपनी पहचान एक पुलिस अफसर की बेटी के रूप में कराई, ताकि ‘मैजेस्टी’ की सहानुभूति उसे मिल जाए।

लड़कियाँ स्वीकृति के लिए अधीर हो रही थीं। इसके लिए उन्होंने स्टीवन से उस पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया। वह अपने चेंबर में गया और जल्दी ही हस्ताक्षर किए कागज़ ले कर लौट आया।

इसके बाद उसका घर गोलियों की आवाज़ से गूँज उठा। इस क्रूर मैजिस्ट्रेट ने अपनी आँखें बंद होने के पहले देखा कि ये वही दो लड़कियाँ थीं, जिन्होंने अब रेशमी कपड़ा उतार दिया था और उसके सीने पर पिस्तौल ताने खड़ी थीं।
एसडीओ के आते-आते बहुत देर हो चुकी थी। जब लोग इन लड़कियों को पकड़ने जमा हुए, तब शांति और सुनीति ने किसी भी तरह का विरोध नहीं किया और भीड़ की मार को सहती चली गईं।

ये हर तरह की यातना सहने के लिए खुद को तैयार कर के आई थीं। उनके दर्द सहने की क्षमता को परखने के लिए उनकी उंगलियों में पिन चुभोए गए, पर ये टूटी नहीं और न ही इन्होंने अपने गुप्त संगठन के बारे में एक शब्द बोला। उनके चेहरे पर उस समय भी शिकन तक नहीं उभरी, जब हथियारों की खोज के बहाने उनसे शारीरिक छेड़छाड़ की गई।
यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई।

क्रांतिकारियों ने इन बहादुर लड़कियों के बारे में पर्चे बांटे। मेजर के यूनिफ़ॉर्म में सुनीति की फोटो और उसके नीचे लिखी गई पंक्ति लोगों के दिलों मे बस गई। यह पंक्ति थी – रोकते अमार लेगेछे आज सोर्बोनाशेर नेशा – तबाही की ज्वलंत इच्छा आज मेरे लहू में दौड़ रही है।
यह मिशन तो सफल रहा, पर इन लड़कियों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी थी।

जब अदालत में मुकदमा शुरू हुआ तो उन्हें देख कर सब हतप्रभ रह गए। वे मुस्कुरा रही थीं। जब उन्हें बैठने के लिए कुर्सी देने से इनकार किया गया तो वे जज और कोर्ट के अन्य सदस्यों की ओर पीठ करके खड़ी हो गईं। उन्होंने किसी भी ऐसे इंसान को सम्मान देने से मना कर दिया, जो शिष्टाचार के सामान्य नियमों का भी पालन नहीं कर सकता था।

जब एसडीओ सेन गवाह के रूप में कोर्ट में आए और बनावटी कहानी गढ़ने लगे, तब इन्होंने इतनी ज़ोर से ‘बड़ा झूठा! बड़ा झूठा!’ बोलना शुरू कर दिया कि पूरे कोर्ट रूम में हलचल मच गई। उन्हें अपमानित कर कोई भी उनके आक्रोश से बच नहीं पाया। उनके मन में कोर्ट को लेकर कोई भय नहीं था।

ये पुलिस वैन से कोर्ट रूम तक जाते समय और फिर वापसी में देशभक्ति की गीत गातीं और उन लोगों को देख कर मुस्कुराती रहीं, जो वहाँ इकट्ठे हुए थे और इन्हें दूर से ही आशीर्वाद दे रहे थे।


उस समय छपी खबर

इनकी यह मुस्कुराहट उस समय थम गई, जब कोर्ट का फैसला आया। तब भीड़ ने इनके व्यक्तित्व का अलग ही पहलू देखा – अत्यंत दुखी और निराश। इन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गई थी, जिसका मतलब था कि इन्हें शहीद होने से रोक लिया गया था। रास्ते में इन्हें चिल्लाते सुना गया – “फांसी मिलनी चाहिए थी! फांसी इससे कई गुना बेहतर होती!” पत्रकार इन्हें देख कर अचंभित थे।

अधिकारियों ने इन्हें तोड़ने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी। प्रफुल्ल को मुख्य साजिशकर्ता के रूप में चिह्नित कर जेल में डाल दिया गया। बाद में उन्हें उनके ही घर में कड़ी निगरानी में रखा गया, जहाँ 5 साल बाद सही चिकित्सा नहीं मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

शांति को जेल में दूसरी श्रेणी के अन्य क्रांतिकारियों के साथ रखा गया, जबकि सुनीति को तीसरी श्रेणी में भेज दिया गया, जहाँ चोर और जेबकतरों को रखा जाता था।


उस समय बांटे गये पर्चे (स्त्रोत)
यहाँ खराब खाना और गंदे कपड़े उन्हें मिलते थे। पर मानवाधिकारों का पूरी तरह हनन होने के बाद भी सुनीति स्थिर और शांत रहीं। वह पुलिस द्वारा अपने माता-पिता पर हो रहे अत्याचारों और अपने बड़े भाई की गिरफ्तारी की खबर को सुन कर भी रोज़मर्रा के काम में व्यस्त रहतीं। अपने छोटे भाई का कलकत्ता की गलियों में फेरीवाला बनने और अंत में भूख और बीमारी के कारण मर जाने की खबर भी सुनीति को तोड़ नहीं पाई।
छोटे अपराधी उनके नम्र स्वभाव के कारण उन्हें पसंद करते थे। बीना दास ने एक घटना के बारे में लिखा है कि कैसे रमजान में रोजे के बाद एक औरत ने सुनीति से अपना नमक-पानी का घोल पीने की ज़िद की, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह नवयुवती इसकी अधिक हकदार है।

यह यातना आखिरकार 6 दिसंबर,1939 को खत्म हुई। द्वितीय विश्व-युद्ध के पहले आम माफ़ी की वार्ता के बाद इन सभी को रिहा कर दिया गया था। तब तक सुनीति 22 वर्ष की हो चुकी थीं। क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं ली थी।
पर क्रांतिकारी कभी कुछ नया करने से पीछे नहीं हटते।

अब इन्होंने पूरे ज़ोर-शोर से पढ़ाई शुरू कर दी और आशुतोष कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स (आई. एससी) प्रथम श्रेणी से पास किया। साल 1944 में इन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल स्कूल में दाखिला लिया। एमबी (आधुनिक एमबीबीएस) करने के बाद इन्होंने आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और भूतपूर्व राजनैतिक कैदी प्रद्योत कुमार घोष से शादी कर ली।

सुनीति का दयालु और समर्पण भरा स्वभाव उनके डॉक्टरी के पेशे से मेल खाता था। जल्द ही वे चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बन गईं। लोग उन्हे प्यार से ‘लेडी माँ’ बुलाने लगे।

अपने पति व बेटी के साथ सुनीति

1951-52 के आम चुनावों में डॉक्टर सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण इन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

सुनीति ने अपने भाइयों की भी उनके व्यवसाय में मदद की और लकवा से पीड़ित अपने माता-पिता का सहारा भी बनीं। इन्हें बच्चों और प्रकृति से प्रेम था। इन्होंने अपने बच्चों को बागवानी, तैराकी और प्रकृति विज्ञान की शिक्षा दी। 12 जनवरी, 1988 को इस क्रांतिकारी महिला ने दुनिया को अलविदा कहा। इनके देशप्रेम, बहादुरी और दयालुता के किस्से आने वाली पीढ़ियों को हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *