ज्ञान:शरणार्थी सम्मेलन 1951 का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है भारत, घुसपैठिये हैं लाखों

शरणार्थियों के लिये कानून चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission- NHRC) ने “भारत में बसे शरणार्थियों और यहाँ शरण चाहने वालों के बुनियादी मानवाधिकारों के संरक्षण” पर चर्चा की है।

चर्चा में शामिल कई प्रतिभागियों ने भारत के शरणार्थियों और यहाँ शरण चाहने वालों के लिये कोई विशिष्ट कानून नहीं होने का मुद्दा उठाया।
चर्चा में कहा गया कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन, 1951 पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, शरणार्थी और शरण चाहने वाले संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 20 (अपराधों की सज़ा के संबंध में संरक्षण) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में अधिकारों के हकदार हैं।

शरणार्थी संबंधी भारत की नीति

भारत में शरणार्थियों की समस्या के समाधान को विशिष्ट कानून का अभाव है, इसके बावजूद उनकी संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
विदेशी अधिनियम, 1946 शरणार्थियों से संबंधित समस्याओं के समाधान करने में विफल  है। यह केंद्र सरकार को किसी भी विदेशी नागरिक को निर्वासित करने को अपार शक्ति भी देता है।
इसके अलावा नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), 2019 से मुसलमानों को बाहर रखा गया है और यह केवल हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी, सिख तथा बांग्लादेश, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान से आए बौद्ध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करता है।
इसके अलावा भारत वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और शरणार्थी संरक्षण से संबंधित प्रमुख कानूनी दस्तावेज़ 1967 प्रोटोकॉल का पक्षकार नहीं है।
इसके वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और 1967 प्रोटोकॉल के पक्ष में नहीं होने के बावजूद भारत में शरणार्थियों की बहुत बड़ी संख्या रहती है। भारत में विदेशी लोगों और संस्कृति को आत्मसात करने की एक नैतिक परंपरा है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम स्टेट ऑफ अरुणाचल प्रदेश (1996) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “सभी अधिकार नागरिकों को उपलब्ध हैं, जबकि विदेशी नागरिकों सहित सभी व्यक्तियों को समानता का अधिकार और जीवन का अधिकार उपलब्ध हैं।”
भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 21 में शरणार्थियों को उनके मूल देश में वापस नहीं भेजे जाने यानी ‘नॉन-रिफाउलमेंट’ (Non-Refoulement) का अधिकार शामिल है।
नॉन-रिफाउलमेंट, अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत एक सिद्धांत है, जिसके अनुसार, अपने देश से उत्पीड़न के कारण भागने वाले व्यक्ति को उसी देश में वापस जाने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिये।

भारत ने अब तक शरणार्थियों पर कानून क्यों नहीं बनाया?

शरणार्थी बनाम अप्रवासी

हाल के दिनों में पड़ोसी देशों के कई लोग भारत में राज्य उत्पीड़न के कारण नहीं बल्कि बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में अवैध रूप से भारत आए हैं जबकि वास्तविकता यह है कि देश में अधिकतर बहस शरणार्थियों के बजाय अवैध प्रवासियों को लेकर होती है ऐसी स्थिति में सामान्यतः दोनों श्रेणियों को एकीकृत कर दिया जाता है।

कानून का दुरुपयोग

देशद्रोही, आतंकवादी और आपराधिक तत्त्व इसका दुरुपयोग कर सकते है और इससे देश पर वित्तीय बोझ पड़ेगा।

अस्पष्टता

कानून की अनुपस्थिति में भारत के लिये शरणार्थियों के प्रवासन पर निर्णय लेने हेतु तमाम विकल्प खुले हैं। भारत सरकार शरणार्थियों के किसी भी समूह को अवैध आप्रवासी घोषित कर सकती है।
उदाहरण को  UNHCR के सत्यापन के बावजूद भारत सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों (राज्यविहीन इंडो-आर्यन जातीय समूह, जो रखाइन राज्य, म्याँमार में रहते हैं) से संबंधित मुद्दों से निपटने को विदेशी अधिनियम या भारतीय पासपोर्ट अधिनियम के प्रयोग का निर्णय लिया गया।

शरणार्थियों पर कानून की आवश्यकता,दीर्घकालिक व्यावहारिक समाधान

भारत अक्सर शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या का सामना करता है। इसलिये एक दीर्घकालिक व्यावहारिक समाधान की आवश्यकता है ताकि भारत एक राष्ट्रीय शरणार्थी कानून बनाकर अपने धर्मार्थ दृष्टिकोण से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण में बदलाव कर सके।

मानवाधिकारों का पालन

एक राष्ट्रीय शरणार्थी कानून सभी प्रकार के शरणार्थियों के लिये शरणार्थी-स्थिति निर्धारण प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करेगा और अंतर्राष्ट्रीय कानून में उनके अधिकारों की गारंटी देगा।

सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करना

यह भारत की सुरक्षा चिंताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित कर सकता है, साथ ही यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रीय-सुरक्षा चिंताओं की आड़ में कोई गैर-कानूनी हिरासत या निर्वासन न किया जाए।

शरणार्थियों के उपचार में असंगति

भारत में शरणार्थी आबादी का बड़ा हिस्सा श्रीलंका, तिब्बत, म्याँमार और अफगानिस्तान आए लोगों का है।
हालाँकि केवल तिब्बती और श्रीलंकाई शरणार्थी ही सरकार से मान्य है। उन्हें सरकारी विशिष्ट नीतियों एवं नियमों के माध्यम से सुरक्षा व सहायता प्रदान की जाती है।

शरणार्थी

एक शरणार्थी वह व्यक्ति है जिसने मानवाधिकारों के उल्लंघन तथा उत्पीड़ित होने के भय से अपने देश से पलायन किया है।
उनकी सुरक्षा और जीवन का ज़ोखिम इतना अधिक बढ़ जाता है कि अपने देश से बाहर जाने और सुरक्षा की तलाश करने के अलावा उन्हें कोई विकल्प नज़र नहीं आता है।
ऐसा इसलिये है क्योंकि उनकी अपनी सरकार उन खतरों से उनकी रक्षा नहीं कर सकती है
शरणार्थियों को अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण का अधिकार है।

शरण तलाशने वाला

शरण चाहने वाला (Asylum-Seeker) वह व्यक्ति होता है जो अपना देश छोड़ चुका है और दूसरे देश में उत्पीड़न एवं गंभीर मानवाधिकारों के उल्लंघन से सुरक्षा की मांग करता है।
हालाँकि इन्हें अभी तक कानूनी रूप से शरणार्थी के रूप में मान्यता नहीं मिली है और ये अपने शरण के दावे पर निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
शरण मांगना मानवाधिकार है।
इसका मतलब है कि सभी को शरण लेने के लिये दूसरे देश में प्रवेश करने की अनुमति दी जानी चाहिये।

प्रवासी

प्रवासी की कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत कानूनी परिभाषा नहीं है।
प्रवासियों को अपने मूल देश से बाहर रहने वाले लोगों के रूप में समझा जा सकता है, जो शरण चाहने वाले या शरणार्थी नहीं हैं।
उदाहरण को कुछ प्रवासी अपना देश छोड़ देते हैं क्योंकि वे कार्य करना, अध्ययन करना या परिवार में शामिल होना चाहते हैं।
ये गरीबी, राजनीतिक अशांति, सामूहिक हिंसा, प्राकृतिक आपदाओं या अन्य गंभीर परिस्थितियों के कारण अपना देश नहीं छोड़ते।

आगे की राह

विशेषज्ञ समिति द्वारा मॉडल कानूनों में संशोधन

शरण और शरणार्थियों पर मॉडल कानून जो दशकों पहले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा तैयार किये गए लेकिन सरकार द्वारा लागू नहीं किये गए थे, को एक विशेषज्ञ समिति द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
यदि ऐसे कानून बनाए जाते हैं तो यह मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए कानूनी संरक्षण और एकरूपता प्रदान करेगा।

कानून एक निवारक के रूप में कार्य कर सकता है

यदि भारत में शरणार्थियों के संबंध में घरेलू कानून होता तो यह किसी भी पड़ोसी देश में दमनकारी सरकार को उनकी आबादी को सताने और उन्हें भारत आने से रोक सकता था।
स्रोत: द हिंदू

 

 

शरणार्थियों के अधिकार और भारत में इनकी स्थिति

कई बार हमें देश-विदेश में बढ रही शरणार्थियों की समस्या का जिक्र सुनने को मिल जाता है, उनकी स्थिति देखकर अपने घर की छत कीमती लगने लगती है। भला कौन व्यक्ति चाहेगा कि उसे अपने घर अथवा देश को मजबूरन छोड़कर किसी दूसरे देश में शरण लेनी पड़े, वह भी असुरक्षा के साथ। कई देशों के लिए शरणार्थी एक समस्या है, परंतु दुर्भाग्यवश इन शरणार्थियों की अपनी विकट समस्याएं हैं। हालांकि इनके भी अपने कुछ मूल अधिकार हैं।
1951 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहली बार शरणार्थी सम्मलेन आयोजित किया गया, और उन्हें पहली बार परिभाषित किया गया। उनके अनुसार “शरणार्थी वे लोग होते हैं, जो अपनी जाति , धर्म, राष्ट्रीयता, राजनीतिक राय अथवा सामाजिक समूह से निर्ममता से प्रताड़ित हो तथा इससे उन्हें अपना घर एवं मूल देश छोड़ना पड़े और किसी अन्य देश में शरण लेनी पड़े। ये वस्तुतः दुनिया में सबसे कमजोर लोग होते हैं, जिन्हे मानवता के सबसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। हालाँकि 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल के अनुसार शरणार्थियों के अपने अधिकार होते हैं, जिनमें उन्हें किसी अन्य देश में भी विदेशियों की भांति सम्मान दिया जाना चाहिए, तथा कई मामलों में उनके साथ देश के मूल नागरिकों के समान ही व्यवहार होना चाहिए। 1951 का शरणार्थी सम्मेलन मेजबान देशों में जाने पर उस देश के प्रति शरणार्थियों के दायित्वों पर भी प्रकाश डालता है। यह दायित्व गैर-शोधन के सिद्धांत पर धारित हैं, जिसके अनुसार किसी भी शरणार्थी को वापस उस देश में नहीं लौटाना चाहिए, जहां वह आज़ादी अथवा जीवन के संबंध में गंभीर खतरे का सामना कर चुका हो। परंतु यह सिद्धांत उन शरणार्थियों पर लागू नहीं होता जिन्हे पहले से ही देश की सुरक्षा के लिए खतरा माना गया हो अथवा जो गंभीर अपराध के दोषी साबित हुए हों। 1951 के कन्वेंशन (Convention) में कुछ शर्तों के साथ इन्हे विशेष अधिकार दिए गए, जैसे:-
1. मेज़बान देश में कुछ शर्तों को छोड़कर, देश से निष्कासित न करने का अधिकार।
2. देश के किसी अन्य राज्य अथवा क्षेत्र में अवैध रूप से प्रवेश करने पर दंडित न होने का अधिकार।
3. मेज़बान देश में काम करने का अधिकार।
4. मेज़बान देश में आवास तथा शिक्षा का अधिकार।
5. सार्वजनिक राहत और सहायता का अधिकार।
6. देश की अदालत की सहायता लेने का अधिकार।
7. निर्धारित क्षेत्र के भीतर आंदोलन करने की स्वतंत्रता का अधिकार।
8. पहचान एवं यात्रा संबंधी दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार।
इसके अलावा वे जितने लम्बे समय तक मेज़बान देश में रहते हैं उतने ही अधिक उनके अधिकार भी बढने लगते हैं।
दुनिया भर में शरणार्थियों की अनिश्चित स्थिति के परिपेक्ष्य में जागरूकता बढ़ाने लिए 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इससे आम जनता में युद्ध, उत्पीड़न और संघर्ष के कारण अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो चुके, लोगों के बारे में एक नजरिया बनता है। 2017 में यूएनएचसीआर (UNHCR) ने अपनी एक रिपोर्ट प्रतिपादित की जिसके अनुसार भारत में लगभग 2,00,000 शरणार्थी पनाह लिए हैं, जिनमे से अधिकांश म्यांमार, अफगानिस्तान, सोमालिया, तिब्बत, श्रीलंका, पाकिस्तान, फिलिस्तीन और बर्मा जैसे देशों से अल्पसंख्यक हैं, जो भारत को एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में देखते हैं।

यूएनएचसीआर (UNHCR) ने शरणार्थी संकट से निपटने के परिपेक्ष्य में भारत की सराहना करते हुए कहा, कि भारत अन्य देशों के लिए शरणार्थी समस्या के सन्दर्भ में एक रोल मॉडल है। जबकि भारत उन देशों में भी शामिल नहीं है, जिन्होंने 1951 के शरणार्थी सम्मेलन में हस्ताक्षर किए थे। क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की बाद जब संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के लिए पहली बार कन्वेंशन का प्रस्ताव दिया गया, तो भारत ने इसे एक अन्य शीत युद्ध रणनीति के रूप में देखा। साथ ही भारत स्वतंत्रता के बाद भारत तटस्थ रहने की कोशिश कर रहा था। इसलिए उस समय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए थै।

यद्यपि किन्ही आधिकारिक कारणों से भारत ने इस कानून से परहेज नहीं किया, हालांकि संभावित कारणों में से एक कन्वेंशन में ‘शरणार्थी’ शब्द की परिभाषा भी हो सकती है, जिसमे केवल जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों या उत्पीड़न के लिए शरणार्थी को परिभाषित किया गया था और जहाँ हिंसा या गरीबी को शरणार्थी होने के कारणों में नहीं गिना गया था। उस समय यह भी विचार गया कि हमारा देश पहले से ही 1.2 अरब लोगों की आबादी के साथ संघर्ष कर रहा है, ऊपर से नए आने वाले शरणार्थी औसत मज़दूरी घटा सकते हैं। साथ ही इनकी बढ़ती संख्या संसाधनों पर भी भारी दबाव डालती है, और कुछ मामलों में शरणार्थी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी हो सकते हैं, क्योंकि इनकी आड़ में देश में आंतकवादी भी घुस सकते हैं। इसके अलावा, पूर्वोत्तर राज्यों जैसे त्रिपुरा, मेघालय और असम जैसे छोटे राज्यों में, शरणार्थियों के एक बड़े प्रवाह के कारण मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। यही सब कुछ ऐसे कारण है जिनकी वजह से भारत ने 1951 के शरणार्थी सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने में असमर्थता दिखाई। परन्तु हस्ताक्षर न करने के बावजूद भी भारत शरणार्थियों को पनाह देकर समग्र विश्व के सामने एक बेहतरीन मिसाल पेश कर रहा है। साथ ही हमें देश की आतंरिक सुरक्षा और संसाधनों की समस्या को भी अपने दृष्टि पटल में रखकर किसी भी शरणार्थी को देश में स्थान और अधिकार देने की आवश्यकता है।

संदर्भ
https://bit.ly/35KvRNi
https://bit.ly/2TTlVOR
https://bit.ly/3gJVPHm

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