ज्ञान: गुजरात के लोथल में था समुद्री जहाजों का कारखाना-2

विनाशपर्व

‘अंग्रेजों ने नष्ट किया भारत का समृध्द नौकायन उद्योग’ / २

लेखक:- प्रशांत पोळ

दुर्भाग्य से हमने अपने इतिहास को सही तरीके से संजोकर, संभालकर नहीं रखा, इसीलिए कोलंबस, वास्को-दि-गामा, मार्को पोलो, ह्वेन सांग जैसे नाम विश्वप्रसिद्ध हुए… लेकिन भारत के अनेक पराक्रमी नाविकों / व्यापारियों एवं राजाओं के नाम इतिहास की कालकोठरी में गुम हो गए.

डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर, एक नामचीन पुरातत्ववेत्ता हैं. मध्यप्रदेश में आदिम युग के चिन्हों से युक्त ‘भीमबेटका’ गुफाओं की खोज इन्होंने ही की है. डॉक्टर शरद हेबालकर की पुस्तक में प्रस्तावना लिखते समय वाकणकर ने उनके वर्ष १९८४ के अमेरिका और मैक्सिको प्रवास का अनुभव लिखा है. इस प्रस्तावना में उन्होंने अमेरिका स्थित सैन दिएगो के पुरातत्व संग्रहालय के अध्यक्ष बेरीफेल का उल्लेख किया है. बेरीफेल ने मैक्सिको के उत्तर-पश्चिम में स्थित युकाटन राज्य के तावसुको नामक स्थान पर, माया संस्कृति के मंदिरों से प्राप्त ‘वासुलून” नाम के भारतीय महानाविक की भाषा एवं लिपि में लिखे गए सन्देश का उल्लेख किया है. और इसी तथ्य के माध्यम से बेरीफेल ने निर्विवाद रूप से सिद्ध किया है कि आठवीं और नौंवी शताब्दी में वहाँ भारतीय आते-जाते रहे हैं.

मौर्य, पल्लव, चोल आदि राजवंशों के काल में भारतीय नौकानयन शास्त्र अपने चरम पर था. उन्नत किस्म के विशाल जहाज भारत में बनते थे.

१९५५ और १९६१ में गुजरात के ‘लोथल’ में पुरातत्व विभाग ने उत्खनन किया था. लोथल भले ही एकदम समुद्र के किनारे पर स्थित नहीं है, परन्तु समुद्र की एक छोटी पट्टी लोथल तक आई हुई है. साबरमती नदी के मुहाने पर यह हैं. पुरातत्व विभाग के उत्खनन में यह सामने आया कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले लोथल एक वैभवशाली बंदरगाह था. इस स्थान पर अत्यंत उन्नत एवं साफ़-सुथरी उत्तम नगर संरचना स्थित थी. परन्तु उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह निकलकर आई कि लोथल में जहाज़ों के निर्माण का कारखाना था. लोथल से अरब देशों एवं इजिप्त देश में बड़े पैमाने पर व्यापारिक गतिविधियों के भी प्रमाण मिले.

लगभग सन १९५५ तक लोथल अथवा पश्चिमी भारत के नौकायन शास्त्र सम्बन्धित अधिक तथ्य हमारे पास नहीं थे. परन्तु लोथल में किए उत्खनन के कारण इस ज्ञान के दरवाजे दुनिया के सामने खुल गए. इस खुदाई से पता चला कि समुद्र किनारे पर स्थित नहीं होने के बावजूद लोथल में नौकायन विज्ञान इतना समृद्ध था, और वहाँ नौकायन से सम्बन्धित इतनी गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं, तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल जैसे दूसरे पश्चिमी राज्यों के समुद्र किनारों पर, इस बंदरगाह से भी अधिक कितनी ही सरस एवं समृद्ध संरचनाएं रही होंगी.

आज हम जिसे मुंबई में ‘नालासोपारा’ कहते हैं, वहाँ पर लगभग हजार / डेढ़ हजार वर्ष पहले ‘शुर्पारक’ नामक वैभवशाली बंदरगाह था. इस स्थान पर भारत के जहाज़ों के अलावा अनेक देशों के जहाज व्यापार करने आते थे. इसी प्रकार दाभोल.. इसी प्रकार सूरत…

आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य स्थापित होने के बाद उस राज्य ने दक्षिण भारत में अनेक विशाल और सुन्दर बंदरगाहों का निर्माण किया तथा पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही दिशाओं में व्यापार आरम्भ किया.

जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, सयाम, यवद्वीप इत्यादि सभी तत्कालीन देश, जो वर्तमान में इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, कम्बोडिया, विएतनाम वगैरह नामों से जाने जाते हैं, इन सभी देशों पर हिन्दू संस्कृति की जबरदस्त छाप आज भी मौजूद है. दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के हिन्दू राजा इन प्रदेशों में गए थे. ऐसा कोई भी तथ्य नहीं मिलता कि भारत से गए राजाओं ने वहाँ भीषण युद्ध किया हो. इसकी बजाय शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी समृद्ध संस्कृति के बल पर समूचा दक्षिण-पूर्व एशिया धीरे-धीरे हिन्दू विचारों को अपना मानने लगा था.

अब एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब बड़े पैमाने पर हिन्दू राजा आंध्र, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गए, तो वे कैसे गए होंगे…? ज़ाहिर है कि समुद्री मार्ग से ही गए होंगे. अर्थात उस कालखंड में भारत में नौकायन शास्त्र अत्यंत उन्नत स्थिति में मौजूद था. उस कालखंड के भारतीय नौकाओं एवं नाविकों के अनेक चित्र एवं मूर्तियाँ कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बाली जैसे स्थानों पर दिखाई देती हैं. उस काल में भी कम से कम सात सौ यात्रियों को ले जाने की क्षमता वाली नौकाओं का निर्माण भारत में होता था.

सुमात्रा द्वीप समूह, वर्तमान में इंडोनेशिया का एक हिस्सा हैं. इस द्वीप समूह में, एक पहाड़ पर ‘बोरबूदूर’ नाम का एक देवस्थान (मंदिर) हैं. इस मंदिर के दीवार पर अनेक चित्र उकेरे गए हैं, जिनमे भारतीय जहाजों के चित्र बहुतायत हैं. इन चित्रों में तत्कालीन भव्य और विशाल जहाज मिलते हैं.

उस काल में समुद्री यात्राओं की स्थिति को देखते हुए, यह निश्चित कहा जा सकता है कि भारतीयों के पास उत्तम दिशाज्ञान एवं समुद्री वातावरण की पूरी समझ थी, अन्यथा उस समय उफनते समुद्र में, आज जैसे आधुनिक मौसम यंत्र एवं यात्राओं संबंधी विभिन्न साधनों के नहीं होने के बावजूद, इतनी दूर के देशों तक पहुंचना, उन देशों से सम्बन्ध बनाना, वहां पर व्यापार करना, भारत जैसे देश के ‘एक्सटेंशन’ की तरह उन देशों से संपर्क लगातार बनाए रखना… इससे सिद्ध होता है कि भारतीयों का नौकायन शास्त्र उन दिनों अत्यधिक उन्नत रहा ही होगा.

अजंता की गुफाओं में जो चित्र बने हैं, उन में एक चित्र ईसा के ५४३ वर्ष पहले, श्रीलंका में जहाज ले कर गए हुए विजयसिंह का हैं. भोपाल के पास स्थित ‘सांची’ के स्तूप में भी अनेक प्राचीन चित्र बनाएं / उकेरे गए हैं. इन चित्रों में उस जमाने के एक विलासी जहाज का चित्र भी हैं. केरल के कड़क्करापल्ली में एक नाव (छोटा जहाज) के साबुत अवशेष मिले हैं. यह नाव वर्ष ९०० से वर्ष १२०० के बीच की होने की संभवना हैं. १४.५ मीटर लंबी और ४ मीटर चौड़ी यह नाव, किसी भी मानकों पर मजबूत इस श्रेणी में आती हैं.
(…..क्रमशः)
– ✍🏻प्रशांत पोळ
(सन्दर्भ सूची पोस्ट के दूसरे और अंतिम भाग में दी जाएगी)

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