ज्ञान: मालदीव चीन के और नजदीक,भारत देख रहा तमाशा
मालदीव का चीन के क़रीब जाना क्या भारत के ख़िलाफ़ है?
भारत से बढ़ी तनातनी के बीच मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू ने चीन का दौरा पूरा कर लिया है.इस दौरे में चीन और मालदीव में 20 समझौते हुए हैं. मुइज़्ज़ू ने वो परंपरा तोड़ी है,जिसमें मालदीव का नया राष्ट्रपति पहला विदेशी दौरा भारत का करता था.
मुइज़्जू ने पहला दौरा तुर्की का किया था.उसके बाद यूएई और अब चीन का दौरा पूरा किया.
इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में मुइज़्ज़ू इंडिया आउट कैंपेन ज़ोर शोर से चला रहे थे.
चीन से लौटने पर उन्होंने ये भी घोषणा कि कि मालदीव से 88 भारतीय सैनिकों को 15 मार्च तक लौट जाना होगा.
मुइज़्ज़ू का मानना है कि मालदीव की धरती पर विदेशी सैनिकों का होना, मुल्क की संप्रभुता के ख़िलाफ़ है.
मालदीव और चीन के बीच समझौते
चीन और मालदीव के बीच हुए समझौतों में पर्यटन सेक्टर, प्राकृतिक आपदाओं के ख़तरों से निपटने, समुद्री अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और डिज़िटल अर्थव्यवस्था में सहयोग को लेकर बनी सहमति बनी है.
समझौते में शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ में सहयोग का फॉर्मूला तय करना भी शामिल है.
मालदीव में हाउसिंग प्रोजेक्ट, फिशरीज प्रोडक्ट्स की प्रोसेसिंग फैक्ट्री और राजधानी माले की पुनर्विकास परियोजना में भी चीन सहयोग करेगा.
मालदीव चीन से पर्यटन और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सबसे ज़्यादा सहयोग चाहता है.मालदीव अर्थव्यवस्था में एक तिहाई योगदान टूरिजम सेक्टर का है.
कुछ मीडिया रिपोर्टों में तो कहा गया है कि मालदीव चीन से मुक्त व्यापार समझौता चाहता है लेकिन इससे चीनी क़र्ज़ में फँसने का ख़तरा है. रिपोर्टों में ये भी कहा गया है चीन मालदीव को 13 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद देगा. हालांकि समझौते की घोषणा में इसका उल्लेख नहीं है.
मुइज़्ज़ू मालदीव को चीन के क़रीब ले जाकर क्या हासिल करना चाहते हैं?
इन सवालों के जवाब खोजने को जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के सेंटर फॉर ईस्ट एशियन स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी से बात की गई तो उनका कहना था कि चूंकि मालदीव में पर्यटन सबसे बड़ा उद्योग है, इसलिए चीनी रिजॉर्ट कंपनियां वहाँ काफ़ी पहले से सक्रिय रही हैं.
कोविड के दौरान जब ज़्यादातर देशों ने मालदीव के पर्यटन उद्योग में अपना काम बंद कर दिया था तब भी चीनी कंपनियां यहाँ पैसा लगा रही थीं.
लेकिन चीनी कंपनियों का ये पैसा बाज़ार से इकट्ठा नहीं किया गया था. ये पैसा चीन के सरकारी बैंकों का था. यानी ये सीधे तौर पर चीन की सरकार का पैसा था.
येलेरी कहते हैं, ”मुइज़्ज़ू के आने से इस पैसे पर मुहर लग गई है. यानी ऐसा पैसा जो अब तक अनौपचारिक तरीक़े से आ रहा था अब औपचारिक हो जाएगा. मतलब ये कि अगर चीनी निवेश के संबंध में भविष्य में कोई विवाद होता है तो मामला चीनी अदालत में जाएगा और मालदीव सरकार हर्जाना भरने को बाध्य होगी.”
‘इस समझौते से चीन ने मालदीव सरकार को अपनी शर्तों से बांध दिया है.भविष्य में मालदीव में कोई दूसरी सरकार भी आए तो भी उस ये समझौता बाध्यकारी होगा.’
मुइज़्ज़ू की रणनीति क्या है?
सवाल ये उठता है कि क्या मालदीव इतना कच्चा खिलाड़ी है कि वो चीन की रणनीति को न समझ सके?
ख़ास कर तब श्रीलंका समेत कई दूसरे देश चीन पर क़र्ज़ के साथ अपनी शर्तें लादने के आरोप लगाते रहे हैं.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉन्फ़्लिक्ट रिज़ोल्यूशन में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं कि दो बड़ी ताक़तों के बीच छोटे देश ‘स्विंग स्टेट’ की तरह व्यवहार करते हैं.जहाँ से उनका ज़्यादा हित सधता है, उसकी ओर वो ज़्यादा झुकाव रखते हैं और दूसरी ओर के देश से सौदेबाजी वाले संबंध बनाए रखते हैं.वह कहते हैं,” मुइज़्ज़ू की पार्टी चीन समर्थक रही है और ये उसकी घरेलू राजनीति का भी हिस्सा रहा है.इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में कई बार घरेलू राजनीति का असर दिखता है. मुइज़्ज़ू सरकार ने अपने इसी पुराने रुख़ को बनाये रखते हुए चीन की ओर ज़्यादा झुकाव दिखाया है। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष ये है कि मालदीव पर चीनी क़र्ज़ इतना ज़्यादा है कि मुइज़्ज़ू सरकार को चुकाना संभव नहीं। ऐसे देखें तो चीन की तरफ़ झुकाव मालदीव की व्यावहारिकता है.”
चीन की आर्थिक ताक़त और मालदीव का झुकाव
चीन की विदेश नीति में लेनदेन की भूमिका प्रभावी है. कहा जाता है कि इसका विचारधारा से ज़्यादा लेना-देना नहीं है. घरेलू राजनीति विदेश नीति में दिखाई नहीं पड़ती.चीन कैश रिच इकोनॉमी है.आज की तारीख़ में चीन यूरोप,अमेरिका, ईरान,रूस समेत दुनिया के तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है.भारत का भी ये बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है.चीन की अर्थव्यवस्था 18 ट्रिलियन डॉलर की है जबकि भारत अभी पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की कोशिश कर रहा है.
मालदीव की अर्थव्यवस्था का सबसे नाज़ुक पहलू है इसकी अर्थव्यवस्था का पर्यटन पर बहुत ज़्यादा निर्भरता. ऐसे में उसे अपनी अर्थव्यवस्था को डाइवर्सिफिाई करने की जरूरत है.प्रेमानंद मिश्रा मालदीव की इसी ज़रूरत की ओर संकेत करते हैं,”अपनी अर्थव्यवस्था की किसी एक उद्योग या सेक्टर पर निर्भरता ख़त्म करने को किसी भी देश को इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करना होता है.मालदीव के पास इसको ज़रूरी फंड नहीं हैं.चीन अपनी आर्थिक ताक़त के बूते फंड की कमी पूरी कर सकता है.यहाँ भारत कमज़ोर पड़ जाता है.”
वह कहते हैं, ”भारत मालदीव की अर्थव्यवस्था के ढांचागत हालात को सुधारने में चीन की ऊंचाई तक जाकर मदद नहीं कर सकता.चीन के मालदीव के साथ समझौतों का ज़्यादा ज़ोर इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर ही है ताकि भारत का ये पड़ोसी द्वीपीय देश अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बना सके. ”
मालदीव के मौजूदा रुख़ पर भारत क्या करे?
प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं कि डिप्लोमैसी में एक परिपक्वता होनी चाहिए. यह ज़ीरो सम गेम नहीं होता. यानी किसी का नुकसान किसी का फ़ायदा नहीं हो सकता.
भारत मालदीव को लेकर अपनी डिप्लोमैसी में पूरी परिपक्वता दिखा रहा है. कल ही भारत और मालदीव के अधिकारियों के साथ उच्च स्तरीय बैठक हुई जिसमें
भारतीय सैनिकों की वापसी से पैदा होने वाले हालात सुलझाने पर चर्चा हुई. आगे ऐसी और भी बैठकें हो सकती हैं.उनका कहना है कि नैरेटिव से विदेश नीति के पहलू तय नहीं होते.
लक्षद्वीप विवाद पर भारत में भले ही सोशल मीडियाा पर भले आक्रामकता दिखी लेकिन भारत ने इस पर अपनी ओर से कोई बयान नहीं दिया.
पिछले कुछ महीनों से मालदीव के भारत के साथ चल रहे तनाव के बाद पहली बार विदेश मंत्री एस जयशंकर का बयान आया और वो भी बेहद सधे तरीक़े से.
जयशंकर ने कहा, ”राजनीति तो राजनीति है. हमने कई मामलों में मज़बूत संपर्क स्थापित किए हैं.”’राजनीति में उठापटक की स्थिति रहती है लेकिन भारत के बारे में वहां के आम लोगों की राय अच्छी है और उन्हें भारत से अच्छे संबंधों का महत्व पता है.”
प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, ”बड़ी और समझदार ताक़तें तीन चीज़ों पर ध्यान देती है.वो कितनी सम्मानित,कितनी ज़िम्मेदार और कितनी स्वीकार्य ताक़त है.एक परिपक्व कूटनीति कभी भी दूसरे देश पर धौंस नहीं जमाती.”
‘अति राष्ट्रवाद हमारी ताक़त को नुक़सान पहुंचा सकता है. अगर सम्मानित, ज़िम्मेदार और स्वीकार्य ताक़त बनना है तो मैच्योर कूटनीति का सहारा लेना पड़ेगा और भारत यही कर रहा है.”
मालदीव के प्रति भारत का मौजूदा रवैया क्या कहता है?
मालदीव के लिए भारत के कूटनीतिक रूख का कारण समझाते हुए अरविंद येलेरी कहते हैं कि श्रीलंका, बांग्ला देश और पाकिस्तान जैसे देशों ने चीन से क़र्ज़ लेकर समझ लिया है कि इसके क्या ख़तरे हैं. लेकिन मालदीव के लिए वो समय अभी नहीं आया है.
वो कहते हैं, ”मुइज़्ज़ू सरकार भले ही अभी चीन पर बहुत ज़्यादा निर्भरता दिखा रही हो लेकिन एक समय आएगा कि वो चीन की आर्थिक मदद के ख़तरे समझ जाएगा .पिछले दस साल में भारत ने कभी भी आगे बढ़ कर अपने किसी पड़ोसी देश में हस्तक्षेप नहीं किया है.”
येलेरी कहते हैं,”चीनी ख़तरा मालदीव जनता समझ रही हैं. यहाँ तक कि लक्षद्वीप पर टिप्पणी करने के आरोप में जो मंत्री हटाये गये उनमें से भी एक ने कहा कि भारत मुस्लिम विरोधी है लेकिन चीन अपने मुस्लिमों से क्या कर रहा है ये भी दुनिया देख रही है.”
‘भारत की परिपक्वता इस बात से स्पष्ट है कि इसने पड़ोसी देशों से विवाद में भी एक ‘प्रोग्रेसिव डिस्कनेक्ट’ की नीति अपनाई है. यानी भारत उससे भले ही दूरी बनाए रखेगा लेकिन संबंध नहीं तोड़ेगा.”
अपनी इस नीति में भारत मालदीव में मौजूद अपने 88 सैनिक वापस बुलाने को तैयार है.लेकिन इसे आपसी रिश्तों पर बोझ बनाने की जगह वह इसके समाधान को मालदीव से बातचीत को तैयार है.
दोनों देशों के उच्चाधिकारियों की इस विषय पर एक उच्च स्तरीय बैठक हो चुकी है और कुछ बैठकें अभी होनी हैं.
भारतीय सैनिक मालदीव में क्यों हैं?
मालदीव में भारत के सिर्फ 88 सैनिक हैं. इन सैनिकों को विभिन्न अवसरों पर युद्ध,टोही और बचाव-राहत ऑपरेशनों में मालदीव के सैनिकों को ट्रेनिंग देने भेजा गया है.लेकिन इतने कम सैनिकों की मौजूदगी को मालदीव के कुछ राजनीतिक दल और लोग मानते हैं कि ये उनके देश की संप्रभुता को ख़तरा है.
भारत और मालदीव रक्षा समेत कई क्षेत्रों में नज़दीकी सहयोगी रहे हैं.नवंबर 1988 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम की सरकार की तख्तापलट की कोशिश हुई थी। भारतीय सैनिकों ने त्वरित कार्रवाई कर इसे विफल कर दिया था और विद्रोही पकड़ लिये थे.