ज्ञान: नेहरू ने कराया पहला असंवैधानिक संविधान संशोधन
कहानी संविधान में पहले संशोधन की, ‘तानाशाही’ के आरोपों के बीच नेहरू ने कहा हालात ‘बर्दाश्त के बाहर’
संसद में जवाहरलाल नेहरू.
संविधान लागू होने के 14 महीनों के अंदर ही अदालतों ने सरकार के ख़िलाफ़ कई फ़ैसले सुना दिए थे
संविधान के लागू होने होने के कुछ महीनों के अंदर ही सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीति के सामने चुनौतियाँ आने लगीं.
नए संविधान का हवाला देते हुए व्यापारियों, ज़मीदारों. संपादकों और पीड़ित व्यक्तियों ने बार-बार केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अदालत के कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया.
सरकार पर आरोप थे कि वो न सिर्फ़ नागरिक अधिकारों का हनन कर रही है बल्कि प्रेस पर सेंसरशिप भी लागू कर रही है और ज़मींदारों की संपत्ति हड़पने की कोशिश कर रही है.
संविधान लागू होने के 14 महीनों के अंदर ही अदालतों ने सरकार के ख़िलाफ़ कई फ़ैसले सुना दिए थे.
भारतीय संविधान में 1951 में लागू पहले संशोधन अधिनियम के तहत मौलिक अधिकारों के प्रावधानों में कई बदलाव किए थे.
इस संशोधन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने और जमींदारी उन्मूलन कानूनों को वैध बनाने के प्रावधान किए गए. साथ ही स्पष्ट किया कि समानता का अधिकार समाज के कमज़ोर वर्गों के लिए ‘विशेष अधिकार’ देने वाले कानूनों के अधिनियमन को नहीं रोकता है.
लेकिन इस संशोधन के लिए सरकार को काफ़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था.
त्रिपुरदमन सिंह अपनी किताब ‘सिक्सटीन स्टॉर्मी डेज़ द स्टोरी ऑफ़ द फ़र्स्ट अमेंडमेंट टू द कॉन्सटीट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ में लिखते हैं, “दिल्ली में आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइज़र’ की शिकायत पर अदालत ने सरकार को ग़लत ठहरा दिया था.”
“हुआ ये था कि दिल्ली के मुख्यायुक्त ने पूर्वी पंजाब सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत ऑर्गेनाइज़र को आदेश दिया था कि वो हर अंक को छापने से पहले सरकार की अनुमति लें.”
“इसी तरह बंबई में नेहरू और कांग्रेस सरकार की आलोचना करने वाले वामपंथी साप्ताहिक ‘क्रॉसरोड’ पर प्रतिबंध लगाने के सरकारी आदेश को अदालत ने रद्द कर दिया था.”
“उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ज़मींदारी उन्मूलन कानून के अंतर्गत की कार्रवाई के कई मामलों को अवैध घोषित कर दिया था.”
कई सरकारी फ़ैसलों को अदालती चुनौती
जवाहरलाल नेहरू.
संविधान लागू होने के 15 महीनों में बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और मद्रास में अदालतों ने सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसले दिए.
मध्य प्रदेश में बीड़ी अधिनियम को, जिससे बीड़ी के उत्पादन पर सरकार का नियंत्रण होता था, सुप्रीम कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया.
मद्रास में शैक्षणिक संस्थाओं में जाति के आधार पर आरक्षण के सरकारी आदेश को मद्रास हाइकोर्ट ने इस आधार पर निरस्त कर दिया कि इससे संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन होता है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस आदेश की पुष्टि करते हुए सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण पर रोक लगा दी थी.
संविधान लागू होने के 15 महीनों में बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और मद्रास में अदालतों ने सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसले दिए.
सन 1951 की शुरुआत में जब चुनाव बहुत नज़दीक थे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश के सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र में लिखा, “हालात अब बर्दाश्त के बाहर हो गए हैं. हमें इसका समाधान ढ़ूँढना होगा अगर इसका मतलब संविधान में संशोधन है, तब भी.”
(नेहरूज़ लेटर्स टू चीफ़ मिनिस्टर्स, पृष्ठ 325)
पहले संशोधन को कहा गया ‘दूसरा संविधान’
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू
ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 12 मई, 1951 को संसद में पहला संविधान संशोधन विधेयक पेश किया.
नेहरू ने इसका एकमात्र समाधान ये निकाला था कि संविधान को इस तरह से ढाला जाए कि सरकारी आदेशों को अदालती चुनौती न मिल सके.
उन्होंने मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र मे दोहराया कि “सरकार की सामाजिक नीति को लागू करने में अदालतों और संविधान को आड़े नहीं आने दिया जाएगा.”
ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 12 मई, 1951 को संसद में पहला संविधान संशोधन विधेयक पेश किया.
ये विधेयक मूल संवैधानिक प्रावधानों से इतना भिन्न था कि मशहूर क़ानून-इतिहासविद उपेंद्र बख़्शी ने इसे ‘दूसरे संविधान’ या ‘नेहरू के संविधान’ की संज्ञा दी.
(उपेंद्र बख़्शी, ज्यूडशरी एज़ अ रिसोर्स फॉर इंडियन डेमोक्रेसी, सेमिनार, अंक 615)
श्यामा प्रसाद मुखर्जी का विरोध
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका विरोध करते हुए कहा था, “इससे सरकार को मनमानी करने की पूरी आज़ादी मिल गई है.”
पहले संविधान संशोधन बहस में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “जिस भव्य संविधान का हमने निर्माण किया था, कुछ दिनों बाद वकीलों ने उसका अपहरण कर लिया.”
राम बहादुर राय अपनी किताब ‘भारतीय संविधान, अनकही कहानी’ में लिखा है, “नेहरू वकीलों पर नहीं, उन न्यायाधीशों पर प्रहार कर रहे थे जिन्होंने संविधान-सम्मत निर्णय दिए थे.”
“उनके फ़ैसलों से नेहरू न केवल क्रोधित हो गए थे, बल्कि संविधान को बदलकर उन्हें सबक़ भी सिखाना चाहते थे.”
राय ने आगे लिखा, “अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण लगाने के लिए अंग्रेज़ी ज़माने के प्रावधान और शब्दजाल को दोबारा स्थापित किया गया.”
“जनहित, राज्य की सुरक्षा और विदेशों से संबंध बिगड़ने जैसे अपरिभाषित शाब्दिक रास्ते खोज निकाले गए.”
“औपनिवेशिक माहौल में पली-बढ़ी अफ़सरशाही ने नेहरू का संकेत पाकर इन बातों को संविधान संशोधन का हिस्सा बनाया.”
उसी साल आगे चलकर भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका विरोध करते हुए कहा, “इससे सरकार को मनमानी करने की पूरी आज़ादी मिल गई है.”
“नेहरू सरकार ने संविधान को मौलिक सिद्धांतों को पलट दिया है, जिससे नागरिक स्वतंत्रता में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा और अलोकतांत्रिक क़दम उठाए जाएँगे.”
प्रेस, बुद्धिजीवी और व्यापारी भी विरोध में उतरे
संसद के बाहर प्रेस, बुद्धिजीवियों, व्यापारियों, संविधानविदों और वकीलों ने भी इसका घोर विरोध शुरू कर दिया.
अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन और फ़िक्की ने इसका विरोध करते हुए प्रस्ताव पारित किए और प्रधानमंत्री से मिलने के लिए अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे.
उस समय के एक युवा वकील और बाद में जज बने रजिंदर सच्चर ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को पत्र लिखकर कहा, “इस संशोधन का मक़सद सरकार की आलोचना का गला घोटना है. (लेटर्स टू एडिटर्स, 30 अप्रैल, 1951)
लाहौर षड्यंत्र मामले में भगत सिंह के वकील रहे पीएन मेहता ने नेहरू को उनका पुराना बयान याद दिलाया जिसमें उन्होंने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक-टोक का सरकार का इरादा नहीं है.
संसद में तीखी नोकझोंक
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का भी मत था कि ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाने का कोई आवश्यक कारण नहीं दिखता.’
संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा की पूर्वसंध्या पर लोकसभा अध्यक्ष जीके मावलंकर ने नेहरू को पत्र लिखकर अपनी आपत्तियाँ जताईं.
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का भी मत था कि ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाने का कोई आवश्यक कारण नहीं दिखता.’
नेहरू ने मावलंकर के पत्र का जवाब देते हुए लिखा, ‘संविधान संशोधन ज़रूरी है, क्योंकि ज़मींदारी प्रथा समाप्त करने में सरकार को कठिनाइयाँ आ रही हैं.’
संसद के अंदर मूल संविधान सभा के सदस्यों श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आचार्य कृपलानी, हरि विष्णु कामथ, नज़ीरउद्दीन अहमद और ह्रदयनाथ कुंजरू ने सरकार पर ज़बरदस्त हमला बोला.
संसद में हुई बहस में नेहरू ने मुखर्जी पर ‘झूठा’ होने का आरोप लगाया. मुखर्जी ने तुनक कर नेहरू को ‘तानाशाह’ कह डाला.
हुसैन इमाम ने कहा कि ‘इस संशोधन से तानाशाही राज्य की नींव रख जाएगी.’
श्यामनंदन सहाय ने कहा कि ‘ये दुखदायी है कि संविधान को एक आम कानून की श्रेणी में रख दिया गया है.’
राज्यसभा के बिना संविधान संशोधन
भीमराव अंबेडकर
कानून मंत्री भीमराव आंबेडकर ने सांसदों को विश्वास दिलाया था कि सरकार को मिले अधिकारों का दुरुपयोग करने का उसका कोई इरादा नहीं है.
कुछ कांग्रेसी नेताओं ने भी सरकार को ये कहते हुए आड़े हाथों लिया कि बिना चुनी हुई, एक अस्थायी संसद को संविधान संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है.
इस बात पर भी सवाल उठे कि उस समय संसद में एक ही सदन था. राज्यसभा का गठन नहीं हुआ था, जबकि संविधान संशोधन को दोनों सदनों में पास होना चाहिए था.
दो घंटे चले अपने भाषण में कानून मंत्री भीमराव आंबेडकर ने सांसदों को विश्वास दिलाया कि कि सरकार को मिले अधिकारों को दुरुपयोग करने का उसका कोई इरादा नहीं है.
राम बहादुर राय लिखते हैं, “जिन मौलिक अधिकारों की माँग 1895 से शुरू हुई थी, जिसके लिए मोतीलाल नेहरू ने सेंट्रल असेंबली में विधेयक पेश किया था, जिसके लिए नेहरू कमेटी कि रिपोर्ट 1928 में आई थी, उसे ही नेहरू सत्ता की राजनीति में अपने पाँव जमाने के लिए बदलवा रहे थे.”
श्यामा प्रसदा मुखर्जी ने नेहरू को याद दिलाया कि “अमेरिकी संविधान में पहला संशोधन उसके लागू होने के तीन साल बाद किया गया था और वहाँ भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों में कटौती नहीं की गई थी बल्कि उनका विस्तार किया गया था.” (अस्थायी लोकसभा की कार्यवाही, 16 मई, 1951)
संविधान संशोधन विधेयक पास
जवाहरलाल नेहरू.
नेहरू ने हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक देवदास गांधी, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका और हिंदू के वी शिवराव को अपने पास बुलाकर अपना पक्ष रखा था.
नेहरू ने कुछ अख़बारों के संपादकों को अपने पास बुलाकर अपना पक्ष रखा. इनमें शामिल थे हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक देवदास गांधी, इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका और हिंदू के वी शिवराव.
देशव्यापी आलोचना ने कांग्रेस के सांसदों को भी पार्टी के अनुशासन से डिगाया.
23 मई, 1951 को जब कांग्रेस संसदीय दल की बैठक हुई तो उसमें 77 सदस्यों ने अपने हस्ताक्षर से लिखित माँग की कि उन्हें इस सवाल पर पार्टी को अनुशासन में न बाँधा जाए.
लेकिन उन्हें मना लिया गया. तीखी बहस के बाद 2 जून, 1951 को पहला संविधान संशोधन विधेयक पास हो गया. उसके पक्ष में 228 और ख़िलाफ़ 20 मत पड़े. करीब 50 सांसदों ने मतदान में भाग नहीं लिया.
ग्रैन विले ऑस्टिन ने अपने लेख ‘द एक्सपेक्टेड एंड अनइनटेंटेड इन वर्किंग अ डेमोक्रेटिक कॉन्सटीट्यूशन’ में लिखा, “ये संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों को संसद की मदद से पलटने के लिए किया गया था.”
“इससे संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन आ गया. नेहरू ने संविधान में नौंवी अनुसूची जुड़वाई जो सरकार को हर तरह के फ़ैसले लेने का अधिकार देती है.”
“इस संशोधन से सरकार के सामाजिक एंजेंडे को व्यक्तिगत अधिकारों पर तरजीह मिली.”
त्रिपुरदमन सिंह ने लिखा, “मौलिक अधिकारों के भाग-3 को जिसे आंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा था, नए तरीके से परिभाषित किया गया.”
“न्यायपालिका को सार्वजनिक रूप से शक्तिहीन बना दिया गया और मानवाधिकारों को संकुचित कर दिया गया.”
इस फ़ैसले से भारतीय राजनीति में कई दूरगामी परिणाम आए. बाद में इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संशोधन के पक्ष में आया.
Home News India नेहरु और संविधान सभा के सदस्यों ने 16 दिन बाद संविधान को क्यों संशोधित किया?
नेहरु और संविधान सभा के सदस्यों ने 16 दिन बाद संविधान को क्यों संशोधित किया?
“वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन” नाम की किताब में इस संसोधन के बारे में विस्तार से बताती है
26 जनवरी 1950 के दिन संविधान सभा के सदस्यों ने नए संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए और भारत एक गणराज्य बन गया. ठीक उसके बारह महीनों के बाद, संविधान के उन्हीं निर्माताओं ने, जो स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार थे, जिन्होंने उस संविधान पर सहमति दी थी, उन्होंने ही अपनी कृति में ये कहकर संशोधन कर दिया कि इसमें ‘अत्यधिक स्वतंत्रता है’
आखिर अपनी ही कृति के निर्माण के ठीक पंद्रह महीनों के बाद संविधान निर्माताओं को ऐसी कौन सी मजबूरी का सामना करना पड़ा था? आखिर भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी को उन असाधारण कदमों को उठाकर संविधान में ऐसे क्रांतिकारी बदलाव की क्या जरूरत महसूस हुई थी जिसे उन्होंने खुद ही सन् 1950 में मान्यता दी थी? जून 1951 में हुए संविधान के पहले संशोधन पर हुए उस वृहद बहस का क्या नतीजा निकला जिसका संसद के अंदर और बाहर भारी विरोध हुआ था?
पहले संशोधन ने संविधान को तीन तरह से बदला. इसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमजोर किया. यह स्पष्ट किया कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में जाति आधारित आरक्षण संवैधानिक रूप से सही है और संपत्ति के अधिकार में संशोधन किया ताकि जमींदारी उन्मूलन कानून को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा जा सके.
संविधान और मौलिक अधिकारों के मुद्दे का राजनीतिक बहस के केंद्र में हमेशा बने रहने की वजह से यह अहम है कि उस राजनीतिक और संवैधानिक इतिहास के लगभग भुला-बिसरा दिए गए पन्नों पर फिर से नजर डाली जाए जिसमें वर्तमान भारत की नागरिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की स्थिति और राजनीतिक जीवन में उनकी वर्तमान भूमिकाओं को समझने के सूत्र छुपे हुए हैं.
त्रिपुरदमन सिंह की नयी पुस्तक
त्रिपुरदमन सिंह की नयी पुस्तक “वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन” (पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा प्रकाशित) संविधानिक इतिहास के उस अहम कालखंड को समझने के लिए एक नए परिप्रेक्ष्य के तौर पर पहले संशोधन की कहानी आज की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण अनुभवों को सामने रखती है.
फली एस नरीमन, स्वपन दासगुप्ता, मेघनाद देसाई, करण थापर जैसे कई विश्वसनीय लोगों ने इस किताब की तारीफ की है.
किताब के बारे में
‘वे सोलह दिन’ नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन भारतीय संविधान के प्रथम संशोधन की दिलचस्प कहानी है. प्रचंड संसदीय बहसों और विरोध के बीच जून 1951 में पहला संविधान संशोधन किया गया. इस संशोधन ने कुछ नागरिक स्वतंत्रताओं और संपत्ति के अधिकारों को सीमित कर दिया और कानूनों की एक विशेष अनुसूची तैयार की, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थी. यह संशोधन देश के पहले आम चुनाव से ठीक पहले हुआ. कांग्रेस घोषणापत्र में जिन सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का उल्लेख था, उन्हें उदार संविधान और स्वतंत्र प्रेस से चुनौतियां मिल रही थीं. इसका सामना करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कार्यपालिका की सर्वोच्चता को फिर से स्थापित करते हुए संविधानिक नियंत्रण और दबाव का एक ढांचा खड़ा कर दिया.
आखिर संविधान लागू होने के महज एक ही साल बाद ऐसी कौन-सी चुनौती देश के सामने आ खड़ी हुई थी? संसदीय बहसों, न्यायिक दस्तावेजों और विद्वानों की राय के आधार पर यह पुस्तक नेहरू, अंबेडकर, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गजों के बारे में हमारी पारंपरिक समझ को एक चुनौती देती है. साथ ही यह पुस्तक, भारतीय संविधान के उदारवादी स्वरूप और उसकी पहली सरकार के अधिनायकवादी आवेगों के बीच की खाई को भी सामने लाती है.
लेखक के बारे में
त्रिपुरदमन सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ कॉमनवेल्थ स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में ब्रिटिश अकैडेमी पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो हैं. उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में जन्मे त्रिपुरदमन ने यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में राजनीति एवं अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की पढ़ाई की और यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज से मॉर्डन साउथ एशियन स्टडीज में एमफिल और इतिहास में पीएचडी की डिग्री हासिल की है.
वह नीदरलैंड्स के यूनिवर्सिटी ऑफ लाइडेन में विजिटिंग फेलो और और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च फेलो रहे हैं. त्रिपुरदमन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के फेलो भी हैं. इससे पहले उनकी इम्पेरियल सोवर्निटी, लोकल पॉलिटिक्स और नेहरू नाम की किताबें पब्लिश हो चुकी हैं.