ज्ञान:रूप चतुर्दशी बनाव श्रृंगार को नहीं,धातुपूजन का है पर्व

समृद्धि के आह्वान का उत्सव है रूप चतुर्दशी

पर्व हमारी संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष के प्रहरी हैं। ये हमारी बहुरंगी संस्कृति के जीवंत साक्ष्य हैं। जीवन को आनंद का आस्वाद करवाना इनका परम लक्ष्य होता है। इनसे घर-परिवार में एकात्म भाव बनता है और खुशियां छलकती हैं। दीपोत्सव की पांचदिवसीय पर्व श्रंखला में धन त्रयोदशी के बाद पड़ने वाला रूप चतुर्दशी पर्व हालांकि आज के प्रचार-परिवेश में सजने-संवरने के अवसर के रूप में अधिक प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन वह आयुर्वेद के देवता के स्मरण-पूजन के बाद सामाजिक क्षेत्र में स्वच्छता के संकल्प व चेतना का अनूठा और अविस्मरणीय आनंद उत्सव अधिक है।

रूप चतुर्दशी : बनाव-शृंगार या धातु पूजन का अवसर

दीपावली से एक दिन पहले आने वाली चतुर्दशी को रूपचौदस के रूप में मनाया जाता है। पिछले कुछ सालों ने इस पर ब्‍यूटी पार्लर वालों ने कब्‍जा कर दिखाया है और महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी स्‍पा की ओर भागने लगे हैं। अच्‍छा दिखने दिखाने का पर्व कब हुआ और इसमें मार्केटिंग वालों ने कैसे गुंजाइश निकाली, यह कहने की जरूरत नहीं है, मगर यह रूप चतुर्दशी इसलिए था कि रूप पर कुबेर अर्थात् धनपतियों का अधिकार था। रुप का आशय है चांदी।

चांदी के सिक्‍के से ही हमें रूपया शब्‍द मिला है जिसको पहले ‘रुप्‍यकाणि’ या ‘रूपा’ कहा जाता था। कुबेर की पहचान उसकी नौली से रही है। ‘नौली’ से आशय है कमर या हाथ में रखने योग्‍य रूपयों की थैली। यक्षों की मूर्तियों के साथ नौली का अंकन मिलता है। भारत में विशेषकर भंडारों में कुबेर की स्‍थापना की जाती थी, अर्थशास्‍त्र में यह संदर्भ मिलता भी है। लक्ष्‍मी प्रारंभ में इंद्र के साथ थी, फिर कुबेर के साथ और कालांतर में विष्‍णु के वामभाग में आई। जब भार्गवों ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्‍वीकारा। अन्‍यथा वह कुबेर के साथ ही स्‍वीकारी गई।

उत्‍तर वैदिक ‘श्रीसूक्‍त’ में इसका विवरण आया है, उसमें कुबेर यक्ष का नाम देवसख: और उनके मित्र मणिभद्र नाम आया है, उनके ही आगमन से कीर्ति, मणियां मिलती हैं- उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्‍च मणिना सह। प्रादुभूतोSस्मि राष्‍ट्रेSस्मिन् कीर्तिमृद्धि ददातु मे। (श्रीसूक्‍त 7) यह प्राचीन संदर्भ है और इतना महत्‍वपूर्ण है कि यामलों से लेकर छठवीं सदी के विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण तक में यह सूक्‍त आया है। महालक्ष्‍युपनिषद में भी इसका अंशांश मिल‍ता है।

देखने वाली बात ये है कि यह जिस लक्ष्‍मी के रूप में सुवर्ण और चांदी के खानों से मिलने वाले पाषाणखंडों को प्रदावित कर धातु प्राप्‍त करने के लिए जातवेद या अग्नि से प्रार्थना की गई है- तां म आ वह जातवेदो लक्ष्‍मीमनपगामिनीम्।, कार्तिक ही वह अवधि होती थी जबकि खानों में खुदाई का काम फिर से शुरू होता था। चांदी की सबसे पुरानी खानों में जावर, आंगूचा आदि के साथ यही मान्‍यता जुडी रही है। इस दिन देहात में चांदी के सिक्‍कों, कलदारों को धो-पोंछकर पूजा के लिए तैयार करने की परंपरा रही है। ऐसे में यह रूप या चांदी के लिए कार्य आरंभ करने का दिवस कैसे हमारे सजने-संवरने का दिन हो गया। है न ताज्‍जुब की बात। आप सभी को यह पर्व नए और पुराने दोनों ही रूप में शुभ हो।

लक्ष्‍मी की बड़ी बहन ज्‍येष्‍ठा

ज्‍येष्‍ठा। महालक्ष्‍मी की बड़ी बहन का नाम है ये। समुद्र से ही उत्‍पन्‍न हुई मानी जाती है। श्रीसूक्‍त में आए वर्णन के अनुसार उत्‍तर वैदिक काल में यह देवी प्रमाद, रोग सहित दारिद्र्य की देवी मानी जाती थी, ऐसे में गृृहस्‍थों सहित सभी ने उसके नाश की कामना की है।

इसका आशय है कि उसको देवी मानकर भी उसके प्रति आदर नहीं दर्शाया। यह मान्‍यता पुराणों के संपादनकाल में बहुत सुदृढ़ होती चली गई। मगर, क्‍या इसका ज्‍येष्‍ठ मास से कोई संबंध है, ज्‍येष्‍ठा नक्षत्र तो है ही। उसमें जन्‍मादि के फल प्रसंग को अधिक क्‍या कहना, फलित और राजमार्तण्‍ड जैसे ग्रंथों में उसके लिए वर्णन मिलता है ही।

पद्मपुराण में ज्‍येष्‍ठादेवी के उद्भव की कथा आई है। प्रकारान्‍तर से स्‍कन्‍दपुराण के काशीखण्‍ड में ज्‍येष्‍ठा के उद्भव को विस्‍तार से लिखा गया। इससे पूर्व चोलकाल में जब कि दक्षिण में मयमतम् ग्रंथ का संपादन हुआ, ज्‍येष्‍ठा के प्रतिमा निर्माण के लक्षणों को लिखा गया। इसका आशय हुआ कि दसवीं सदी के आसपास इसकी मूर्ति बनाने की परंपरा थी। ये प्रतिमाएं देश के दक्षिणी भाग में ही प्रचलन में रही हैं, उत्‍तर में ज्ञात नहीं।

पुष्‍य स्‍नान : एक विस्‍मृत सौंदर्य विधान

स्‍नान, सौन्‍दर्य और सुख संचय का पर्व है रूप चतुर्दशी। याद आते हैं वे सन्‍दर्भ जिनसे ज्ञात होता है कि अभिजात्‍य कुलों में परिचारिकाएं बनाव शृंगार की सामग्री लिए वधू के दायें-बायें रहती थीं। शृंगार मंजुषाएं उनके हाथ में होती थी और मूर्घ्‍नाशृंगी से लेकर नाना प्रकार के सुगन्धित चूर्ण, आलता आदि लिए वे रुचि और ऋतु के अनुकूल शृंगार कार्य करती थीं।

पूर्वकाल में पुष्‍य स्‍नान नामक अनुष्‍ठान बहुत ही लोकप्रिय था। यह संभ्रांत परिवारों, खासकर शासक वर्गों में प्रचलित था और बहुत विधिपूर्वक होता था। इसमें कांगुुनी, चिरायता के फल, हरड़, अपराजिता, जीवन्‍ती, सोंठ, पाढरि, लाज मंजिठा, विजया, मुद्गपर्णी, सहदेवी, नागरमोथा, शतावरी, रीठा, शमी, बला के चूर्णों से जल-कलशों काे भरा जाता था। ब्राह्मी, क्षेमा या काठ गुगुल, अजा नामक औषधि, सर्वौषधि बीज और अन्‍य मंगल द्रव्‍यों को भी उन कलशों में डाला जाता था। इस विधि से पुष्‍य नक्षत्रगत चंद्रमा का सुयोग देखकर स्‍नान किया जाता था। कई प्रकार के मंत्रों का पाठ किया जाता : कलशैर्हेमताम्रैश्‍च राजतैर्मृण्‍मयैस्‍तथा। सूत्र संवे‍ष्टितग्रीवै: च चन्‍दननागरु चर्चितै:। प्रशस्‍त वृक्ष पत्रैश्‍च फलपुष्‍प समन्वितै:। पुण्‍यतोयेन संपूर्णै रत्‍नगर्भै: मनोहरै:।। (बृहत्‍संहिता में गर्गोक्ति 48, 38)

यह स्‍नान सुरूप, स्‍वास्‍थ्‍य, समृद्धि, सुख, विजय आदि के उद्देश्‍य से होता था। जैसा कि वराहमिहिर ने भी इस विधि को लिखा है लेकिन यह विधि लिंगादि पुराणों में भी है, जाहिर है यह लोकप्रिय रही है।

डॉक्टर श्रीकृष्ण जुगनू

 

अन्त में मेरा वही निवेदन जो गत कई दिनों के पोस्ट पर लगातार है, वही एक बार फिर से –

अभी त्यौहार शुरू हैं।
पूरे वर्ष का एक तिहाई व्यय इन उत्सवों में होने वाला है। शोरूम और कॉरपोरेट को छोड़कर, जहाँ तक सम्भव हो अपनी जड़ों को खोजिए।
एक परिवार पर आश्रित सात शिल्प हुआ करते थे, ढूंढिए कि आज वे किस स्थिति में है?
और वर्षपर्यन्त तक, किसी को कोई रियायत नहीं। इन लफंगों को तो बाद में भी नहीं।
विचार कीजिए! हमारा स्वयं का इकोसिस्टम विकसित करने में योगदान दीजिये।

बस इतना करने का प्रयास कीजिए, शेष का मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जाएगा –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो.

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