लाशों की पत्रकारिता कि पत्रकारिता की लाश?
रवीश और बरखा की लाश पत्रकारिताः निशाने पर धर्म और श्मशान, ‘सर तन से जुदा’ रैलियाँ और कब्रिस्तान नदारद
रवीश कुमार ने पिछले दिनों एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखा। शीर्षक है: लखनऊ बन गया है लाशनऊ, धर्म का नशा बेचने वाले लोगों को मरता छोड़ गए।
ये कैसी घटिया क्रिएटिविटी है जो भारत के सैकड़ों शहर में से एक को चुनकर उसके साथ लाश को जोड़ने की कोशिश कर रही है! अचानक लग रहा है जैसे पत्रकारों को लाश से प्यार हो गया है। बरखा दत्त श्मशान में बैठकर रिपोर्टिंग कर रही हैं। रवीश कुमार लखनऊ को लाशनऊ बता रहे हैं। एक अख़बार के संवाददाता भोपाल के एक श्मशान में जलती लाशों के बीच खड़े होकर फ़ोटो खिंचवा कर अपनी रिपोर्ट के साथ लगा दिया।
इन तीनों पत्रकारों के बीच कॉमन क्या है? पत्रकारिता? नहीं। कॉमन यह है कि ये तीनों भाजपा शासित राज्यों में जलने वाली लाशों को दिखा रहे हैं। जीवन भर दिल्ली में रहकर पत्रकारिता करने वाली बरखा दत्त को जलती लाशों के बीच बैठ कर रिपोर्टिंग करने के लिए गुजरात जाना पड़ा। दिल्ली से ही दशकों तक पत्रकारिता में लिप्त रहने वाले रवीश कुमार भी लाशों की बात करने के लिए लखनऊ को चुनते हैं!
इस बात को लेकर मतभेद हो ही नहीं सकता कि कोरोना की दूसरी लहर बहुत तेज है और उसकी वजह से अधिकतर प्रदेशों की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है। पर क्या ऐसी महामारी में रिपोर्टिंग की शुरुआत और उसका अंत केवल श्मशान में जल रही लाशों के बीच ही हो सकता है? स्वास्थ्य व्यवस्था की कमियाँ, सरकार की योजनाओं में ख़ामी और नेतृत्व की अक्षमता जैसे विषय पर चर्चा पत्रकारिता के मानदंडों पर खरे नहीं उतरते?
इतनी बड़ी महामारी के इतने व्यापक स्तर पर दुष्प्रभाव को दुनिया ने पिछले सौ वर्षों में नहीं देखा है। यह जगज़ाहिर है कि इस समय रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों ने पिछली सबसे बड़ी महामारी नहीं देखी है कि उसको आधार बनाकर रिपोर्टिंग करें और तय कर सकें कि किन बिंदुओं पर नहीं बोलना है, पर पत्रकारिता के मानदंड तो पढ़े होंगे? स्थापित मान्यताओं की भनक कभी न कभी तो लगी होगी? पत्रकार अपनी-अपनी शैली ख़ुद बनाते हैं और उस पर गर्व भी करते हैं पर ऐसा क्या है कि अपनी अलग-अलग शैली पर गर्व करने वाले पत्रकार केवल लाशों पर या लाशों के बीच रहकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं?
सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था, नेतृत्व की कमियाँ और ढीले तंत्र के कारण होने वाले नुक़सान पर बहस या रिपोर्टिंग क्या इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि वह मेहनत का काम है? क्योंकि इन विषयों पर ठोस बात करने के लिए पहले मुद्दों को समझने की आवश्यकता होगी और पत्रकारिता के अपने जीवन में शॉर्टकट लेकर पगडंडियों पर चलने वाले इन पत्रकारों को सीधे रास्ते जाने में पसीने छूट जाते हैं?
रवीश कुमार अपने फेसबुक पोस्ट में उत्तर प्रदेश के नेताओं पर केवल धर्म की राजनीति करने का आरोप बार-बार लगाते हैं। रवीश कुमार मार्का पत्रकारिता के लिए इन आरोपों का बार-बार इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है पर जब वे ऐसी बात करते हैं तब यह बताना ज़रूरी नहीं समझते कि मुख्यमंत्री के अपने कार्यकाल में योगी आदित्यनाथ ने धर्म की राजनीति कब और कहाँ की? शायद वे योगी जी द्वारा पूजा-पाठ करने को धर्म की राजनीति कहते हैं। योगी जी ने कई बार कहा है कि चूँकि वे एक हिंदू हैं, ऐसे में धार्मिक आचरण करते हुए दिखने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। एक हिंदू द्वारा पूजा-अर्चना करना धर्म की राजनीति कैसे हो गई?
रवीश कुमार जैसे पत्रकार इस बात पर कभी नहीं लिखेंगे और न ही चर्चा करेंगे कि अभी पिछले वर्ष जब दिल्ली के ‘मालिक’ अपने राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल कर जब प्रवासी मज़दूरों को उत्तर प्रदेश की सीमा पर छोड़ आए थे, तब इन्हीं योगी आदित्यनाथ ने उन मज़दूरों के लिए सारी सुविधाएँ मुहैया करवाईं थी और लाखों मज़दूरों को उनके घर तक पहुँचाया था। उत्तर प्रदेश के इन्हीं मुख्यमंत्री ने सीमित संसाधनों के बावजूद दिन-रात काम करके प्रदेश में कोरोना की पहली लहर को क़ाबू में किया था। इसके ठीक उलट कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में पूरे साल भर में कोरोना को कभी क़ाबू में किया ही नहीं जा सका पर शायद उस पर बात करना रवीश कुमार के एजेंडा में फिट नहीं बैठता।
रवीश कुमार का फेसबुक पोस्ट
योगी आदित्यनाथ पर धर्म की राजनीति करने का आरोप लगाने वाले यह नहीं बताते कि उन्होंने किस तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में जापानी बुख़ार को न केवल क़ाबू में किया पर उनके प्रयासों की सराहना दुनिया भर में हुई। रवीश कुमार योगी आदित्यनाथ के लिए कहते हैं कि उनका दूर-दूर तक विज्ञान से कोई नाता नहीं हैं। हम उस काल के नागरिक हैं जिसमें एजेंडावाहक पत्रकार फ़ैसला सुनाते हैं कि यदि कोई मुख्यमंत्री भगवा धारण करता है तो उसका विज्ञान से कभी कोई नाता नहीं हो सकता। यह कहते हुए रवीश कुमार को याद नहीं रहता कि योगी आदित्यनाथ विज्ञान के ही स्नातक हैं। ऐसे में यह कैसे हो सकता है कि वे विज्ञान से दूर रहेंगे? ये पत्रकार भूल जाते हैं कि इन्हीं योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश जीडीपी की रैंकिंग में देश का दूसरा राज्य बना। केवल धर्म के लिए काम करने वाला कौन मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के लिए ये काम कर सकता है?
एक बात यह ध्यान देने लायक़ यह है कि जबसे कोरोना की दूसरी लहर आई है तब से एजेंडावाहक इन पत्रकारों ने धर्म को निशाने पर ले रखा है। कभी तेजी से फैल रहे संक्रमण के लिए हरिद्वार कुंभ को ज़िम्मेदार बताया जाता है तो कभी भाजपा द्वारा धर्म की राजनीति करने को। यह किसी से छिपी बात नहीं है कि पिछले दो दशकों में इन पत्रकारों की सोच कहाँ से शुरू होकर कहाँ खत्म होती है पर ऐसी भी क्या मजबूरी कि आपकी पत्रकारिता लाशों से शुरू हो और लाशों पर ही जाकर खत्म हों। लाशें तो कब्रिस्तान में भी होती हैं। ये ‘रचनात्मकता’ वहां बेदम हो जाती है? तो इसे लाशों की पत्रकारिता कहें कि पत्रकारिता की लाश?
बरखा दत्त की पीपली लाइव पत्रकारिता
बरखा दत्त की पत्रकारिता: टीवी न्यूज़ की स्टूडियो से चिता तक!
स्टूडियो में बैठकर समाचार पढ़ने के दिनों से टीवी न्यूज़ पहले ही बहुत आगे चला गया था। चलते-चलते कारगिल तक पहुँचा और वहाँ रुक कर सारी सराहना बटोर कर अपने क़ब्ज़े में कर ली। जहाँ खड़े होकर रिपोर्टिंग की,अक्सर पाकिस्तानी गोले वहीं आकर गिरने लगे। युद्ध को लाइव देखने की कल्पना कभी न करने वाले दर्शकों को लगा कि समाचार के प्रति ऐसा समर्पण! हे ईश्वर, हर संवाददाता को ऐसे ही समर्पित बना दें ताकि हम न्यूज़ एंजॉय कर सकें।
कारगिल से आगे गई तो गुजरात को कवर किया। कवरेज जैसी रही,वह किसी से छिपा नहीं है। वहीं गुजरात में ईकोसिस्टम का निर्माण हुआ। वकीलों,एनजीओ और न्यूज़ चैनल का अटूट रिश्ता। एक दशक तक चला। कश्मीर पहुँची तो अपने ही घरों से भगाए गए पंडितों को विलेन करार दे दिया। बोली; सरकारी नौकरियों पर पंडितों का क़ब्ज़ा था तो और क्या होता?
न्यूज़ की महानता का जो सस्वर पाठ कारगिल से शुरू हुआ था वह अब 24 घंटों के अटूट पाठ में बदल चुका था। आगे जाकर मुंबई टेरर अटैक तक पहुँचा। जिस तरह से अटैक को कवर किया, उसे देखकर सब हतप्रभ। क्या समर्पण है! क्या ईमानदारी है! क्या संवाददाता है! क्या न्यूज़ है!
वो तो बाद में पता चला कि न्यूज़ केवल भारतीय नहीं देख रहे थे, पाकिस्तानी भी वही न्यूज़ देख रहे थे और उसका फ़ायदा भी उठा रहे थे। नॉन स्टेट ऐक्टर केवल एक तरफ़ नहीं थे। सफ़र चलता रहा और एक वर्ष के अंदर ही संवाददाता कैबिनेट फ़ाइनेलाइज करने लायक़ हो गए।
टीवी न्यूज़ वालों की विशेषता यह कि वे ख़ुद तो सब कुछ लाइव दिखा लेते हैं पर उनके बारे में कुछ भी लाइव नहीं होता। उनके बारे में सब कुछ वर्षों बाद न्यूज़ बनता है। घटनाओं को न्यूज़ बनाने वाले लोग जब बाद में ख़ुद न्यूज़ बनने लगे तब जाकर जनता को पता चला कि जिन्हें वे संवाददाता समझ रहे थे वे दरअसल कुछ और ही थे।
भारत भर को पीपली लाइव बनाने वाले अब तक लाइव को अलग ही ऊँचाई पर ले चढ़े हैं। ऐसी ऊँचाई पर जहाँ से भारतीय अब पहले से अधिक छोटा दिखाई देता है। भारतीयों के लिए पहले से ही मन में कोई इज़्ज़त नहीं थी। अब भारत के लिए भी नहीं है। हाल यह है कि सराहना के लिए हाफ़िज़ सईद को मुँह खोलना पड़ता है। क्या करें, देश में इंटॉलरन्स इतना बढ़ गया है कि कोई सराहना भी नहीं करता। ऐसे में विदेशी टैलंट ही समझ पाएगा कि सराहना क्या होती है और कैसे की जाती है।
चलते-चलते कोरोना तक पहुँचे हैं। एक वर्ष पहले से किसी आशा में बैठे थे। विशेषज्ञ को लाकर चैनल पर बैठाया। वो बोला; इतने बिलियन संक्रमित होंगे। इतने मिलियन मर जाएँगे। विशेषज्ञ लाख और करोड़ में बात नहीं करता। जब भी करता है बिलियन और मिलियन में करता है। लाशें देखने की इच्छा लिए बैठे रहे। नहीं दिखाई दीं तो निराश हो गए। जीवन बर्बाद लगने लगा था कि तब तक कोरोना की दूसरी लहर आ गई। सूखे जीवन में फिर से बरखा हुई और फिर से जीवन हरा-भरा हो गया है।
बरखा दत्त के ट्वीट से लिया गया स्क्रीनशॉट
आज श्मशान में बैठकर रिपोर्टिंग हो गई है। कैमरे को गिद्ध की आँख ने रिप्लेस कर दिया है। स्टूल भी नहीं है कि न्यूज़ खड़ी हो सके। पुरानी बाल्टी को औंधें कर उसपर लैपटॉप रख खबर गढ़ी जा रही है। दर्शक हतप्रभ है। यह सोचते हुए कि क्या यात्रा है! क्या संवाददाता है! विज़ूअल न्यूज़ मेकिंग की पराकाष्ठा। नए तरह के रिपोर्ताज़।
टीवी स्टूडियो से चलकर न्यूज़ चिता तक पहुँच गई है।
@ओप इंडिया में शिव मिश्र