भाजपा के आखिरी चुनावी वादे UCC में क्या हैं पेंच
Uniform Civil Code Explained That Last Promise Of Bjp Where Is Problem In Implementing Ucc Know Everything Explained: भाजपा का वो अंतिम वादा! यूनिफॉर्म सिविल कोड में कहां फंसा है पेच, किसकी क्या मंशा, जानिए सबकुछ
यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) का मुद्दा आजादी के बाद से कई बार उठा है। एक बार फिर इसकी चर्चा तेज हुई है। भारत के विधि आयोग ने इसे लेकर लोगों की राय मांगी है। यह मुद्दा लंबे समय से भाजपा के चुनावी वायदों में शामिल रहा है। हालांकि, कई कारणों से यह टलता आया है।
हाइलाइट्स
यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा दोबारा हुई तेज
भाजपा के घोषणापत्र में शामिल रहा है यह विषय
एक वर्ग यूसीसी का करता रहा है विरोध
नई दिल्ली 14 जून: समान नागरिक संहिता (कॉमन सिविल कोड) यानी यूसीसी भारतीय जनता पार्टी (BJP) के मेनिफेस्टो का हिस्सा रहा है। वह इसे लागू करने की पैरवी करती है। भाजपा अपने चुनाव घोषणा पत्र में शामिल ज्यादातर बड़े वायदे पूरा कर चुकी है। इनमें अयोध्या में राम मंदिर निर्माण शुरू करना और कश्मीर में अनुच्छेद 377 हटाने जैसे विषय शामिल हैं। ले-देकर यूसीसी ऐसा एक बड़ा विषय है जिसे केंद्र की भाजपा सरकार लागू नहीं कर पाई है। यूसीसी में ऐसा कानून लागू करने का प्रस्ताव है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होगा। फिर चाहे उनका धर्म, लिंग, जाति कुछ भी हो। इसे लेकर सुगबुगाहट दोबारा बढ़ी है। भारत के लॉ कमीशन की ओर से जारी पब्लिक नोटिस के बाद ऐसा हुआ है। इसमें यूसीसी पर लोगों से राय मांगी गई है। इससे उन अटकलों को बल मिला है कि सरकार अगले लोकसभा चुनाव से पहले यूसीसी को लागू कर देगी। कहा जा रहा है कि इसे लोकसभा के आगामी सत्रों में लागू किया जा सकता है।
सालों से यह क्यों लागू नहीं हो पाया? इसे लेकर किस तरह के पेंच हैं? भाजपा का क्या पक्ष है? इसका विरोध करने वालों का क्या कहना है? आइए, यहां इससे जुड़े हर सवाल को समझने की कोशिश करते हैं।
क्या है UCC की हिस्ट्री?
समान नागरिक संहिता (UCC) 1998 के चुनावों से भाजपा के घोषणापत्र का हिस्सा रहा है। नवंबर 2019 में नारायण लाल पंचारिया ने इसे पेश करने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था। लेकिन, विपक्ष के विरोध के कारण इसे वापस ले लिया गया था। किरोड़ी लाल मीणा मार्च 2020 में फिर बिल लेकर आए। लेकिन, इसे संसद में पेश नहीं किया गया। विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों में समानता की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी याचिकाएं दायर की गई हैं। 2018 के परामर्श पत्र ने स्वीकार किया था कि भारत में विभिन्न परिवार कानून व्यवस्थाओं के भीतर कुछ प्रथाएं महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करती हैं। उन्हें देखने की जरूरत है।
UCC क्यों है जरूरी?
1985 में शाह बानो मामले में तलाक में मुस्लिम महिला के अधिकारों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को एक समान नागरिक संहिता की रूपरेखा को रेखांकित करना चाहिए। यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा देता है।
2015 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ईसाई कानून में ईसाई महिलाओं को अपने बच्चों के ‘प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मान्यता नहीं’ दी जाती है। भले ही हिंदू अविवाहित महिलाएं अपने बच्चे की ‘प्राकृतिक अभिभावक’ हों। कोर्ट ने माना था कि समान नागरिक संहिता एक अनसुलझी संवैधानिक अपेक्षा बनी हुई है।
यूसीसी से क्या पड़ेगा फर्क?
ऐसे कई मामले हैं जहां धार्मिक हस्तक्षेप है। इनमें विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार जैसे मामले शामिल हैं। 31 अगस्त, 2018 को एक परामर्श पत्र जारी हुआ था। इसमें भारत के तत्कालीन 21वें विधि आयोग ने कहा था कि यह ध्यान रखना होगा कि सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता न हो कि एकरूपता की कोशिश ही खतरे का कारण बन जाए। यूसीसी का मतलब प्रभावी रूप से विवाह, तलाक, गोद लेने, संरक्षण, उत्तराधिकार, विरासत इत्यादि से जुड़े कानूनों को व्यवस्थित करना होगा। इसमें देशभर में संस्कृति, धर्म और परंपराओं को देखना होगा।
लागू करने में किस तरह का पेंच?
आजादी के बाद से कई बार यूसीसी और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की मांग उठाई जाती रही है। हालांकि, समान नागरिक संहिता को लागू करने में कई चुनौतियां हैं। इसमें धार्मिक समूहों का विरोध, राजनीतिक सहमति की कमी और कानूनों के भीतर मतभेद शामिल हैं। कई जनहित याचिकाएं (PIL) सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं। इनमें महिलाओं की सुरक्षा के साथ तलाक, गार्जनशिप और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों के रेगुलेशन की मांग की जा रही है। मुस्लिम महिलाओं की ओर से दायर कई याचिकाओं में इस्लामिक कानून में भेदभाव को उजागर करती हैं। इनमें तत्काल तलाक (तलाक-ए-बेन), अनुबंध विवाह (मुता), और दूसरे पुरुष से अल्पकालिक विवाह (निकाह हलाला) जैसी भेदभावपूर्ण प्रथाएं शामिल हैं। सिखों के विवाह कानून 1909 के आनंद विवाह अधिनियम में आते हैं। लेकिन, उनमें तलाक के प्रावधानों का अभाव है। इसके कारण सिख तलाक हिंदू विवाह अधिनियम में सेटेल होते हैं। प्रॉपर्टी, उत्तराधिकार और अन्य कई मामलों में भी अलग-अलग समाजों के लिए अलग-अलग तरह के कानून हैं। इसे लागू करने में यही पेंच है।
लोग इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
सभी धर्मों के लिए समान कानून के साथ धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार और समानता के अधिकार के बीच संतुलन बनाना मुश्किल होगा। इसके चलते धर्म या जातीयता के आधार पर कई व्यक्तिगत कानूनों का औचित्य खत्म होगा।
मुसलमानों को क्यों है सबसे ज्यादा आपत्ति?
UCC बहुविवाह प्रथा को खत्म करने साथ मुस्लिम पर्सनल लॉ में कई बदलाव ला सकता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 में भारतीय मुसलमानों के लिए इस्लामिक कानून कोड तैयार करने के लिए पारित किया गया था। तमाम मुस्लिम नेता इसमें भाजपा की मंशा पर संदेह करते हैं। उनका कहना है कि ऐसा करके भाजपा उन्हें टारगेट करना चाहती है।
क्या है भाजपा का पक्ष?
भाजपा यूसीसी की पैरवी करती है। पार्टी का स्टैंड है कि एक पुरुष को एक बार से ज्यादा शादी करने की इजाजत क्यों दी जाए। एक ही देश में दो तरह के कानून क्यों चलें। मध्य प्रदेश और उत्तराखंड जैसे कुछ राज्य हैं जो पहले ही इसे लागू करने की दिशा में बढ़ चुके हैं। हाल में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि बाकी राज्य इन दो राज्यों के अनुभवों से सीख सकते हैं।