SC,ST एक्ट में 29 फर्जी मुकदमें करने वाले वकील को उम्रकैद,पांच लाख जुर्माना

अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न अधिनियम और दुराचार जैसे मामलों में झूठा फंसाकर लोगों का जीवन नष्ट करने के एक प्रकरण में लखनऊ की विशेष अदालत के एडीजे विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है। निर्णय में आरोपित अधिवक्ता को आजीवन कारावास और 5,10,000 रुपए अर्थदंड से दंडित किया गया है।

विशेष लोक अभियोजक अरविंद मिश्रा ने बताया कि लखनऊ के अपर पुलिस आयुक्त राधारमण सिंह ने पूजा रावत के कराए मुकदमे की विवेचना में प्राप्त तथ्यों के आधार पर एक प्रकीर्ण वाद कराया था। अपर पुलिस आयुक्त राधारमण सिंह के अनुसार, पूजा रावत ने लखनऊ निवासी अरविंद यादव और उनके भाई अवधेश यादव पर अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम समेत कई गंभीर धाराओं में मुकदमा कराया था।

विवेचना में यह तथ्य सामने आया कि किराए के कमरे के कब्जे को लेकर पूजा रावत और अधिवक्ता परमानंद गुप्ता ने आपराधिक षड्यंत्र रच झूठा मुकदमा कराया था। जांच में यह पूरी घटना असत्य पाई गई।

छेड़छाड़ जैसे झूठे मुकदमे कराए दर्ज

मुकदमे की कार्यवाही में पूजा रावत ने न्यायालय में प्रार्थना पत्र देकर माना कि वह गोरखपुर से लखनऊ आ अधिवक्ता परमानंद गुप्ता की पत्नी के ब्यूटी पार्लर में काम करती थी। परमानंद गुप्ता और अरविंद यादव में जमीनी विवाद था, जो सिविल कोर्ट में विचाराधीन था। परमानंद गुप्ता ने पूजा रावत की अनुसूचित जाति  का दुरुपयोग कर अरविंद यादव और उनके भाई पर दुराचार और छेड़छाड़ जैसे झूठे मुकदमे कराए, जबकि ऐसी कुछ नहीं था। इसमें पूजा रावत ने न्यायालय में समाधान प्रार्थना पत्र दिया, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

दोनों पक्षों को सुन विशेष न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने  निर्णय में दोष सिद्ध होने पर अधिवक्ता परमानंद गुप्ता को आजीवन कारावास तथा ₹5,10,000 के अर्थदंड से दंडित किया गया। वहीं, झूठा आरोप में पूजा रावत को दोषमुक्त कर दिया। न्यायालय ने उसे चेतावनी भी दी कि भविष्य में यदि अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग कर आपराधिक षड्यंत्र में बलात्कार या सामूहिक बलात्कार जैसे मुकदमे कराती है, तो उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई होगी। कोर्ट ने जिलाधिकारी को निर्णय की प्रति भेजने का आदेश देते हुए कहा कि यदि इस मुकदमें में पूजा रावत को कोई प्रतिकर दिया गया है तो उसकी तत्काल वसूली करें.
कोर्ट ने मामले में आरोपित पूजा रावत को  चेताया कि उसने भविष्य में परमानंद या किसी अन्य व्यक्ति से मिलकर एससीएसटी एक्ट के प्राविधानों का दुरुपयोग करके रेप या गैंगरेप के फर्जी मुकदमे करवाए तो उस पर कठोर कार्यवाही होगी। कोर्ट ने पुलिस आयुक्त को भी निर्देश दिया कि वह सुनिश्चित करें कि जब भी एससीएसटी एक्ट और दुष्कर्म की रिपोर्ट हो तो इस तथ्य का भी उल्लेख किया जाए कि वादिनी या उसके परिवार के किसी सदस्य ने पूर्व में ऐसा कोई मुकदमा नहीं कराया है या कितने मुकदमे कराए हैं। अगर कोर्ट इससे संबंधित रिपोर्ट मांगता है तो संबंधित थाने की पुलिस इस संबंध में कोर्ट को अपनी रिपोर्ट में सूचना देना सुनिश्चित करें।             

मुकदमा लिखते ही पीड़ित को न दें प्रतिकर

कोर्ट ने अपने आदेश की प्रति जिलाधिकारी को भेजने का आदेश देते हुए कहा कि अगर यह मुकदमा कराने पर वादिनी पूजा रावत को राज्य सरकार से कोई प्रतिकर मिला हो तो उसे तुरंत वापस लिया जाए। कोर्ट ने जिलाधिकारी को निर्देश दिया कि केस होते ही मामला नहीं बनता। विवेचना और आरोपपत्र बाद मामला बनता है। एससीएसटी एक्ट कानून बनाते समय विधायिका की उद्देश्य यह नहीं था कि झूठा मुकदमा कराने वाले शरारती तत्वों को प्रतिकर के रूप में करदाताओं का बहुमूल्य धन दे दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि जिलाधिकारी को निर्देशित किया जाता है कि मात्र रिपोर्ट लिखाने पर ही पीड़ित को राहत या प्रतिकर राशि न दी जाए। मामले में पुलिस आरोप पत्र दायर कर दे तभी प्रतिकर दिया जाए क्योंकि एफआईआर होते ही प्रतिकर की धनराशि देने से झूठे मुकदमे कराने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। कोर्ट ने कहा कि आरोपपत्र के पहले पीड़ित को मात्र वस्तु, खाद्य, चिकित्सा, जल, कपड़े, आश्रय, परिवहन सुविधा, भरण पोषण और सुरक्षा आदि की सहायता दी जाए। ऐसे मामले में विवेचक की फाइनल रिपोर्ट लगने के बाद भी तब तक कोई सहायता न दी जाए जब तक कोर्ट विपक्षी को आरोपित मान बुला न ले।

अपर पुलिस आयुक्त ने दायर किया था परिवाद
विभूतिखंड के तत्कालीन अपर पुलिस आयुक्त राधारमण सिंह ने कोर्ट में परिवाद दायर कर पूजा रावत और परमानंद गुप्ता को आरोपित बनाया था। परिवाद में कहा गया था कि 18 जनवरी 2025 को पूजा रावत ने कोर्ट आदेश से विभूतिखंड थाने में अरविंद यादव और अवधेश यादव के खिलाफ दुष्कर्म की रिपोर्ट कराई थी। पूजा रावत के एससी एसटी से होने से मामले की विवेचना अपर पुलिस आयुक्त ने की।

घटना स्थल पर नहीं मिली थी लोकेशन
विवेचना में पता चला कि पूजा वारदात वाले दिन घटना स्थल पर थी ही नहीं। पूजा ने षड्यंत्र में जमीनी विवाद के चलते परमानंद गुप्ता का सहयोग करने को अवधेश आदि पर झूठा मुकदमा कराया था। इस पर विवेचक ने आरोपित पूजा और परमानंद के खिलाफ कोर्ट में परिवाद किया। मामले की सुनवाई में पूजा रावत ने कोर्ट में प्रार्थना पत्र देकर बताया कि वह गोरखपुर की है और ब्यूटीपार्लर सहायिका  है। लखनऊ आई तो आरोपित परमानंद और उसकी पत्नी ने अपने जाल में फंसा कर उससे अपने विरोधी अरविंद यादव और उसके परिवार पर झूठा मुकदमा करवाया था। इस पर कोर्ट ने पूजा रावत को क्षमादान देते हुए छोड दिया।

कानपुर मामले का किया जिक्र
कोर्ट ने कहा कि करीब दो सप्ताह पहले अखबारों में कानपुर नगर की घटना प्रकाशित हुई। इसमें अधिवक्ताओं का एक वर्ग झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली महिलाओं की गरीबी का फायदा उठा उनके माध्यम से दुष्कर्म के झूठे मुकदमे दर्ज करवा पैसे ऐंठता था। इस प्रकार झूठे मुकदमे से वह कथित तौर पर व्यापारियों, अधिकारियों व अन्य लोगों को फंसाते थे। यह स्थिति चिंताजनक है।

केस फाइल करने वाले वकील को ही लखनऊ कोर्ट ने सुना दी दस वर्ष कैद और ढाई लाख रुपये जुर्माना की सजा

एस सी वकील लाखन सिंह
Historical verdict of Special Judge अधिवक्ता लाखन सिंह को झूठी एफआईआर कर कोर्ट प्रक्रिया के दुरुपयोग पर दस वर्ष छह महीने कैद और 2.51 लाख रुपया जुर्माना की सजा सुनाई है। अधिवक्ता के झूठा मुकदमा दर्ज करा कोर्ट का समय खराब करने से नाराज जज ने कहा कि आपने अधिवक्ता जैसा जिम्मेदार व्यवसाय कलंकित किया है।

Fri, 16 May 2025 

वकील से बोले जज-आपने तो झूठे मुकदमों की फैक्ट्री बना रखी है

लखनऊ कोर्ट में विशेष न्यायाधीश एससी/एसटी एक्ट विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने एतिहासिक फैसला दिया है। विशेष न्यायाधीश ने एससी/एसटी एक्ट में झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने वाले अधिवक्ता लाखन सिंह को शुक्रवार को सख्त सजा सुनाई है।

अधिवक्ता लाखन सिंह को झूठी एफआईआर कर कोर्ट प्रक्रिया का दुरुपयोग करने पर दस वर्ष छह महीने कैद और 2.51 लाख रुपया जुर्माना की सजा सुनाई है। अधिवक्ता के झूठा मुकदमा दर्ज करा कोर्ट का समय खराब करने से नाराज जज ने कहा कि आपने अधिवक्ता जैसे जिम्मेदार व्यवसाय कलंकित किया है।

जज इतने पर ही नहीं रुके और कहा कि आपने तो झूठे मुकदमों की फैक्ट्री बना रखी है। न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने फैसले में कहा कि लाखन सिंह जैसे अधिवक्ता जिम्मेदार व्यवसाय को कलंकित करते हुए न्याय प्रणाली प्रणाली की विश्वसनीयता को चोट पहुंचा रहे हैं।

कोर्ट ने कहा कि अधिवक्ता लाखन सिंह कोर्ट में दो जिल्द पेपर लेकर आए दिन काल्पनिक कहानियां बताते हुए केस फाइल करते थे। लाखन सिंह जैसे वकील यदि हमारे कानून का दुरुपयोग करते हैं तो पूरे अधिवक्ता समाज की छवि धूमिल होती है।

लाखन सिंह ने एससी/एसटी एक्ट के 20 झूठे केस कराकर कई लोगों को वर्षों कानूनी परेशानियों में घसीटा। कोर्ट ने यह निर्णय बार काउंसिल ऑफ यूपी, लखनऊ के जिलाधिकारी और पुलिस कमिश्नर को भी भेजने के निर्देश दिए ताकि दोषी वकील बार से निलंबित किया जा सके और यदि उसे किसी झूठे केस के आधार पर सरकारी राहत राशि मिली हो तो वह वसूली जाए। अधिवक्ता लाखन सिंह के खिलाफ पूर्व से ही धोखाधड़ी, रेप के साथ-साथ आपराधिक साजिश जैसे कई मामले कोर्ट में विचाराधीन हैं। एक मामले में वकील लाखन सिंह पहले से ही जेल में है।

भूमि विवाद में विरोधी के विरुद्ध एससी/ एसटी एक्ट सहित हत्या के प्रयास का फर्जी मुकदमा दर्ज कराने में दोषी लाखन सिंह को लेकर विशेष लोक अभियोजक अरविन्द मिश्रा ने कोर्ट को बताया लाखन सिंह का विपक्षी सुनील दुबे व रामचंद्र आदि से लगभग पांच बीघा जमीन को लेकर विवाद था जिसके कारण लाखन ने थाना विकास नगर में सुनील दुबे व अन्य के विरुद्ध जान से मारने और एससी/एसटी एक्ट में फर्जी मुकदमा किया था। मुकदमा होने पर जांच में पता चला कि सुनील दुबे व उसके साथियो की लोकेशन घटना स्थल पर नहीं थी।

साक्ष्यों में पाया गया कि दोषी की गाड़ी की टक्कर किसी अन्य व्यक्ति की गाड़ी से हो गई थी, जिसमें उसने समझौता भी कर लिया था। घटना के पूर्णतया झूठ पाए जाने पर न्यायालय ने लाखन सिंह पर झूठा मुकदमा करवाने को लेकर वाद दर्ज कर कार्यवाही प्रारंभ की।

अभियोजन ने बताया कि लाखन सिंह अनुसूचित जाति से है तथा उसने पहले भी एक्ट का दुरुपयोग कर सुनील दुबे पर 20 से अधिक मुकदमे किये थे, विवेचना बाद सभी मुकदमों में फाइनल रिपोर्ट लग चुकी है।

एससी-एसटी एक्ट आख़िर है क्या?

अपडेटेड 3 अप्रैल 2018

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी और इसके मुकदमों में तुरंत गिरफ़्तारी की जगह शुरुआती जांच को कहा था.आदेश में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा था कि सात दिनों में शुरुआती जांच ज़रूर पूरी हो जाए.

क़ानून के आलोचक इसके दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं.समर्थक कहते हैं कि ये क़ानून दलितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होने वाले जातिसूचक शब्दों और हज़ारों सालों से चले आ रहा ज़ुल्म रोकने में मदद करता है.एक्ट में हुए बदलावों के विरोध में देश भर में दलितों ने प्रदर्शन किया और कई जगह हिंसा भड़की. हिंसा में नौ लोग मारे गये.

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी, लेकिन केंद्र को करारा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले पर स्टे देने से इनकार कर दिया.

आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मुख्य बातें.

1. अगर किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ इस क़ानून में मुकदमा होता है तो सात दिनों में  प्रारंभिक जांच पूरी हो जानी चाहिए.

2. अदालत ने कहा कि चाहे शुरुआती जांच हो, चाहे मुकदमा लिख लिया गया हो, अभियुक्त की गिरफ़्तारी ज़रूरी नहीं है.

3. अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी.

4. अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ़्तारी को वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की सहमति ज़रूरी होगी.

5. एससी/एसटी क़ानून के सेक्शन 18 में अग्रिम ज़मानत मना है. अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम ज़मानत मान ली. अदालत ने कहा कि पहली नज़र में  ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहां न्यायिक समीक्षा बाद लगता है कि शिकायत में बदनीयती की भावना है, वहां अग्रिम ज़मानत पर कोई संपूर्ण रोक नहीं है.

6. अदालत ने कहा कि एससी/एसटी क़ानून का ये मतलब नहीं कि जाति व्यवस्था जारी रहे क्योंकि ऐसा होने पर समाज में सभी को साथ लाने और संवैधानिक मूल्य प्रभावित होंगें. अदालत ने कहा कि संविधान बिना जाति या धर्म भेदभाव के सभी की बराबरी की बात कहता है.

7. आदेश में अदालत ने कहा कि कानून बनाते वक्त संसद का इरादा क़ानून को ब्लैकमेल या निजी बदले को इस्तेमाल का नहीं था. क़ानून का मक़सद ये नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों को काम से रोका जाए. हर मामले में – झूठे और सही दोनो में – अगर अग्रिम ज़मानत मना की गयी तो निर्दोषों को बचाने वाला कोई नहीं होगा.

8. अदालत ने कहा कि किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो वो निष्क्रिय नहीं रह सकती और ये ज़रूरी है कि मूल अधिकारों के हनन और नाइंसाफ़ी रोकने को नए साधन और रणनीति प्रयोग हो.

9. आदेश में साल 2015 के एनसीआरबी डेटा का ज़िक्र है जिसके मुताबिक ऐसे 15-16 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने जांच बाद क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल कर दी. साथ ही अदालत में 75 प्रतिशत मामले या तो ख़त्म कर दिये गये, या उनमें अभियुक्त छूटे, या मुकदमे वापस लिए गए. मुकदमे में एमिकस क्यूरे अमरेंद्र शरण ने बताया कि ऐसे मुकदमों की जांच डीएसपी स्तरीय अधिकारी करते हैं “इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि ये जांच साफ़ सुथरी होती होगी.”

10. आदेश में ज़िक्र है कि जब संसद में क़ानून के अंतर्गत झूठी शिकायतों को लेकर सवाल उठा तो जवाब आया कि अगर एससी/एसटी समाज को झूठे मामलों में दंड दिया गया तो ये क़ानून की भावना के ख़िलाफ़ होगा.

सरकारी कार्मिकों का था मामला
सुप्रीम कोर्ट का ये ताज़ा फ़ैसला डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले में आया है. मामला महाराष्ट्र का है जहां अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के ख़िलाफ़ इस क़ानून में मामला दर्ज कराया.

गैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ़ टिप्पणी की थी. जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कोे उनके वरिष्ठ अधिकारी से इजाज़त मांगी तो इजाज़त नहीं दी गई. इस पर उनके खिलाफ़ भी पुलिस में मुकदमा कर दिया गया. बचाव पक्ष का कहना है कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति पर ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल हो जायेगा.

29 Aug 2024

स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने जिस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया, वह यह था कि अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) को धमकाने या उनका अपमान करने के कृत्य स्वतः ही अधिनियम के उल्लंघन हैं या नहीं। निर्णय एक YouTube चैनल के संपादक को अग्रिम जमानत देने के संदर्भ में आया, जिस पर अधिनियम के तहत आरोप लगे थे।
SC/ST अधिनियम, 1989 में अपमान पर सर्वोच्च न्यायालय का क्या निर्णय है?
मामले की पृष्ठभूमि: मामला इन आरोपों पर आधारित था कि संपादक (YouTuber) ने विधानसभा के एक सदस्य (MLA) के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की थी, जो SC समुदाय से है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
अधिनियम का दायरा: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि SC/ST के सदस्यों को निशाना बनाकर किया गया अपमान या धमकी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 में स्वतः ही अपराध नहीं माना जाता।
यदि अपमान या धमकी पीड़ित की जातिगत पहचान से विशेष रूप से जुड़ा है तो ही अधिनियम लागू होगा।
अधिनियम की धारा 3(1)(r) में न्यायालय ने ‘अपमान करने के इरादे’ की व्याख्या पीड़ित की जातिगत पहचान से निकटता से जुड़े होने के रूप में की। केवल पीड़ित की SC/ST स्थिति जानना पर्याप्त नहीं है; अपमान का उद्देश्य जाति के आधार पर अपमान होना चाहिये।
धारा 18 पर स्पष्टीकरण: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 18, जो परंपरागत रूप से अग्रिम जमानत को प्रतिबंधित करती है,जमानत देने पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाती।
न्यायालयों को धारा 18 लागू करने से पहले यह निर्धारित करने को प्रारंभिक जाँच करनी चाहिये कि क्या आरोप अधिनियम में अपराध के मानदंड पूरा करते हैं।
न्यायालय ने संपादक को अग्रिम जमानत दे दी, क्योंकि प्रथम दृष्टया ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला कि उन्होने टिप्पणी विधायक की जातिगत पहचान के कारण उन्हें अपमानित करने को की थी।
निष्कर्ष के आधार पर न्यायालय ने यह कहा कि संपादक की टिप्पणियों का उद्देश्य विधायक की अनुसूचित जाति की स्थिति के आधार पर अपमान करना नहीं था।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 क्या है?
परिचय: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, जिसे SC/ST अधिनियम 1989  भी कहा जाता है, एससी और एसटी के सदस्यों को जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा से बचाने को अधिनियमित किया गया था।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 में निहित, इस अधिनियम का उद्देश्य इन उपेक्षित समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और पिछले कानूनों की अपर्याप्तता दूर करना है।
ऐतिहासिक संदर्भ : यह अधिनियम अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 पर आधारित है, जो जाति आधार पर अस्पृश्यता तथा भेदभाव समाप्त करने को स्थापित किये गए थे।
नियम और कार्यान्वयन: केंद्र सरकार अधिनियम के कार्यान्वयन को नियम बनाने हेतु अधिकृत है, जबकि राज्य सरकारें और केंद्रशासित प्रदेश केंद्रीय सहायता से इसे लागू करते हैं।
मुख्य प्रावधान: SC/ST अधिनियम सदस्यों के खिलाफ शारीरिक हिंसा, उत्पीड़न और सामाजिक भेदभाव सहित विशिष्ट अपराध परिभाषित करता है। यह इन कृत्यों को “अत्याचार” मानता है और अपराधियों के लिये कठोर दंड निर्धारित करता है।
अधिनियम में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार करने के दोषियों को कठोर दंड है। इसमें भारतीय दंड संहिता 1860 (जो अब भारतीय न्याय संहिता, 2023 के रूप में प्रतिस्थापित हुई है) में दिये गए दंड से अधिक दंड शामिल हैं।
अग्रिम जमानत प्रावधान, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 की धारा 18 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (जो अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के रूप में प्रतिस्थापित हुआ है) की धारा 438 के कार्यान्वयन पर रोक लगाती है, जो अग्रिम जमानत का प्रावधान करती है।
अधिनियम में त्वरित सुनवाई को विशेष न्यायालयों की स्थापना और अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी को वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नेतृत्व में राज्य स्तर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति संरक्षण प्रकोष्ठों की स्थापना का आदेश है।
अधिनियम में अपराधों की जाँच पुलिस उपाधीक्षक (DSP) के पद से नीचे के अधिकारी नहीं करेंगें और जांच निर्धारित समय सीमा में पूरी होनी चाहिये। अधिनियम में पीड़ितों को राहत और पुनर्वास करने का प्रावधान है, जिसमें वित्तीय मुआवज़ा, कानूनी सहायता और सहायक सेवाएँ शामिल हैं।
बहिष्करण: यह अधिनियम अनुचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच हुए अपराध कवर नहीं करता है; इनमें से कोई भी एक-दूसरे के खिलाफ अधिनियम को लागू नहीं कर सकता है।
वर्तमान संशोधन:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015: वर्ष 2015 के संशोधन का उद्देश्य अधिक कठोर प्रावधान शामिल कर और अधिनियम के दायरे का विस्तार कर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा मज़बूत करना था।
जूते की माला पहनाना, मैला ढोने को मजबूर करना और सामाजिक या आर्थिक बहिष्कार तथा किसी भी तरह का सामाजिक बहिष्कार जैसे अपराधों की नई श्रेणियों को अब अपराध माना जाता है। यौन शोषण और बिना सहमति अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को जानबूझकर छूना अपराध माना जाता है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को देवदासी बनाने जैसी प्रथाएँ स्पष्टतया गैरकानूनी हैं।
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों संबंधित कर्तव्यों की उपेक्षा करने वाले लोक सेवकों को कारावास होता है।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018: किसी आरोपित की गिरफ्तारी से पहले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की मंज़ूरी की आवश्यकता हटा दी गयी है। बिना पूर्व मंज़ूरी तत्काल गिरफ्तारी की अनुमति दी गई है।
SC और ST अधिनियम, 1989 की कमियाँ क्या हैं?
विशेष न्यायालयों के लिये अपर्याप्त संसाधन: अत्याचार के मामलों को निपटाने हेतु नामित विशेष न्यायालयों में अक्सर पर्याप्त संसाधनों और बुनियादी ढाँचे का अभाव होता है। इनमें से कई अदालतें SC/ST अधिनियम के दायरे से बाहर के मामलों को संभालती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अत्याचार के मामलों का लंबित होना और उनका धीमी गति से निपटारा होता है।
अपर्याप्त पुनर्वास प्रावधान: अधिनियम पीड़ितों के पुनर्वास पर सीमित विवरण देता है तथा अस्पष्ट तरीके से केवल सामाजिक और आर्थिक सहायता पर ही ध्यान केंद्रित है। पीड़ितों को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कठिनाइयों सहित कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पीड़ितों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में सहायता करने को अधिक व्यापक पुनर्वास उपायों की आवश्यकता है।
जागरूकता का अभाव: पीड़ितों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों सहित लाभार्थियों में अक्सर अधिनियम के प्रावधानों को लेकर जागरूकता का अभाव होता है।
इस कानून के कठोर प्रावधानों, जिसमें बिना वारंट गिरफ्तारी और गैर-ज़मानती अपराध शामिल हैं, के कारण दुरुपयोग के आरोप लगे हैं। आलोचकों का तर्क है कि कानून के व्यापक दायरे के कारण गैर-SC/ST पृष्ठभूमि के व्यक्तियों पर झूठे आरोप लगाए जा सकते हैं और उन्हें परेशान किया जा सकता है।
कवर किये गए अपराधों का सीमित दायरा: कुछ अपराध, जैसे ब्लैकमेलिंग, जिसके कारण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बीच अत्याचार होते हैं, इस अधिनियम के अंतर्गत स्पष्ट रूप से कवर नहीं किये गए हैं। अधिनियम की अत्याचार की परिभाषा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों द्वारा सामना किये जाने वाले सभी प्रकार के दुर्व्यवहार शामिल नहीं हो सकते हैं, इसलिये ऐसे अपराधों को शामिल करने को संशोधन की आवश्यकता है।
SC और ST अधिनियम, 1989 के संबंध में न्यायिक अंतर्दृष्टि
कनुभाई एम. परमार बनाम गुजरात राज्य, 2000: गुजरात उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि यह अधिनियम अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के बीच के अपराधों पर लागू नहीं होता है। तर्क यह है कि इस अधिनियम का उद्देश्य अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को उनके समुदाय से बाहर के व्यक्तियों के अत्याचारों से बचाना है।
राजमल बनाम रतन सिंह, 1988: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि SC एवं ST अधिनियम में स्थापित विशेष न्यायालय, विशेष रूप से अधिनियम से संबंधित अपराधों की सुनवाई को नामित हैं। फैसले में इस पर जोर दिया गया कि इन अदालतों को नियमित मजिस्ट्रेट या सत्र अदालतों के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिये।
अरुमुगम सेरवाई बनाम तमिलनाडु राज्य, 2011: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि SC/ST समुदाय के किसी सदस्य का अपमान करना SC और ST अधिनियम में अपराध है।
सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य, 2018: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 18 में अग्रिम जमानत प्रावधानों का बहिष्कार पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसका अर्थ है कि भले ही धारा 18 अग्रिम जमानत पर रोक लगाती हो, फिर भी अदालत ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत दे सकती है, जहाँ अत्याचार या उल्लंघन के आरोप झूठे दिखते हों।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *