माघ,बसंत का महीना जो देता है नववर्ष को निमंत्रण

‘एवं पञ्चवर्षस्य युगस्यादिः संवत्सरः’
अर्थात्
पाँच वर्षों के युग के प्रथम वर्ष का आरम्भ सम्वत्सर से है ।

‘वसन्त ऋतूनाम् ‘
अर्थात्
ऋतुओं में प्रथम स्थानीय ऋतु वसन्त है ।

‘माघो मासानाम् ‘
अर्थात्
प्रथमस्थानीय मास माघ है।

‘पक्षाणां शुक्लः ‘
अर्थात्
पक्षों में प्रथमस्थानीय पक्ष शुक्ल है।

‘अयनयोरुत्तरम् ‘
अर्थात्
अयनों में उत्तर अयन प्रथम है।

‘दिवसानां शुक्लप्रतिपत् ‘
अर्थात्
दिवसों में प्रथमस्थानीय दिवस शुक्ल प्रतिपदा वाला है ।

‘मुहूर्तानां रौद्रः’
अर्थात्
मुहूर्त्तों में प्रथमस्थानीय मुहूर्त्त रौद्र है।

‘करणानां किंस्तुघ्नः’
अर्थात्
करणों (तिथ्यर्द्ध) में प्रथमस्थानीय करण किंस्तुघ्न है। आथर्वण ज्योतिष में इसे कौस्तुभ कहा गया है।

‘ग्रहाणां ध्रुवः”
अर्थात्
ग्रहों (खगोलीय पिण्डों) में प्रथमस्थान ध्रुव तारा का है ।

गर्ग मुनि को उद्धृत कर ‘शेष ज्योतिष’ (याजुष् ज्योतिष की टीका ) में लिखा है-
तथा च गर्गः ।
तेषां च सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिकाः प्रथममाचक्षते । श्रविष्ठा तु संख्यायाः पूर्वा लग्नानाम् । अनुराधं पश्चिमम् । विद्वानां रोहिणी सर्वनक्षत्राणाम् । मघाः सौर्याणाम् . भोग्यानां चार्यमा . नक्षत्राणां सर्वासां षड्राशीतानामादिः श्रविष्ठा एवं पञ्चवर्षस्य युगस्यादिः संवत्सरः
वसन्त ऋतूनाम् माघो मासानाम् पक्षाणां शुक्लः
अयनयोरुत्तरम् दिवसानां शुक्लप्रतिपत् मुहूर्तानां रौद्रः करणानां किंस्तुघ्नः ग्रहाणां ध्रुवः ।

{मुनि गर्ग को प्रायः सभी प्राचीन ज्योतिषियों ने अपने ग्रन्थों मे स्मरण कर उनके वचन प्रमाणस्वरूप दिये.
। वृद्धगर्गसंहिता , ग्रीक इण्डिका जैसी विलुप्त है । भारत में तथा केम्ब्रिज में गर्गसंहिता की हस्तलिखित प्रतिलिपि(पाण्डुलिपि) होने के दावे हैं किन्तु गर्गसंहिता का स्वरूप अभी अज्ञात है ।}

‘तेषां च सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिकाः प्रथममाचक्षते ।’
अर्थात्
उन सभी नक्षत्रों के कर्मों मे कृत्तिका को प्रथम कहा गया है ।

‘श्रविष्ठा तु संख्यायाः पूर्वा लग्नानाम् ।’
अर्थात्
श्रविष्ठा (धनिष्ठा) तो पूर्वा लग्न है अर्थात् उत्तरायणारम्भ है

जब हमारी नक्षत्र गणना कृत्तिका से आरंभ होती थी। गर्ग मुनि ने दो स्वतन्त्र नक्षत्र गणनाओं का उल्लेख किया है- एक कृत्तिकादि और दूसरी धनिष्ठादि। गर्ग वाक्य है कि- तेषां सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिका प्रथममाचचक्षते श्रविष्ठा तु संख्याया: पूर्वा लग्नानाम् अर्थात् सभी नक्षत्रों में अग्न्याधान आदि कर्मों में कृत्तिका की गणना प्रथम कही जाती है किंतु धनिष्ठा क्षितिज में लगनेवाले नक्षत्रों में प्रथम है।
श्रविष्ठाभ्यो गुणाभ्यस्तान् प्राग्विलग्नान् विनिर्दिशेत्। अर्थात् गुण (तीन) तीन की गणना कर धनिष्ठा से पूर्व क्षितिज में लगे नक्षत्रों को बताना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय २७ नक्षत्रों में तीन तीन भाग करके नक्षत्र चक्र के नव भाग किए गए थे। अथर्व ज्योतिष के नव विभागों का सामंजस्य इससे हो जाता है।

‘अनुराधं पश्चिमम् ।’
अर्थात्
अनुराधा में शरद् विषुव है.

‘विघ्नानां रोहिणी सर्वनक्षत्राणाम् ।’
अर्थात्
विघ्न नक्षत्रों मे ज्येष्ठा प्रथमस्थानीय है । तैत्तिरीय संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.५) में ज्येष्ठा को रोहिणी कहा गया है । अथर्वसंहिता ६.११०.२ में ज्येष्ठाघ्नि , आथर्वण ज्योतिष के अनुसार १६ वाँ नक्षत्र निधन नक्षत्र है , कृत्तिका से ज्येष्ठा भी १६वाँ है ।

‘मघाः सौर्याणाम् .’
अर्थात्
सिंह राशि का स्वामी सूर्य है अतः सिंहराशिगत नक्षत्र सौर्य सञ्ज्ञक होते हैं जिनमें प्रथमस्थानीय नक्षत्र मघा है ।

‘भोग्यानां चार्यमा .’
अर्थात्
कन्या राशि के अपर नाम युवती, रमणी तथा भोग्या भी हैं , अतः कन्याराशिगत नक्षत्र भोग्या सञ्ज्ञक होते हैं, जिनमें अर्यमा (उ० फाल्गुनी) प्रथमस्थानीय नक्षत्र है ।

‘नक्षत्राणां सर्वासां षड्राशीतानामादिः श्रविष्ठा’
यदि यहाँ सर्वासां के स्थान पर सर्वेषां पाठ का आग्रह हो तो सर्वेषां पद नक्षत्राणां का विशेषण होगा, यदि सर्वासां पाठ यथावत् लिया जाये तो वह षड्राशीतानां* ( साधु पाठ ‘षड्राशीनाम्’) का विशेषण होगा ।
आशय यह है कि एक अयन की छः राशियों के सभी नक्षत्रों अथवा एक अयन की सभी छः राशियों के नक्षत्रों मे प्रथमस्थानीय नक्षत्र श्रविष्ठा (धनिष्ठा) है ।

‘एवं पञ्चवर्षस्य युगस्यादिः संवत्सरः’
अर्थात्
पाँच वर्षों के युग के प्रथम वर्ष का आरम्भ सम्वत्सर से है ।

‘वसन्त ऋतूनाम् ‘
अर्थात्
ऋतुओं में प्रथम स्थानीय ऋतु वसन्त है ।

‘माघो मासानाम् ‘
अर्थात्
प्रथमस्थानीय मास माघ है।

‘पक्षाणां शुक्लः ‘
अर्थात्
पक्षों में प्रथमस्थानीय पक्ष शुक्ल है।

‘अयनयोरुत्तरम् ‘
अर्थात्
अयनों में उत्तर अयन प्रथम है।

‘दिवसानां शुक्लप्रतिपत् ‘
अर्थात्
दिवसों में प्रथमस्थानीय दिवस शुक्ल प्रतिपदा वाला है ।

‘मुहूर्तानां रौद्रः’
अर्थात्
मुहूर्त्तों में प्रथमस्थानीय मुहूर्त्त रौद्र है।

‘करणानां किंस्तुघ्नः’
अर्थात्
करणों (तिथ्यर्द्ध) में प्रथमस्थानीय करण किंस्तुघ्न है। आथर्वण ज्योतिष में इसे कौस्तुभ कहा गया है।

‘ग्रहाणां ध्रुवः”
अर्थात्
ग्रहों (खगोलीय पिण्डों) में प्रथमस्थान ध्रुव तारा का है ।

तपस्‍य हुआ फागुन, वसंत की अवधि

फाल्‍गुन का ये दिन आप सबके नाम। हम साल के समापन और चैत्र की ओर अग्रसर हैं। फागुन या फाल्‍गुन, वह मास जो वीरवर अर्जुन का भी एक नाम था हमारे लिए एक मास ही है। फाल्‍गुनी नक्षत्र पर इस मास का नाम है।

यह वसन्‍त की वेला का मास है, ऐसी वेला जिसकी पहचान कोई पंद्रह सौ साल पहले भी आज के रूप में ही की गई थी, खासकर उन शिल्पियों ने जो #दशपुर में रंग-बिरंगी रेशम की साडियां, दुकूल बनाते थे और देश ही नहीं, समंदर पार भी अपनी पहचान बनाए हुए थे।
उन्‍होंने फागुन की ऋतु को बहुत अच्‍छा माना है, उनके कवि वत्‍सभट्टि ने लिखा है –

फागुन वही है जिसमें महादेव के विषम लोचनानल से भस्‍मीभूत, अतएव पवित्र शरीर वाला होकर कामदेव जैसा अनंग देव अशोक वृक्ष, केवडे, सिंदूवार और लहराती हुई अतिमुक्‍तक लता और मदयन्तिका या मेहंदी के सद्य स्‍फुटित पुंजीभूत फूलों से अपने बाणों को समृद्ध करता है। ये ही वनस्‍पतियां इन दिनों अपना विकास करती है।
यह वही फागुन है जिसमें मकरंद पान से मस्‍त मधुपों की गूंज से नगनों की शाखा अपनी सानी नहीं रखती और नवीन फूलों के विकास रोध्र पेडों में उत्‍कर्ष और श्री की समृद्धि हो रही है। (कुमारगुप्‍त का 473 ई. का मंदसौर अभिलेख श्‍लोक 40-41)

इस अभिलेख में इस मास का नाम ‘तपस्‍य’ कहा गया है। यही नाम पुराना है, नारद संहिता (3, 81-83) में मासों के नाम में यह शामिल है। ज्‍योतिष रत्‍नमाला (1038 ई.) में भी ये पर्याय आए हैं। बारह मासों के बारह सूर्यों में इस मास के सूर्य का नाम सूर्य ही कहा गया है, देवी धात्री और देवता गोविन्‍द को बताया गया है।

यही मास है जो नवीन वर्ष को निमंत्रित करता है, होलिका दहन के साथ इस मास का समापन होगा। बहरहाल गांव गांव होलिकाएं रोंपी जा चुकी हैं, ये एक महीने की अवधि वाली हैं। मगर, ज्ञात रहे होलिका के लिए सेमल के पेडों को काटा जाना ठीक नहीं हैं, सेमल बहुत उपयोगी है।

माघ से वर्ष !
कितना जानते हैं ?

मैत्रायणीयारण्यक में और बाैधायन श्राैतसूत्र में माघादि वर्ष प्रतिपादित है । जैसे,

(१) सूर्याे याेनिः कालस्य । तस्यैतद् रूपं यन् निमेषाssदिकालात् सम्भृतं द्वादशात्मकं वत्सरम् । एतस्याssग्नेयमर्धमर्धं वारुणम् । मघाssद्यं श्रविष्ठाsर्धमाग्नेयं क्रमेणाेत्क्रमेण सार्पाssद्यं श्रविष्ठाsर्धान्तं साैम्यम् ।(मैत्रायणीयाssरण्यक ६।१४)

(२) षट्सुषट्सु मासेष्वाहिताग्निना पशुना यष्टव्यं भवति, उभे काष्ठे अभियजेत, माघमासे धनिष्ठाभिरुत्तरेणैति भानुमान् । अर्धाssश्लेषस्य श्रावणस्य दक्षिणेनाेपनिवर्तत इत्येते काष्ठे भवतः। (बाैधायनश्राैतसूत्र २६।२९)।

लगधमुनि ने ”पञ्चसंवत्सर-मयम्” इत्यारब्ध वेदाङ्गज्याेतिष में माघादि वर्ष का प्रतिपादन किया है–

माघशुक्लप्रपन्नस्य पाैषकृष्णसमापिनः ।
युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते ।।(वेदाङ्गज्याेतिषम्, श्लाेक ५)
*
१४ घण्टा की रातें और १० घण्टा के दिन।

२४ घण्टा में ६० घटी या नाड़ी और ३० मुहूर्त होते हैं।

३६०० वर्ष पहले के याजुष् ज्योतिष में दिन की ह्रास वृद्धि का गणित बताया गया है। पहले के लोगों ने निश्चित ही वर्ष के प्रत्येक दिन के दिवा रात्रि मान को नापा होगा और उसका रेकॉर्ड रखा, आगामी वर्षों के दिनों से मिलान करने पर ही वे जाने होंगे कि दिन-रात की घटत बढ़त एक निश्चित दर से नियमित होती है।
शार्दूलकर्णावदान ज्योतिष्कावदान तथा जैन ग्रन्थों में मासों के नाम के साथ दिनमान रात्रिमान की घटियों/मुहूर्तों के विषय में बताया गया है।
हम जानते हैं कि पृथ्वी के उत्तरी गोल में २१ दिसम्बर से सूर्य की उत्तरायण प्रवृत्ति होती है
यह सौर मास ‘तप’ है। चान्द्रमासों से यह सदा आबद्ध नहीं है। पहले माघ मास में ही सबसे छोटा दिन होता था।
मानसोल्लासकार ने भी दिन की ह्रास वृद्धि के काल को सौर मासों के साथ राशिनाम सहित कहा है।
इस प्रकार से कथन करना त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि राशि सङ्क्रान्ति तथा अयन व विषुव बिन्दुओं का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता है।

३३° उत्तर अक्षांश पर मान लीजिये कि चार हजार वर्ष पहले अनन्तनाग में मूर्तकाल की साधना हो रही थी। वर्षभर के प्रत्येक दिन रात की ह्रास वृद्धि घटी बढ़ी का मापन चल रहा था।
३३ देव और ३४वाँ प्रजापति संवत्सर नियत तिथि पर अपनी उपस्थिति दर्शा रहे थे। ३३° से कुछ अधिक उत्तर दिशा में स्थिति अर्थात् ३४वें भाग में ही दिनमान की अवधि न्यूनतम १२ मुहूर्त और रात्रिमान १८ मुहूर्त की होती है , यह उदगयन या मित्रायण दिन की स्थिति है। और यह माघ मास में हो रही थी ।
माघ के उपरान्त अगला मास फाल्गुन उपस्थित होने पर दिनमान १३ मुहूर्त का होने लगता है । अर्थात् एक मास किंवा ३० दिनों में दिनमान में १ मुहूर्त या २ घटी बढ़ी हुई होती हैं।
चैत्र में १४ मुहूर्त , वैशाख में १५ मुहूर्त, ज्येष्ठ में १६ मुहूर्त , आषाढ़ में १७ मुहूर्त, श्रावण में १८ मुहूर्त की अवधि दिन की होती है।
श्रावण मास में दक्षिणायन होता था। यह सर्वाधिक दीर्घावधि के दिवस का मास था।
भाद्रपद मास में १७ , आश्विन में १६, कार्तिक में १५, मार्गशीर्ष में १४, पौष में १३ मुहूर्त का दिन होता था।
प्रत्येक दिवस में १ कला की ह्रास वृद्धि होती है।
यथा श्रावणे तथा माघे। यथा भाद्रपदे तथा फाल्गुने। यथा आश्वयुजे तथा चैत्रे। यथा कार्तिके तथा वैशाखे। यथा मार्गशीर्षे तथा ज्येष्ठे। यथा पौषे तथा आषाढे। एवमेतेषां नक्षत्राणां मुहूर्तानां चरितं विचरितं च ज्ञातव्यम्॥
~शेषज्ञान
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू एवं अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी जी की पोस्टों से संग्रहित

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