लेखक-कवि मंगलेश डबराल भी कोरोना के शिकार, एम्स दिल्ली में ली आखिरी सांस

प्रख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल का निधन, जानिए उनका जीवन,प्रख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल का बुधवार को निधन हो गया है।

देहरादून 09 दिसंबर । साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता, हिंदी भाषा के प्रकख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल का बुधवार को निधन हो गया है। कोरोना संक्रमित होने के बाद उनकी हालत नाजुक बनी हुई थी। वहीं, मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता, हिंदी भाषा के प्रख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल के निधन पर शोक व्यक्त किया है। उन्होंने मंगलेश डबराल के निधन को हिंदी साहित्य को एक बड़ी क्षति बताते हुए दिवंगत आत्मा की शांति व शोक संतप्त स्वजनों को धैर्य प्रदान करने की ईश्वर से प्रार्थना की।

23 नवंबर को लिखा था ‘बुखार’ का यह किस्सा

72 वर्षीय मंगलेश डबराल कोरोना वायरस से पीड़ित थे। उनका निधन बुधवार को दिल्ली एम्स में हुआ। कोरोना संक्रमित होने पर उन्हें गाजियाबाद, वसुंधरा के सेक्टर-4 में ली क्रेस्ट प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। इसके बाद उन्हें एम्स में शिफ्ट किया गया था। कोरोना के चलते उनके फेफड़ों में संक्रमण हो गया था। वह निमोनिया से भी पीड़ित थे। बताया जा रहा है कि उनकी आर्थिक स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि महंगा इलाज का खर्चा वहन कर सकें। उनकी बेटी अलमा डबराल उनकी देखरेख कर रही थीं। इलाज काफी महंगा था और उन्होंने मदद की दरकार भी थी। डबराल ने जिनकी राजनीति के लिए अवार्ड वापस किया था, उन्होंने भी समय पर उनकी मदद नहीं की।

उत्तराखंड में टिहरी गढ़वाल जिले के काफलपानी गांव में जन्मे कवि और लेखक मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को हुआ था। मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित नाम था। देहरादून में शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे दिल्ली में पैट्रियट हिंदी , प्रतिपक्ष और आसपास में कुछ दिन काम करने के बाद मध्य प्रदेश चले गए। जहां मध्य प्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक रहे। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन 1983 में जनसत्ता में साहित्य संपादक का पद संभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वे नैशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े थे।

23 नवंबर…बुखार वाला किस्सा!

मंगलेश डबराल ने अपने फेसबुक अकाउंट पर 23 नवंबर को बुखार का एक किस्सा शेयर किया था। उन्होंने लिखा था, ‘बुखार की दुनिया भी बहुत अजीब है। वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है। वह आपको इस तरह झपोडती है जैसे एक तीखी-तेज हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो। वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता। जब भी बुखार आता है, मैं अपने बचपन में चला जाता हूं। हर बदलते मौसम के साथ बुखार भी बदलता था। बारिश है तो बुखार आ जाता था, धूप अपने साथ देह के बढ़े हुए तापमान को ले आती और जब बर्फ गिरती तो मां के मुंह से यह जरूर निकलता…अरे भाई, बर्फ गिरने लगी है, अब इसे जरूर बुखार आएगा।’

इसके आगे मंगलेश डबराल ने लिखा, ‘एक बार सर्दियों में मेरा बुखार इतना तेज हो गया कि पड़ोस की एक चाची ने कहा अरे छोरा, तेरा बदन तो इतना गर्म है कि मैं उस पर रोटी सेंक लूं! चाची को सुनकर लोग हंस देते और मेरा बुखार भी हल्का होने लगता। उधर, मेरे पिता मुझे अपनी बनाई बुखार की कारगर दवा ज्वरांकुश देते जिसका कड़वापन लगभग असह्य था। वह गिलोय की गोली थी, लेकिन पता नहीं क्या-क्या पुट देकर इस तरह बनाई जाती थी कि और भी जहर बन जाती और बुखार उसके आगे टिक नहीं पाता था। एक बार गांव में बुखार लगभग महामारी की तरह फैलने लगा तो पिता ने मरीजों को ज्वरांकुश देकर ही उसे पराजित किया। अपनी ज्वरांकुश और हाजमा चूर्ण पर उन्हें बहुत नाज था जिसकी परंपरा मेरे दादाजी या उनसे भी पहले से चली आती थी। पिता कहते थे कि जड़ी-बूटियों को घोटते वक्त असल चीज यह है कि उन्हें कौन सा पुट- दूध, शहद, घी, अदरक, पारा, चांदी , सोने का- दिया जाता है। उसके अनुसार उसकी तासीर और इस्तेमाल बदल जाते हैं। बहरहाल, जब मेरा बुखार उतरने लगता तो मुझे उसकी आहट सुनाई देती। वह सरसरा कर उतर रहा है, बहुत आहिस्ते, जैसे सांप अपनी केंचुल उतारता है। केंचुल उतरने के बाद लगता शरीर बहुत हल्का हो गया है और आने वाले बुखारों को झेलने में समर्थ है। बुखार के बाद त्वचा में एक अजीब पतलापन आ जाता था और हाथ की शिराओं का नीला रंग उभर आता जिसे देर तक देखना अच्छा लगता।’
मंगलेश डबराल समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित नाम हैं। उनका जन्म 14 मई 1949 को टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) के काफलपानी गांव में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई। दिल्ली आकर हिन्दी पैट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम करने के बाद वह भोपाल में मध्यप्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक रहे।

उन्‍होंने इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी की। सन् 1963 में जनसत्ता में साहित्य संपादक का पद संभाला। कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के बाद आजकल वह नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हुए थे। मंगलेश डबराल के पांच काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है और नये युग में शत्रु। इसके अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन के साथ ही एक यात्रावृत्त एक बार आयोवा भी प्रकाशित हो चुके हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *