अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अल्पसंख्यक श्रेणी पर सुको का निर्णय समझें 10 बिंदुओं में
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अल्पसंख्यक श्रेणी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या मतलब?, 10 बिंदुओं में समझें
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनॉरिटी स्टेटस देने के मामले में 7 जजों की बेंच का फैसला शुक्रवार को आया. हालांकि यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं बल्कि 4:3 के अनुपात में आया है. फैसले के पक्ष में सीजेआई चंद्रचूड़, जस्टिस खन्ना, जस्टिस पारदीवाला जस्टिस मनोज मिश्रा एकमत रहे. वहीं जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा का फैसला अलग रहा
नई दिल्ली 08 नवंबर 2024.अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनॉरिटी स्टेटस देने के मामले में 7 जजों की बेंच का फैसला शुक्रवार को आया. हालांकि यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं बल्कि 4:3 के अनुपात में आया है. फैसले के पक्ष में सीजेआई, जस्टिस खन्ना, जस्टिस पारदीवाला जस्टिस मनोज मिश्रा एकमत रहे. वहीं जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा का फैसला अलग रहा.
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर बड़ा फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) का अल्पसंख्यक की अल्पसंख्यक श्रेणी बनाऐ रखी है, लेकिन साथ में यह भी साफ किया कि एक नई बेंच इसे लेकर गाइडलाइंस बनाएगी. CJI ने अपने फैसले में बताया कि एक 3 सदस्यीय नियमित बेंच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की अल्पसंख्यक श्रेणी पर अंतिम निर्णय करेगी. यह बेंच 7 जजों की बेंच के फैसले के निष्कर्षों और मानदंड के आधार पर AMU की अल्पसंख्यक श्रेणी के बारे में अंतिम फैसला लेगी.
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर दूसरी बेंंच करेगी फैसला: नई बेंच अल्पसंख्यक संस्थानों के लिए गाइडलाइंस भी बनाएगी. अल्पसंख्यक संस्थान बनाने और उसके प्रशासन से लेकर सारी गाइडलाइन बेंच बनाएगी. 7 जजों के फैसले के आधार पर दूसरी बेंच सुनवाई करेगी. अब ये बेंच तय करेगी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक है नहीं. अभी सुप्रीम कोर्ट ने ये तय नहीं किया है कि AMU अल्पसंख्यक है या नहीं. SC ने मानदंड तय किया है कि अल्पसंख्यक दर्जा किसे दिया जा सकता है.
AMU के लिए राहत क्यों है? 20 अक्टूबर 1967 के एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ के फैसले में कोर्ट ने उदाहरण दिया था कि किसी संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा तब मिलेगा, जब उसकी स्थापना उस समुदाय के लोगों ने की हो. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मामले में तर्क यह था कि चूंकि इसकी स्थापना मुस्लिमों ने नहीं की है और यह कानून से अस्तित्व में आया, इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला निरस्त कर दिया.
अल्पसंख्यक संस्थानों को कर सकते हैं रेग्यूलेट : AMU पर सुप्रीम फैसले की बड़ी बातें ये है कि अनुच्छेद-30 में मिले अधिकारों को संपूर्ण नहीं माना जा सकता है. धार्मिक समुदायों को संस्थान बनाने का अधिकार है, धार्मिक समुदायों को संस्थान चलाने का असीमित अधिकार नहीं है. सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों को रेग्युलेट कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने 4-3 से 1967 के उस फैसले को निरस्त कर दिया जो एएमयू को अल्पसंख्यक श्रेणी देने से मना करने का आधार बना था.
कोर्ट के फैसले के मायने, वकील से समझे: इस मामले में आये मानदंड को वकील शादान फराशात ने यूनिवर्सिटी के लिए बडी राहत बताया. इन मापदड़ों से आगे हमारा केस पॉजिटिव रहेगा.अजीज बाशा ने कहा था कि क्योंकि उस समय 1920 कॉलोनियन लेजिसलेचर ने एएमयू स्टेबलिश किया,एक्ट बनाकर.इसलिए उसे मुस्लिम माइनोरिटी स्टेबलिश नहीं कर सकते.क्योंकि कानूनी तौर पर इसे कॉलोनियन लेजिसलेचर ने किया है.उस फाइडिंग को ओवर रूल कर दिया गया.
कोर्ट के फैसले की सबसे जरूरी बात क्या: शादान फराशात ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लीगल इनकॉरपोरेशन एक चीज होती है और स्टेबलिशमेंट ऑफ इंस्टीट्यूशन अलग मामला है. इस दृष्टि से कोई भी मानइनोरिटी कम्यूनिटी एक इंस्टीट्यूट स्थापित कर सकती है जिसमें कई तरह की अन्य मदद ली जा सकती है पर इसका मतलब ये नहीं कि वो माइनोरिटी इंस्टीट्यूशन उस कम्यूनिटी ने स्टेबलिश ही नहीं किया. यही सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले की सबसे मुख्य बात है. किसने इसे स्थापित किया, किसकी शिक्षा के लिए बनाया गया.उसमें पैसा किस कम्यूनिटी का लगा.इसमें कौन लोग शामिल थे. ये सारी चीजें अगर आप देखेंगे तो साफ दिखता है कि इसे माइनोरिटी को स्टेबलिश करने को दिया गया है.
अल्पसंख्यक दर्जे को क्या जरूरी: सीजेआई ने कहा कि ऐसे विश्वविद्यालय थे जो शिक्षण महाविद्यालय थे और शिक्षण महाविद्यालयों को शिक्षण विश्वविद्यालय में परिवर्तित करने की प्रक्रिया एक शैक्षणिक संस्थान बनाने की प्रक्रिया है. इसलिए इसे इतने संकीर्ण रूप से नहीं देखा जा सकता है. यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई संस्थान कानून द्वारा बनाया गया है क्योंकि अधिनियम की प्रस्तावना ऐसा कहती है. मौलिक अधिकारों को वैधानिक भाषा के अधीन बनाया जाएगा और औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना होगा. अदालत को संस्थान की उत्पत्ति पर विचार करना होगा और अदालत को यह देखना होगा कि संस्थान की स्थापना के पीछे किसका विवेक था.बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा: अज़ीज़ बाशा मामले में SC ने फैसला सुनाते हुए कहा कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता क्योंकि इसकी स्थापना एक क़ानून द्वारा की गई थी. लेकिन अब 7 जजों के संविधान पीठ ने उस फैसले को रद्द कर दिया. बहुमत के फैसले ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ़ इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगा क्योंकि उसे क़ानून द्वारा बनाया गया था. बहुमत ने कहा कि न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे “दिमाग” किसका था
कैसे कर सकते हैं अल्पसंख्यक दर्जे का दावा: अगर वह जांच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करता है, तो संस्थान अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है. इस निर्धारण को संविधान पीठ ने मामले को एक नियमित पीठ को सौंप दिया. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ संस्थान की स्थापना ही नहीं बल्कि प्रशासन कौन कर रहा है. यह भी निर्णायक कारक है और इसी आधार पर नियमित बेंच मामले की सुनवाई करेगी.
पीठ ने निर्धारित किए मापदंड: सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित नहीं किया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं. लेकिन 3 जजों की पीठ के विवादास्पद मुद्दे को निर्धारित करने को एक व्यापक परीक्षण को महत्वपूर्ण रूप से मापदंड निर्धारित किए हैं.इसमें इतिहास, स्थापना की परिस्थितियां, निगमन, स्थापना, प्रशासन शामिल है.अजीज बाशा मामले में 5 जजों की पीठ के फैसले को निरस्त कर दिया,जिसमें यह माना गया था कि यूनिवर्सिटी को संसद के एक अधिनियम से,एक क़ानून से निगमित किया गया था.इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है,अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निगमन स्थापना से अलग है. किसी संस्थान का प्रशासन कौन करता है, इस पर भी विचार होना चाहिये।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की पीठ ने (4:3 बहुमत से) एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ के मामले में 1967 के फैसला निरस्त किया जिसमें कहा गया था कि कानून से गठित कोई संस्था अल्पसंख्यक संस्था होने का दावा नहीं कर सकती।
अब यह मुद्दा कि AMU अल्पसंख्यक संस्था है या नहीं, बहुमत के इस दृष्टिकोण के आधार पर नियमित पीठ से तय किया जाना है।
अजीज बाशा मामले में न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि इसकी स्थापना कानून से की गई थी।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में बहुमत ने अजीज बाशा मामला निरस्त कर कहा कि कोई संस्था केवल इसलिए अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खोएगी, क्योंकि इसकी स्थापना कानून से की गई। बहुमत ने माना कि न्यायालय को यह अवश्य जांचना चाहिए कि यूनिवर्सिटी की स्थापना किसने की और इसके पीछे “दिमाग” किसका था। यदि वह जांच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है तो संस्था अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त करने का दावा कर सकती है। इस तथ्यात्मक निर्धारण को संविधान पीठ ने मामले को नियमित पीठ को सौंप दिया।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने अंतिम कार्य दिवस पर बहुमत (जिसमें स्वयं, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे) की ओर से निर्णय सुनाया।
जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एस.सी. शर्मा ने असहमति जताई।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस एस.सी. शर्मा की संविधान पीठ इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2006 के उस निर्णय से उत्पन्न संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है।
विचार-विमर्श के लिए संदर्भ का मुख्य मुद्दा था:
“किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान मानने के क्या संकेत हैं? क्या किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान माना जाएगा, क्योंकि इसकी स्थापना किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति ने की या इसका प्रशासन किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति कर रहे है?”
पीठ के समक्ष विचार को 4 मुख्य पहलू थे: (1) क्या एक यूनिवर्सिटी, जो किसी क़ानून (AMU Act 1920) से स्थापित और शासित है, अल्पसंख्यक श्रेणी प्राप्त कर सकता है; (2) एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ (5 जजों की पीठ) में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले की सत्यता, जिसने AMU के अल्पसंख्यक दर्जा खारिज कर दिया था; (3) AMU Act में 1981 के संशोधन की प्रकृति और सत्यता, जिसने बाशा के फैसले के बाद यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया; (4) क्या 2006 में AMU बनाम मलय शुक्ला में इलाहाबाद हाईकोर्ट के दिए गए बाशा निर्णय पर भरोसा करना सही था, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि AMU गैर-अल्पसंख्यक संस्थान होने के नाते मेडिकल पीजी कोर्स में मुस्लिम उम्मीदवारों को 50% सीटें आरक्षित नहीं कर सकता।
निर्णय के मुख्य अंश
बहुमत का दृष्टिकोण
अनुच्छेद 30 कमजोर हो जाएगा यदि इसे केवल उन संस्थानों पर लागू किया जाए, जो संविधान के लागू होने के बाद स्थापित किए गए।
‘समावेशन’ और ‘स्थापना’ शब्दों का परस्पर उपयोग नहीं किया जा सकता। केवल इसलिए कि AMU को शाही कानून से शामिल किया गया, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे अल्पसंख्यक ने ‘स्थापित’ नहीं किया। यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि यूनिवर्सिटी की स्थापना संसद से की गई, केवल इसलिए कि क़ानून कहता है कि इसे यूनिवर्सिटी की स्थापना को पारित किया गया। इस तरह की औपचारिकता अनुच्छेद 30 के उद्देश्यों को विफल कर देगी। औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना चाहिए। यह निर्धारित करने को कि संस्थान की स्थापना किसने की, न्यायालय को संस्थान की उत्पत्ति का पता लगाना चाहिए और यह पहचानना चाहिए कि इसके पीछे “दिमाग” किसका था। विचार का प्रमाण अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य की ओर इशारा करना चाहिए। यह देखना होगा कि भूमि को धन किसने प्राप्त किया और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने मदद की।
यह आवश्यक नहीं है कि संस्थान की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गई हो।
यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि प्रशासन अल्पसंख्यक के पास ही होना चाहिए। अल्पसंख्यक संस्थान धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाह सकते हैं। इसको प्रशासन में अल्पसंख्यक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है।
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का निर्णय मौजूदा मामले में निर्धारित परीक्षणों के आधार पर होना चाहिए। इस मुद्दे पर फैसला करने और 2006 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की सत्यता पर फैसला करने को पीठ गठित करने को चीफ जस्टिस के समक्ष कागजात पेश किए जाने हैं।
जस्टिस सूर्यकांत का दृष्टिकोण
जस्टिस सूर्यकांत ने 2019 में 3 जजों की पीठ के पारित संदर्भ आदेश पर आपत्ति जताई, जिसमें मामले को सीधे 7 जजों की पीठ को भेजा गया था।
अल्पसंख्यक अनुच्छेद 30 में संस्थान स्थापित कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए क़ानून और UGC से मान्यता प्राप्त होना आवश्यक है। इस सीमा तक अजीज बाशा को संशोधित करने की आवश्यकता है।
अजीज बाशा और टीएमए पाई में 11 जजों की पीठ के फैसले के बीच कोई संघर्ष नहीं है।
केस रेफरेंस ट्रैजेक्टरी
तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच से पारित 2019 के रेफरेंस ऑर्डर के परिणामस्वरूप 7 जजों की बेंच का गठन हुआ था। 2006 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई में रेफरेंस हुआ।
कोई यह कह सकता है कि मामले को फिर से रेफर किया गया। इस विषय पर विचार-विमर्श को सुप्रीम कोर्ट के पिछले दो प्रयासों को देखते हुए। 1967 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और 2006 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बीच 1981 का सुप्रीम कोर्ट निर्देश (अंजुमन-ए-रहमानिया बनाम जिला विद्यालय निरीक्षक) है, जिसमें बाशा जजमेंट में संबोधित मामले को सात जजों की बेंच को भेजा गया।
संदर्भित प्रश्न इस प्रकार था:
“किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान मानने के क्या संकेत हैं? क्या किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान माना जाएगा, क्योंकि इसकी स्थापना किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति ने की या इसका प्रशासन किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति कर रहे है?”
जबकि उल्लेखित संदर्भ पर टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य के साथ 11 जजों की पीठ ने विचार किया, पीठ ने यह कहते हुए प्रश्न का उत्तर नहीं देने का विकल्प चुना कि इसे नियमित पीठ संभालेगी। इसके बाद नियमित पीठ ने भी उक्त प्रश्न का उत्तर देने से परहेज किया।
केस टाइटल: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अपने रजिस्ट्रार फैजान मुस्तफा बनाम नरेश अग्रवाल सी.ए. संख्या 002286/2006 और संबंधित मामले
Topics mentioned in this article
Aligarh Muslim University Minority Status
Supreme Court On AMU Minority Status
AMU Minority Status Verdict