श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के कोठारी बंधुओं के बलिदान को हो गये 33 साल
Ayodhya Ram Mandir Andolan Karsevak Kothari Brothers Died During Police Firing
2 नवंबर, 1990: जब कारसेवक कोठारी बंधुओं की पुलिस फायरिंग में गई जान, अयोध्या गुंबद पर चढ़ गए थे
अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन में जान गंवाने वाले भाइयों राजकुमार कोठारी और शरद कोठारी की आज 33वीं बरसी है। 2 नवंबर 1990 को पुलिस फायरिंग में इन कारसेवकों की जान चली गई थी। इन भाइयों ने विवादित ढांचे के गुंबद पर चढ़कर केसरिया झंडा फहराया था।
मुख्य बिंदु
राम मंदिर आंदोलन के दौरान गई थी कोठारी बंधुओं की जान
23 और 20 साल के ये सगे भाई विवादित ढांचे पर चढ़ गए थे
2 नवंबर 1990 को पुलिस फायरिंग में दोनों की मौत हो गई
अयोध्या दो नवंबर: 2 नवंबर की तारीख थी आज से 33 साल पहले 1990 की। उस समय राम मंदिर का आंदोलन चरम पर था। देश के कोने-कोने से लाखों की संख्या में कारसेवक सरकारी बाधाओं को तोड़ते हुए अयोध्या की सीमा में घुस चुके थे। युवा स्टूडेंट्स, स्वयंसेवक महिलाएं और लड़कियां सभी ने अयोध्या पहुंचने की ठान ली थी। मंदिर आंदोलन के नायक अशोक सिंघल के आह्वान पर लाखों कारसेवकों का जमावड़ा अयोध्या में हो चुका था। सभी पर गिरफ्तारी की भी तलवार लटक रही थी। उस समय सरकार थी समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव की। सुबह का प्लान था विवादित राम मंदिर में पहुंच कर कारसेवा करने का। अशोक सिंघल उमा भारती ऋतंभरा विनय कटियार सहित विहिप से जुड़े संतों की जमात अयोध्या में मौजूद थी।
सुबह का समय था जब कारसेवकों के जत्थे मंदिरों और अपनी-अपनी शरण स्थली से निकलकर सड़क पर पहुंचने लगे। सरयू तट से कारसेवकों का हुजूम हनुमानगढ़ी की ओर चल पड़ा। अशोक सिंघल संतों के साथ जत्थे का नेतृत्व कर रहे थे। अयोध्या कोतवाली से जब कारसेवक आगे बढ़े तो पुलिस सरगर्मी बढ़ गई। सुरक्षा में लगे कांस्टेबलों के डंडे फटकने लगे और बंदूके तन गई। पुलिस अधिकारियों ने माइक से आगे न बढ़ने की चेतावनी दी पर कारसेवक कहां सुनने वाले। वे आगे बढ़ने लगे। जैसे ही मुख्य मार्ग से हनुमानगढ़ी की ओर मुड़ने की कोशिश की, पुलिस फायरिंग शुरू हो गई। कारसेवकों को गोलियां लगती, उन्हें साथी कारसेवक उठाकर ले जाते। यह सिलसिला कुछ देर तक चलता रहा।
राजकुमार कोठरी (23) और शरद कोठारी (20) दोनों भाई कलकत्ता में संघ से जुड़े हुए थे। वे आरएसएस की शाखाओं में शामिल होते थे और द्वितीय वर्ष तक प्रशिक्षित थे।
विवादित ढांचे तक पहुंच ही गए कारसेवक
इस बीच दिगंबर अखाड़ा को जोड़ने वाले रास्ते पर भी फायरिंग शुरू हो गई। सभी कारसेवक निहत्थे थे। उन्हीं में कोठारी बंधु भी थे जिनको पुलिस की गोलियां लगी और उनकी मौत हो गई। उस समय आंदोलन का संचालन दिगंबर अखाड़ा मणिराम छावनी व कारसेवक पुरम से हो रहा था। 30 अक्टूबर 1990 की घटना 2 नवंबर को भी दोहराई गई जिसमें कई कारसेवक मारे गए। लेकिन कारसेवकों ने मुलायम सरकार को जवाब दे दिया था। वे अंततः विवादित ढांचे तक पहुंच कर उस पर तोड़फोड़ भी करने में कामयाब हो गए थे।
200 किलोमीटर पैदल चल पहुंचे थे अयोध्या
मुलायम सरकार का दावा कि विवादित ढांचे पर परिंदा भी पर नहीं सका जिसको कारसेवकों ने खारिज कर दिया लेकिन कई कारसेवकों की जान गंवा कर। राजकुमार कोठरी (23 वर्ष) और शरद कोठारी (20 वर्ष) दोनों भाई कलकत्ता में संघ से जुड़े हुए थे। वे आरएसएस की शाखाओं में शामिल होते थे और द्वितीय वर्ष तक प्रशिक्षित थे। कारसेवा की घोषणा पर वे अयोध्या आने की जिद अपने पिता हीरालाल कोठारी से करने लगे। उनकी बहन की शादी दिसंबर 1990 में तय थी। बहन की शादी में लौटने का वादा करके वे ट्रेन से चल पड़े, लेकिन वाराणसी में ट्रेन सेवा बंद कर दी गई थी। रास्ते भी अयोध्या के बंद कर दिए गए थे। वे किसी तरह से टैक्सी से आजमगढ़ तक पहुंच गए। उसके बाद करीब दो सौ किलोमीटर पैदल चलकर 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या पहुंच गए।
बहन की शादी में नहीं पहुंच पाए पर इतिहास में नाम दर्ज
आंदोलन का पहला चरण 30 अक्टूबर से शुरू हुआ था। दोनों भाई जुनूनी आवेग में विवादित ढांचे के गुंबदों तक पहुंच गए और भगवा फहरा कर मुलायम सिंह यादव सरकार की चुनौती की हवा निकाल दी। हालांकि उन्हें इस दौरान पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी। अगले चरण में 2 नवंबर को दोनों भाई बजरंग दल के संस्थापक अध्यक्ष विनय कटियार की अगुवाई में फिर सड़क पर निकले। इस दौरान पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी तो पीछे हटकर दोनों भाई एक मकान में छिप गए। कहते हैं कि एक पुलिस अधिकारी ने शरद कोठारी को घर से पकड़ लिया और सड़क पर खड़ाकर गोली मारी दिया। जब बचाने के बड़ा भाई राजकुमार दौड़ कर सड़क पर आया तो उसे भी गोली मारी दी गई। 4 नवंबर को सरयू तट पर दोनों के अंतिम संस्कार करते समय कारसेवकों का बड़ा हुजूम जमा हुआ था। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ नारेबाजी भी हुई थी। दोनों कोठारी बंधु अपनी बहन पूर्णिमा की शादी में नहीं पहुंच सके लेकिन मंदिर आंदोलन के इतिहास में उनका नाम दर्ज हो गया। उनकी बहन पूर्णिमा कोठारी जब भी अयोध्या आती हैं तो अपने भाई के बलिदान की यह कहानी दोहराती है।
गोली लगते ही ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष कर गिर जाते थे कारसेवक, ईश्वर की सेवा में न्यौछावर होने के लिए शरीर पर लिखवा लिया था नाम पता
साल 1990 का दशक हर मायने में भारतीय जनमानस में बदलाव का दशक था। एक तरफ मंडल कमीशन लागू किया गया था तो दूसरी तरफ राम जन्मभूमि अयोध्या पहुँचे कारसेवकों का नरसंहार हुआ था। मंडल कमीशन लागू करके देश की एक बड़ी आबादी को आरक्षण का लाभ देकर तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह विलेन बन गए तो दूसरी तरफ कारसेवकों पर गोलियाँ चलवाकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ‘मुल्ला मुलायम’ बन गए और सेक्युलर जमात के हीरो बन गए।
इन दोनों घटनाओं ने भारतीय राजनीति और जनमानस को बेहद गहराई तक प्रभावित किया। OBC आरक्षण ने पिछड़ों में समृद्धि लाने का काम किया तो अयोध्या गोलीकांड ने हिंदुओं में नवचेतना का संचार किया। उन्हें पता लगा कि उनके अराध्य के दर्शन करने पर भी जालियाँवाला बाग कांड की तर्ज पर उन्हें गोलियों से छलनी किया जा सकता है।
आज अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन रहा है। हर तरफ भगवान राम की गूंज सुनाई दे रही है, लेकिन इस भव्य मंदिर के लिए हिंदुओं खासकर कारसेवकों ने अपने सीने पर गोलियाँ खाईं और ‘जय श्रीराम’ बोलकर अयोध्या की पुण्य भूमि पर अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया। कारसेवकों को पता था कि उन्हें मृत्यु को वरण करना पड़ सकता है, फिर भी वे पीछे नहीं हटे।
शास्त्रों में कहा गया है कि मानव शरीर निर्जीव हो जाने के बाद भी वह बिनी किसी पूर्वाग्रह या ईर्ष्या के सम्मान का अधिकारी होता है, लेकिन मुलायम सिंह यादव की पुलिस ने इस सार्वभौमिक नियमों की भी अनदेखी की और मृत रामभक्तों के शवों को क्षत-विक्षत किया। आज हम उसी अयोध्या की भूमि पर सांसारिक शरीर के त्याग की बात करेंगे।
साल 1990 के अक्टूबर के अंत और नवंबर की शुरुआत की मद्धिम-मद्धिम बयार शीतकाल के आगमन का आभास देने लगी थी। लगभग 400 वर्षों से मुक्ति का मार्ग दे रहे अयोध्या के राम मंदिर को लेकर हिंदुओं में छटपटाहट थी। हिंदू नेताओं एवं संतों के आग्रह पर कारसेवकों का जनसैलाब अयोध्या पहुँच चुका था, लेकिन यहाँ सब कुछ सामान्य नहीं था। राजनीति के मोहरे साधने के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ड्रैक्युला बने बैठे थे।
अयोध्या में कारसेवकों को आगमन को देखते हुए कदम-कदम पर पुलिस बल तैनात थी। शहर में आने वाले हर रास्ते पर बैरियर लगाकर सुरक्षाबलों के हवाले कर दिया गया था। बड़ी-बड़ी इमारतों पर पुलिस के जवान हथियार लिए निशाना साधे बैठे थे। हर सुरक्षाकर्मी के हाथ में हथियार थे। शहर की फिजा में भयानक शांति थी, लेकिन कारसेवकों का ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष उसे तोड़ने का प्रयास कर रहा था।
देश के कोने-कोने से आए कारसेवकों का जत्था शहर में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान भक्तों के कानों में गोलियों की आवाज सुनाई देने लगी। अयोेध्या का वातावरण बारूद की गंध से मलिन हो चला। कुछ कारसेवक गोलियों से बचने के लिए भगवान का नाम लेते हुए जमीन पर लेट गए। इनमें युवा से लेकर बुजुर्ग तक शामिल थे। इसके बावजूद इन पर लाठियाँ बरसाईं जाने लगीं। बूटों से कुचला जाने लगा। यहाँ तक कि उन पर घोड़े दौड़ाए गए।
कितने ही लोगों के अंग भंग हुए, कितने ही लोग काल कल्वित होकर ईश्वर के पास प्रस्थान कर गए। जो घायल थे, वे फिर भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। जय श्रीराम का उद्घोष करते रहे। शायद इन्होंने 30 अक्टूबर की घटना को जानकर स्वयं को ईश्वर की सेवा में न्यौैछावर करने के प्रण के साथ ही अयोध्या के लिए प्रस्थान किया था। इसलिए इन्होंने अपने शरीर के विभिन्न अंगों पर अपने नाम पर पता लिख दिया था कि अगर राजनीति के इस दुष्चक्र में उनका शरीर निर्जीव भी हो जाए तो वह ससम्मान घर तक पहुँचा दिया जाए।
जो कारसेवक अयोध्या नगर में प्रवेश कर गए और गलियों से होकर गुजरने लगे, उन पर गोलियाँ बरसाई जाने लगीं। यह कारसेवकों का दृढ़ता ही थी कि वे गोली खा रहे थे और जय श्रीराम कहकर शरीर त्याग रहे थे। जो कारसेवक गोलियों से बचने के लिए आसपास के घरों में घुस गए थे, उन्हें पुलिस ने बाहर निकाला और इन निहत्थे लोगों को गोली मारकर हत्या कर दी। जिन घरों में अंदर से दरवाजा बन कर दिया गया था, उसे पुलिस ने तोड़ दिया।
राजस्थान के बीकानेर से आए दो भाइयों- शरद कोठारी और राम कोठारी के बलिदान से कौन भला परिचित नहीं होगा। दोनों भाई भी आतंक के इस माहौल में खुद को बचाने के लिए एक घर में छिपे हुए थे। पुलिस ने घर का दरवाजा तोड़ा और बड़े भाई शरद कोठारी को बाहर निकालकर उनके सिर में गोली मार दी। अपने भाई को बचाने के लिए राम कोठारी दौड़े तो उन्हें भी गोली मार दी गई। दोनों भाइयों की घटनास्थल पर ही मौके पर ही मौत हो गई।
मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या के बारे में बयान दिया था कि वहाँ परिंदा भी पर नहीं मार सकता। 30 अक्टूबर को कोठरी भाइयों ने गुम्बद के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया था, लेकिन दो दिन बाद 2 नवंबर को दोनों भाई बलिदान हो गए। कहा जाता है कि इस नरसंहार में दर्जनों लोगों की जान गई थी, लेकिन चार-पाँच शवों को छोड़कर पुलिस ने सारे शव उठा लिए थे। उन शवों का आज तक पता नहीं चल पाया।
उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्रीय गृहमंत्री थे। कारसेवकों पर गोली चलाने से वे ख़ुश थे और इसके लिए उन्होंने मुलायम सिंह यादव की पीठ थपथपाई थी। मुलायम सिंह भी अपनी इस कार्रवाई को सरकारी मर्दानगी समझते थे। यही कारण है कि समय-समय पर वे इसका गुणगान भी करते थे।
नवंबर 2017 में अपने 79वें जन्मदिन के मौके पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा था कि देश की ‘एकता और अखंडता’ के लिए अगर सुरक्षा बलों को गोली चला कर लोगों को मारने भी पड़े तो ये सही था। इतना ही नहीं, उन्होंने यहाँ तक कहा दिया था कि अगर और लोगों को मारना पड़ता तो सुरक्षा बल ज़रूर मारते।
मुलायम ने गर्व के साथ कहा था कि इस गोलीकांड में 28 कारसेवकों को मौत के घाट उतार दिया गया था। मंदिर आंदोलन को अंजाम तक पहुँचाने वाली भाजपा इस हत्याकांड के लिए मुलायम सिंह यादव को हमेशा कोसती रही। हालाँकि, जब पिछले सा मुलायम सिंह यादव की मौत हुई तो भाजपा सरकार ने उन्हें देश के द्वितीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
अगर मुलायम ने गोली नहीं चलवाई होती तो शायद आज राम मंदिर नहीं बन रहा होता। मुलायम ने जिस चीज को दबाने के लिए गोली चलाई, शायद उन्हें पता नहीं था कि वो हिंदुओं की गर्भनाल है, उसी आत्मा में रची-बसी है। मुलयाम सिंह यादव ने शरीर छीना लेकिन, मन को उसके आराध्य से अलग नहीं कर पाए। आखिरकार उस घटना के 33 साल बाद यह सपना भी साकार हो गया।
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