सार्वजनिक स्थानों पर नमाज धर्म है कि राजनीति?
सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ पढ़ना कोई मजहबी कृत्य है या राजनीतिक?
आर जगन्नाथन
हिंदुओं की मुद्राओं और आकांक्षाओं को इस तरह दिखाने, कि वे मुस्लिमों के पीड़ित होने का चित्र लगने लगे, में बहुत बुद्धि लगती है। द प्रिंट ने हिलाल अहमद का एक लेख प्रकाशित किया जो कहता है कि “नमाज़ पढ़ने वाले मुस्लिमों की शांतिपूर्ण सभा में व्यवधान डालने के लिए आक्रामक हिंदुत्व अभियान” को देखकर उन्हें गहरा दुःख होता है।
उनके अनुसार यह कथित तौर पर उन दो सिद्धांतों के विरुद्ध जाता है जिनका सम्मान वे करते हैं- अल्लाह में उनकी आध्यात्मिक आस्था और “सर्वधर्म समभाव” के गांधीवादी विचार में उनका विश्वास। वे लिखते हैं, “एक मुस्लिम के रूप में मेरी नमाज़ अध्यात्म के लिए मेरी प्रतिबद्धता का प्रतिबिंब है।
मेरे सहकर्मी, मित्र, अध्यापक और छात्र हमेशा से उत्साहवर्धन करते आए हैं। किसी को यह कभी भी हिंदू-विरोधी या भारत-विरोधी नहीं लगा। यहाँ तक कि अनजान लोग, अधिकांश हिंदू, मेरी नमाज़ का सम्मान करते हैं। यह हर्ष का विषय है कि मैं चलती हुई रेलगाड़ियों, व्यस्त सड़कों, अस्पतालों के गलियारों और यहाँ तक कि सक्रिय हिंदू मंदिरों में भी नमाज़ पढ़ चुका हूँ।”
कहा जाता है कि वामपंथी सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटीज़ के अलावा अहमद “राजनीतिक इस्लाम के विद्वान” हैं। स्पष्ट है कि वे नहीं समझते या समझना नहीं चाहते कि इस्लाम प्रायः राजनीति से संबंध रखता है, धर्म से कम।
कोई भी मजहब जो इसपर इतनी बात करे (क़ुरान और सुन्नाह में भारी मात्रा में) कि काफिरों के साथ क्या करना है, वह धार्मिक से अधिक राजनीतिक है। मोहम्मद, जिन्हें मुस्लिम अपना पैगंबर मानते हैं, न सिर्फ मजहबी गुरु थे, बल्कि एक राजनीतिक और सैन्य नेता भी थे।
इसलिए, इस्लाम न सिर्फ एक मजहब है, बल्कि एक राजनीतिक विचार भी है। इसपर हम बाद में बात करेंगे। पहले कुछ गलत चित्रणों को देखें। पहला, किसी हिंदू ने कभी भी मुस्लिमों के नमाज़ पर विरोध व्यक्त नहीं किया है, जैसा कि अहमद स्वयं सत्यापित करते हैं।
हर मुस्लिम स्वतंत्र है कि वह कभी भी मस्जिदों, प्रार्थना सभाओं या घर में नमाज़ पढ़ सके। गुरुग्राम या और कहीं भी, जिस बात पर विरोध है, वह यह कि कई बार सार्वजनिक स्थानों पर मुस्लिम अपना कब्ज़ा कर लेते हैं और धीरे-धीरे वे सार्वजनिक स्थानों पर इस “कब्ज़े” को बढ़ाते हैं और इसे अपना अधिकार कहते हैं।
मैं यहाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि घनी आबादी क्षेत्रों में लाउडस्पीकर पर अज़ान पढ़ने का अधिकार भी सार्वजनिक वायुतरंगों पर कब्ज़े का एक अभिन्न भाग है। पड़ोसियों और पुलिस द्वारा कुछ विशेष अवसरों, जैसे ईद, वैसा ही गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा पर होता है, पर सहमति के बिना यह सही नहीं है।
मजहबी गतिविधियों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर कब्ज़ा किसी भी समुदाय का अधिकार नहीं हो सकता है और यह प्रवृत्ति मात्र राजनीतिक है। दूसरा, सर्वधर्म समभाव का गांधीवादी विश्वास अब कई हिंदुओं को स्वीकार्य नहीं है।
ऐसा नहीं है कि वे इसे मानते नहीं है, यह तो हिंदू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण भाग है कि ईश्वर और सत्य तक पहुँचने के सभी मार्गों का सम्मान किया जाए, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एकतरफा राह बन गई है। हिंदू सभी पंथों का समान आदर कर सकते हैं लेकिन ईसाइयत और इस्लाम ने कोई संदेह नहीं छोड़ा है कि वे हिंदू धर्म को समान सम्मान देने में विश्वास नहीं रखते।
जब तक दोतरफा न हो, गांधीवादी विचार अस्वीकार्य है। समस्या यह है कि इस्लाम स्वयं को दो भागों में बाँटता है- एक वह जहाँ इस्लामी शासन है, और दूसरा वह जहाँ गैर-इस्लामी शासन है। वहाँ इस्लाम मानने वाले और काफिरों (न मानने वालों) में अंतर किया जाता है।
काफिर की पराजय इस्लामी विश्वास तंत्र का केंद्र है और इसलिए इस्लाम राजनीतिक है। जैसा कि बिल वॉर्नर अपनी पुस्तक कुरान (अ सिंपल कुरान) में लिखते हैं, “इस्लाम में एक राजनीतिक सिद्धांत है और एक मजहबी सिद्धांत। इसका राजनीतिक सिद्धांत सभी के लिए चिंता का विषय है (क्योंकि इसका प्रभाव सभी पर पड़ता है), जबकि मजहबी सिद्धांत सिर्फ मुस्लिमों के लिए है।”
हमने यह द्विमान तब देखा जब कुछ मुस्लिमों ने “मुस्लिम” पाकिस्तान से भारतीय क्रिकेट टीम की हार पर जश्न मनाया, जब पाकिस्तानी कप्तान ने अपनी जीत को “कुफ्र” की हार (“कुफ्र टूट गया”) बताया और इससे पहले भी तब देखा जब सीएए-विरोधी आंदोलन में फैज़ अहमद फैज़ की कविता गाई गई थी।
कविता में कुछ ऐसी पंक्तियाँ थीं, “जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएँगे”…”बस नाम रहेगा अल्लाह का”। कई सेक्युलरों ने प्रयास किया कि बताया जाए कि यह कविता पाकिस्तान में ज़िया-उल-हक़ शासन के विरोध में लिखी गई थी, ऐसे में कोई समझाए कि भारत में इसकी क्या प्रासंगिकता है।
यह धर्मनिष्ठा नहीं, बल्कि राजनीति है जहाँ मजहब यह बात करता है कि दूसरों के धार्मिक स्थलों का कैसे विध्वंस हो। यह साम्राज्यवाद है। कोई भी विचारधारा जो विश्व में शासन करना चाहती है, वह स्वतः ही साम्राज्यवादी बन जाती है। इसलिए जब सार्वजनिक स्थानों में नमाज़ को अल्लाह में विश्वास कहा जाता है तो परोक्ष रूप से अहमद यही साम्राज्यवादी दावा कर रहे हैं।
तीसरा, जैसा कि अहमद स्वयं स्वीकारते हैं कि नमाज़ियों की संख्या बढ़ गई है, आंशिक रूप से तबलीगी जमात जैसे संगठनों के उदय के कारण जो एक सुन्नी आंदोलन है जिसे वे सुधारवादी कहते हैं परंतु वास्तव में इसका लक्ष्य भारतीय इस्लाम से समधर्मी तत्वों को हटाना है।
इसकी स्थापना इसलिए हुई क्योंकि राजस्थान में कुछ नव मुस्लिम मतांतरण के बाद भी हिंदू रीति-रिवाज़ों को ही मान रहे थे। तबलीगी जमात का दावा है कि विश्व भर में उसके 8 करोड़ अनुयायी हैं। यह डंके की चोट पर स्वयं को गैर-राजनीतिक कहते हैं परंतु उनकी सीखें आतंकवाद समेत उग्रवादी गतिविधियों का आधार बनती हैं।
हम यहाँ तबलीग को राक्षसी नहीं दिखाना चाह रहे हैं परंतु इस्लाम के शुद्धीकरण में इसका विश्वास चिंता का विषय है, विशेषकर इसलिए कि इस्लाम अपने अनुयायियों के अनन्य होने का दावा करता है और काफिरों से घृणा की बात करता है।
चौथा, अहमद लिखते हैं, “ये तीन नए दावे- अल्लाह एक है, यह राष्ट्रवाद-विरोधी सिद्धांत है, नमाज़ एक अशुद्ध, हिंदू-विरोधी कृत्य है और शहरी स्थानों में नमाज़ एक संकट है- हिंदुत्व राजनीति को मुस्लिम मानस से सबसे संवेदनशील आयाम पर प्रहार करने देते हैं। उद्देश्य है कि मुस्लिमों को सामूहिक प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जाए जिससे हिंदू पीड़ित हैं, के दावे की पुष्टि हो सके।”
उम्मा राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करता है और हिंदुओं के पास अधिकार है कि वे भारतीय मुस्लिमों के अन्य राष्ट्र के प्रति झुकाव को चिंताजनक समझें। यहाँ तक कि बीआर अंबेडकर ने भी पाकिस्तान पर बात करते हुए इस बिंदु को रेखांकित किया था।
दूसरा बिंदु कि नमाज़ हिंदू-विरोधी है, यह कभी किसी हिंदू ने नहीं कहा। बात तीसरे बिंदु की है कि सार्वजनिक सड़कों पर नमाज़ चिंताजनक है और हिंदू इसी की चिंता कर रहे हैं क्योंकि अंततः इसका अर्थ हुआ कि धार्मिक गतिविधियों के लिए स्थाई रूप से सार्वजनिक स्थानों की बलि चढ़ गई। मुस्लिमों को निजी स्थानों या मस्जिदों में नमाज़ पढ़नी चाहिए।
पाँचवाँ, यह वह बात है जिसकी बात अहमद नहीं करते हैं। तथ्य है कि कहीं भी मुस्लिम हिंदुओं के अधिकारों के लिए नहीं लड़े हैं, न पाकिस्तान में, न बांग्लादेश में, भारत में भी नहीं। बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में उत्पीड़न झेल चुके अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने में तेज़ी लाने के एक छोटे-से प्रयास का भी भारत में मुस्लिमों ने विरोध किया। बस यह कहा गया कि मुस्लिम पीड़ित हैं।
संभवतः अहमद को अपने सह-धर्मियों को समझाने का प्रयास करना चाहिए कि वे सभी के अधिकारों के लिए लड़ें, न कि सिर्फ अनन्य बने रहने के अपने अधिकारों के लिए। और हाँ, कश्मीर से हिंदुओं का सफाया या बांग्लादेश में हिंदू-विरोधी दंगों की कुछ बौद्धिकों द्वारा आलोचना को मैं साक्ष्य नहीं मानता कि मुस्लिम समाज या बौद्धिक सभी के अधिकारों के लिए चिंतित हैं, न सिर्फ अपने।
यदि ऐसा ही था तो सीएए का विरोध भी मुस्लिम ऐसे ही बयानों से कर देते लेकिन वे सड़क पर उतर आए और विषय पर सही चर्चा नहीं होने दी। हम गुरुग्राम में जो देख रहे हैं, विशेषकर सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ का विरोध, वह समान अधिकारों के लिए हिंदुओं की माँग है।
हिंदू अपने खोए हुए अधिकारों को पाने के लिए संगठित हो रहे हैं। बहुत कम हिंदू हैं जो एकतरफा प्रयास करना चाहते हैं, जैसा कि गांधी ने खिलाफत आंदोलन में किया था जिसमें हिंदुओं के लिए कुछ नहीं था। लेकिन अंततः सबने, सभी अली बंधुओं (मौलाना शौकत और मोहम्मद) ने कहा कि सबसे खराब मुस्लिम भी गांधी से बेहतर है।
यदि यही भाव है जो इस्लाम अपने अनुयायियों को सिखाता है तो क्यों हिंदू इसे नम्रतापूर्वक सेक्युलरवाद का आधार मानें? सेक्युलरवाद कैसे पंथनिरपेक्ष हुआ जब वह सिर्फ हिंदुओं और उनके संस्थानों पर हावी होता है? राजनीतिक इस्लाम का कोई प्राध्यापक कहे कि सड़कों पर नमाज़ सिर्फ मजहब-संबंधी है, प्रश्न खड़े करता है।
अंततः, अहमद के लेख का शीर्षक, जो संभवतः उन्होंने नहीं दिया होगा, कहता है, “नमाज़ हिंदू-विरोधी कृत्य नहीं है, समय आ गया है कि हर भारतीय इस्लाम की रक्षा करे।” सच में? भारत को क्यों इस्लाम की रक्षा करनी चाहिए? यदि भारत का कुछ काम है तो हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध तथा कई जनजातीय धर्मों की रक्षा करना है जिनका जन्म इसी भूभाग पर हुआ और विश्व में कहीं भी उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है।
जगन्नाथन स्वराज्य के संपादकीय निदेशक हैं।