एनडीटीवी: एजेंडा पत्रकारिता की है एक उम्र, कांग्रेस राज में था जलवा

NDTV Ownership: क्या एनडीटीवी में हो गया एजेंडा पत्रकारिता का अंत?
NDTV की मालिकान कंपनी से प्रणय रॉय और राधिका रॉय के इस्तीफे के बाद प्रबंध संपादक रवीश कुमार ने भी इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के बाद क्या एनडीटीवी में एजेंडा पत्रकारिता का अंत हो गया?

जोसेफ पुलित्जर को आधुनिक पत्रकारिता का भीष्म पितामह माना जाता है। पुलित्जर ने पत्रकारिता के लिए जो कहा है, वह पत्रकारिता संस्थानों में शिद्दत से पढ़ाया जाता है। उन्होंने कहा है, “ज्ञान, समाचार और अक्लमंदी से ऊपर किसी अखबार की नैतिकता, उसका साहस, उसकी संवेदनशीलता, स्वतंत्रता के प्रति उसके विचार, लोकहित के प्रति उसका समर्पण और जनसेवा के प्रति उसकी चिंताओं में ही उसकी आत्मा का वास होता है।

ऊपर से देखें तो पुलित्जर के इस कथन पर एनडीटीवी भी खरा उतरता नजर आता है। एनडीटीवी के अडानी समूह के हाथ में जाने की खबर और उसके बाद इसके लाड़ले चेहरे रवीश कुमार की विदाई के बाद सोशल मीडिया के हलकों में जिस तरह की चर्चाएं हो रही हैं, उससे भी ऐसा ही लगता है।

लेकिन जरा रूकिए। पुलित्जर की वैचारिकी पर एनडीटीवी को कसने से पहले आज की दुनिया को भी देख लीजिए। अब दुनिया पूरी तरह बदल गई है। आज के दौर में कई बार जो दिखता है, वह असल में होता नहीं और जो होता है, वह दिखता नहीं। कुछ साल पहले के नीरा राडिया टेपकांड को याद कर लीजिए, तब पता चलेगा की एनडीटीवी सचमुच लोकहित का ही पोषक था या सत्ता के गलियारों में अपनी हनक बनाए रखने का अहम और ताकतवर औजार था?

यहां याद आती हैं कुछ घटनाएं। करीब दो दशक पहले माना जाता था कि तत्कालीन सत्ता से मिलने वाला सही समाचार वही होगा, जिसे एनडीटीवी ब्रेक करेगा। मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में नटवर सिंह विदेश मंत्री थे। वही नटवर, जो आजकर अपनी राजनीतिक पहचान खोजते फिर रहे हैं।

2003 के संसद के बजट सत्र में नटवर सिंह टेलीविजन कैमरों वाली जगह पर आए। रिपोर्टरों ने समझा कि वे कुछ विशेष बोलने आए हैं, इसलिए देशभर के चैनलों के रिपोर्टर उनकी ओर लपक पड़े। लेकिन पूरी दबंगई से नटवर सिंह का कथन था, कहां है एनडीटीवी? मैं सिर्फ एनडीटीवी से बात करूंगा। यह एक बानगी है। तब मंत्रियों के लिए टीवी और ब्रेकिंग मतलब एनडीटीवी ही हुआ करता था।

याद आती है 19 फरवरी 1997 की तारीख। इसी दिन प्रियंका गांधी की शादी हुई थी। दस जनपथ में सादे समारोह में हुए विवाह की कवरेज के लिए दुनिया भर का मीडिया मौजूद था। बाद में सिर्फ कैमरों को अनुमति मिली, नववधू और उसके दूल्हे के फोटो की कवरेज के लिए। उस शादी समारोह में किसी एक मीडिया वाले को शिरकत का मौका मिला था तो वह थे प्रणय रॉय, एनडीटीवी के मालिक। तब उन्हें मिले इस मौके को उनके ऐश्वर्य और प्रभाव के तौर पर देखा गया था। आज के दौर में ऐसे किसी कार्यक्रम में किसी मीडिया टाइकून को मौका मिले, तो उसे गोदी मीडिया या मोदी भक्त घोषित कर दिया जाएगा।

एनडीटीवी के अंग्रेजी के चैनल के प्रमुख चेहरों को देखिए, ज्यादातर किसी बड़े और रसूखदार राजनेता, केंद्रीय मंत्री, अधिकारी या बिजनेस परिवार के बेटे बेटियां मिलेंगे। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि ऐसे लोगों के रहते हुए भी एनडीटीवी की छवि लोक हित के पहरुए की रही। नरसिंह राव सरकार के दौरान संसद की तत्कालीन लोकलेखा समिति की जांच रिपोर्ट को एक बार परे रख देते हैं। उस समिति के अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के नेता मुरली मनोहर जोशी थे। उस समिति ने जांच में पाया था कि तब महज प्रोडक्शन हाउस रहे दूरदर्शन पर वर्ल्ड दिस वीक कार्यक्रम बनाने वाली एनडीटीवी ने दूरदर्शन को कितने का चूना लगाया था।

एनडीटीवी के चरित्र को समझना हो तो उसके दो चैनलों की कार्यशैली और नीतियों की ओर देखिए। अंग्रेजी का चैनल उदारवाद का अति समर्थक तो हिंदी का चैनल लोकहित का समर्थक। अगर दोनों का प्रबंधन अलग होता तो यह विरोधाभास भी स्वीकार्य हो सकता था। लेकिन प्रबंधन एक ही रहा। इसलिए उसे दाद देना चाहिए कि वह दोनों मोर्चों पर दो वैचारिकी के साथ काम करता रहा। वह सत्ता का चहेता भी रहा और लोकहित का प्रवक्ता भी। इस संतुलनबाजी के लिए प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय के प्रबंधन की प्रशंसा ही की जानी चाहिए।

एनडीटीवी के मूल रूप के पतन की कहानी का एक और पक्ष है। सोशल मीडिया के शोर में इस पर कम ही ध्यान दिया जा रहा है। दरअसल वह 2014 के बाद एजेंडा पत्रकारिता का केंद्र बनता गया। एजेंडा पत्रकारिता की एक सीमा होती है, जब तक एजेंडे की जरूरत होती है, तब तक वह फलती-फूलती है, लेकिन जैसे ही एजेंडे का महत्व कम होता है, वह अपनी प्रासंगिकता खोने लगती है। हिंदी का एक अखबार भी इसी का शिकार हुआ। एक दौर में उसकी हनक इतनी थी कि सरकारें हिल जाती थीं और आज वह पाठक के लिए तरस रहा है। एनडीटीवी की भी स्थिति भी कुछ वैसी ही होती गई।

एजेंडा पत्रकारिता के चक्कर में एनडीटीवी की छवि राष्ट्रवादी विचारधारा के धुर विरोधी की बनती चली गई। उसके साथ एक अच्छी बात यह रही कि सोशल मीडिया पर सक्रिय राष्ट्रीय वैचारिकी के विरोधियों के हरावल दस्ते का जोरदार सहयोग मिला। इसलिए वह वाम वैचारिकी का पोषक तो बना रहा और अभियान चलाता रहा, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर कमजोर पड़ता गया। इसके लिए प्रबंधन को बेहतर कदम उठाने चाहिए थे, लेकिन जीरो टीआरपी का विचार दिया गया। यह कम लोग जानते हैं कि एनडीटीवी में पिछले सात साल से वेतन वृद्धि तक नहीं हुई है।

अब एनडीटीवी की होल्डिंग कंपनी रही आरआरपीआर के निदेशक मंडल से प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय को विदा होना पड़ा है, क्योंकि उनकी हिस्सेदारी घट गई है। उनकी जगह अडानी समूह की होल्डिंग कंपनी की ओर से संजय पुगलिया, सुदीप्त भट्टाचार्च और सेंथिल सिन्नैया चेंगलवारायण शामिल हुए हैं।

यहां याद करनी चाहिए करीब 22 साल पहले की एक घटना। तब तक टेलीविजन समाचारों में 26 प्रतिशत से ज्यादा विदेशी निवेश की अनुमति नहीं थी। इसलिए मीडिया टाइकून रूपर्ट मर्डोक के स्टार न्यूज ने भारत के बाजार के लिए बीच की राह निकाली थी। उसने कंटेंट प्रदाता के रूप में एनडीटीवी को ठेका दिया था। स्टार न्यूज पर तब एनडीटीवी हर आधे घंटे में बारी-बारी हिंदी और अंग्रेजी में समाचार देता था। तब वह चैनल नहीं था, बल्कि प्रोडक्शन हाउस था।

साल 2000 में स्टार न्यूज ने खुद का चैनल शुरू करने की ठानी। तब नियम भी बदले। इसे संयोग कहें या कुछ और, तब भी प्रणय रॉय के स्टार न्यूज से अलग होने के बाद संजय पुगलिया ने कमान संभाली थी। रवीना राज कोहली के साथ उन्होंने स्टार न्यूज को आकार दिया था।

वैसे प्रणय रॉय और उनकी पत्नी की अब भी एनडीटीवी में 32.26 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। चूंकि प्रणय रॉय अपनी पूंजीगत हिस्सेदारी खो चुके हैं, इसलिए एनडीटीवी पर उनका वर्चस्व नहीं रहा। लेकिन यह कहना कि पत्रकारिता खत्म हो जाएगी, किसी खास चेहरे बिना लोकहित की बात नहीं हो पाएगी, ये सब बेकार की बातें हैं।

*उमेश चतुर्वेदी

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