महाराष्ट्र में चाणक्य भी फडणवीस और चंद्रगुप्त भी:मप्र और राजस्थान जैसा क्यों नहीं कर पाई भाजपा?
महाराष्ट्र में नए चाणक्य का उदय, शिवराज-वसुंधरा की तरह देवेंद्र फडणवीस को किनारे क्यों न कर सकी BJP |
महाराष्ट्र में कौन बनेगा मुख्यमंत्री पर फैसला हो चुका है. फाइनली देवेंद्र फडणवीस के नाम पर मुहर लग चुकी है. राजनीतिक गलियारों में इस बात की बहुत चर्चा थी कि भारतीय जनता पार्टी अंतिम समय में किसी ओबीसी नाम को सामने ला सकती है. लोगों के सामने मध्यप्रदेश का उदाहरण दिया जा रहा था. पर महाराष्ट्र में ऐसा कुछ नहीं हुआ. क्या कारण रहे?
देवेंद्र फडणवीस तीसरी बार बनेंगे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री
नई दिल्ली,04 दिसंबर 2024,महाराष्ट्र का एक ऐसा नेता जिसने अपनी पार्टी को लगातार तीसरी बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित किया. पिछले 11 सालों में प्रदेश की राजनीति में उसका सामना राज्य की राजनीति के चाणक्य शरद पवार और हिंदू हृदय सम्राट बाला साहब ठाकरे के विरासत से था. पर वह डिगा नहीं. बहुत सी विपरीत परिस्थितियां आईं पर वो आगे बढ़ता गया. बात हो रही है देवेंद्र फडणवीस की जो महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बन रहे हैं. उनका राजनीतिक उत्थान ऐसे समय में हुआ है जब उनकी जाति उनके लिए सबसे बड़ी खलनायक बन गई थी. पर उन्होंने इसे कभी नकारात्मक पक्ष नहीं माना.
अपनी रणनीति के बल पर वह जनता के बीच देवा भाऊ के नाम से मशहूर हो सारे समीकरण ध्वस्त कर अपनी पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाते हैं. पर चाणक्य बनने को इतना ही काफी नहीं होता है. जिस पार्टी में कुछ दिनों पहले शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे जैसी महारथी बिल्कुल समान परिस्थितियों में मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने से चूक गए थे , फडणवीस ने वह भी हासिल करके दिखाया. यानी विपक्ष पर सर्जिकल स्ट्राइक करने में माहिर तो रहे ही पार्टी में हर तरह के तीर भोथरा करने में उस्तादी दिखाई. इस तरह महाराष्ट की राजनीति को सही मायने में एक नया चाणक्य मिल गया है.
देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनाए जाने का इशारा भारतीय जनता पार्टी की ओर कई बार किया जा चुका था . पर जिस तरह पिछले कुछ सालों में मुख्यमंत्रियों के नामों के फैसले बीजेपी में हुए हैं उसके चलते राजनीतिक गलियारों में अफवाहों के बाजार गर्म थे. मध्यप्रदेश में बीजेपी ने जिस तरह शिवराज सिंह चौहान को किनारे लगा दिया, जिस तरह राजस्थान में वसुंधरा राजे का पत्ता साफ हुआ उसे देखते हुए देवेंद्र फडणवीस के नाम पर मुहर लगने में थोड़ा संदेह तो सभी को नजर आ रहा था. इसके साथ ही देवेंद्र फडणवीस का ब्राह्मण होना वर्तमान राजनीतिक माहौल में मुख्यमंत्री पद को सबसे नेगेटिव बना हुआ था.
महायुति को सरकार बनाने का राज्यपाल से न्यौता
देवेंद्र फडणवीस, एकनाथ शिंदे और अजित पवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस
1-मध्यप्रदेश और राजस्थान से कठिन था महाराष्ट्र में भाजपा के विकास का रास्ता
महाराष्ट्र की राजनीति के नए चाणक्य के रूप में उभर रहे हैं देवेंद्र फडणवीस. 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को महाराष्ट्र में नंबर एक पार्टी बनाना बहुत मुश्किल था. क्योंकि भाजपा की ही विचारधारा वाली शिवसेना पहले से ही राज्य में बहुत मजबूत थी. पर फडनवीस ने भाजपा को नंबर वन पार्टी बनाकर खुद को साबित कर दिया था. मध्य प्रदेश और राजस्थान में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे के पहले भी इन राज्यों में भाजपा बहुत मजबूत थी और कई बार सरकार बना चुकी थी. महाराष्ट्र इन राज्यों से बहुत अलग था. महाराष्ट्र में केवल कांग्रेस ही एक पार्टी नहीं थी, यहां पर शरद पवार और शिवसेना के रूप में कई कोण थे. उनके बीच में पार्टी को नंबर एक बनाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरह निभाई वो उन्हें प्रदेश का नया चाणक्य कहने के लिए काफी है.
2-महाराष्ट्र की जटिल राजनीति के लिए देवेंद्र फडणवीस जैसा कोई नहीं
2019 विधानसभा चुनावों के बाद जब भाजपा को दगा देते हुए शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने की जिद पकड़ ली थी तब फडणवीस ने शरद पवार जैसे राजनीतिज्ञ को मात देकर सरकार बनाई थी. ये बात अलग है कि अजित पवार अपनी पार्टी के विधायकों को अपने साथ नहीं ला सके और 80 घंटे में खेल हो गया. पर फडणवीस ने आग तो सुलगा ही दी थी . थोड़ा टाइम लगा पर फडणवीस की लगाई आग ने शरद पवार की राजनीति महाराष्ट्र में खत्म कर दी. जूनियर पवार यानि अजित पवार भाजपा के सहयोगी बन चुके हैं. उनके साथ के चलते ही पिछले ढाई साल से प्रदेश में भाजपा सरकार चल रही थी. अब एक बार फिर वो भाजपा सरकार के साथ रहेंगे. शायद यही कारण है कि शिवसेना और फिर एनसीपी के टूटने पर जितनी गालियां फडणवीस को सुनने को मिलीं उतनी भाजपा को नहीं.उद्धव ठाकरे से लेकर मनोज जरांगे तक ने फडणवीस को राजनीतिक करियर खत्म करने की धमकी दी थी. शरद पवार तो उनकी जाति तक पहुंच गए थे. पर फडणवीस डिगे नहीं. जिसने गालियां सुनीं , ताज पहनने का हक भी उसी को मिलना चाहिए.
3-ब्राह्मण होने को देवा भाऊ ने नेगेटिव की बजाय प्लस पॉइंट बनाया
भाजपा महाराष्ट्र की राजनीति में ओबीसी वोटों के बल पर सरकार बनाने का सपना देख रही थी. इसके बावजूद राज्य में सबसे अधिक रैलियां करने का दायित्व फडणवीस को सोंपा. पार्टी जानती थी कि किसी ओबीसी को आगे बढ़ाने से मराठे नाराज हो सकते थे और किसी मराठे को नेतृ्त्व देने से ओबीसी छिटक सकते थे. क्योंकि जरांगे पाटील के नेतृत्व में पिछले पांच साल जो मराठा आरक्षण का आंदोलन चला उससे ओबीसी और मराठों में एक दूरी बन गई थी. दरअसल ओबीसी को लगता था कि मराठों को रिजर्वेशन मिला तो ओबीसी कोटे में उनकी हिस्सेदारी घट जाएगी. शायद यही कारण रहा होगा पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव लड़ा था.
अगर फडणवीस के ब्राह्मण होने से या, उनके कार्यकाल से लोगों के चिढ़ होने की बात होती, तो शायद उन्हें पार्टी का मुख्य चेहरा बनाकर प्रचार प्रसार नहीं करवाया गया होता. भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं प प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से कहीं बहुत अधिक रैलियां और सभाएं देवेंद्र फडणवीस ने कीं. जाहिर है कि फडणवीस को साइडलाइन करके अगर किसी और को मुख्यमंत्री बनाया जाता तो कर्मठ कार्यकर्ता हतोत्साहित होते.
4-एक समर्पित कार्यकर्ता की तरह जो कहा गया वो किया
पार्टी के प्रति समर्पण का जो उदाहरण देवेंद्र फडणवीस ने रखा है वो बिरले ही देखने को मिलता है.शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी के वह भरोसमंद बनकर उभरे हैं. अगर वह मुख्यमंत्री नहीं बनते तो संभावना थी कि उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाता. जो किसी भी पार्टी कार्यकर्ता का सपना होता है. फडणवीस देश के कुछ विलक्षण नेताओं में शामिल हो गए हैं जिन्होंने लोकसभा चुनावों में अपेक्षित सफलता न मिलने पर त्यागपत्र का प्रस्ताव किया. इससे भी बढ़कर पांच साल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में बेहतरीन काम करने वाला, फिर विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी को दूसरी बार अधिकतम सीटें दिलवाने वाले नेता ने अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के कहने पर अपने से एक बहुत जूनियर नेता के नीचे उपमुख्यमंत्री बनना भी स्वीकार कर लिया. यही नहीं सीनियर होने के बावजूद , पार्टी और शासन में तगड़ी पकड़ रखते हुए भी कभी मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को शिकायत का मौका नहीं दिया. अन्यथा कई बार लोग दबाव में आकर छोटा पद तो स्वीकार कर लेते हैं पर मन में बसी टीस उन्हें चैन से रहने नहीं देती. मगर फडणवीस ने कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया.
5-भाजपा का केंद्र में पूर्ण बहुमत में न होना भी कर गया काम
हालांकि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत होने या न होने से महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद के लिए फडणवीस के चयन से कोई संबंध नहीं है. पर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान हों या राजस्थान में वसुंधरा राजे को किनारे लगाने में केंद्र में प्रचंड बहुमत होना भी काम आया था. दरअसल केंद्र में बहुमत किसी भी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को नैतिक रूप से इतना ताकत दे देता है कि वह कोई भी फैसला लेने का साहस कर लेता है. जैसे आज भाजपा कोई फैसले लेती है तो संघ उसमें अड़ंगा लगा सकता है. 2024 लोकसभा चुनाव के पहले तक ऐसा नहीं था.
6-महाराष्ट्र में भाजपा का पूर्ण बहुमत से 11 सीटें कम होना
महाराष्ट्र में महायुति के पास पूर्ण बहुमत है पर भाजपा अकेले बहुमत में नहीं है. हालांकि 11 सीट कम होना कोई मायने नहीं रखता है क्योंकि अगर भाजपा सरकार बनाने चाहे तो उसे निर्दलीयों और अन्य पार्टियों से समर्थन मिल सकता है. खुद शिवसेना में ही तमाम भाजपा नेता जीतकर आए हुए हैं. फिर भारतीय जनता पार्टी किसी भी पार्टी में तोड़फोड करने में भी सक्षम है. पर पार्टी ऐसा करके राज्य में सरकार नहीं बनाना चाहती है. मध्यप्रदेश और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी अपनी मनमानी इसलिए कर सकी क्योंकि वहां पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला था.
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देवेंद्र फडणवीस उभरे चाणक्य
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024
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फडणवीस ही ‘चाणक्य’, फडणवीस ही ‘चंद्रगुप्त’ भी: जिसके हाथ में पूरी चुनावी कमान, जिसे देख लोगों ने किया मतदान, जरूरी था उनका मुख्यमंत्री बनना
23 नवंबर 2024 को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम आने पर एकनाथ शिंदे के रूठने-मानने के जो दिन शुरू हुए थे, उस पर अब पूर्ण विराम लग गया है। तय हो गया है कि भाजपा नेता देवेंद्र सरिता गंगाधर राव फडणवीस (Devendra Fadnavis) 5 दिसंबर 2019 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की फिर शपथ लेंगे। पिछले 10 साल में यह तीसरा मौका होगा जब फडणवीस मुख्यमंत्री की शपथ लेंगे।
मुंबई से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘महानगर’ के संपादक आदित्य दुबे का कहना है कि फडणवीस आज महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े रणनीतिकार हैं। उन्होंने एक बातचीत में कहा, “शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी थे। सब उन्हें बड़ा रणनीतिकार मानते थे। लेकिन अब सबसे बड़े खिलाड़ी देवेंद्र फडणवीस हैं।”
‘सबसे बड़े खिलाड़ी’ फडणवीस 10 साल के भीतर ही बन गये। 2014 से पहले महाराष्ट्र के बाहर कम ही लोग उनका नाम जानते थे। विधायक वे 2009 में ही बन गए थे। वे नागपुर के मेयर भी रहे हैं, जहाँ भाजपा की वैचारिक गुरुकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का मुख्यालय भी है।
प्रमोद महाजन की हत्या के बाद भाजपा में महाराष्ट्र के जिन नेताओं का जलवा रहा उनमें एक नागपुर के ही नितिन गडकरी हैं। दूसरे गोपीनाथ मुंडे की 2014 में केंद्र में पार्टी की सरकार बनने के बाद सड़क दुघर्टना में मृत्यु हो गई।
2014 के सामान्य चुनावों से पहले मैं पत्रकारिता करने के लिए इंदौर से मुंबई पहुँचा था। पहली बार फडणवीस का नाम मैंने भी तभी सुना। इस नाम की धमक मुझे लोकसभा चुनावों के बाद अनुभव हुई। 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले एक नारा चला था,
केंद्र में नरेंद्र, महाराष्ट्र में देवेंद्र
शुरुआत में मुंबई में भी कोई इस नारे को गंभीरता से नहीं ले रहा था। इसे फडणवीस के कुछ उत्साही समर्थकों का कैंपेन बताया जा रहा था। कारण था कि तब बाल ठाकरे की पार्टी दो फाड़ नहीं हुई थी। भाजपा से उसका गठबंधन नहीं टूटा था। महाराष्ट्र में एनडीए के चुनाव जीतने पर मुख्यमंत्री पद शिवसेना को मिलना तय माना जा रहा था।
लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सीट बँटवारे पर मतभेद हुआ और 25 साल पुराना शिवसेना-भाजपा गठबंधन टूट गया। अचानक यह नारा राजनीति का केंद्र बन गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद उस चुनाव में भाजपा का जो चेहरा सबसे अधिक दिख रहा था, वह देवेंद्र फडणवीस का ही था।
नतीजे आए तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं था। चुनाव के तीन महीने बाद शिवसेना ने महाराष्ट्र में पहली बार भाजपा नेतृत्व स्वीकार कर देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में एनडीए की उस सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा भी किया। फडणवीस की रणनीति की पहली चुनावी परीक्षा थी। इस परीक्षा में वे पास ही नहीं हुए, शिवसेना को ‘छोटा भाई’ बना उन्होंने खुद को स्थापित भी किया।
2019 के विधानसभा चुनावों के बाद उद्धव ठाकरे के मन में दबी आकांक्षाएँ जिस तरीके से उभरी, उसे पूरा करने को जैसे उन्होंने कॉन्ग्रेस की गोद में भी बैठने से संकोच नहीं किया, जिस लक्ष्य को प्राप्त करने को उन्होंने उस हिंदुत्व की विचारधारा तक की तिलांजलि दे दी जो बाल ठाकरे और शिवसेना की पूँजी थी, उससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फडणवीस का राजनीतिक-रणनीतिक कौशल किस श्रेणी का होगा कि शिवसेना उनके पहले कार्यकाल में पिछलग्गू बनकर चलती रही।
बावजूद फडणवीस को वह श्रेय नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे। महाराष्ट्र की सारी सफलताएँ उसी तरीके से नरेंद्र मोदी के मुकुट में जोड़ दी गईं, जैसे देश के अन्य हिस्सों में भाजपा के उद्भव को जोड़ा गया। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब अजित पवार के साथ रातोंरात सरकार बनाने का दाँव फेल हो गया, उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में एनसीपी-कॉन्ग्रेस वाली महाअघाड़ी ने सरकार बना ली तो फडणवीस के इस कौशल का खूब मजाक भी बना।
इतना ही नहीं कई मौकों पर उनको उनकी पत्नी की रील के लिए भी ट्रोल किया गया। पर फडणवीस इन बाधाओं से टूटे नहीं। वे एक-एक रणनीतिक चाल चलते रहे। फिर आया जून 2022 का वह महीना जब उद्धव की शिवसेना टूट गई। एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने। तब भी जब देवेंद्र फडणवीस को उपमुख्यमंत्री बनकर उनकी कैबिनेट में शामिल होना पड़ा तो भाजपा का भी एक धड़ा उनके राजनीतिक अवसान की कहानियाँ गढ़ने लगा।
पर 2024 का नवंबर बीतते-बीतते फडणवीस ने ऐसी सारी कहानियों को अकेले दम ढहा दिया। अपनी उस भविष्यवाणी को सही साबित कर दिखाया जिसमें उन्होंने अपने त्यागपत्र के बाद दुष्यंत कुमार को उद्धृत किया था;
मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बसा लेना । मैं समंदर हूँ, लौटकर वापस आऊँगा !!
2024 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने महाराष्ट्र ने अपनी सबसे बड़ी जीत दर्ज की। पार्टी जिन 149 सीटों पर लड़ी, उनमें से 132 पर वह जीती। 89 प्रतिशत के स्ट्राइक रेट से। वह भी उस लोकसभा चुनाव के करीब 4 महीने बाद ही, जिसमें महाराष्ट्र में महायुति का आधार तक खिसक चुका था।
विधानसभा चुनाव के नतीजों का संदेश भले यह था कि बहुमत से 13 सीट दूर खड़ी भाजपा ही अगली सरकार का नेतृत्व करें। लेकिन कुछ दुविधा भी थी। जैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के गणित से सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना भाजपा की मजबूरी है। शायद इसी मजबूरी के कारण शिंदे कई दिन फैसला लटकाने में सफल रहे।
दूसरा करीब-करीब इसी स्ट्राइक रेट से 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा ने सफलता हासिल की थी, लेकिन आज भी वह बिहार में नीतीश कुमार की छाया से बाहर नहीं निकल सकी है। तीसरी, पिछले ही साल मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत के बाद भी शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने मौका नहीं दिया, ऐसी ही अटकलें कुछ लोग देवेंद्र फडणवीस को लेकर भी लगा रहे थे। यहाँ तक कि वर्तमान राजनीतिक हालातों का हवाला देकर कुछ लोग फडणवीस की जाति (ब्राह्मण) को भी उनके मुख्यमंत्री चुने जाने की राह की बाधा प्रचारित कर रहे थे।
4 दिसंबर को जब भाजपा विधायक दल ने अपना नेता चुना तो इसने साबित कर दिया कि जितने भी कारण विरोध में गिनाए जा रहे थे, सबको फडणवीस ने अपने रणनीतिक कौशल से अपना पक्ष बना लिया। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को यह मानना पड़ा कि महाराष्ट्र की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में फडणवीस ही ‘चाणक्य’ हैं।
दुबे भी इसकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने कहा, “भले विधानसभा चुनाव महायुति ने जीता है। लेकिन वोट लोगों ने भाजपा को देखकर दिया है। देवेंद्र फडणवीस को देखकर दिया है, जिन्होंने राज्य में सबसे ज्यादा रैलियाँ की। पूरी चुनावी कमान उनके ही हाथों में थी। ऐसे में मतदाताओं की भावनाओं के सम्मान को उनको मुख्यमंत्री बनाना जरूरी था।”
उन्होंने बताया कि गठबंधन सरकार होने के कारण भी भाजपा के लिए एक ऐसा चेहरा चुनना जरूरी था जो एकनाथ शिंदे और अजीत पवार दोनों से समन्वय स्थापित कर चल सके। किसी नए चेहरे को इन दोनों के साथ समीकरण बैठाना आसान नहीं होता। इसके अतिरिक्त लोकसभा चुनाव में हार के बाद जिस तरह से उन्होंने राज्य में पार्टी को फिर से खड़ा किया, जिस तरह से संघ पूरी ताकत से जुटा, यह भी फडणवीस के पक्ष में गया है।
समर्थकों के बीच ‘देवा भाऊ’ के नाम से मशहूर फडणवीस ने पार्टी के प्रति जिस तरीके से समर्पण दिखाया, जैसे एक-एक आदेश (मसलन शिंदे का उपमुख्यमंत्री बनना) का कार्यकर्ता के तौर पर पालन किया है, उसने भी मुंबई से दिल्ली तक पार्टी के भीतर विरोधियों के मौजूद रहने के बाद भी फडणवीस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसेमंद बनाया है।
इसके अलावा बिहार की उस सीख ने भी भाजपा नेतृत्व को फडणवीस को चुनने की प्रेरणा दी होगी जिसे वह आज भी भोग रही है। बिहार में भी कभी भाजपा ने खुद से स्टीयरिंग नीतीश कुमार को थमाई थी। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का एक निहितार्थ यह भी था कि भले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार हैं, लेकिन मतदाताओं का मानना था कि राज्य में जो बेहतर बदलाव हुए हैं उसके पीछे की फोर्स भाजपा ही है।
भाजपा ने इस निहितार्थ को पढ़ने की कभी कोशिश नहीं की और उसके बाद कई चुनाव हुए भाजपा 2010 के स्ट्राइक रेट की तरह बिहार में सफलता हासिल नहीं कर पाई। नीतीश के राजनैतिक (कु) प्रयोग का दोष उसके भी मत्थे गया। भले पिछले ढाई दशक में भाजपा ज्यादातर समय बिहार की सत्ता में रही है, लेकिन उसके पास प्रदेश स्तर पर कोई भी ऐसा नेता नहीं जो अपने दम पर पार्टी को चुनाव जीता सके। यदि आज भाजपा महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को नहीं चुनने या एकनाथ शिंदे का पिछलग्गू बने रहने का ही भूल करती तो आने वाले वर्षों में उसे महाराष्ट्र में भी इसी तरह के संकट से जूझना पड़ सकता था।
अब भाजपा ने तय कर दिया है कि जब भी उसकी दूसरी पीढ़ी के नेताओं की गिनती होगी तो वह योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्वा सरमा के साथ-साथ देवेंद्र फडणवीस का नाम लेने के बाद ही पूर्ण होगी।
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